खु2000०0000000707000:070006%020070%00070:0% हे न ी ई्‌ बोर सेवा मन्दिर ६ रा हे रा कि, दिल्ली हि रॉ ॥24 ह 3 रे रॉ 2 १५ डॉ कि कल न अ€ था नह आह ल्‍्‌ #% क्रम संख्या .. पे किक के ५ पा कक्राइई - हर रे काल न« क्र्षः के 4 अल टिन्न्नक 2 थम पक पट कै पृ श %% ४ ४(॥%४९४९४(३४७४४५५४)६:)७४६३४८)६)७८४४४ ४९ ्‌ 72% ओऔजिनदसूरिप्राचीनपुखकोद्धारफण्ड ( सुरत ) प्रन्थाहु... ४५. ॥ अदग्‌ ॥ ओऔखरतरगच्छगगनावभासक-यवनसमाट्सुठतानमइम्मदप्रतियोधक- महाप्रभावक-श्रीमजिनप्रभसूरिकृता विधिमागेप्रपा सुविहित सामाचारी । “5-6 88ै६४---- शी'सिंधीजेनप्रस्यमाऊा'-“जनसाहित्यसंशो घकप्रन्थमाछा' - 'पुरातत्वमन्द्रिधन्थावलि!-' भारतीय विदापरध्या- चढ्टि'-दत्यादिनानाग्रस्थश्रेण्यन्तगत-प्राकृत-संस्क्ृत-पाली -अपक्ंश-हिन्दी-गुजराती भाषा भूषितानिकानेक- भ्रश्यसमूहसंशो घन-संपादनकायेनिऐन तयेव भाण्डारकरप्राष्यविद्यासंशोघनसन्दिर-( कूगा )- शुजरातसाहिश्यसभा ( अमदाबाद )-संप्राप्ततम्मान्यसदस्यपद-द्रादशगुजरासीसाहिख- सम्मेकनायोजित-इतिहास-पुरातस्‍स्वदिसागप्राप्ताध्यक्षस्थान-प्रथ्ममराजस्थान हिन्दी - साहिझसम्मेझन ( डदयपुर ) समपिष्टितप्रधानसभापतिस्वादियाता- जिधवास्यप्रवृक््या विद्ु्मण्डलसुप्रतिष्ठेय सुनिजनविनेयेन श्रीजिनविजयेन विविधपाठान्तर-परिशिष्टादिभि: समलह्भ॒त्य संपादिता साथच खरतरगचछाचाय्येवय्येभीमजिनकृपाचन्द्रस्री श्वरशिष्यरत्न-उपाध्यायपदा लछूत- श्रीमत्‌-सुखसागरजीसुनिवरकूतोपदेशात्‌ भ्रेष्टिवय्ये-रायघदादुर-केशरिसिंह-बुद्धिसिह,-जेठाभाई-कसल चन्द,-हरजीवन-गोपालजी इत्यादिश्राद्धवर्यर्विहितेन द्रव्यसाहास्येन अगतोपाह-जह्ेरी-सूलचन्द्र-हीराचन्द्रेण मुम्बस्थां निर्णेसागराख्यमुद्रणयच्रालये मुद्रापयित्वा प्रकाशिता । विकमसंचत्‌ ९९९७ [ प्रतयः ५०० वितीर्णीकृताः है, सन्‌ १९४१ विधिप्रपाके द्रव्यसाहाय्यक महाहायोंकी शुभ नामावली- ३५१) रायबहादुर, दिवानवहादुर, केशरीसिंदहजी-बुद्धिसिंदजी, रतलाम. २५१) सेठ जेठाभाई कसलरूचन्द, जञामनगर. ( काठियाबाड ) २०१) सेठ हरजीवन गोपालजी, जामनगर. ( काठियाबाद्ध ) १००) सेठ छघुरामजी आसकरण, छोद्दावट. ( मारवाड ) ६१) सेठ हृजारीमछ केंबरछाल, लछोहावट. ( मारवाड ) ६१) सेठ जीवराज अगरचन्द, फछोधी ( , ) ५१) सेठ छक्ष्मीचंद संखलेचा, जाबद. (मालवा ) जे एप्छते फए 7#क९ाप जैपोीलाकावे पि78०४००व० 02888, का &98ए77 5ज़धााय 8 7'टगए७9, रएक्फ्रपणां छ0प्रकए, शत 08१ एए फिक्ा008:5 079 ४65५ 5॥0 089, ७४ 6 'षए8फ&- 88290 +*999, 26-28 ६ 0१80 80766, 80॥7 089. जे पुस्तक मिलनेका पता- श्रीजिनदत्तसूरिज्ञानभण्डार 'ठि० ओखसवाल मोहल्ला, गोपीपुरा सुरत (4० गुजराव ) निवेदन किडलकनानमममडदरमि०००० नि. भारतीय साहित क्षेत्र में जैन साहिय का खान सर्वोपरि है। जैन साहिय - में विविधता है, मधुरता है और अनेक दृष्टियों से महत्त पूर्ण है । अपूर्णता इस बात की है कि जैन साहित्य चाहिए वैसे अच्छे ढंगसे बहुत ही कम प्रकाशित हुआ है | आज के इस परिवत्तेन-शील युग में यह बात बताने की आवश्यता नहीं है कि मानव जीवन में साहिलय का खान कितना ऊंचा है । धार्मिक इत्यादि उन्नति एक मात्र साहित्य पर निर्भर है। साहित्य मानव जीवन के महत्लपूर्ण अंगों में से है । जैनधर्म के विधि-विधान के प्राचीन ग्रंथों में विधि-मार्ग प्रषा का स्थान अत्यन्त महत्तपूर्ण है । यह जान कर बड़ी प्रसन्नता होगी कि श्रीखरतरगच्छालंकार अनेक ग्रंथ निमोताश्री जिनप्रभ सरि जी जैसे अद्वितीय विद्वान महापुरुष की प्रस्तुत कृति पुज्यगुरूवय्ये 5० सुखसोगरजी मा० की शुमेच्छानुसार भारतीय इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान्‌, विविधवाद्ययोपासक एवं विविध ग्रंथमालाओं के सम्पादक, साक्षरवर्य श्रीमान्‌ जिनविजयजी द्वारा सुसम्पादित हो कर प्रकाशित हो रही है जो सचग्रुव॒ प्रत्येक साहिस्यश्रेमि के लिये हर्षका विषय है । साथ ही में बीकानेर निवासी श्रीयुत अगरचंदजी ओर भंवरलालज़ी नाहटा लिखित प्रस्तुत कृति के निमोता का .. जीवनबृत्त संयोजित होनेसे ग्रंथ की महत्ता ओर भी बढ़ गई है । उक्त तीनों महाशयों को हृदय पूर्वक धन्यवाद देते हैं ओर इस कृति के प्रकाशन में जिनजिन महालुभावोंने द्रव्य विष- यक सहायता पंहुचा कर जो प्रशंसनीय काये किया हैं वह आदरणीय नहीं अनुकरणीय है । प्रस्तुत ग्रन्थ में से हंसक्षीर न्‍्यायानुसार सार ग्रहण कर सम्पादक महाशय के महान्‌ परिश्रम की सफल करेंगे यही शुभेच्छा । वि. सं, १९९८, अक्षय ततीया | शुभेच्छक, सिवनी (सी. पी.) ' मुनि मंगल सागर. विधिप्रपागतविषयानुक्रमणिका । ७०-+-+---व्यर 0 00000770०---7 संपादकीय प्रस्तावना पू, अ-ऐ | - सूयगर्डंगविही श्रीजिनप्रभसूरिका संक्षिप्त जीवनच रित्र १-२१ - ठाणंगविही जिनप्रभसूरिकी परम्पराके प्रशंसात्मक कुछ गीत और पद्‌ १ सम्मत्तारोवणबिही २ परिग्गहपरिमाणविही ३ सामाश्यारोवणविही ह सामाइयग्गहण-पारणविही ५ उवहाणनिक्खिवणविही - पंचमंगरूडबहाण ६ उवद्दाणसामायारी ७ उवद्दाणविही ८ मालारोवणविही ९ उवहाणपहइटद्वापंचासगपगरण १० पोसहविद्दी ११ देवसियपडिकमणविही १५ पक्खियपडिफकमणबिही १३ राइयपडिक्रमणविदही १४ तबोविही १५ नंदिरयणाविही १६ पवज्ञाविही १७ लोयकरणविद्दी १८ उबओगविही १९ आइमअडणविही २० उवद्वावणाविही २१ अणज्ञायविही २२ सज्ञायपट्टवणविददी २३ जोगनिक्खेवणविही २४ जो गबि ही - दसवेयालियजोगविही - उत्तरज्ञयणजोगविही - आयारंगविद्दी -- समवायंगविही २२-२४ | - निसीहाइच्छेयसुत्तविही नव - भगवईजोगबिदी ४-६ | - नायाधम्मकहांगविही ६। - उवासगद्संगविही ६ | - अंतगडदसंगविदी ६-९। - अणुत्तरोववाइयदसंगविदी ९ | - पण्दहावागरणंगविद्दी १० । - विवाससुयंगविद्दी १२-१४ | - ओवाश्याइ-उबंगविही' १५-१६ | - पहण्णगविही १६-१९ | - महानिसीहजोगविही १९-२२ | - जोगविहाणपयरणं २३ | २५ कप्पतिप्पसामायारी २३ | २६ वायणाविही २४ | २७ बायणारियपयद्वावणाविद्दी २५-२९ | २८ उवज्यायपयट्टावणाविही २९-३३ [२९ आयरियपयदट्टावणाविदी ३४-३५ | - पवत्तिणीपयद्वावणाबिद्दी ३६ | ३० महत्तरापयटद्टवावणाविद्दी ३७ | ३१ गणाणुण्णाविद्दी ३७ | ३२ अणसणविही ३८-४० | ३३ महापारिद्वावणियाविही ४०-४२ | ३४ आलोयण वि ही ४२--४७४ | - णाणाइयारपच्छित्तं ४४-४६ | - दंसणाइयारपच्छित्त ४६-६२ | - मूलगुणपायच्छित्ते ४९ | - पिंडालोयणाविद्याणपगरणं ५० | “ उत्तरगुणाइयारपच्छित्तं ५१६ - विरियाइयारपच्छित्तं 99 ५८-६२ ६२-६४ घ्छ ६५ ६६ ६६-७१ ७९ ७१-७७ ७४-७६ ७७ ७७--७ ९१ ७९--९७ ९१ डक ८२-८६ ८८ ८८ 6 विधिप्रषागतविषयानुक्रमणिका ३४ देसविरइपायरिछ्त्त » आडलोयणगहणविद्दीपगरण ३५ पह॒ट्टाविही - प्रतिष्ठाविधिसंप्रहगाथा - अधिवासनाधिकार - नन्यावर्तलेखनविधि - जलानयनविधि - कलछशारोपणविधि - ध्वजारोपणविधि - भप्रतिष्ठोपकरणसंप्रह - कूर्मप्रतिष्ठाविधि « प्रतिष्ठासंग्रहकाव्यानि - प्रतिष्ठाविधिगाथा - कथारन्रकोशीय ध्वजारोपणबिधि €८८«९३ ९३-९७ ९७-११४ १०३ १०४ १०५ १०६ १०८ १०९ १०९ ११० १११ ११२। ११४ ३६ ठवणायरियपइट्टाबिही ११४ ३७ मुद्राविधि ११४-११६ ३८ चउसट्टिजोगिणीउबसमप्पयार ११७ ३९ तित्यजत्ताबिही ११८ ४० तिद्दिविद्दी ११६९ ४१ अंगविज्ञासिद्विविही ११९ - भ्रन्थप्रश्नस्ति १२० - प्रन्थकारकृत देवपूजाविधि १२१-११७ - जिनप्रभसूरिक्ृता ग्राभातिकनामावली १२८ - » स्तुतित्रोटकाविस्तोत्र १२९९-१११ - विधिप्रपाग्रन्थान्तगेत-अब॒तरणात्मक- पद्मानां अकारादिक्रमेण सूचि: १३२-१३४ - विशेषनाम्नां सूचिः १३५ पा ) हि ्ी हलक कक पु "77 7 छऋ 75:४० लक: ष- 2 ५६0 भिस््य हे प्ब्् कध्य कै! के हि हा डे 5 [०५ श्र ७) ्‌ 49 ५४2 ३ ध्झु 8४ ही » 2 कट डएट / ही श्रीमज्िनप्रभसूरिमूर्तिप्रतिकृति संपादकीय प्रखावना संपादकीय प्रस्तावना । सिंषी जैन प्रग्थ माछामें प्रकाशित श्रीजिनप्रभयूरिक्तत विविधतीर्थकरप नामक अद्वितीय अछ्यका .._ झंपादन करते समय ही हमारे मनमें इनके बनाये हुए्‌ ऐसे ही महर्वके इस विधिप्रपा नामक प्रस्थकां संपादन करनेका भी संकदप हुआ था और इसके लिये हमने इस अन्थकी हइस्तछिखित प्रतियाँ सी हकड़ी करनेका प्रयत्ष करना आरंभ किया था। इतनेमें, संवत्‌ १९९५ में, बंबईके महावीर स्वामीके मन्दिरमें चातुर्मासार्थ रहे हुए सौम्यमूर्ति उपाध्यायवर्य श्रीसुखसागरजी महाराज व उनके साहित्यप्रकाशनगप्रेमी शिष्यवर श्रीमुनि मंगऊसागरजीसे साक्षात्कार हुआ, और प्रासह्षिक वार्ताछाप करते हुए इमने इनके पास विधिप्रपाकी कोई अध्छी प्रतिके होनेकी पृष्छा की । इस पर उपाध्यायजी महाराजने इच्छा प्रकट की कि-““दूस प्रग्थकों प्रकाक्षित करनेकी तो हमारी सी बहुत समयसे प्रयक इच्छा हो रही हे और यदि आप इस कामको हाथमें लें तो हमारे लिये बहुत ही आनन्द और अभिमानकी बात होगी; भोर हम श्रीजिनदत्तसूरि-प्राचीन-पुस्तकोद्धार फण्ड की ओरसे इसके प्रकाशित करनेका बड़े अमोदसे प्रबन्ध करेंगे!”-इहत्यादि । चूं कि यद अन्य खरतर गच्छके एक बहुत बड़े प्रभाविक आचार्यकी प्रमाणभूत कृति है और इसमें खास करके इस गच्छकी सामाचारीके सम्मत विधि-विधानोंका दही गुम्फन किया हुआ है इसलिये यदि यह भ्रीजिनदत्तसूरि-प्राचीन-पुस्तकोद्ध(र-प्रन्थावलिमें गुम्फित हो कर प्रकाशित हो तो और सी विशेष उचित और प्रशस्त होगा- ऐसा सोच कर हमने उपाध्यायजी महाराजकी आदरणीय हृच्छाका सहर्ष स्वीकार कर लिया और इनके सौजन्यपूर्ण सोहार्दभावफे वच्ीभूत हो कर हमने, इस अन्थका यद्द प्रस्तुत संपादन कर, इनकी ख्रेहाद्वित भाज्ञाका, इंस भ्रकार यथाशक्ति सादर पालन किया। उपाध्यायजीकी यह प्रबल उत्कंठा थी कि इनके बंबईके वर्षानिवास दृरम्यान ही इस प्रन्थका प्रकाशन हो जाय तो बहुत ही अच्छा हो, पर हम हसको इतना शीघ्र पूरा न कर सके। क्यों कि हमारे हाथमें सिंधी जैन अन्यथमालाके अनेकानेक अन्थोंका समकालीन संपादनकार्य भरपूर होनेके अतिरिक्त, बम्बईमें नवीन प्रस्थापित भारतीय विद्या- भवनकी ग्रन्थावलि और “भारतीय विद्या! नामक संशोघन विषयक प्रतिष्ठित श्रमासिक पत्रिकाका विशिष्ट संपादन- कार्य भी हमारे ऊपर निर्भर है, इसलिये प्रस्तुत प्रस्थके संपादनसें कुछ विलुब होना अनिवाये था। रह ग्रन्थका नामाभिधान । इस ग्रन्थका संपूर्ण नाम, जैसा कि अम्थकी सबसे अन्तकी गाथामें सूचित किया गया है, विधिमागेप्रपा नाम सामाचारी ( विद्विमग्गपवा नाम सामायारी, देखो ए० १२०, गाथा १६ ) ऐसा है। पर इसकी पुरानी सब प्रतियोमें तथा अन्‍्यान्य उछ्लेखोंमें भी संझ्षेपमें इसका नाम “विधि श्रपा' ऐसा ही प्रायः लिखा हुआ मिलता है; इसलिये हमने भी मूल ग्रन्थमें हसका यददी नाम सर्वत्र मुद्रित किया है; पर वास्तवमें प्रन्थकारका निजका किया हुआ पूर्ण नामाभि- धान अधिक अन्वर्थक और संगत मालूम देता है, इसलिये पुस्तकके मुखपृष्ठ पर यह नाम मुद्रित करमा अधिक उचित समझा है । इस 'विधिमागे' शब्द्से प्रन्यकारका खास विशिष्ट अभिप्राय उद्दिष्ट है। सामान्य अर्थमें तो 'विधिमागे' का “क्रयामागे' ऐसा ही अर्थ बिवक्षित होता है, पर यहांपर विशेष अर्थमें खरतरगच्छीय विधि-फ्रिया-मारगे ऐसा भी स्रथे असिप्रेत है। क्‍यों कि खरतर गच्छका दूसरा नाम विधि मा गे है और इस सामाचारीसें जो बिथि-विघान प्रति- पादित किये गये हैं वे प्रधानतया खरतर गच्छके पूर्व आचायों द्वारा स्वीकृत और सम्मत हैं। इन विधि-विधानोंकी प्रक्रियामें और और गच्छके आचायोंका कहीं कुछ मतभेद हो सकता है ओर हे भी सदी । अतएवं अन्थकारने स्पष्ट रूपसे इसके नाममें किसीको कुछ आनिति न हो इसलिये इसका “विधिमा रण प्र पा! ऐसा अम्वर्थक नामकरण किया है । तदुपरास्त, अन्थकारने, ग्रन्थकी प्रशस्तिकी प्रथम गायामें, यह भी सूचित किया है कि-'मिन्र सिन्न गच्छोंमें प्रवर्तित अनेकबिध सामाचारियोंकों देख कर शिष्योंको किसी प्रकारका मतिभ्रम न हो इसलिये अपने गच्छकी प्रतिबद्ध ऐसी यह सामाचारी हमने लिखी है ।' इसलिये हलका यह 'विघिमार्ग प्रपा' नास सर्वथा सुन्दर, सुसंगत ओर वस्तुसूचक है ऐसा कहनेमें कोई अत्युक्ति नहीं होगी । भा ह विधिप्रपा इस ग्रन्थकी विशिष्टता । यों तो भीजिनप्रभ सूरिकी-जैसा कि इसके साथमें दिये हुए उनके चरित्राप्मकू निवन्‍्धसे शात होता है- साहित्यिक कृतियां बहुत अघिक संख्यामें उपऊब्ध होती हैं; पर उन सबसें, इनकी ये दो कृतियां सबसे अधिक सह- स्वकी ओर मौलिक हैं - एक तो “विविध तीथे कल्प; और दूसरी यह 'विधिमागेप्रपा सामाचारी | 'विविधतीर्थ कहप! नाभक अन्थके महर्वके विषयमें, संक्षेपर्में पर सारभूत रूपसे, हमने अपनी संपादित आदुत्तिकी भस्तावनामें लिखा है, इसलिये उसकी यहांपर पुनरुक्ति करनेकी कोई आवश्यकता नहीं। यह विधिप्रपा भव्य केसा भहस्वका शास्त्र हे इसका परिचय तो जो इस बिषयके जिज्ञासु ओर मर्मश् हैं उनको इसका अवछोकन और अध्ययन करनेहीसे ठीक ज्ञात हो सकता है। श्व० जमभेन विद्वान भो० वेबरने जो 'सेकेड बुकस्‌ ऑफ दी जैनस! इस नामका सुप्रसिद्ध और खुपठित ऐसा जैनागमोंका परिचायक मौलिक निवन्ध लिखा है उसमें मुख्य आधार इसी अन्यका छिया है । न प्रन्थका रचना-समय । जिनप्रभ सूरिने इस ग्रन्थकी रचना समाप्ति वि. सं. १६६३ के विजयादशमीके दिन, कोशलछा अर्थात्‌ अयोध्या नगरीमें की है | इसकी प्रथम प्रति उनके प्रधान शिष्य वाचनाचाये उदयाकर गणिने अपने हाथसे लिखी थी । यह कृति डनकी प्रौदावस्थामें बनी हुईं प्रतीत होती हे । जैसा कि उनके जीवनचरित्रविषयक उछेखोंसे ज्ञात होता है, उन्होंने थि. सं. १३२६ में दीक्षा ली थी; अतः इस ग्रन्थके बनानेके समय उनका दीक्षापयाय प्रायः ३७ वर्ष जितना हो चुका था। इस दीघे दीक्षाकालमें उन्होंने अनेक प्रकारके विधि-विधान स्वयं अनुष्ठित किये होंगे और सेंकडों ही साधु, साध्वी, भावक और ध्राविकाओंको कराये होंगे, हूसलिये उनका यह प्रस्थसन्दभे, खय अनु भूत एवं शास्त्र ओर संप्रदायगत विश्षिष्ट परंपरासे परिज्ञात ऐसे घिधानोंका एक प्रमाणभूत प्रणयन है । इसमें उन्होंने जगह जगह पर कई पूर्वायायोंके कथनोंको उललिखित किया है और प्रसज्ञवश कुछ तो पूरे के पूरे पूर्वरचित प्रकरण ही उद्धृत कर दिये हैं । उदाहरणके लिये- उपधानविधिमें, मानदेवस्खूरिकृत पूरा 'उवहाणविही” नामक प्रकरण, जिसकी ५४ गायायें हैं, उद्धुत किया गया है। उपधानत्रतिष्ठा प्रकरणमें, किसी पूर्वांचायंका बनाया हुआ “उवहाण- पहइद्वापंचासय' नामक प्रकरण अवतारित है, जिसकी ५१ गाथायें हैं। पौषधविधि प्रकरणमें, जिनवल्लभसूरिकृत विस्तृत 'पोसह॒विद्ििपयरण का, १७५ गाथाओंमें पूरा सार दे दिया हे। नन्दिरिचनाविधिमें, ३६ गाथाका “अरिटा- णादिशुत्त' उद्धृत किया है। योगबिघिमें, उत्तराध्ययनसूत्रका “असंखरय' नाम १३ पद्योंबाला ४ था अध्ययन उद्धृत कर दिया है। प्रतिष्ठाविधिमें, चन्द्रसूरिकृत ७ प्रतिष्ठा संग्रहकाब्य, तथा कथारक्षकोश नामक ग्रन्थमेंसे ५० गाथावाछा “ध्यजारोपणविधि' नामक प्रकरण उद्धुत किया गया है। और प्रब्थके अन्तमें जो अंगविद्यासिद्धिविधि मासक प्रकरण है वह सैद्धान्तिक विनयचन्द्रसूरिके उपदेशसे लिखा गया है। हस प्रकार, इस ग्रन्थमें जो विधि- विधान प्रतिपादित किये गये हें थे पूर्वाचायोके संप्रदायाजुसार द्वी लिखे गये हैं, न कि केवल स्वमतिकश्पनानुसार - ऐसा अस्थकारका इसमें स्पष्ट सूचन है। जिनको जैन संप्रदायगत गण -गच्छादिके मेदोपमेदोंके इतिहासका अच्छा ज्ञान हे उनको ज्ञात हे कि, जैन मतसें जो इतने गइछ और संप्रदाय उत्पन्न हुए हैं और जिनमें परस्पर बड़ा तीज विरोधभाव ब्याप्त हुआ ज्ञात होता है, उसमें मुख्य कारण ऐसे विधि-बिधानोंकी प्रक्रियामें मतमेद का होना ही है। केवल सेद्धान्तिक या तारिवक मतसेदके कारण वैसा बहुत ही कम हुआ है। मै ग्रन्थगत विषयोंका संक्षिप्त परिचय । जैसा कि इसके नामसे ही सूचित होता है - यह अन्य, साधु और आवक जीवनमें कतेव्य ऐसी नित्य और नैमि- सिक दोनों ही प्रकारकी क्रिया-विधियोंके मार्गमें संचरण करनेवाले मोक्षार्थी जनोंकी जिशासारूप तृष्णाकी तृत्तिके छिये एक सुन्दर 'प्रपा! समान है। इसमें सब मिला कर मुख्य ४१ द्वार यानि प्रकरण हैं । इन द्वारोंके नाम, ग्रस्थके जन्त्में, स्वयं झाखकारने ॥ से ६ तककी गाथाओोंमें सूचित किये हैं । इन मुख्य द्वारोंमें कहीं कहीं कितनेक अवाम्तर हार भी सम्मिलित हैं जो यधास्थान उल्लिखित किये गये हैं। इन अवान्तर द्वारोंका नामनिर्देश, हमने विषयाजुकमणिकासं कर दिया है । उदाइरणके तौर पर, २४ वें 'जोगविही' नामक प्रकरणसें, दृशवेकालिक ज्ञादि सब सूत्रोंकी योगोद्रहन- संपावकीय प्रशविना हैँ कियाका दर्जज करनेवाके सिश्ष सिश्न विधान-प्रकरण हैं; और ३४ थे 'आलोयणविद्वी' संशक भ्रकरणमें जानातिचार, दर्शनातिचार आदि भाऊोचना विषयक अनेक सिन्र भिन्न अम्तर्मत प्रकरण हैं । इसी तरह ३७ वें 'पह्ट्राविद्वी! नामक प्रकरणमें जकानववविभि, ककशारोपणविधि, ध्वज्ारोपणविधि-भआादि कई एक आजुर्धशिक विधभियोंके स्वतंत्र प्रकरण सब्निबिष्ट हें ! इन ४१ द्वारों - प्रकरणोर्सेसे प्रथमके १२ द्वारोंका विषय, मुख्य करके भ्रावक जीवनके साथ संबंध रखनेवाली क्रिया-विधियोंका विधायक है; १४ वें द्वासे ले कर २९ में द्वार तकसें विहेत क्रिया-विधियां प्रायः करके साधु जीवनके साथ संबंध रखतीं हैं और भागेके ६० वें द्वारसे छेकर अस्तके ४१ में द्वार तकसें वार्णित क्रिया-विधान, साथु और आवक दोनोंके जीवनके साथ संबंध रखनेवालीं कतेब्यरूप विधियोंके -संग्रादक हैं । यहां पर संक्षेप्ें इन ४१ ही द्वारोंका कुछ परिचय देना उपयुक्त होगा। १ पहले द्वारमें, सबसे प्रथम, क्रावकको किस तरह सम्पक्त्वक्षत ग्रहण करना चाहिये- इसकी विधि बतकाई गई है। इस सम्यकक्‍त्वश्रतप्रहणके समय आवकके लिये जीवनमें किन किन नित्य और नेप्रित्तिक धमेकृत्योंका करना आवदयक हैं ओर किन किन धर्मप्रतिकूल कृत्योंका निषेघ करना उचित है, यह संझ्षेपर्मे अच्छी तरह बतलछाया गया है । २ दूसरे द्वारमें, सम्यक्ट्वज्॒तका अद्ण किये बाद, जब आवकको देशबिरति धतके अर्थात्‌ आवयकध्मके परिचायक ऐसे १२ बलोंके म्रहण करनेकी इच्छा हो, तव उनका ग्रहण कैसे किया जाय - इसकी क्रिया-जिनि बतकाई है। इसका नाम 'परिभप्रहपरिमाणविधि' है-फ्यों कि इसमें मुख्य करके श्रावकको अपने परिग्रह यानि स्थावर और जेगम ऐसी संपत्तिकी मर्यादाका विशेषरूपसे नियम छेना आवश्यक होता है और इसीलिये इसका दूसरा प्रधान नाम परिग्रहपरिमाणविधि रखा गया है। इसमें यह भी कद्दा गया है कि इस प्रकारका परिग्रहपरिमाणवरत छेनेबाले आवक या श्राविकाकों अपने नियमकी सूचिवाली एक टिप्पणी ( याढ़ी-सूचि ) बना छेनी चाहिये ओर उसमें नियमोंकी सूचिके साथ यह लिखा रहना चाहिये कि यह गत मेंने अमुक आजायंके पास अमुझ संयतके अमुक मास और तिथिके दिन ग्रहण किया है - इत्यादि । ह तीसरे हारमें, इस प्रकार देशविरति यानि श्रावक्र्मंवत लेनेके बाद आवककों कसी छ महिनेका सामायिक शत भी छेना चाहिये, यह कहा गया है और इसकी ग्रहणणिषि बतराई गई है । ४ चोथे द्वारमें, सामाग्रिकक्षतके अहण और पारणकी विधि कट्दी गई हे। बह विधि प्रायः सबको सुशात ही दे । ७. पांचवें द्वारमें, उपधान विषयक क्रियाका घिस्तृत वणेन और धिधान है। इसके प्रारंभमें कद्दा गया है कि- कोई कोई आचार्य इस प्रसंगमें, श्रावककी जो १२ प्रतिमायें शास्त्रोंमें प्रतिपादित की हुई हैं, उनमेंसे प्रथमकी ४ प्रतिमाओंका अदह्ण करना भी विधान करते हैं; परंतु, वह हमारे गुरुओंकों सम्मत नहीं है। क्‍यों कि शास्न- कारोंने ऐसा कद्दा है कि बतेमान काल्‍में प्रतिमाग्नरहणरूप आ्रावकधम ब्युच्छिन्रआय हो गया है, इसलिये इसका विधान करना उचित नहीं है । ६ उक्त उपधान भिधिमें, मुख्य रूपसे पंचसंगऊका उपधान वर्णित किया गया है, इसलिये ६ ठे द्वारमें उसकी सामाचारी बतराई गई है । ७ डपधान ठपकी समाप्तिके उद्यापनरूपसें माऊारोपणकी क्रिया होनी चाहिये, इसलिये ७ वें द्वारमें, विसारके साथ माझारोपणकी विधि बतलाई गई हे। इस दविधिमें मानदेवसूरिरधित ५४ गाथाका 'उव्ाणविही/ नामका हे प्राकृत प्रकरण, जो मद्यानिशीय नामक आगमभूत सिद्धाल्तके भाधार परसे रचा गया है, उद्धृत किया गया है। ४ इस महानिशीयथ सिद्धान्तकी प्रामाणिकताके लिषयर्में प्रादीन काझसे छुछ आवायोका विशिष्ट मतमेद अर जा रहा हे, ओर थे इस उपधानविधिको अनागम्िक कट्दा करते हैं, इसछिये ८ में द्वारमें, इस विधिके समर्थनरूप 'उचहाणपहदद्रापंचासय' (उपधघानअतिष्ठापंचाशक ) नामका ५३ गाभाका एक संपूर्ण प्रकरण, जो किसी पूदोचायेका बनाया हुआ है, उद्धृत कर दिया है। इस प्रकरणमें महानिशीभ सूत्रकी प्रामाणिकताका यथ्रेष् /तिपादन किया गया है । रू विधिप्रपां ९ सें द्वारमें, आवकको पर्वादिके दिन पोषध शत छेना चाहिये, इसका विधान है और इस बतके प्रहण- पारणकी विधि बतलाई गई है। इसके अन्तकी गायामें कहा हे कि श्रीजिनवल्भस्रिने जो पोषधविधि- प्रकरण बनाया है उसीके आधार पर यहांपर यह विधि लिखौ गई है । जिनको पिशेष कुछ जाननेकी इच्छा हो वे उक्त प्रकरण देखें । १० थें प्रकरणमें, प्रतिक्मणसामाचारीका वर्णन दिया गया है, जिसमें देवसिक, राज्िक और पाक्षिक (इसीमें चातुमोसिक और सांवस्सरिक भी सम्मिलित है ) इन तीनों प्रतिक्रणोंकी विधियोंका यथाक्रम वर्णन ग्रथित है। ११ वें द्वारमें, तपोबिधिका विधान है । इसमें कक्याणक तप, सर्वांगसुन्दर तप, परमभूषण, आयतिजनक, सोौभाग्यकस्पवृक्ष, इन्द्रियमय, कपायसथन, योगशुद्धि, अष्टकर्मंसूदून, रोहिणी, अँबा, श्ानपंचमी, नमन्‍्दीखर, सत्यसुखसंपत्ति, पुण्डरीक, माठ, समवसरण, अक्षयनिध्रि, वर््धमान, दवदन्ती, चन्द्रायण, भव्र, महाभव्र, भव्नोत्तर, सर्वेतो भद्र, एकादशांग-द्वादशांग आराधन, भ्रष्टापद, बीशस्थानक, सांवस्सरिक, अष्टमासिक, षाण्मासिक - दृश्यादि अनेक प्रकारके तपोंकी विधिका विस्तृत बणेन दिया गया है । इसके अस्तमें कहा गया है कि इन तपोंके अतिरिक्त कई छोक, माणिक्यभ्रसतारिका, मुकुटसप्तमी, अश्ताष्टमी, अविधवादशमी, गोयमपडिग्गह, मोक्षद्ण्डक, अवुक्ख- दिक्खिया, अखण्डद्शमी - इत्यादि नामके तपोंका भी आचरण करते दिखाई देते हैं; परंतु वे तप भागमधिहित न होनेसे हमने उनका यहांपर वर्णन नहीं दिया है । इसी तरह एकावली, कनकावली, रष्नावलछी, मुक्तावलछी, गुणरत्ष- संवतसर, खुड्डमहल सिंहनिक्कीलित आदि जो तप हैं उनका आचरण करना, अभी इस कालमें, दुष्कर होनेसे डनका भी कोई वर्णन नहीं किया गया है । १२ तप आदिकी उक्त सब क्रियायें नन्‍्दीरचनापूर्वक की जातीं हैं, इसलिये १२ वें द्वारमें, बहुत विस्तारके साथ नन्‍्दीरचनाविधि वर्णित की गई है | इसमें अनेक स्तुति स्तोन्न आदि भी दिये गये हैं । १३ वें द्वारमें, प्रमज्याविध्ि अथौव्‌ साधुधर्मकी दीक्षाधिघिका विशिष्ट विधान बताया गया है | १७ प्रत्ज्या लिये बाद साधथुकी यथासमय लोच (केशोरपाटन) करना चाहिये, इसलिये १४ वें द्वारमें, लोचक- श्णकी तिधि बतलाई गई हे । १५ प्रमजिदकों 'डपयोगविधि' पूर्वक ही शास्त्रोंमें भक्त-पानका प्रहण करना बिहित है, इसलिये १५ थें द्वारसें यह 'उपयोगतिधि! बतछाई गई हे । १६ इस तरह उपयोगविधि करनेके बाद, नवदीक्षित साधुको, सबसे प्रथम लिक्षा ग्रहण करनेके लिये जाना हो, तब कैसे और किस छझ्ुम द्निकों जाना चाहिये इसकी विधिके लिये, १६ थें द्वारमें, “आदिम-अटन-विधि'का वर्णन दिया गया है । १७-१८ नवदीक्षित साधुको आवश्यक तप और दशवैकालिक तप करा कर फिर डसे उपस्थापना (बडी दीक्षा) दी जाती है, और उसे मण्डलीमें स्थान दिया जाता है, इसलिये, इसके बादके दो प्रकरणोंमें, इस मंडली तप और डपस्थापना विधिका विधान बतछाया राया है । १५९ उपस्थापना होनेके बाद, साधुको सूत्रोंका अध्ययन करना चाहिये; और यह सूत्राध्ययन विना योगोह्दइनके नहीं किया जाता, इसलिये ३८ वें द्वारमें, योगोद्नहन विधिका सबविस्तर वर्णन दिया गया है । यह योगविधि हार बहुत बडा है। इसमें पहले स्वाध्याय करनेकी विधि बतलाई गई है; और यह स्वाध्याय कारूअहणपूर्वक करना विहित है, अतः उसके साथ कालग्हण करनेकी विधि भी कही गड्ढे हे। इसके बाद, आवश्यकादि प्रत्थेक सूत्रका प्रथकू पथ शपोविधान अतछाया गया है। दस विधानमें प्रायः सब ही सूत्रोंका संक्षेपर्म अध्ययनादिका निर्देश कर दिया गया दे । द्सके अन्तमें, इस समझ योगविधिका सूश्ररूपसे विवेशवत करनेबाऊछा ६८ गाथाका पूरा ओगविद्दाण” नामका प्रकरण दिया गया है, जो शानद अन्‍्थकारकी निजकी ही एक स्वतंत्र रचना है । संपादकीय प्रशावना हि २० यह योगोह्हन “कप्पतिप्प” सामाचारीकी क्रिपापूर्षक किया जाता दे, हसछिये २० दें हारमें, यह 'क्रष्पतिष्प” सामाचारी बतकाई राई हे । . २१ इस प्रकार कष्पतिष्पविधिपूर्षक योगोद्नृहन किये बाद, साधुको मूल प्रस्थ, नन्‍दी, अजुयोगड्वार, उत्तराध्ययन, ऋषिसाबित, अंग, उपांग, प्रकीणेक और छेद अम्थ आदि आगम शास्त्रोंकी वाचमा करमी चाहिये, इसकिये २१ में ह्वारमें, इस आगमवाचनाकी विधि बतकाई ग़ड है । २२-२६ इस तरह आगमादिका पूणे शञाता हो कर दिष्य जब यथायोग्य गुणवान्‌ बन जाता है, तो उसे फिर बाघ॑- भाचार्थ, उपाध्याय एवं आचार्य आदिकी योग्य पदवी प्रदान करनी चाहिये, और साध्वीको प्रवर्तिनी जथवा महत्तराकी पदवी देनी चाहिये | इसलिये अनन्तरके द्वारोंमेंसे ऋमशः - १२वें द्वारमें वाचनाथाय, २४ देंमें उपाध्याय, २४ येंसें आलार्य, २७ वेंसें महसतरा और २६ वेंसें प्रदर्तिनी पदके देनेकी क्रियाविधि बताई गई है। इस जिधिके प्रारंभमें यह भी स्पष्ट रूपसे कह दिया गया है कि किस योग्यतावाले साधुको वाचनाचार्य अथवा उपाध्याय एवं आचार्य आदिका पद देना उचित है। वाचनाचार्य अथवा उपाध्याय उसीको बनाना चाहिये, जो समग्र सूत्रार्थके प्रहण, धारण और व्याख्यान करनेमें समर्थ हो; सूत्रवाचनामें जो पूरा परिश्रमी हो; प्रशान्त हो और आचाये स्थानके योग्य हो। इस पदके धारकको, एक मात्र आचायंके सिवाय अन्य सब साधु साध्वी-चाहे वे दीक्षापयार्मे छोटे हों था . बड़े - वन्‍्तन करें । इस आधार्य पद़के योग्य ब्यक्तिका विधान करते हुए कहा है कि -जो साधु आचार, शझ्ुत, शरीर, जन, वाचना!, मतिप्रयोग, मतिसंप्रह और परिज्ञा रूप इन आठ गणिपदसे युक्त हो; देश, कुल, जाति और रूप आदि गुणोंसें अरं- कृत हो; बारह वर्षतक जिसने सूत्नोंका अध्ययम किया हो; बारह वर्षठक जिसने शाख्त्ोंके अर्थेक्षा सार प्राप्त किया हो और बारह वर्षतक अपनी शक्तिकी परीक्षाके निमित्त जिसने देशपर्यटन किया हो- वह आजाये बनने योग्य है ओर ऐसे योग्य ब्यक्तिको भाचार्यपद देना चादिये। नम्दीरचना आदि विहित क्रियाविधिके साथ, निर्णीत रूप्वमें, मूछाचाये इस नव्य आचायंको सूरिमश्न प्रदान करें | यह सूरिमन्न सूलमें भगवान्‌ महावीर स्वामीने २३०० अक्षरप्रमाण ऐसा गौतमस्वामीको दिया था और उन्होंने उसे ३२ कछोकके परिमाणमें गुम्फित क्रिया था। इसका काछक्रमके प्रभावसे हैा।स हो रहा है और अन्तिम आचार्य दुःप्रसहके समयमें यह २॥ छोक परिमित रह जायगा। यह गुरुमुखसे ही पढा जाता है - पुस्तकर्में नहीं लिखा जाता। ग्रन्थकार कइते हैं कि इस सूरिमज्षकी साधनाविधि देखना हो उसे हमारा बनाया हुआ 'सूरिमश्यकल्प' नामक प्रकरण देखना चाहिये। थह आचारयपद-प्रदानविधि बडा भावपूणे है। इसमें कहा गया है, कि जब इस प्रकार शिव्यकों आचार्य पद देनेकी विधि समाप्तपर होती है तब खुद सूल आयाय॑ अपने आसन परसे उठ कर शिक्ष्यकी जगह बैठें और शिष्य - नवीन पद धारक आश्ार्य - अपने गुरुके आसन पर जा कर बैठे। फिर गुरु अपने शिष्य - आचायको, द्वादशापर्तविधिसे वन्दन करें -- यह बतछानेके लिये कि तुम भी मेरे ही समान आचार्यपद़के घारक हो गये हो और इसलिये अन्य सभीके साथ मेरे भी तुम वन्दनीय हो । ऐसा कद कर गुरु उससे कहे कि, कुछ ब्याख्यान करो - जिसके उत्तरमें नवीन आ चार्य परिषद्के योग्य कुछ ब्याख्यान करे और उसकी समाप्तिमें फिर सब साधु उसे घन्दन करें। फिर चद्ट शिष्य उस शुरुके आसन परसे उठ कर अपने आसन पर जा कर बैठे, और गुरु अपने मूल आसन पर। बादमें गुरु, नदीन आचार्थ- को शिक्षारूप कुछ उपदेशवचन सुनावे जिसको “अनुशिष्टि'! कहते हैं । इस अनुशिष्टिसें, गुरु नवीन आचार्यको किन * किन बातोंकी शिक्षा देता है, इसका प्रतिषादन करनेके लिये जिनप्रभ सूरिने ७५ गाथाका पुक स्वतंत्र प्रकरण दिया है जो बहुत द्वी भावषाही और सारगर्भित है। आचार्यको अपने समुदायके साथ कैसा ब्यवहार रखना चाहिये और किस तरह गचछकी प्रतिपाकतना करनी चाहिये - इसका बडा सार्मिक उपदेश इसमें दिया गया है। आचायेको अपने खारित्रसे सदैव सावधान रहना चाहिये और अपने अजुवर्सियोंकी चारिश्ररक्षाका भी पूरा खयाऊ रखना चाहिये। सब को समदष्टिसे देखना चाहिये । किसी पर किसी प्रकारका पक्षपात न करना चाहिये । अपने और वृसरेके पक्षमें किसी प्रकारका विरोधभाव पेदा करे वैसा वचन कभी न बोलना चाहिये। असमाधिकारक कोई व्यजहार नहीं करना चाहिये। सच कपायोंसे मुक्त होनेके लिये सतत प्रयलवान्‌ रहना चाहिये - इत्यादि प्रकारके बहुत ही खुस्दर उपदेश-पचन कहे गये हैं जो बततेमानके नामघारी आचायोंके मनन करने बोग्य हैं क्र विधिग्रंषा इसी तरइका सुन्दर शिक्षावचनपूर्ण उपदेश महत्तरा और प्रवर्तिनी पद्‌ प्राप्त करनेबाली साध्वीके किये भी कहा गया है। अवर्तिनीको भजुशिष्टि देते हुए आचाये कहते हैं कि - तुमने जो यह महत्तर पद अहण किया हे इसकी सार्थकता तभी होगी जब तुम अपभी शिष्याओंको और अनुगामिनी साध्वियोंकों श्ञानादि सद्गुणोंमें प्रवरोेन करा कर, डैनके करडयाण पथकी मार्गेदर्शिका बनोगी। तुम्हें न केवल उन्हीं साथ्वियोंके हितकी प्रदृुति करनेमें प्रवर्तित होना चाहिये जो विदुषियां हैं, जिनका यडा खानदान है, जिनका बहुत बढ़ा स्वजनवर्ग है, एवं जो सेठ, साहुकार आदि घनिकोंकी पृत्रियां हैं; पर तुम्हें उन साध्वियोंकी हित-प्रवृत्तिमं भी वैसे ही प्रवर्तित होना कतेब्य है जो दीन भर दुःस्थित दशामें हों, जो अज्ञान हों, शक्तिद्दीन हों, शरीरसे विकक हों, निःसहाय हों, बन्धुवरोरहित हों, बुद्धावस्थासे आजेरित हों आ्यर दुरवस्थामें पड़ जानेके कारण अष्ट ओर पतित सी हों । इन सबकी तुम्हें गुर्की तरह, अंगभति- ऋषरिकाकी तरह, धायकी तरह, प्रियललीकी तरह, भगिनी-जवनी-मातामही एवं पिलासही आादिकी तरह, वस्सक- श्राव हो कर प्रतिपालना करनी होगी । २७ इसके बाद, २७ वें द्वारमें, गणानुश्ञाविधि बतलाई गई दहै। गणालुशाका अर्थ है रणको अर्थात्‌ समुदायकों अवुज्ञा याथि निजकी आशामें प्रवतेन करानेका संपर्ण अधिकार प्रास करना । यह अधिकार, भुख्याचार्यके काकप्राप्त होने पर अथवा अन्य किसी तरइ असमर्थ हो जाने पर प्राप्त किया जाता है। इस विषधिमें सी प्रायः दैसा ही भाव ओर उपदेझ्ञादि गार्मित है । इस गणानुज्ञापदकी प्राप्ति होने पर, फीर यही नवीन आचार्य गच्छका संपू्णे अधिनायक बनता है और डसीकी आशामें सारे संघको विचरण करना पडता है । २८ इसके बादके २८ वें द्वारमें, दृद्ध होने पर ओर जीवितका अन्त समीप दिखाई देने पर, साधुकों पर्यन्ता- शाघवा कैसे करनी चाहिये और अन्‍्तमें केसे अनशन बत छेना चाहिये, इसका विधान बतलाया गया है। इसी विधिके अन्तमें, आवकको भी यद अन्तिम आराधना करनी बतछाई गई है । २५९ इस प्रकारकी अन्तिम आराधनाके बाद, जब साधु कालधम प्राप्त हो जाय तब फिर उसके शरीरका अन्तिम संस्कार कैसे किया जाय, इसकी विधिका वर्णन २९ वें महापारिद्वावणिया नामक प्रकरणमें दिया गया हे । ३० शदनस्तर, ३० दें द्वारमें, साथु ओर श्लावक दोनोंके बतोंमें छगने दाे प्रायश्चित्तोंका बहुत विस्तृत वर्णन दिया भया है। हस प्रायश्षिसविधानमें एक तरहसे प्रायः यति और शाद्ध दोनों प्रकारके जीतकरूप ग्रन्थोंका पूरा सार भा गया है। इसमें श्रावकके सम्यक्त्व-सूल १२ ब्तोंका प्रायश्रित्त-विधान पूर्ण रूपसे दिया भया है और इसी तरह साधुके मूल गुण और उत्तर गुण आवि आचारोंमे छगनेवाले छोटे बड़े सभी प्रायश्चित्तोंका यथेष्ट वणेन किया गया है। साछुके सिक्षाविषयक दोषोंका विधान करनेवाऊा पिजडालोयणबिटद्दाण” नामक ७४ गाथाका पुक बडा रूदतंन्र प्रकरण भी, मया अना कर, अन्थकारने इसमें सप्चिजिष्ट कर दिया है; ओर इसी तरह एक दूसरा ६४ गाथाका “आलोयणबिददी' भामका भी स्वतंत्र भ्करण हस द्वारके अन्‍्तभागमें ग्रथित किया है । ३१-३६ इसके बाद 'प्रतिष्ठाविधि' नामक बढ़ा प्रकरण भाता है जिसमें जिनबिस्वप्रतिष्ठा, ककश्षप्रतिष्ठा, बबजारोप, कूमेम्रतिष्ठा, यश्चप्रतिष्ठा ओर स्थापनाचार्यप्रतिष्ठा- इस प्रकार ३१ से ले कर ३६ तकके ६ द्वारोंका समादेश होता हे। इसीके क्रस्तगंत अधिवासना अधिकार, नन्धावतंस्थापना, जकहूानथनपिष्ति - आदि भी प्रसंगोचित कहे विभि-जिधानोंका समावेश किया गया है। इसमें प्रतितोषपोगी सामझीका मी प्रमाणयूत निर्देश है ओर मज् तथा स्तुति भादि वचनोंका भी उत्तम संग्रह है। प्रतिष्ठाधिषिके छिये यह प्रकरण बहुत ही भाधारभूत और सुविहित समझा जाने योग्य है । ३७ प्रतिष्ठा ओर अन्य बहुतसी क्रियाओंमें 'मुजाकरण आवश्यक होता है, इसकिये ३७ वें द्वारमें, मिश्र सिच्॒ प्रकारकी मुद्राओंका वर्णन किसा गया है । ३८ नम्दीरचना और प्रतिष्ठाषिषयक द्रियाओमें ६४ थोगिनियोंके मर्ादिका भालेखन किया जाता है, इसकिये 8८ वें ट्वारमें, इन योगिनियोंके नाम बठझाये गये हैं। संपादकीय प्रखावना प्‌ है&, में द्वारमें, “तीर्थेचान्ना ' करने वाक्ेको किस तरह वात्ाबिनगि करणा चाहिये और जो थाजामिसित्त संघ भीकाकना चाहे उसे किस विधिसे प्रस्थामादि कृत्य करने चाहिये-इस विकयका उपयुक्त विधान किया गया दे! इसमें संघ मीकाकने वाकेको किस किस प्रकारकी सामप्रीका संग्रह करना चाहिये ओर याज्रार्थियोंकों किस किस प्रकारकी सहायता पहुंचाना चाहिये -इृत्यादि बातोंका भी संक्षपमें पर सारभूत रूपमें शातत्य उल्लेख किया गया है। ४७ वें द्वारमें, पर्वादि तिथियोंका पाऊन किस नियमसे करना चाहिये, इसका विधान, ग्रश्यकारने अपनी सामाचारीके अनुसार, प्रतिपादित किया है । इस तिथिव्यवद्दारके विषयमें, जुदा जुदा गच्छके अनुगायियोंकी जदी शदी मान्यता है । कोई उदय तिधिकों प्रमाण मानता है, तो कोई बहुभुक्त तिथिकों झाड्ा कहता है| पाक्षिक, चातुमोसिक और सांवर्सरिक पर्वके पाऊनके बिषयर्मे भी इसी तरहका गच्छवासिभोंका पारस्परिक धढा मतभेद है। इस मतसेदकों छे कर भायीन काझसे जैन संप्रदायोंमें परस्पर कितनाक जिरोधभावषूर्ण ध्यवहार चछा जाता दिखाई देता है। श्रीजिनप्रभ सूरिने अपने इस भ्रस्थमें, उसी सामाचारीका प्रतिपादन किया है जो खरतर गच्छमें सामान्यतया मान्य है । ७१ वें द्वारमें, अंगविद्यासिदझ्धिकी विधि कही गई है। यह “अंगविया” नामक पूक धास्त्र हे जो आगममे नहीं गिना जाता, पर इसका स्थान आरमके जितना ही प्रधान माना जाता है। इसछिये इसकी साधनाविधि यहांपर स्वतंत्र रूपसे बताई राई है। यह विधि प्रन्थकारने, सैद्ध/ब्तिक विनयथम्द्सूरिके डपदेशसे ऋधित की है, ऐसा इसके अंतिम उल्लेख कहा है । इस प्रकार, विषधिप्रपामें प्रतिपादित मुख्य ४५ द्वारोंका, यह संक्षिप्त विमयनिर्देश है । इस निर्देशके वाचनसे, जिशासु जनोंको कुछ कहपना आा सकेगी कि यह अन्थ कितने महत्वका और अलभ्य सामग्रीपूर्ण है । इस प्रकारके अस्य अन्य आचायोके बनाये हुए और भी कितनेक विधि-विधानके अन्थ उपलछड्ध होते हैं, पर थे हस प्रध्थके जैसे ऋमबद्ध और विशद रूपसे बनाये हुए नहीं ज्ञात होते । इस प्रकारके अ्रस्थोर्मे यह 'क्िरोमणि” जैसा है ऐसा कहनेमें कोई भत्युक्ति नहीं होती । ् प्रन्थकार जिनप्रभ सूरि कैसे बडे भारी विद्वान और अपने समयमें एक अद्वितीय प्रभावशाली पुरुष हो गये हैं इसका पूरा परिचय तो इसके साथ दिये हुए उनके जीवनचरित्रके पढनेसे होगा, जो हमारे खेहास्पद धर्मबस्धु बीकानेरनि वासी दृतिहासप्रेमी श्रीयुत अगरचन्दजी और भंवरछालजी नाहटाका लिखा हुआ है। इसलिये इस विषयर्मे और कुछ अधिक छिखनेकी आवश्यकता नहीं है। मे संपादनमें उपयुक्त प्रतियोंका परिचय | इस प्रत्थका संपादन करनेमें हमें सीन हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुई थीं- जिनमें मुख्य प्रति पूनाके भाण्झश्कर प्राच्यविधासंशोधन मन्दिरमें संरक्षित राजकीय प्रन्थसंग्रहकी थी। यह प्रति बहुत आचीन और शुद्धमाव हे । इसके अन्त लिखनेवालेका नामनिर्देश और संबतादि नहीं दिया गया, इसलिये यह ठीक ठीक तो नहीं कहा जा सकता कि थदह् कबकी लिखी हुई है; पर पतन्नादिकी स्थिति देखते हुए प्रायः संघत्‌ १५०० के आसपासकी यह छिखी हुऑईं होगी पेसा संभवित अनुसान किया जा सकता है। हस प्रतिका पीछेसे किसी तज्झ विद्वान यतिजनने खूब अच्छी तरह संशोधन भी किया है और इसलिये यह प्रति झुद्धप्रायः है, पेसा कह्टना चाहिये । दूसरी प्रति श्रीमात्‌ उपाध्यायव्य भीसुखसागरजी महाराजके निजी संभहकी मिली थी। पर यह ने दी लिखी हुईं है और शुद्धिकी दष्टिसे कुछ विशेष उल्लेखयोग्य नहीं है । ढे्‌ विधिप्रपा 'सीसरी प्रति घीकानेरके संडारकी थी जो श्रीयुत अगरचंदजी नाइटा द्वारा प्राप्त हुई थी । पह प्रति भी नई ही लिखी दुई है पर कुछ शुद्ध है” । इसके अस्त भागमें, जिनप्रमसूरिक्षत 'दिवपूजाविधि' नामक स्वतंत्र भ्रकरण लिखा हुआ मिका,जिसे उपयोगी समझ कर हमने इस झगन्थके परिष्िष्टके रूपमें मुद्रित कर दिया है। असछमें यह पूजाबिधि भी इसी अन्थका एक अवास्तर प्रकरण होना चाहिये । परंसु न मालूम क्यों प्रस्थकारने इसको इस प्रस्थमें सब्निविष्ट न कर जुदा ही अकरण रूपसे अधित किया है । संभव है कि यह देवपूजाविधि प्रत्येक गहस्थ जैनके लिये अवश्य और नित्य कर्तेष्य होनेसे इसकी रचना स्वतंत्र रूपसे करना आवश्यक प्रतीत हुआ हो, ता कि सब कोई इसका अध्य- यन और छेसन आदि सुरकूभताके साथ कर सके । इस देवपूजाविधिमें गृहप्रतिमापूजाविधि, चैल्यवन्दनविधि, खपनविषि, छत्रअ्रमणविधि, पत्चामस्रतस्रान्नविषि और शान्तिपर्षविधि आदि और सी आनुषड्लिक कई विधियोंका समावेश कर इस विषयको संपुर्णेतया प्रतिपादित किया गया है । जेट उक्त भ्रकारसे, भस्तुत प्रग्थके संपादनकी प्रेरणा कर, उपाध्याय भीखुखसागरजी महाराजने इस प्रकार क्रिया- दिछिके अमूल्य निषिरूप प्रस्तुत ग्रस्थराजके विशिष्ट स्वाध्यायका जो प्रशस्त प्रसंग हमारे लिये उपस्थित किया, तदर्थ हम, अन्तमें, जापके प्रति अपना कृतज्ञभाव प्रदर्शित कर; और जो कोई जिज्ञासु जन, इस ग्रन्थके पठन - पाठनसे अपनी शानइद्धि करके विधिसागेके प्रवासमें प्रगतिगामी बनेंगे, तो हम अपना यह परिश्रम सफल समझेंगे- ऐसी आशा प्रकट कर, इस प्रस्तावनाकी यहांपर पूर्णता की जाती है । इतस्यरूम्र । फागुन पूर्णिमा विक्रम हलक, १९९७ | जभिनविजय भयष # यह प्रति बीकानेरके श्रीपूज्यनीके भंडारकी है आर इसके अन्तमें लिपिकतोने अपना समय और नामादि बतटानेवाली इस प्रकारकी पुष्पिका लिखी है- ४ संबत्‌ १८९२ वर्ष मिती ज्येष्ट शुक्ल ५ तिथ्यां कुमुद्वारे भ्रीहमीरगढ नयरे चतुमोसी स्थिता पं० व्थिविलास लिखित । प्रीमददव॒दत्‌ खरतर गच्छे भ्रीकीतिरलसूरि संतानीया । श्रीफलवर्दधीनयरे लिखित । 99 शासनप्रभावक श्रीजिनप्रमसूरि । [संक्षित्त जीवन चरित्र ] लेखक -- श्रीयुत अगरचन्दजी और भँवरकालजी नाहूटा, बीकानेर । जैनशासनमें प्रभावक आचार्योंका अल्वन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्‍यों कि धर्मकी व्यावद्वारिक उम्नति उन्हीं पर निभर है। आत्मार्थी साधु केवठ ख-कल्याण ही कर सकता है; किन्तु प्रभावक आचार्य ख-कल्याणके साथ साथ पर-कल्याण मी विशेष रूपसे करते हैं, इसी इृष्टिसे उनका महत्त्व बढ जाना खाभाविक है। प्रभावक आचाये प्रधानतया आठ प्रकारके बतलाये हैं यथा- पावयणी घम्मकही वाहे नेमित्तिओ तबसरसी ये । विज्ञासिद्धा य कबी अट्टे य पभावगा भणिया ॥ अथोत्‌ - प्रावचनिक, धर्मकथाप्ररूपक, वादी, नेमित्तिक, तपखी, विद्याधारक, सिद्ध और कवि ये आठ प्रकार के प्रभावक होते हैं । समय समय पर ऐसे अनेक प्रभावकोंने जैन शासनकी छुरक्षा की है, उसे छाझ्छित और अपमा- नित होनेसे बचाया है, अपने असाधारण प्रभावद्वारा लोकमानस एवं राजा, बाहशाह्द,, मंत्री, सेनापति भआदि प्रधान पुरुषोंको प्रभावित किया है। उन सब आचार्योंके प्रति बहुत आदरमभाव ब्यक्त किया गया है और उनकी जीवनियां अनेक विद्वानोंने लिख कर उनके यशको अमर बनाया है | प्रभावक चरित्रादि ग्रन्थोंमें ऐसे ही आचार्योका जीवन वर्णन किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ - इस विधिग्रपाके को श्रीजिनप्रभ सूरि अपने समयके एक बडे भारी प्रभावक आचार्य थे। उन्होंने दिल्लीके सुडतान महमद बादशाह पर जो प्रभाव डाडा वह अद्वितीय और असाधारण है। उसके कारण मुसल्मानोंसे होने वाले उपद्रवोंसे संघ एवं तीर्थोकी विशेष रक्षा हुई और जैन शासनका प्रभाव बढा। उन्होंने विद्वत्तापूणं और विविध दृष्टियोंसे अत्यन्त उपयोगी, अनेक कतियां रच कर साहित्य भंडारको समृद्ध बनाया | पं० छारूचंद भगवानदास गांधीने उनके सम्बन्धमें “जिनप्रभन्नरि अने सुतान महमद” नामक गुजराती भाषामें एक अच्छी पुस्तक लिखी है। पर उसमें ज्यों ज्यों सामग्री उपलब्ध होती रही ल्वों लयों वे जोडते गये अतः #ंखछा नहीं रही / हम उस पुस्तकके मुख्य आधारसे, पर खतंत्र शैलीसे, नवीन अन्वेषणमें उपलब्ध प्रन्थोंके साथ सूरिजीका जीवन चरित्र इस निबन्ध में संकलित करते हैं । जिनप्रम सूरिकी गुरु परम्परा- खरतर गच्छके सुप्रसिद्ध वादी-प्रभावक श्रीजिनपति सूरिजीके शिष्य श्रीजिनेश्वर सूरिजीके शिष्य श्रीजिनप्रबोध सूरि हुए । इनके ग्रुरुआता श्रीमाल्योत्रीय श्रीजिनसिंद् सूरिजीसे खरतरगब्छकी लघु शाखा प्रसिद्ध हुई । इसका मुझ्य कारण प्राकृत प्रवन्धावलीमें! यह बतराया गया है कि-एक वार अश्रीजिनेश्वर सूरि जी पल्हूपुर ( पालणपुर ) के उपाश्रयमें बिराजते थे, उस समय उनके दण्डके अकरस्मात्‌ तड़तड़ शब्द करते हुए दो ढुकड़े दो गए । सूरिजीने शिष्योंसे पूछा कि-“यह्द तड़तड़ाट कैसे हुआ ? शिष्योंने कहा - भगवन्‌ ! आपके दण्डेके दो टुकड़े हो गए! | यह सुन कर सूरिजीने उसके फलका विचार करते हुए निश्चय किया कि मेरे पश्चात्‌ मेरी शिष्य-सन्ततिमेंसे दो शाखाएं निकलेंगीं। अतः अच्छा हो, यदि में ैे्‌ भीजिनप्रभ सूरिका खर्य ही ऐसी व्यवस्था कर दूं ताकि भविष्यमें संधर्में किसी प्रकारका कलह न हो और पधर्म-प्रचारका कार्य छुचारु रूपसे चलता रहे । इसी अवसर पर (दिल्लीकी ओरके ) श्रीमाल संघने आ कर आचार्यश्रीसे विज्ञति की-“भगवन्‌ | हमारी तरफ आजकल मुनियोंका विहार बहुत कम हो रहा है, अतः हमारे धर्मसाधनके लिये आप किसी योग्य मुनिको भेजें! । सूरिजीने (रर्वोक्त निमित्तका विचार कर श्रीमाल कुलोत्पन्न जिनासिंह गणिको सं० १२८० में (१) आचाये पद और पक्मावती मंत्र दे कर कहा-“यह श्रीमाल संघ तुम्हारे सुपुर्द है; संघके साथ जाओ और उनके प्रान्तोंमें विहार कर अधिकाधिक धर्मप्रचार करो” । गुरुदेवकी आज्ञाकों शिरोधार्य कर श्रीजिनसिंह सूरि आ्रावकोंके साथ श्रीमाल ज्ञातीय लोगोंके निवास स्थलोमें विहार करने छूगे। उपकारीके नाते समस्त श्रीमाल संघने श्रीजिनसिंह सूरिजीकों अपने प्रमुख धम्मीचार्य रूपमें माना । जिनप्रभ सूरिकी दीक्षा- श्रीजिनसिंह सूरिजीने गुरुप्रदत्त पद्मावती मंत्रकी, छः मासके आयंबिल तप द्वारा साधना प्रारम्भ की | तत्परताके साथ निव्य ध्यान करने लगे। देवीने प्रगट हो कर कहा-“आपकी अब आयु बहुत थोड़ी रही है, अतः विशेष लामकी संभावना कम है” । आचार्यश्रीने कह्या-“अच्छा, यदि ऐसा है तो मेरे पट्टयोग्य शिष्य कौन होगा सो बतलावें, और उसे ही शासनग्रभावनामें प्रत्यक्ष व परोक्ष रूपसे सहायता दें! | पद्मावती देवीने कहा-'सोहिलबाड़ी नगरीमें श्रीमाल जातिके तांबी गोत्रीय महद्धिक श्रावक महाघर रहता है। उसके पुत्र रक्षपालकी भाया खेतलदेवीकी कुक्षिसे उत्पन्न सुभटपाऊ नामक सर्वलक्षणसम्पन्न पुत्र है, वही आपके पट्टका प्रभावक सूरि होगा?। देवीके इन वचनोंको सुन कर आचार्यश्री सोहिल्वाड़ी नगरीमें पधारे | श्रावकोंने समारोह पूर्वक उनका खागत किया | एक वार आचार्यश्री श्रेष्टिवर्य महाघरके यहां पधारे | श्रेष्ठिवस्थने भक्ति-गदू-गदू हो कर कहा-'भगवन्‌ ! आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, आपके शुभागमनसे में और मेरा गृह पावन हो गया, मेरे योग्य सेवा फरमावें!” आचारयश्रीने कहा-“महानुभाव ! तुम्हारा धर्मग्रेम प्रशसनीय है, भावी शासन-प्रभावनाके निमित्त तुम्हारे बालकोंमेंसे सुमटपालकी भिक्षा चाहता हूं । संसारमें अनेक प्राणी अनेक बार मनुष्य जन्म धारण करते हैं लेकिन साधनाभावसे अपनी प्रतिभाको विकशित करनेके पूर्व ही परल्मेकवासी हो जाते हैं। मानव जन्मकी सफछ्ताके लिये त्याग ही सर्वोत्तम साधन है जिसके द्वारा धर्मका अधिकाधिक प्रचार और आत्माका कल्याण हो सकता है। आशा है तुम्हें मेरी याचना खीकृत होगी। इससे तुम्हारा यह बालक केवल तुम्हारे वंशकों ही नहीं बल्कि सारे देश और धर्मको दीपाने वाला उज्बल रत्न होगा | १ इस प्रबन्धावलीकी एक पुरानी अति श्रीजिनविजयजीके पास है, उससे नकल करके जिनप्रभसूरि प्रबंधको हमने “जैन सत्यप्रकाश” मासिकमें प्रकाशित किया । जिसका गुजराती अनुवाद पं० लाछचंद भगवानदासने अपने “जिनप्रभस्रि अने खुलतान मदमद्‌” नामक पुस्तकमें प्रकाशित किया है। प्रबन्धावदीकी एक और प्रति श्रीदरिसागरसूरिजीके पास भी देखी थी । वह प्रति सं० १६२२ आश्विन छुदि १५ को लिखी हुई थी । श्रीजिनविजयजी वाली प्रति भी ऊगभग इसके समकालीन लिखित प्रतीत होती है । २ 'खरतर गच्छ पद्टावली संग्रह'में प्रकाशित १७ वीं शताब्दीकी पट्टावली नं० ३ में लिखा है कि-इनका जन्म झुझनूके तांबी श्रीमालके यहां हुआ था । ये उनके पांच पुत्रोंमेंसे तृतीय पुत्र थे। बीकानेरके जयचंदजीके मंडारकी पह्मावलीमें लिखा है कि बागढ़ देशके वढ़ौदा ग्रामके किसी श्रावकके छोटे पुत्र थे । इन्हें ११ वर्षकी छोटी उम्रमें आचाये पद मिछा। श्रीजिनप्रभ सरिजीके जन्म संबतका उल्लेख कहीं देखने में नहीं आया; पर सं० १३५०२ में इन्होंने कातवका विश्रमवृत्तिकी रचना की थी ! उस समय इनकी आयु २०-२५ वर्षकी आवश्य होगी, अत: जन्म सं० १३२५ के लगभग द्ोना संभव है ! अबन्धावलीमें दीक्षा का समय सं० १३२६ छिखा है पर वह शंकित मादुम देता है । संक्षिप्त जीवन-चरित्र । ह हि -महाघर सेठने आचार्यश्रीकी आज्ञाकों सहर्ष सत्रीकार की और अच्छे मुह्ृत्तमें सुमटपाछकों समारोह पूर्वक सं० १३२६ (?) में दीक्षा दिलाई। आचार्यश्रीने नवदीक्षित मुनिको खूब तत्परतासे शा्तरोंका अध्ययन कराया एवं साज्नाय पद्मावती मंत्र समर्पित किया-जिससे थोडे समयमें मुनिवर्य प्रतिभाशाली गीतार्थ हो गये । सं० १३४१ में किढिवाणा नगरमें श्रीजिनसिंद् सूरिजीने उन्हें सर्वथा योग्य जान कर अपने पट्टपर स्थापित कर श्रीजिनप्रद्नरि नामसे प्रसिद्ध किया । इसके कुछ समय पश्चात्‌ श्रीजिनसिह सूरिजी खर्गवासी हुए । श्रीजिनप्रभ सूरिजीके पुण्यप्रभाव और गुरुकृपासे पद्मावती देवी प्रत्यक्ष हुई। एक वार इन्होंने देवीसे पूछा कि-< हमारी किस नगरमें उन्नति होगी?” पद्मावतीने कहा-“ आप योगिनी-पीठ दिल्लीकी ओर बिद्दार कीजिये | उधर आपको पूर्ण सफलता मिलेगी? । सूरिजी देवीके सद्लेतानुसार दिल्ली प्रान्तमें विचरने लगे । ग्रन्थ रचना - सं० १३५२ में योगिनीपुर (दिल्ली) में माथुरवंशीय ठक्कर खेतऊ कायस्थकी अभ्यर्थनासे 'कातम्न विश्रम' पर २६१ छोक प्रमाणकी वृत्ति बनाई | सूरिजी के उपलब्ध ग्रन्थोंमें यह सर्वप्रथम कृति है। सं० १३७६ में श्रेणिकचरित्र-द्रयाश्रय काव्यकी रचना की । सं० १३६३ का चातुमोस अयोध्यामें किया | वहां साधु और श्रावकोंके आचारोंका विशदसंग्रह रूप इसी विधि प्रपा ग्रन्थको विजयादशर्मीके दिन रच कर पूर्ण किया | सं० १३६४ में वैमारगिरिकी यात्रा करके वैभारगिरिकल्प निमौण किया और कल्पसूत्र पर 'सन्देह विषोषधि!” नामक दृत्ति बनाई | सं० १३६५ के पौषमें अयोध्यामें (१) अजितशान्तिकी बोधदीपिका बृत्ति, (२) पौष कृष्णा ९ को उपसर्गहरकी अर्थकल्पलता वृत्ति, (३) पोष छुदि ९ के दिन भयहर स्तोत्रकी अभिप्रायचन्द्रिका वृत्ति बनाई । इन कुछ वर्षोर्मे सूरिजीने पूर्व देशके प्रायः समस्त तीर्थोकी यात्रा कर, कई कब्प, स्तोत्र इत्यादि रचे । संबत्‌ १३६९ में मारवाड देशकी ओर विचरते हुए फलोधी तीर्थकी यात्रा कर वहांका स्तोत्र बनाया । कहा जाता है कि सूरिमहाराज प्रतिदिन एकाध नवीन स्तोत्रकी रचना करनेके पश्चात्‌ आद्वार ग्रहण करते थे । इसके फल खरूप आपने ७०० स्तोत्र! जितने विशाल स्तोत्र-साहिलह्यकी रचना कर जैन मुनियोंके सामने एक उत्तम आदर्श उपस्थित किया। आपके निर्माण किये हुए स्तात्रोंकी सूची पीछे दी गई है । इस विशाल स्तोत्र-साहित्यमेंसे अब केवल ७७५ के लगभग ही उपलब्ध हैं | इनमें कई यमकमय, चिन्नकाव्य, आदि अनेक वैशिष्यको लिये हुए हैं, जिससे सूरिजीके असाधारण पाण्डित्मका परिचय मिलता है। सूरिजीने संस्कृत, प्राकृत और देश्य भाषामें इस प्रकार सेंकडों ही स्तोत्नोंकी रचना की, और उसके साथ फारशी भाषामें मी उन्होंने कई स्तोत्र बनाये जो जैन साहित्यमें एकदम नवीन और अपूर्व वस्तु है। १ सहां तकका यह बृत्तान्त 'प्राकृत प्रबन्धावली! अन्तगत श्रीजिनप्रभसूरि प्रबन्धसे लिखा गया है । ३२ उपदेशसप्तति (सं० १५०३ सोमघरमंगणिकृत ) एवं सिद्धान्तस्तवावचूरि । अवचूरिकारने इन स्तोन्रोंकी, तपागच्छीय सोमतिरूक सूरिको, भ्रीजिनप्रभसूरिने प्मावतीके सद्षेतसे तपागच्छका भावी उदय ज्ञात कर, भेंट करना छिखा है। है ह ओऔजिमप्रभ सूरिका शायद ये ही सबसे पहले जैनाचार्य थे जिन्होंने यावनी भाषाका अध्ययन किया और उसमें स्तोत्र जैसी कृतियां मी कीं | दिल्लीमें अधिक रहने और मुसलमान बादशाहोंके दरबारमें आने-जानेके विशेष प्रसंगोंके कारण इनको उस भाषाके अध्ययनकी परम आवश्यकता मारूम दी होगी। शायद बादशाहको, जैन देवकी स्तुति कैसे की जाती है इसका परिचय करानेके निमित्त ही इन्होंने उस भाषामें इन स्तोन्नोंकी रचना फी हो । सं० १३७६ में दिल्लीके सा० देवराजने शत्रृंजय, गिरनार आदि तीर्थोका संघ निकाला। उस संघमें सूरिजी मी साथ थे । मिती ज्येष्ठ कृष्ण १ को शरत्रुंजय तीर्थकी यात्रा की और मिती ज्येष्ठ शुक्ल ५ को श्री गिरनार तीर्थकी यात्रा की। देवराजके संघ एवं इन तीर्थद्यकी यात्राका उल्लेख सूरजीने खय॑ अपने तीर्थयात्रा स्तवन एवं त्रोटकर्में किया है । सं० १३८० में पादलिप्तिसूरि कृत वीरस्तोत्रकी वृत्ति और सं० १३८१ में राजादिरुचादिगणबृत्ति, साधुप्रतिक्रमण-बृत्ति, सूरिमंत्रान्नाय आदि ग्रन्थोंकी रचना फी । सं० १३८२ के वैशाख शुद्ध १० को श्रीफल्व्द्धि तीर्थकी यात्रा कर स्तोत्र बनाया । खुलतान कुतुब॒ुद्दीन मिलन - हमारी ओरसे प्रकाशित ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रहके “जिनप्रमसूरि गीत ' में लिखा है कि सूरिजीने सुल्तान कुतुबुद्दीकमो रक्षित किया या । अठाही, आठम, चौथको सम्राद्‌ कुतुबुद्दीन उन्हें अपनी सभामें बुछाता था और एकान्तमें बैठ कर उनसे अपना संशय निवारण किया करता था | सुप्रसन हो कर ुल्तानने गांव, हाथी आदि सूरिजीको लेनेके लिये कहा पर निरपृह् गुरुजीने उनमेंसे कुछ मी ग्रहण नहीं किया । सं० १३९३ में रचित “नाभिनन्दनोद्वार प्रबन्ध! में लिखा है कि-शत्रु्षयोद्धारक्त समरसिहने शाही फरमान ले कर संघ और श्रीजिनप्रभ सूरिजीके साथ मथुरा और दृस्तिनापुरकी यात्रा की थी | महमद तुगलूक प्रतिबोध । बादशाहका आमञझण- सूरिजीके अद्भुत पाण्डित्यकी झवयाति सर्वत्र फैल चुकी थी | एक वार सं० १३८५ में जब आप दिलछलीके शाहपुरामें विराजमान थे तब दिल्लीपति सम्राट्‌ महमद तुगछूकने अपनी सभामें विद्वदूगोष्ठी १ यह ग्रन्थ गुजराती अनुवाद सहित अहमदाबादसे छप चुका है । २ डॉ. ईश्वरीप्रसादके भारतवर्षके इतिहास (५०२२३-३२) में सुछतान महमद तुगलकके संबन्धमें अच्छा प्रकाश डाला गया है। उस प्रन्थसे कुछ आवश्यक अंश नीचे दिया जाता है, इससे उसके खभाव चरिश्रादिके विषयमें पाठकोंको अच्छी जाकानरी हो सकेगी । “महस्मद तुगऊछूक -( सन्‌ १३२५-१३७५॥१ ई. )- अपने पिता गयासुद्दीनकी सत्युके बाद शाहजादा जूना महम्मद तुगलकके नामसे दिल्लीकी गद्दी पर बेठा । दिल्लीके सुलतानोंमें वह सबसे अधिक विद्वान और योग्य पुरुष था। उसकी स्मरण शक्ति और बुद्धि अलौकिक थी और मस्तिष्क बड़ा परिष्कृत था। अपने समयकी कला तथा विज्ञानका वह ज्ञाता था, और बडी आसानी तथा खूबीके साथ फारसी भाषा बोल और लिख सकता था। उसकी मौलिकता, वक्‍तृत्व और बिद्वत्ता देख कर लोग दंग रह जाते थे और उसे यष्टिकी एक अद्भुत चीज समझते थे । तकेशाल्रका बह बडा पंडित था ओर उस बिषयके प्रकाण्ड विद्वान भी उससे शाज्ार्थ करनेका साहस नहीं करते थे । वह अपने धर्मका पाबन्द था परंतु विधार्मयों पर अत्याचार नहीं करता था । बह भुष्ठाओं और भौलवियोंकी रायकी परवाद नहीं करता था और प्राचीन सिद्धान्तों और परिपाटियोंकों आंख बंध कर नहीं मानता था। उसने दिन्दुओंके साथ धार्मिक अत्याचार नहीं किया; और सती प्रथाको रोकनेका प्रय्ष किया । वह न्याय करनेसें किसीकी रियायत नहीं करता था और छोटे बड्े सबके साथ एकसा बत्तोव करता था। बिदेशियोंके प्रति बह बड़ा औदाय्य॑ दिखलाता था »««»«» उसमें अक विश्वय तक पहुंचनेकी शक्तिकी कमी भी । उसे फ्रोष लत्दी जाता था और णजराती देरमें यह जपेसे संक्षिप्त जीवन-चरित्र । हि करते हुए पण्डितोंसे पूछा कि-इस समय सर्वोत्तम विद्वान कौन है!” इसके उत्तरमें ज्योतिषी, घाराघरने श्रीजिनप्रम सूरिजीके गुणोंकी प्रशंसा करते हुए उन्हें सर्वश्रेष्ठ बिद्वान्‌ बतढाया। बादशाह एक विधान्थसनी सम्राट था, वह विद्वानोंका खूब आदर करता था। उसकी सभामें सदैव बहुतसे चुनें हुए पण्डित विद्क्नोष्टी किया करते थे, जिसमें सम्राद खयं रस लिया करता था। अतः प० धाराधरसे श्रीजिनप्रभ सूरिजीका नाम श्रवण कर उन्हींके द्वारा आचार्य श्रीको अपनी राजसभामें बहुमान पूर्वक बुलाया | बादशाहसे मिलन व सत्कार - सम्नादका आमप्रण पा कर मिती पोषशुका २ को संध्याके समय सूरिजी उससे मिले। सम्रादने अपने अत्यन्त निकट सूरिजीको बैठा कर भक्तिके साथ उनसे कुशलप्रश्न पूछा। सूरिजीने प्रत्युत्तर देते हुए नवीन कान्‍्य रच कर आशीवीद दिया जिसे सुन कर सम्राट्‌ अल्वन्त प्रमुदित हुआ। रूगभग अर्धरात्रि तक सूरिजीके साथ सम्रादकी एकान्त गोष्ठी होती रही । रात्रि अधिक हो जानेके कारण सूरिजी कहीं रहे । प्रातःकाल पुनः सम्रादने सूरिजीको अपने पास बुछाया; और सनन्‍्तुष्ट हो कर १००० गाय, द्रब्यसमूह, श्रेष्ठ उद्यान, १०० वस्र, १०० कम्बल, एवं अगर, चंदन, कर्पूरादि सुगन्धित द्वब्य उन्हें अपंण करने लगा। परन्तु- जैन साधुओंकी यह्द सब अकल्पनीय हैं! - इत्यादि समझाते हुए सूरिजीने उन सबका लेना अखीकार किया । किन्तु सम्रादको अप्रीति न हो इसलिये राजामियोग बश उनमेंसे केवल कम्बल वस्नादि अल्प वस्तुर्ये कुछ ग्रहण कीं। सम्रादने विविध देशान्तरोंसे आये हुए पण्डितोंके साथ सूरिजीकी वाद-गोष्ठी करवा कर दो श्रेष्ठ हाथी मंगवाये । उनमेंसे एक पर श्रीजिनग्रभ सूरिजीको और दूसरे पर उनके शिष्य श्रीजिनदेव सूरिजी- को चढा' कर, अनेक प्रकारके शाही वाजित्रोंके समारोह पूर्वक, पौषध शालामें पहुंचाया । उस समय भट्टदि लोग विरुदावली गा रहे थे, राज्यधिकारी प्रधान-वर्ग भी, चारों वर्णकी प्रजाके सहित, उनके साथ थे । संघर्मे अपार आनंद छा रहा था; आचाये मद्ाराजकी जयध्वनिसे आकाश गूंज रहा था । श्रावकोंने इस सुअवसर पर आडबरके साथ प्रवेश-महोत्सव किया और याचकोंको प्रचुर दान दे कर सन्तुष्ट किया | संघरक्षा और तीथेरक्षाके फरमान - सम्रादका सूरिजीसे परिचय दिनों-दिन बढ़ने लगा जिससे उनके विद्बत्तादि युणोंकी उसके चित्त पर जबरदस्त छाप पड़ी | उस समय जैनों पर आये दिन नाना प्रकारके उपद्रव हुआ करते थे | बादर हो जाता था। वह चाहता था कि लोग उसके सुधारोंका ज्ञीघ्र खीकार कर कें। जब उसकी आज्ञाक्के पालनमें आनाकानी होती अथवा विलम्ब होता था तो वह निदेय हो कर कठोर-से-कठोर दण्ड देता था। बिद्वान्‌ होनेके साथ ही साथ महम्मद एक वीर सिपाही ओर कुशल सेनापति भी था। सुदूर प्रान्तोंमें कई वार उसने युद्धमें महत्त्वपूर्ण बिजय प्राप्त की थी । ... ... वह कठोर हृदय होते हुए भी उदार था। अपने भर्मका पाजन्द होते हुए मी कष्टरता और पक्षपातप्रे दूर रहता था । और अभिमानी होते हुए भी उसका विनय प्रशंश्ननीय था। ... «०५ महस्मद खेच्छाचारी था-परंतु उसकी चित्तवृत्ति उदार भी। शासन-प्रबन्धके संबन्धर्में बह धर्माधिकारियोंको जरा भी हस्तक्षेप नहीं करने देता था और हिन्दुओंके भ्रति उसका व्यवहार अन्य सुलतानोंकी अपेक्षा अधिक निष्पक्ष ओर सौजन्यपूर्ण था। बह बडा न्यायश्रिय था। शासनके छोटे बडे सभी कार्मोंकी खयं देख भाल करता था और फकीर तथा गशृहस्थ सभीको स्यायकी दृष्टिसे समान समक्षता था।? १ यद्यपि हाथी पर आरोहण करना मुनियोका आचार नहीं है, परन्तु शासन-प्रभावनाका महान्‌ लाभ एवं सन्नादके विशेष आपग्रहके कारण यह प्रवृति अपवाद रुपसे हुई ज्ञात होती है। सं० १३३४ में रचित प्रभावकचरित्रमें भी. पूराचाययके गाजदुड दोनेरा उम्नेस सिलता है । ह शीजिनप्रभ सूरिका अतः समस्त श्रेताम्बर दर्शनकी उपद्रबसे रक्षा करनेके लिये सम्रादने एक फरमान पत्र सूरिजीको समर्पण किया । गुरुशीने चारों दिशाओमें उस फरमानकी नकलें भेज दीं जिससे शासनकी बड़ी भारी उन्नति हुई | इसी प्रकार एक दिन सूरिजीने तीर्थोकी रक्षाके लिये सम्रादका ध्यान आकर्षित किया। सन्नादने तत्काल शत्रुज्नय, गिरनार, फलोधी आदि तीर्थोकी रक्षाके लिये फरमान पत्र लिखबा कर दे दिये । उन फरमान पत्रोंकी नकलें भी तीथ्थो्में मेज दीं गई | अन्य समय एक वार सूरिजीके उपदेशसे सम्रादने बहुत बन्दियोंको कैदसे मुक्त कर दिया । सं० १३८५ की माघ शुद्धि ७ को दिल्लीमें सूरिजीने 'राजप्रासाद' नामक शरन्नुंजय कल्प बनाया | कन्यानयनकी चमत्कारी प्रतिमाका उद्धार - संवत्‌ १३८७ में आसीनगर (हंसी ) के अक्ूविय वंशके किसी क्रुर व्यक्तिने श्रावकों एवं साधुओंको बंदी बना कर उनकी विडम्बना की | उसने कन्यानयनके श्रीपार्थनाथ खामीकी पाषाण मय प्रतिमाको खण्डित कर दी, और सं० १२३३ आबषाढ सुद्धि १० गुरुवारको, श्रीजिनपति सूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित एवं उनके चाचा विक्रमपुर निवासी सा० मानदेव कारित, २३ अंग्रुढ प्रमाण वाली श्रीमद्गवीर भगवानकी चमत्कारी प्रतिमाको' अखण्डित रूपसे ही गाड़ीमें रख कर दिल्ली ले आया। सम्राट उस समय देवगिरिंमें था। अतः उसके आने पर उसकी आज्ञानुसार व्यवस्था करनेके विचारसे उस जिनबिम्बको तुगुलकाबादके शाही खजानेमें रख दिया। इससे वह प्रतिमा पंद्रह मास पर्य्यन्त तुकोकि आधिकारमें रही । महावीर ग्रभुकी इस प्रतिमाका यह वृत्तान्त ज्ञात कर सूरि महाराज सोमवारके दिन राजसमार्मे पधारे । उस समय बृष्टि हो रही थी जिससे उनके पैर कीचड़से भर गये थे | सम्राट्ने यह देख कर मछिक काफ़र द्वारा अच्छे वल्लखंडसे उनके पैर पुंछवाये। सूरिजीने बहुत ही भाक-गर्मित काब्य द्वारा सम्रादको आशीर्वाद दिया । उस काव्यकी व्याख्या करने पर सम्राटके हृदयमें अत्यन्त चमत्कृति पैदा हुई । अवसर जान कर सूरि महाराजने उपर्युक्त महावीर ग्रतिमाका इत्तान्त बतछा कर सम्राद्से, उसे जैनसंघको समपण कर देनेके लिये निवेदन किया । सम्राटने सूरिजीकी आज्ञाकों सहर्ष खीकार की। तुगुल्काबादके खजानेसे असूअग मछिकोंके कन्घे पर विराजमान करा कर प्रभुप्रतिमाको राजसभामें मंगवाई और सम्रादने दशन करके सूरि मद्दाराजकों समर्पण कर दी । उस चमत्कारी प्रतिमाकी प्राप्तिसे संघको अपार हर्ष हुआ। समस्त संघने एकत्र हो कर बड़े समारोहके साथ सुखासनमें विराजमान कर 'मलिकताजदीन सराय' के जिनमन्दिरमें उसे स्थापित की । सूरिजीने वासक्षेप किया, और श्रावकलोग प्रतिदिन पूजन करने लगे | कन्यानयकी प्रतिमाका पूवे इतिहास - इस प्रतिमाके पूर्व इतिहासके विषयमें सूरिजीने 'कन्यानयन! तीर्थकल्पमें लिखा है कि- सं० १२४८ में प्रथ्वीराज चोहानके, सहाबुद्दीन गौरी द्वारा मारे जाने पर, राज्यप्रधान परम आवक सेठ रामदेवने स्थानीय श्रावक संघको लिखा कि - तुर्कोका राज्य हो गया है, अतः महावीर प्रभुके बिंबको कहीं प्रच्छक्ररूपसे रखना आवश्यक है। इस सूचनासे वहांके श्रावकोंने दाहिमाज्ञातीय मंडलेश्वर केमासके नामसे बसे हुए 'कर्यवास स्थल? में बालुके नीचे प्रतिमाको गाड़ दी । सं० १३८६ में सूरिजीने ढिपुरी तीर्थ स्तोत्रकी रचना की । ॥ इस कल्प का नाम 'राजप्रासाद! होनेका कारण सूरिजीने ही बताया है कि इसके रचना-प्रारंभके समय राजा- घिराज ( मदमद तुगुलक ) संघ पर प्रसन्न हुए थे। उपर्युक्त फरमान द्वयकी प्रास्िसे भी इसका समर्थन द्वोता है । संक्षिप्त जीवन-घरित्र । |. सं० १३११ के दारुण दुर्निक्षमें जीवन निर्वाहकें लिये जाजओ नामक सूत्रधारं कन्नाणयसे छुमिक्ष देशकी ओर चछा। प्रथम प्रयाण थोड़ा ही करना चाहिये यद्द विचार कर उसने रात्रिनिवास 'करयवास स्थल/में किया | अर्द्धरात्रिके समय उससे खप्तमें देवताने कद्दा-“तुम जहां सोये हो उसके कितनेक हाथ नीचे प्रभु महावीरकी प्रतिमा है | तुम उसे प्रकट करो ता कि तुम्हें देशान्तर न जाना पड़े और यहीं निरषाह हो जाय !” संभ्रम पूर्वक जग कर देवकथित स्थानकों अपने पुत्रादिसे ख़ुदवाने पर प्रतिमा प्रकट हुई। यह शुभ सूचना उसने श्रावकोंको दी। उन्होंने महोत्सवके साथ मन्दिरजीमें प्रतिमाकों स्थापित की और सूत्रधारकी आजीविका बांध दी | एक वार न्हवणकरानेके पश्चात्‌ प्रमुबिबर पर पसीना आता दिखाई दिया । बार-बार पौंछने पर मी अविरल गतिसे पसीना आता रहा । इससे श्रावकोंने भावी अमंगल जाना । इतने ही में प्रभातके समय जेट्रय छोगोंकी धाड़ आई । उन्होंने नगरकों चारों तरफसे नष्ट किया। इस प्रकार प्रकट प्रभाव वाले महावीर भगवान, सं० १३८७ तक “कयवास स्थरः में श्रावकों द्वारा प्रजे गये । इसके बादका बृत्तान्त ऊपर आ ही चुका है । कन्यानयन स्थान निणेय- पं० छाल्चंद भगवानदासका मत है कि उपर्युक्त कन्नाणय या कन्यानयन वत्तेमान कानानूर है। पर हमारे विचारसे यह ठीक नहीं है। क्यों कि उपयुक्त व्ैनमें, स्रं० १२४८ में उधर तुरकोंका राज्य होना लिखा है; किन्तु उस समय दक्षिण देशके कानानूरमें तुकोंका राज्य होना अप्रमाणित है। धयुगप्रधानाचार्यगुर्वाब॒ली” में (जो कि श्री जिनविजयजी द्वारा सम्पादित हो कर “सिंधी जैन ग्रन्थमाला! में प्रकाशित होने वाली है) कल्यानयनका कई स्थछोमें उछेख आता है। उससे भी कन्नाणय, आसी नगर (हांसी ) के निकट, वागड़ देशमें होना सिद्ध है । जिस कन्यानयनीय महावीर प्रतिमाके सम्बन्ध में ऊपर उछेख आया है उसकी प्रतिष्ठाके विषयमें भी गुर्वावलीमें लिखा है कि-सं० १२३३ के ष्वयेष्ठ सुदि ३ को, आशिकामें बहुतसे उत्सव समारोह होनेके पश्चात्‌, आषाढ महीनेमें कन्यानयनके जिनालूयमें श्रीजिनपति सूरिजीने अपने पितृब्य सा० मानदेव कारित मद्ावीर बिंबकी प्रतिष्ठा की और ब्याप्रपुरमें पात्र देवगणिको दीक्षा दी। कन्यानयनके सम्बन्धमें गुर्वावलीके अन्य उछेख इस प्रकार हैं - संबत्‌ १३३४ में श्रीजिनचन्द्र सूरिजीकी अध्यक्षतामें कन्यानयन निवासी श्रीमाल ज्ञातीय सा० कालाने नागौरसे श्रीफलौधी पार्श्रगाथजीका संघ निकाछा, जिसमें कन्यानयनादि समग्र वागड़ देश व्‌ सपादलक्ष देशका संघ सम्मिलित हुआ था । संवत्‌ १३७५० माघ सुदि १२ के दिन, नागौरमें अनेक उत्सवोंके साथ श्रीजिनकुशल सूरिजीके वाचनाचार्य-पदके अवसर पर, संधके एकत्र होनेका जहां वर्णन आता है वहां “श्रीकन्यानयन, श्रीआशिका, श्रीनरभट प्रमुख नाना नगर ग्राम वास्तव्य सकल बागड़ देश समुदाय” लिखा है। संवत्‌ १३७५ बैशाख बदि ८ को, मश्निदलीय ठक्कुर अचलसिंहने सुलतान कुतुबुद्दीकके फरमान से हस्तिनापुर और मथुराके लिये नागौरसे संघ निकाठा। उस समय, श्रीनागपुर, रुणा, कोसवाणा, मेड़ता, कड़यारी, नवहा, झुंझ्रणु, नरभठट, कन्यानयन, आसिकाउर, रोहद, योगिनीपुर, घामइना, जमुनापार आदि नाना स्थानोंका संघ सम्मिलित हुआ लिखा है। संघने क्रमशः चलते हुए नरभटमें श्रीजिनदत्तसूरि-प्रतिष्ठित श्रीपाश्वनाथ महय॒तीर्थकी बन्दना की । फिर समस्त वागड़ देशके मनोरथ पूर्ण करते हुए कन्यानयनसें श्रीमहायवीर भगवानकी यात्रा की । ८ श्रीमिमप्रभ सूरिका ओऔजिनचन्द्र सूरिजीने खण्डासराय ( दिल्ली ) चातुमोस करके मेड़ताके राणा मारुदेबकी वीनतिसे विद्वार कर मार्ग में घामइना, रोहद आदि नाना स्थानोंसे हो कर, कन्यानयन पधार कर मह्दावीर प्रभुको नमस्कार किया । संवत्‌ १३८० में सुल्तान गयासुददीनके फरमान ले कर दिल्ीसे शत्रुंजयका संध निकछा | वह सर्वप्रथम कन्यानयन आया, वहां वीर प्रभुकी यात्रा कर फिर आशिका, नरभटठ, खाट्ू, नवहा, झुंश्नणू भ्रादि स्थानोंमें होते हुए, फलौधी पार्श्रनाथजीकी यात्रा कर, शत्रुंजय गया। उपयुक्त इन सारे अवतरणोंसे कन्यानयनका, आशिकाके निकट वागड़ देशमें होना सिद्ध होता है। शीजिनप्रभ सूरिजीने कन्यानयनके पास “कयंवासस्थल” का जो कि मंडलेश्वर कैमासके नामसे प्रसिद्ध था; उल्लेख किया है। मंडलेश्वर कैमासका संबन्ध भी कानानूरसे न हो कर हांसीके आसपासके प्रदेशसे ही हो सकता है। गुर्वाबलीके अवतरणोंसे नागौरसे दिल्लीके रास्तेमें नरमट और आशिकाके बीचर्मे कन्यानयन द्वोना प्रामाणित है। अनुसन्धान करने पर इन स्थानोंका इस प्रकार पता ढूगा है - नरम - पिलानी से ३ मील | कन्यानथन - वर्तमान कन्नाणा दादरी से 9 मीर जिंद रिसायतमे है । आशिका - एप्रसिद्ध हांसी । पं० भगवानदासजी जैनने 5० फेरु विरचित बस्तुसार! प्रन्थकी प्रस्तावनामें कन्‍्यानयनकों वर्तमान करनाल बतठाया है, परन्तु हमें वह ठीक नहीं प्रतीत होता । गुवाबलीके उछेखानुसार करनाल कन्यानयन नहीं हो सकता । इसमें अब एक यह आपत्ति रह जाती है कि श्रीजिनप्रभ सूरिजीने खय॑ 'कन्याननीय - महावीरकहूप! में कन्यानयनको चोल देशमें लिखा है| हमारे विचारसे यह चो७ देश, जिस स्थानकों हम बतला रहे हैं, पूर्वकालमें उसे मी चोल देश कहते हों | इस बविषयमें विशेष प्रमाण न मिलनेसे विशेष रूपसे नहीं कह सकते; पर ग़ुवावलीमें महावीर प्रतिमाकी प्रतिष्ठाके संबन्धमें जब यह उछेख है कि-सं० १२३३ के ज्येष्ठ छुदि ३ को, आशिकामें धार्मिक उत्सव होनेके पश्चात्‌ , आषाढमें ही कन्यानयनमें महावीर बिंबकी प्रतिष्ठा श्रीजिनपति सूरिजी द्वारा हुई; और वहांसे फिर व्याप्रपुर आ कर पार्श्देवको दीक्षित किया । श्रीजिनप्रभ सूरिजीने भी प्रतिमाको 'सा० मानदेव कारित, सं० १२३३ आषाढ़ सुदि १० को प्रतिष्ठित, मानदेवको श्रीजिनपति सूरिजीका चाचा होना, और प्रतिष्ठा भी श्रीजिनपति सूरिजी द्वारा होना” लिखा है। उसी प्रकार ये सारी बातें प्राचीन गुवोवलीसे भी सिद्ध और समर्थित हैं। पिछले उल्लेखोंमें मी, जो कि कन्यानयनके महावीर भगवानकी यात्राके प्रसइ्में हैं, कन्यानयनकों वागड़ देशमें आशिकाके पास ही बतदाया है।इन सब बातों पर विचार करते हुए हमारी तो निश्चित राय है कि कन्यानयन कानानूर न हो कर वत्तेमान कनाणा ही है। जिस प्रकार वागड़ देश 9 हैं, इसी प्रकार चोर देश मी दो दो सकते हैं । विक्रमपुर ख्थव्ठ निणय- सा० मानदेव के निवास स्थान विक्रमपुरकों पं० छारूचंद भगवानदासने दक्षिणके कामानूर के पासका बताया है; पर यद्द विक्रमपुर तो निश्चिततया जेसलमेरके निकटवर्त्ती वर्तमान वीक्रमपुर है । आरीमिनपति सूरिजीके रास में 'अत्यि मरुमंडले नयर विक्रमपुरे” शब्दोंसे बिक्रपपुरको मरुस्थलूमें सूचित किया है | संभव है सा० मानदेव व्यापारादिके प्रसकृसे वागड़ देशके कन्यानयनरम रहते हों और वहीं श्रीजिनपति सूरिजीके जाने पर मद्गावीर भगवानकी प्रतिष्ठा कराई हो । संक्षिप्त जीवन चरित्र । ९ जैन स्तोत्र संदोह” भा० २ की भ्रस्तावना, ५० ४० में, इसे विक्रमपुरको बीकानेर बतलाया है, पर वह भूल ही है। बीकानेर तो उस समय बसा मी नहीं था, उसे तो राव बीकाने, सं० १५४५ में बसाया है | पूर्वका विक्रमपुर जेसलमेर निकटवर्ती वर्तमान वीक्रमपुर ही है । देवगिरिकी ओर विहार और प्रतिष्ठानपुर यात्रा - श्री जिनप्रभ सूरिने दिल्लीमें इस प्रकारकी धर्म-प्रभावना करके मद्दाराष्ट्र (दक्षिण )की ओर विद्वार किया । सन्नादने सूरिजीके विह्वारमें सब प्रकारकी भजुकूलतायें प्रस्तुत कर दीं। सूरिजीने सम्राटू एवं स्थानीय संघके संतोषके निमित्त श्री जिनदेव सूरिजीको, १४ साधुओंके साथ, दिल्लीमें ठद्वरनेकी आज्ञा दी । सूरिजी विहार-मार्गके अनेक नगरोंमें धर्म-प्रमावना करते हुए देवगिरि (दौलताबाद ) पहुंचे । स्थानीय संधने प्रवेशोत्सत्र किया! । वहांसे संघपति जगसिह, साइण, मछदेव आदि संघ-मुख्योंके सहित प्रतिष्ठानपुर पधारे और वहां जीवंत मुनिस्ुत्रत खामीकी प्रतिमाके दर्शन किये। यात्रा करके संघ सद्दित सूरिमद्वाराज पुनः देवगिरि पधारे | सं० ११८७ भा० झु० १२ के दिन “दीवाली ल्‍्कप” की यहां पर रचना की । देवगिरिके जैन मन्दिरोंकी रक्षा- एक वार, पेथड़, सहजा और 5० अचलके करवाए हुए जिनमन्दिरोंकों तुक॑ छोग तोड़नेके लिये उद्यत हुए, तब सूरजीने शाही फरमान दिखला कर उन मन्दिरोंकी रक्षा की । इस प्रकार और मी अनेक तरहसे शासन-प्रभावना करते हुए, शिष्योंको सिद्धान्त-आाचना और तपोद्वह्न कराते हुए, तीन वर्ष यहीं व्यतीत किये | इसी बीच सूरजीने उद्धट ऐसे बहुतसे वादियोंको शाज्रार्थमें परास्त किया । अपने शिष्यों एवं अन्य गच्छके मुनियोंकों काव्य, नाटक, अलक्षार, न्याय, व्याकरण आदि शाञत्र पढाए | दिल्लीमें जिनदेव सूरिद्वारा धर्मं-प्रभावना- इधर दिल्लीमें बिराजित श्री जिनदेव सूरिजी, विजयकटक (शाही छावणीमें ) में सम्रादसे मिले । सम्रादने बहुत सन्‍्मानके साथ एक सराय (मुद्ृक्वा) जैन संघके निवास करनेके लिये दी । इस सराय का नाम “झुलतान सराय” रखा गया। वहां सम्राट्ने पौषधशाला और जैनमन्दिर बनवा दिया, एवं ४०० श्रावकोंकी सकुटुम्ब निवास करनेका आदेश दिया । पूर्वोक्त कन्यानयनके महावीर बिम्बको, इस सरायमें सम्राटके बनवाये हुए मन्दिरमें विराजमान किया गया। खेताम्बर, दिगम्बर एवं अन्य धर्मावलम्बी जन मी भक्तिभावसे इस प्रतिमाकी पूजा करने छगे । इस शासनोन्नतिके कायसे सप्रादू महम्मद तुगुलकका चुयश सर्वत्र फैल गया | १, 'संस्कृत जिनप्रभसूरि प्रबन्ध' और शभशीलगणिके कथाकोशमें लिखा है कि-जिनप्रभ सूरिजी सर्वत्र चैत्य परिपाटी करते हुए सुलतान मदहमद झादके साथ देवगिरि पहुंचे । तब सा० जगासेंदने ३२००० मुद्रा व्यय कर प्रवेशोत्सव किया । स्थानीय चैत्योंकी वन्दना करते हुए, जब सूरिजी जगसिंहके ग्रहमन्दिर पर पहुंचे तो वद्दां के रज्मय जिनबिम्बोंको देखकर सूरिजीने सिर धुनाया । जगर्सिहके कारण पूछने पर कद्दा-'हमने बहुत स्थानोंमे जिनमन्दिरोंका वंदन किया पर एक तो आज तुम्दारे गृहमन्दिरको स्थावर तीर्थरूप और दूसरे जंगम तीर्थरूप जंघरालपुरमें तपागच्छीय सोमतिलकसूरि को देखा। २. विशेष जाननेके लिये 'जिनप्रभसूरि अने सुलतान महमद्‌” ० ७९ से १०१ तक देखना चाहिए । ३, दर्षपुरीय गच्छके मलधारि भरी राजशेखरसूरिने अपने बनाये हुए न्‍्यायकन्दली विवरणमें, सूरिजीका अपने अध्यापक रूपसे स्मरण किया है । उन्होंने सूरिजीसे न्‍्यायकंदली० प्रन्थका अध्ययन किया था। रुदपल्नीय गच्छके संघतिलकसूरिने *.. सम्यक्त्वसप्ततिकाइसिमें सूरिजीको अपना विद्यागुरु बतलाया है। इसी तरह, सं० १३४५ में नागेन्द्र गच्छके श्री महीषेण सरिने 2 स्वाद्मदमशरीमें जिनअभ सूरिजी द्वारा प्राप्त सहायताका उल्लेख किया है । १० श्रौजिनप्रभ सूरिका सम्रादका स्मरण और आमंत्रण - : एक वार दिल्लीमें बादशाह महम्मद तुगुलक अपनी समामें विद्वानोंके साथ धिद्रक्नोष्ठी करता या। उसको किसी शाल्रीय विचारमें सन्देह उत्पन्न हो जाने पर उपस्थित पण्डितों द्वारा समाधान न होनेसे एकाएक श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी स्मृति दो आई। उसने कहा -'यदि इस समय राजसभामें वे सूरि विद्य- मान होते तो अवश्य हमारे सुंशय का निराकरण हो जाता | सचमुच उनकी विद्वत्ता अगाध है।” इस प्रकार सम्रादके मुखसे सूरिजीकी प्रशेसा छुन कर दौलताबादसे आए हुए ताजुलूमछिकनें शिर छुका कर निवेदन किया - “'खामिन्‌ वे महात्मा अमी दौलताबादमें हैं, परंतु वहांका जलवायु अनुकूल न होनेसे वे बहुत कृश हो गये हैं!” यह छुन कर प्रसन्नता पूर्वक सूरिजीके गुणोंका स्मरण करते हुए उस मह्लिकको आज्ञा दी कि तुम शीघ्र दुवीरखाने जाकर फरमान लिखा कर सामग्री सद्दित मेजो, जिससे वे आचार्य देवगिरिसे यहां शीघ्र पहुंच सकें । सम्राटकी आज्ञासे मछिकने वैसा ही किया | यथा समय शाही फरमान दौल्ताबादके दीवानके पास पहुंचा । सूबेदार कुतुहलखानने सूरिजीको दिल्ली पधारनेके लिये सबिनय प्रार्थना करते हुए शाही फरमान बतलाया। सूरि महाराजने सप्ताह भरमें ( १० दिन बाद ) तैयार होकर श्पेष्ठ छुदि १२ को राजयोगमें संघके साथ वहांसे प्रास्थान किया । अछ्लाषपुरमें उपद्रव निवारण - स्थान स्थानमें धर्म-प्रभावना करते हुए सूरि मद्वाराज अलछावपुर दुर्ग पघारे | असहिष्णु म्लेच्छोंको एक जैनाचार्यकी इस प्रकारकी महिमा सह्य नहीं हुईं । उन लोगोंने सथवाडेके लोगोंकी बहुतसी वस्तुएं छीन लीं एवं इसी प्रकार कीतने ही उपद्रव करने प्रारम्म कर दिये | जब दिल्लीमें विराजमान श्रीजिनदेव सूरजीको यह बृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उन्होंने तत्काल सम्नाटकों सारा हाल कह सुनाया । सम्रादूने बहुमान पूर्वक फरमान मेज कर वह्दांके मह्लिक द्वारा लोगोंकी सारी वस्तुएं वापिस दिला दीं। इससे सूरिजीका अद्भुत अभाव पड़ा, उन्होंने १॥ मास रह कर बहांसे प्रस्थान कर दिया । क्रमशः बिचरते हुए जब आप सिरोह पहुंचे तो सम्रादने उन्हें देकदृष्यकी माँति छुकोमल १० बच्ध मेज कर सत्कृत किया । वहांसे विहार करके दिल्ली पहुंचे । दिल्लीमें सम्राट्से पुनर्मिलन - जैनसंघ और सम्राद्‌ उनके दर्शनोंके लिये चिर कालसे उत्कण्ठित था ही। पूज्य श्रीके शुभागमनसे उनका हृदय अल्न्त प्रफुछित हो गया । मिती भादवा छुदि २ के दिन मुनिमण्डरू एवं श्रावकसंघके साथ युगप्रधान गुरुजी राजसभामें पधारे । सम्राट्ने मृदु वचर्नोंसे वन्दन पूर्वक कुशल प्रश्न पूछा और अल्यन्त ल्लेहवश सूरजीके हाथको चुम्बन कर अपने हृदय पर रखा । सूरि मद्घाराजने तत्काक ही नवीन निर्मित पद्मयों द्वारा आशीबाद दिया | जिसे श्रवण कर सम्राट्का चित्त अत्यन्त चमत्कृत हुआ । सूरिजीके साथ वातोलछाप होनेके अनन्तर विशाल मद्दोत्सव पूर्वक अपने हिन्दु राजाओं और प्रधान पुरुषोंके साथ वार्जित्रादि बजते हुए सन्‍्मान पूर्वक सम्रादने छुलतान सरायकी पौषघशाडढामें उन्हें पहुंचा दिया । उनका प्रवेशोत्सव अपूर्व आनंददायक और दर्शनीय था। ह पयुषणमें घमे-प्रभावना- मिती भादबा झुछ्ा 9 के दिन संघने मह्ोत्सब पूर्वक पर्युषणाकरुप सूरिजीसे मक्ति पूर्वक श्रवण किया । सूरिजीके आगमन और प्रभावनाके पत्र पा कर देशान्तरीय संघ इर्षित हुआ । सूरिजीने राजबन्दी श्रावकोंको संक्षित जीवन-परिक । ह्ः छा्ों रुपयोंके दण्डसे मुक्त कराया; एवं अन्य छोगोंको मी कढुणावान्‌ पृज्यभीने कैंदसे छुड़ाया । जो छोग अवकूषा प्राप्त हो गए थे वे मी सूरिजीके प्रभावसे पुनः प्रतिष्ठाप्रात्त हुए । सूरिजी निरन्तर राजसभामें जाते थे। उन्होंने अनेक वादियों पर विजय प्राप्त कर जिन शासनकी शोमा बढ़ाई थी। सं० १३८५ के व्येष्ठ छुदि ५, को 'वीरगणधर! करप और मिती भादवा सुदि १० को दिल्लीमें ही विविधदीर्थकरप नामक अद्वितीय प्रन्थरत्नकी प्रणो्ठती की | फाल्गुन मासमें, दौलताबादसे सम्रादकी जननी मगदूमई जद्ंके आने पर, चतुरन्न सेनाके साय बादशाह उसकी अभ्यर्थनामें सनन्‍्मुख गया। उस समय सूरि महाराज मी साथ थे । वडथूण स्थानमें मालासे मिल कर सम्रादने सबको प्रचुर दान दिया । प्रधानादि अधिकारियोंको क्ख्रादि देकर सत्कृत दिया । बहांसे दिल्ली भाकर सूरिजीको बल्लादि देकर सन्‍्मानित किया । दीक्षा और बिम्बप्रतिष्ठादि उत्सव- चैत छुदि १२ के दिन, राजयोगमें, सम्राटकी अनुमतिसे उसके दिये हुए साईबाणकी छायामें नन्‍दी स्थापना की । सूरिजीने बढ़ां ५ शिष्मोंको दीक्षित किया । माछारोपण, सम्यक्तब प्रहण भरादि धर्मकृत्ष हुए । स्थिरदेवके पुत्र 5० मदनने इस प्रसक्ष पर बहुतसा द्वब्य व्यय किया । मिती आषाढ़ छुंदि १० को नवीन बनवाये हुए १३ अह्दत बिंबोंकी सूरिजीने मद्दोत्सब पूर्वक प्रतिष्ठा की । बिम्बनिर्माता एवं सा० पदुराजके पुत्र अजयदेबने प्रतिष्ठा-मद्दोत्सक्में पुष्कछ द्रव्य व्यय किया। सम्राद समर्पित भद्दारक-सरायमें प्रवेश - घुझुतान सराय राजसभासे काफी दूर थी; अतः सूरिजीकों हमेशा आनेमें कष्ट होता है ऐसा विचार कर सम्रादने अपने महलके निकटवर्ती छुन्दर भवनों वाली नवीन सराय समर्पण की। श्रावक-संबको बहां पर रहनेकी भाज्ञा देकर बादशाइने उसका नाम "“भट्टारक सराय प्रसिद्ध किया। वहां पर वीरप्रमुका मन्दिर व पौषधशाला बनवाई । सं० १३८९ मिती आषाढद़ कृष्णा ७ को, उत्सव पूरक सूरि महाराजने पौषधशाहामें प्रवेश किया । इस प्रसन्न पर विद्वानों एवं दीन अनाथोंको यथेष्ट दान दिया गया | मधुरा तीर्थंका उद्धार - सार्गशिर महिनेमें सम्राटने पूर्व देशकी ओर विजय प्राप्त करनेके हेतु ससैन्य प्रस्थान किया । उस समय उन्होंने सूरिजीकों मी वीनति करके अपने साथमें लिये । स्थान स्थान पर अन्दीमोचनादि द्वारा शासन-प्रभावना करते हुए सूरि मद्दाराजने मथुरा तीर्थका उद्धार कराया । हस्तिनापुरकी यात्रा और प्रतिष्ठा - शाही सेनाके साथ पैदल बिद्दार करते हुए सूरिजीको कष्ट होता है, यद्ट बिचार कर सम्राटने खोजे जद्दां मछिकके साथ उन्हें आगरेसे दिल्ली लोटा दिया। इस्तिनापुरकी यात्नाका फरमान लेकर आचार्य श्री दिल्ली पहुंचे । चतुर्विष संघ हस्तिनापुरकी यात्राके निमितत एकन्न हुआ । शुभ मुहूर्तमें बोहित्य ( चाइड पुत्र ) को संघपतिका तिलक कर वहांसे प्रस्थान किया | संघपति बोहित्थने स्थान स्थान पर मददोत्सब किये । तीर्थभूमिमें पहुंच कर तीर्थकों बधाया | नवनिर्मित शान्तिनाथ, कुंधुनाथ, अरनाथ आदि तीवैकरों- के बिम्बोंकी सूरिमीसे प्रतिष्ठा करवाई । अंबिकादेवीकी प्रतिमा स्थापित की । संघपतिने संभवात्सत्यादि किये । संघने बक्न, भोजन आई दाह यात्रकोंको सन्‍्तुष्ट किया । संबत्‌ १३८६ वैक्षाक् धुदि & के दिन रित, श्र ऑ्रीमिनप्रभ सूरिका हस्तिनापुर तीर्थकव्पमें, संघ सहित यात्रा करनेका सूरिजीने खयं उल्लेख किया है । तीर्थयात्रासे लौट कर सूरिजीने वैशाख छुदि १० के दिन श्रीकन्यानयनके मद्दावीर बिम्बको सम्राट्के बनवाये हुए जैन मन्दिरमें महोत्सव पूर्वक स्थापित किया । इधर सम्राट्‌ मी दिग्विजय करके दिल्ली लौटा । जैनमन्दिर और उपाश्रयोंमें उत्सब होने छगे। सम्राट्‌ एवं सूरिजीका सम्बन्ध उत्तरोत्तर घनिष्ठता प्राप्त करे रूगा | अतः सूरिजी और सम्राट्‌ दोनोंके द्वारा जिनशासनकी बड़ी प्रभावना होने छगी। सूरिजीके प्रभावसे दिगम्बर श्रेताम्बर समस्त जैन संघ व तीर्थोका उपद्रव शाही फरमानों द्वारा सवेथा दूर हो गया । भ्रन्थान्तरोंके चमत्कारिक उछेख- छुलतान प्रतिबोधका उपयुक्त वृत्तान्त, विविधतीर्थकल्प प्रन्थान्तगत 'श्रीकन्यानयन-महावीर प्रतिमाकलप' और रुद्रपष्ठीय गच्छके श्रीसोमतिछक सूरि कृत 'कन्यानयन-भ्रीमद्यापीर-तीर्थकरप परिशेष से लिखा गया है जो कि प्रथम खये सूरि महाराजकी और दूसरी समकाछीन रचना है। श्रब प्राकृत जिनप्रभसूरिप्रबन्धादि ग्रन्धान्तरोंसे सूरिजी एवं सम्राद्‌ सम्बन्धी विशेष बातें संक्षेपमें दी जाती हैं । पद्मावती सांनिध्य - पश्मावती देवीकी सूचनानुसार सूरिजी दिल्लीके शाहपुरामें आकर ठहरे | एक वार शौचभूमि जाते समय अनायोंने लेष्ट ( ढेल्य-पत्थर ) आदि द्वारा उन्हें अपमानित किया । पद्मावती देवीने उन अनार्योको उचित शिक्षा दी । इससे उन्होंने भाग कर छुख्तान महमदशाहसे सारा बृत्तान्त कद्दा | उसने चमत्कृत हो कर सूरिजीको अपने यहां बुलआया। सूरिजीके कुम्मकासनादि द्वारा सम्रादका चित्त अल्लन्त प्रभावित हुआ। उयन्तरोपद्रव निवारण - एक वार सम्राटने सूरिजीसे कक्न - 'मेरी प्रिया बाछदेको किसी ध्यन्तरकी बाधा है जिससे वह वच्छ* प्रहणादि शरीर झुश्नषा नहीं करती । आपका प्रभाव असाधारण है अतः कृपया किसी प्रकारसे इस ब्यन्त- रोपद्रवका निवारण करें! । सूरिजीने कहा, - “अच्छा ! उसके पास जाकर कट्दो कि जिनग्रभ सूरि भाते हैं ।! सम्नाट्ने वेसा ही किया। सूरिजीके आगमनकी बात छुन कर बालादने सहसा उठ कर दासीसे बस्र मंगा कर पद्दन लिये । सूरि महाराजके नाममें ही कैसा अद्भुत प्रभाव है इसका प्रत्यक्ष फल देख कर सम्राद्‌ अल्वन्त प्रसन हुआ, और सूरिजीको महलूमें पधारनेकी वीनति की | सूरिजीने आते ढ्वी बालदेके देह्में प्रविष्ट व्यन्तरको कहा - (दुष्ट ! तूं यहां कद्ठांसि आया, चल्म जा! | उसने जब जानेकी आनाकानी की तो गुरुदेवने मेघनाद क्षेत्रपालके द्वारा उसे भगा दिया | रानी खस्थ हो गई और सूरिजीके प्रति अत्यन्त भक्तिभाव रखने लगी । इच्योल् राघव चेतनको शिक्षा- एक वार सम्राट्की सेवामें काशीसे चतुर्दशविद्यानियुण मंत्र-तंत्रज्ञ राघवचेतन नामका ब्राक्षण आया। उसने अपनी चातुरीसे सम्रादको रक्षित कर लिया । सम्राट्‌ पर जैनाचार्य श्रीजिनप्रभ सूरिंजीका प्रभाव उसे बहुत अखरता था। अतः उन्हें दोषी ठहरा कर, उनका सम्राट पर प्रभाव कम करनेके लिये सम्राट्की मुद्रिका अपदरण कर सूरिजीके रजोह्रणमें प्रच्छन्ष रूपसे डाल दी । पद्मावती देवीसे वृत्तान्त ज्ञात कर सूरिजीने धीरेसे उस मुद्रिकाको राघव चेतनकी पगडी पर छटका दी | सम्राद्‌ मुद्रिका न पा कर इधर उधर देखने छगा तो राषव चेतनने. कद्दा -- “आपकी मुद्विका सूरिजीके पास है!” सम्रादने जब सूरिजीकी ओर देखा तोः उन्होंने संक्षिप्त जीवलं-बरित्र । श्इ कहा “उल्टा चोर कोतवालकों दण्डे!” वाली उक्ति चरितार्थ हो रद्दी है; मुद्रिका तो इसके मस्तक पर पड़ी है और यद्द इमारे पास बतलाता है | जब सन्नादने उसकी तछाशी की तो वह अपनी करणीका फछ पा कर म्लानमुख हों गया-“खाड छमे जो और को ता को कूप तैयार” कलंदर मुछा मसानसमदेन- इसी प्रकार फिर कभी राजसभा्म ख़ुरासानसे एक कठन्दर मुका आया। उसने अपना प्रभाव जमाने और सूरिजीका प्रभाव घटानेके लिए अपनी टोपीको आकाशमें फैंक कर अधर रखी और गवपूर्वक सम्राद्‌ से कहने छगा -'क्या कोई आपकी समामें ऐसा है जो इस ठोपीको नीचे उतार सकता है! सम्रादने सूरिजीकी ओर देखा । उन्होंने तत्काह रजोदरण फैंक कर उसके द्वारा टोपीको ताडित करते हुए फकीरके मस्तक पर गिरा दी | इस कौशलसे हताश होकर कढन्दरने एक पनिहारीके मस्तक पर रहे हुए घडेको अधर स्तम्मित कर दिया | सूरिजीने कहा - “घडेको स्तंमित करनेमें क्या है, बिना घडे पानीको स्तंभित करे वही श्रेष्ठ कला है?। सम्रादनें मुकासे बैसा करनेको कहा परन्तु वहू न कर सका । तब सूरिजीने तत्काल घडेको कंकरसे फोड कर पानीकों अधर स्तंभित दिखछा दिया। अद्भुत भविष्य-वाणी - एक समय सम्रादने शाही सभामें बैठे हुए समस्त पण्डितोंसे पूछा -“कद्दिये | आज मैं किस मार्गसें राजवाटिकामें जाऊंगा / सभी पण्डितोंने अपनी अपनी बुद्धिके अनुसार लिख कर सम्रादकों दे दिया । सम्रादने सूरिजीसे कह्ठा तो उन्होंने भी अपना मन्तव्य लिख दिया। सब चिट्ठीयोंको अपने दुष्पट्टेमें बांध कर सम्रादने विचार किया, कि आज किसी ऐसे मारगसे जाना चाहिए जिससे ये सब असल्यवादी सिद्ध हो जावें । विचारानुसार वह्द किलेके बुजको तुडवा कर नवीन मा्गसे राजवाटिकामें पहुंचा और एक बट बृक्षकी छायामें बैठ कर सब पण्डितों और सूरिजीको बुछाया । सबके लेख पढे गये और वे असत्य प्रमाणित हुए। अन्तमें सूरिजीका लेख पढ़ा गया | उसमें लिखा था - “किलेके बुजंको तोड कर राजवाठिकामें जा कर घुछू- तान वट इक्षके नीचे विश्राम करेंगे।” इस अद्भुत निमित्तको श्रवण कर सभी विद्वान और विशेषतः सम्राद्‌ अल्यन्त विस्मित हुए और सम्रादने स्पष्ट रूपसे सबके समक्ष सूरिजीकी इन शब्दोंमें स्तुति की कि-“सच- मुच यद्द बात मनुष्यकी कल्पनासे भी अगम्य है। ये गुरु मनुष्य रूपमें साक्षाव्‌ परमेश्वर हैं ।! इसी प्रकार अन्यदा सम्राटके यद्द पूछने पर कि-"“मैं आज कया खाऊंगा ? सूरिजीने निमित्त बल्से एक पुर्जेमे अपना मन्तन्य लिख दिया और भोजनानन्तर खोडनेको कट्ठा । घुछतानने “खोछ”” खाया और जब. सूरिजीका लिखा हुआ पुर्जा देखा गया तो उसमें भी बही लिखा पाया। बट तृक्षकों साथ घलाना- एक वार सम्रादने देशान्तर जानेके डिये प्रस्थान कर एक शीतल छायावाले इक्षके नीचे विश्राम किया । सम्रादने आराम पा कर उस बृक्षकी बहुत प्रशंसा की और कद्दा कि-'“यर्दि यद्द इक्ष अपने साथ. रहे तो क्‍या दी अच्छा हो !! सूरिजीने अपने लोकोत्तर विद्या-प्रभावसे बृक्षकों भी सम्राटका सदृगामी बना दिया। पांच कोस तक बृक्ष साथ चला; फिर सूरिजीने सम्रादके कद़नेसे उस बृक्षको वापिस खस्थारन १ सन्नादके समक्ष मुछाकी टोपीको रजोहरण द्वारा आकाशसे गिरानेका उल्लेख युगप्रधान श्रीजिनचंद्रसूरिजीके संबन्धर्मे मी आता है। इस्ली प्रकार अमाबास्थाके दिन पूर्णचेह्रका उदय करनेका प्रसह् मी यु० जिनचन्द्रसरि ओर सप्रनोंद्‌ अकषरके अरित्रोंम भाता है। हमारे बिचारसे ये दोनों बातें श्रीजिनप्रभसूरिजीके सम्बन्धकी होंगी । 8 श्रीजियभस खूरिका . जानिकी आज्ञा दी । तत्र चुक्ष मी सम्राटको नमस्कार करके छस्थान चछा गया । इस अनोखे चमत्कारसे सूरिजीफे प्रति सब्ादूकी श्रद्धा शलघिक दढ़ हो गई। बादशाह महमद तुगुलक क्रमशः प्रयाण करते हुए भारवाड़ पहुंचा। वहके लोग सम्रादके दर्शनार्थ॑ भये। उन्हें उत्तम वस्नाभरणोंसे रहित देख कर सम्रादने सूरिजीसे कद्दा - थे छोग छूटे हुएसे क्‍यों माद्धम होते हैं !” सूरिजीने कद्ा -“ राजन्‌ | यह मरुस्थली है; जलाभावके कारण धान्यादिकी उपज अल्यल्प होती है, अतएव निर्धनतावश इनकी ऐसी स्थिति है । सम्राटने करुणा द्वोकर प्रत्येक मनुष्यको पाँच पॉँच दिन्य क्स्न और प्रत्रेक ख्रीको दो दो खणैमुद्राएं एबं साड़ी प्रदान कीं । / अहाभीर प्रतिसाका बोलना - कम्यानथनकी श्री महावीर प्रतिमाको सूरिजीने सम्राट्से प्राप्त की थी, जिसका उल्लेख ऊपर आ ही चुका है। प्राइत अबचन्धमें लिखा है कि - जिस समय सम्रादने उस प्रतिमाका दर्शन किया और सूरिजीने अतिमाको जैन संघके सुपुर्द करनेका उपदेश दिया, तब सम्चाटने कद्ढा -“यदि यह्ष प्रतिमा मुंहसे बोले तो मैं आपको दे सकता हूं ।! इस पर सूरिजीने कहा - 'प्रतिमाकी विधिवत पूजा करनेसे बह अवश्य बोलेशी सम्रादने कौतुकसे उनके कथनानुसार पूजन किया और दोनों द्वाथ जोड़ कर विनीत भावसे प्रतिमराको बोलनेके लिए प्रार्थना की । तत्काल ही देधप्रभावसे अपना दादिना हाथ लम्बा करके बढ़ इस प्रकार बोली - विजयतां जिमशासनमुजवलं विजयतां भूभुजाधिपचल्ुभा । विजयतां भुवि साहि महम्मदों विजयतां गुरुसरिजिनप्रभः । अपने प्रछे हुए प्श्नोंका अभुप्रतिमासे सन्‍्तोषजनक उत्तर पा कर सम्रादके चित्तमें अत्यन्त चम- त्कृति उत्पन्न हुई और उस प्रतिमाकी पूजाके निमित्त खरह और मातंड नामक दो ग्राम दिये और मन्दिर बनवा दिया । सजलाटकी श्ुजय थाजा और रायणकी दृधवथों - एक कर घुल्तानमे शुरुजीसे पूछा-“जिस प्रकार यह कान्हड़ महावीरका चमत्कारी तीर्थ है, क्‍या वैसा ही और कोई तीर्थ दे!” सूरिजीने तीर्धाधिराज शत्रुंजयका नाम बतछाया । सब संधके साथ सम्राट सूरिणीको लेकर शतरंज गया। रायण रुंखकी यात्रा करते समय सूरिजीमे कहा-“यदि इस रायणको मोतियोंसे बणाया जाब तो इसमेंसे दूधकी बर्षा होती है ।' सम्रादने ऐसा ही किया, जिससे रायण रुंखसे दूध झरने लगा । इससे चमत्कृत हो कर सम्रादने बहां पर ऐसा लेख लिखबाया कि इस तीर्थकी जो अबह्ला करेगा उसे सम्राटकी अवज्ञाका मद्दान्‌ दण्ड मिलेगा | शत्रुंजयकी तलहद्टीमें सर्व दर्शनोंके मान्य देवताओंकी मूर्तियां एकत्र कर मध्य भागमें जिनप्रतिमाको रखा और ख््रयं सशश्न मुसाददिबोंके बीचमें बैठ कर लोगोंसे प्रूछा-'बड़ा कोन है?” लोग बोले-“आप ही बड़े हैं !! तो छुलतानने कट्दा जिस अ्रकार दृधियार वाले सब सेकक और में उनका मालिक हूं वैसे ही अस्न शत्नर॒ धारण करने वाले सब देवता सेवक हैं भौर जैन तीर्थक्लर सब देवोंमें बड़े हैं । शिरनारकी अच्छेय प्रतिमा - पहांसे सूरिजी एवं संघके साथ सम्राट्ने गिरनार पर्यतकी यात्रा की। वहाके श्रीनेमिनाथ प्रभुकै बिम्बको अष्छेघ और अमेद्य छुन कर परीक्षाके निमिच उस पर कई प्रद्वार करवाये, पर प्रह्मरोंसे प्रभु-मतिमा ख़ण्डित संक्षितं जीव॑त-भरित्र । हेंरे में हों कर उससे अंग्रेकी चिनगारियां निकाउने छगी । तब सप्रादने प्रतिमाकें संग हतो वाचना कर उसे स्॒र्णमुद्राओंसे बधाई । विजय-पश्म-सहिसा - एक वार मन्न-यज्गके माहात्म्यके सम्बन्धर्मं सूरिजी और सम्रादमें वार्सालाप हो रद्दा या। जद प्रसज्ञवश विजय-यज्नकी मद्दिमा छुन कर उसके प्रभावको प्रत्यक्ष देखना चाहा । सूरिजीने विजय हुए सम्रादसे कद्टा-“जिसके पास यह यंत्र होता है उसे देवताओंके अल्न मी नहीं लूगते और कुपित शत्रु भी अनिष्ट नहीं कर सकते ।/ सम्रादने उस यद्नको एक बकरेके गछेमें बांध कर उस पर खट्डकें कई प्रद्दार किये परन्तु यन्नके प्रभावसे बकरेके तनिक भी धाव नहीं हुआ | तब फिर उस यंत्रकी छन्नदण्ड पर बाँध कर उसके नीचे एक चूदेको रखा गया और सामनेसे बिल्ली छोड़ी गई। चूहेकों पर्कंढ़नेके लिए बिल्ली दौड़ी अवश्य, परन्तु यन्नके प्रभावसे छत्रके नीचे न आ सकी, जिससे वह चूहा घाल बार बच गया | यंत्रका यह अक्षुण्ण प्रभाव देख कर सम्रादने ताम्रमय दो यज्ञ बनका कर एक खय्य रखा और एक सूरिजीको दे दिया। इसी प्रकारके चमत्कारी प्रवादोंमें अभावसलको पूनम बना देना, शौतज्वंर्को शोडीमें बांधके रख देना, मैंसेके मुखसे वाद कराना, आदि जनश्रुतियां मी पाई जाती हैं। बुद्धिशाली कथन - पं० श्रीशभशील्गणिके कथाकोशमें उपयुक्त प्रवादोंके साथ सम्रादके पूछे हुए दो प्रश्नोंके सूरिजी द्वारा दिये गये युक्तिपूर्ण उत्तरोंके उछेख इस प्रकार हैं- एक वार सम्रादने राजसभामें पूछा, कद्दो-'शक्कर किस चीजमें डालनेसे मौठी छघती है?” पण्डितोंमेंसे किसीने कुछ और किसीने कुछ ही उत्तर दिया। उससे सम्राट्कों सन्‍्तोष न होनें पर सूरिणौसे पूछा । उन्होंने कहा-शक्कर मुँहमें डारनेसे मीठी छूगती है ।! इसी तरह एक वार, सम्राद्‌ क्रीड़ाके हेतु उद्चानमें गया या, वहां जर्से भरे हुए विशाल सरोवरको देख कर सबसे पूछा-'यह सरोबर धूलि आदि द्वारा भरे बिना ही छोटा कैसे हो सकता है ” कोई भी इस प्रश्नंका युक्तिपू्ण उत्तर मं दे सका; तब सूरिजीमे कद्दा-यदि इस सरोवरके पास अन्य कोई बड़ा सरोवर बनाया जाय तो उसके आगे यद्द सरोवर खयमेव छोटा कद्वलाने छग जायगा ।? एक समय सुलतानने सूरिजीसे पूछा कि-'प्रृथ्वी पर कौनसा फरू बड़ा है! उन्होंने कह्दा- “मनुष्योंकी लज्ना रखने वाछी वठणी ( कपास )का फल बड़ा है ।? सोमप्रभसूरि मिलन ओर अपराधी चूहेको शिक्षा- सं० १५०३ में विरचित श्रीसोमधर्मकृत उपदेशसप्तति और स॑रकृत जिनग्रमसूरि-प्रबन्धमें लिखा है कि-एक बार श्रीजिनप्रभ सूरिजी पाटणके निकठवर्सी जंघराल मंगरमें पधारे तो बढ़ाँ लपागष्छीय श्रीसोमप्रभ सूरिजीसे मिलनेके लिये गये। सोमग्रभ सूरिजीने खड़े हो कर बहुमान पूर्वक आसनादि द्वारा उनका सन्‍्मान करते हुए कहा-“भगवन्‌ ! आपके प्रभावले आज जैनधर्म जयबन्त बर्त रहा है । आपकी शासन- सेवा परम स्तुत्य है ।! प्रत्युत्तरमें श्रीजिनप्रभ सूरिजीने कहा-'सज्नादुकी सेनाके साथ एवं समामें रदनेके कारण हम चारित्रका ययावत्‌ पाठन नहीं कर सकते । आपका चरित्रगुण कापनीय है। इस प्रकार दोनों आचायोंका शिष्ट संभाषण हो रहा था, हतने-ही-में एक मुनिने अधिलेखन करते समय, अपनी सिकिका हद श्रीजिनप्रभ सूरिका . ( झोली )को चूहों द्वारा काटी हुई देख कर सोमप्रभ सूरिजीको दिखलाई । श्रीजिनप्रभ सूरिजी मी पासमें बैठे थे, उन्होंने आकर्षणी विद्यासे उपाश्रयके समस्त चूहोंको रजोहदरण द्वारा आकर्षित कर लिया और उनसे कद्ठा कि --“तुममेंसे जिसने इस सिक्किकाको काटी हो वह यहां ठह्रे, बाकी सब चले जाँयः । तब केवल अपराधी चूहा वहां रद्द गया, और बाकी सब चले गये । उसे भविष्यमें ऐसा न करनेको कद्द कर उपाश्रयका प्रदेश छोड़ देनेकी आज्ञा दे दी। इससे श्रीसोमप्रभ सूरि और मुनिमण्डली बड़ी विस्मित हुई । योगिनी प्रतियोध - प्राकृत प्रबन्धमें लिखा है कि-एक वार चौसठ योगिनी श्राविकाके रूपमें सूरिजीको छलनेके लिये आई और सामायक ले कर व्याख्यान श्रवणार्थ बैठीं। पद्मावती देवीने योगिनीयोंकी भावनाको सूरिजीसे विदित कर दी । तब सूरिजीने उन्हें व्याख्यान श्रवणमें निमम्न देख कर वहां खील करके स्तम्मित कर दीं । न्यास्यान समाप्तिके अनन्तर जब वे उठनेको ग्रस्तुत हुई तो अपनेको आसनों पर चिपकी हुई पाई । यह्द देख कर सूरिजीने ग्रदु हास्यपूवंक उनसे कहा-“मुनियोंके गोचरीका समय हो गया है, अतः शीघ्र वन्दना व्यवहार करके अवसर देखो !” मन-ही-मन लज्जित होती हुईं योगिनियोंने कह्ाा-'भगवन्‌ ) हम तो आपको उलनेके लिये आई थीं पर आपने तो हमें ही छल लिया । अब कृपा कर मुक्त करें ।” सूरिजीने कद्ा- “हमारे गच्छके अधिपति जब योगिनीपीठ ( उजैनी, दिल्ली, अजमेर, भरौंच ) में जॉय तो उन्हें किसी प्रकारका उपद्रव नहीं करनेकी प्रतिज्ञा करो तो छोड़ सकता हूं ।” योगिनियां इस बातका खीकार कर खस्थान चली गई। इसके बाद खरतर गच्छके आचार्य सर्वत्न निर्विन्नत॒या विहार करते रहे । औौवोंको जैन बनाना - सं० १३४४ (१ ७४ )में खंडेलपुरमें जंगल गोत्रके बहुतसे शिवभक्तोंको प्रतिबोध दे कर जैन बनाए। देवीउपद्व निवारण - झुभशीलगणिके कथाकोशमें लिखा है कि- एक नगरमें श्रावक छोगोंको दो दुष्ट देबियां रोगोप- द्रवादि किया करती थीं, सूरिजीको ज्ञात द्वोने पर उन्होंने उन देवियोंकों आकर्षित कीं । उसी समय उत्त 'नगरके संघने दो श्रावकोंको इसी कार्यके लिये सूरिजीके पास मेजा था । उन्होंने, उपद्रबकारी देवियोंको सूरिजी समझा रहे हैं, यद्द अपनी आँखोंसे देखा तो उन्हें बड़ा विस्मय हुआ । उनके प्रार्थना करनेके पूर्व ही सूरिजीने उस उपद्रवकों दूर करवा दिया। श्रावकोंने ठौट कर संघके समक्ष सब वृत्तान्त कद्द कर सूरिज्ञीकी भूरि भूरि प्रशंसा की | श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी साहित्य सम्पत्ति- श्रीजिनप्रम सूरिजीने साहित्यकी अनुपम सेवा की है। उनकी कृतियां जैन समाजके लिये अच्यन्त शौरबपूणे है । इन कृतियोंमेंसे रचना समयके उल्लेख वाली कृतियोंका निर्देश तो ययास्थान किया जा चुका है | पर बहुतसी क्ृतियोंमें रचना समयका उल्लेख नहीं है | अतः यहां उनकी समी कृतियोंकी यथा ज्ञात सूची दी जाती है| १ कातब्र विश्वमटीका, ग्रें० २६१, सं० १३५२, योगिनीपुर, कायरथ खेतरूकी अभ्यर्थनासे | २ श्रेणिक चरित्र (दृथाश्रयकाव्य ), सं० १३५६ (कुछ भाग प्रकाशित ) ३ विधिप्रपा, प्रं० ३५७४, सं० १३६३ विजयदशमी, कोशलानयर । ४ कल्पसूत्रदृत्ति - सन्देहविषोषधि, प्रं० २२६९, सं० १३६४, अयोध्या, (प्रकाशित ) संक्षिप्त जीवन चरित्र १७ ५ अजितशान्तिदृत्ति (बोधदीपिका ) सं० १३६५ पोष, प्रं० ७४०, दाशरथिपुर (प्र०) ६ उपसर्गहरस्तोत्रवृत्ति (अर्थकल्पछ्ता ), ग्रं० २७१, सं० १३६४ पो० व० ९, साकेतपुर (०) ७ भयहरत्तोन्रबृत्ति ( अभिप्रायचन्द्रिका ), सं० १३६४, पो० छु० ९, साकेतपुर | ८ पादलिप्तकृत पीरस्तोत्रब्गत्ति, सं० १३८०, ( चतुर्विशतिप्रबन्ध अनुवादके परिशिष्टमें प्र० ) - ९ राजादि-रुचादिगणवृत्ति, सं० १३६८१ । है १० बिविधतीर्थकल्प, सं० १३९० तकमें पूर्ण (सिंघी जैन प्रन्थ मारछामें प्रकाशित ) '११ विदग्धमुखमण्डनदृत्ति ( इसकी एक मात्र प्रति बीकानेरके श्रीजिनचारित्रसूरि-मंडारमें है ) | १२ साधुप्रतिक्रमणवृत्ति, जैनस्तोत्रसंदोह, भा० २, प्रस्तावना प्ृ० ५१ में इसका रचंना काछ सं० १३६४ लिखा है । १३ हैमव्याकरणानेकार्थकोष, छो० २००, (पुरातत्त्व, वर्ष २, पृ० ४२४ में उछिखित ) १४ प्रहद्माख्यानस्थानविवरण १५७ प्रत्रज्यामिधानवृत्ति १६ घन्दनस्थानविवरण १७ विषमकाव्यशृत्ति १८ पूजाबिधि १९ तपोटमतकुट्टन २० परमसुखद्वात्रिशिका, गा० ३२ २१ सूरिमन्नान्नाय ( सूरिविद्याकल्प ). २२ वर्द्धमानविद्या, प्रॉं० गा० १७ २३ पद्मावती चतुष्पदिका, गा० रे७ २४ अनुयोगचतुष्टयव्याख्या (प्र०) २५ रहस्यकल्पद्रुम, अल्म्य, उल्लेख ग्रं० नं० २४ में । २६ आवश्यकस्‌त्रावचूरि (षडावश्यक टीका) उल्लेख “जैन साहित्यनो सं० इतिहास ' तथा जैनस्तोत्र- संदोह भाग २ २७ देवपूजाबविधि - विधिग्रपा परिशिष्टमें प्रकाशित जै० सा० सं० ३० ४२०, और जैनस्तोत्रसं० भा० २, भ्रस्तावनामें इनके रचित म्रन्थोंमें चतुर्विधभावमाकुलक आदि कई अन्य कृतियोंका उल्लेख है पर हमें वे आगमगच्छीय जिनप्रभसूरिरच्ति प्रतीत होती हैं ( देखो, जै० गु० क० भा० १, प्रस्तावना प्ृू० ८०-८१ ) इनका उल्लेख, हीराछाछ कापड़ियाकी “चतुर्विशति जिनानज्द- स्तुति'की ग्रस्तावना, प० ४० में है । (७ & # .& ०० ७०७ «४० ९ १० ११ १२ १३ १४ हज १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ श्र २ २५ २६ स्तुति-स्तोत्रादिकी सूची। पच्च भारस्य श्रीजिनस्तोत्र ( १० दिग्पाढ- अस्तु श्रीनाभिभूदेवों सं० स्तुतिगर्भ ) श्रीकृषभजिनस्तोत्र श्रीऋषभजिनस्तोत्र श्रीअजितजिनत्तोत्र श्रीचन्द्रप्रमजिनस्तुति १) श्रीशान्तिजिनस्तत्रन 9१ श्रीमुनिष्नुत॒तजिनस्तोत्र श्रीनेमिजिनस्तोत्र श्रीपाश्चेजिनस्तोत्र 99 | (जीरापली) » (आतिहार्य) » निवग्रहग ०) ११ १) ( फलवद्धि ) श्रीवीरजिनस्तोत्र श्रीवीरजिनस्तोत्र 93 7) है 99 ५ 99 (पंचकल्याणक ) । अलाछ्ादि | तुराई निरवधिरुचिरज्ञानं विश्वेश्वरं मथितमन्मथ ० देवैर्यस्तुष्टने तुष्टै सं० नमो महासेननरेन्द्रतनुज | श्रीशान्तिनाथो भगवान्‌. सं० नि्मोय निर्माय गुणद्धि.. सं० श्रीडरिकुलहीराकर ० सं० अधियदुपनमन्तो सं० कामे वामेय ! शक्तिभवतु॒ सं० जीरिकापुरपरति सदैव ते सं० त्वां विनुत्य महिमश्रिया मह्ं सं० दोसावह्ारदक्खो प्र० पार्बनाथमनघ सं० पाश्व प्रभु शश्रदकोपमानम्‌ सँ० श्रीपाश्व | पादानतनागराज सं० श्रीपार्श भावतः स्तौमि. सं० श्रीपार्थः अयसे भूयात्‌ू सं० सयलाहिवाहिजल्हर० प्रा० असमशमनिवासं सं० कंसारिक्रमनियेदापपा ० सं० चित्रे: स्तोष्ये जिने वीर॑ सं० निस्तीणेविस्तीणेमनाणैब. से० पराक्रमेणेव पराजितोइय॑. सं० अ्रीवद्धमानपरिपूरित ०... सं० भाषा पदसंसख्या. विशेष ११ छेषमय ११ पारसी माषा ४० अष्टभाषामय २१ महायमक ४ समचरण-साम्य ३ षड्भाषामय २० अ्यक्षर यमक २० क्रियागुप्त १२ सं० १३६५९ १७ ५ ग्यक्षर यमक १० समचरण-साम्य १० प्राकृत ९, ८ पादान्तयमक ८ १) ९ समचरण-साम्प 9४ १२ प्राकृत २५ निविधर्ंद जाति २५ छेंदनाममय २७ चित्रमय १७ लक्षणप्रयोग ३६ १३ इनमेंसे नं० ८, १५, २९५, ३३ अप्रकाशित हैं, अवशेष सब प्रकरण रज्ाकर, जैनस्तोश्रसमु्य, जैनस्तोश्रसन्दोद, प्राचीनजैनस्तोत्रसंग्रह आदिमें प्रकाशित हो गये हैं। नं० २ सावचूरि जैन साहिल्यसंशोधकमें प्रकाशित दो चुका है। नं १४, ४१ की अवचूरि, टिप्पण उपलब्ध है। पं० लालचंद भगवानदासने इस सूचीके अतिरिक्त “कि कप्पतरुरे” दि बाके पंचपरमेप्ठटिस्वका भी नाम लिखा है। हीरालाल रसिकदास कापढ़िया सूरिजीके सभी स्वोन्रोंका संप्रदप्न्ध सम्पादित करके दे० ला» पु० फंडसे प्रकाशित करने वाले हैं। वह शीघ्र ही प्रगट दो यददी हमारी मनोकामना है । रुक २८ २९ ३० ३१ शेर औ३े ३४० ३५ ३६ ३७ श्ट ३९ ४१ ४२ श्रे ४ 9५ 9६ 9७ छ््ट ४९ ७५१ घर ज३ ५४ प्‌ ५६ ७५७ नाम 7 | » ( निवोणकल्याणक ) ग्र ॥9 79 | » (चतुर्विशतिजिनस्तव) श्र 99 चतुर्विशतिजिनस्तोत्र चतुर्विशतिजिनस्तोत्र 99 श्रीवीतरागस्तोत्र श्रीअढ्वदादिस्तोत्र भीपंचनमस्कृतिस्तोत्न श्रीमच्रस्तोन्न पंचकल्याणकसतोत्र श्रीगीतमखामभिस्लोत्र ६ &। 4) श्रीशारदास्तोत्र श्रीशारदाष्टक श्रीवद्धेमान विद्या सिद्धान्तागमस्तोत्र आज्ञास्तोत्र (ऋषभ० ) श्रीजिनसिंहसूरिस्तोत्र मन्नलाष्टक नन्दीश्वरक॑स्पस्तव इनके अतिरिक्त हमारे अन्वेषणमें निन्नोक्त स्तोत्र और मिले हैं - '. अंक्षिप्त जीवन चरित्र पच्च आरस्स श्रीवद्धमानः सुखबुद्धयेडत्तु सं० श्रीसिद्धार्थनरेन्द्रबंश ० सं० सिरिवीयराय देवाहिदेव प्रा० खःअयससरसीरुद्द - सं० आनन्दसुन्दरपुरन्दरनम्र:. सं० आनम्रनाकिपति ० सं० ऋषभदेवमनन्तमहोद्य सें० ऋषभ ! नम्रसुरासुर ० से० ऋषभनाथमनायथनिमानन ! सं० कनककान्तिधनुःशत ० सं० जिनर्षम ! प्रीणितमज्यसार्थ ! सं० तत्त्वानि तत्त्वानि मतेषु सिद्ध सं० पात्वादिदेवों दशकल्पक्क्षः सं० प्रणम्यादि जिने॑ प्राणी सं० ' ये सततमक्षमालोप ० सं० जयन्ति पादा जिननायकस्यसं० मानेनोबीं व्यक्त परितो. सं७ प्रतिष्ठित तमःपारे सं० खः्श्निय॑ श्रीमदहन्त: सं० निलिम्पलोकायितभूतर॑. सं७ जम्मपवित्तियसिरिमग्गह प्रा० श्रीमन्तं मगधेषु गोवैर इति सं० 3» नमज्रिजगन्नेतु सं० बाग्देवते ! भक्तिमतां सं० ३ नमखिजगद्वन्दितक्रमे ! सं० इय वद्धमाण विज्ा प्रा० नत्का गुरुभ्यः सं० नयगममभंगपदाणा प्रा० प्रभु) प्रदय्यान्‍्मुनिपक्षिपल्के. सं० नतसुरेन्द्र | जिनेन्द्र |. सं० आराध्य श्रीजिनाघीशानू. सं० १९ ३५ २६ २९ २५ २९ र्‌९ २९ २८ २९ २८ ३० १६ रे३२ रण २१ १३ १७ 8६ ११ १३ ४९ 3 भाषा पसंख्या विशेष प्थ्के आप्माग्ता- क्षरोंमें नामोछेस चंचवर्गपरिदार प्राकृत महामंत्रगर्भित चरणसमानता प्राकृत चरणसाम्य चौबीस जिननाम- गमित २७ भ्रीजिनप्रभ सूरिका कमाइ नाम प्रद्म प्रारस्भ भाषा पद्मंख्या बिहोष ७८ श्रीफलवर्धिपा श्रेस्तोत्र श्रीफलवर्धिपाश्रेप्रमो कार॑ सं० ९, सं० १३८२ बे० घु० १० ७९ फलवबर्द्धिपाश्रेस्तोत्र जयामकझ्य श्रीफल्वर्धिपा्शव॑ सं०_ २१ ६० पाश्चनाथस्तवन असमसरणीय जउ निरंतरा प्रा० ७ ऋतुवर्णन ६१ परमेष्ठिस्तव (मंगलाष्टक) जितभावद्विषं खर्विदामू सं० ८ ६२ चन्द्रप्रभचरित्रस्तोत्र चंदप्पह् २ पणमिय चर० प्रा० २२ ६३ मथुरायात्रास्तोत्र सुराचलश्रीजितदेवनिमिता सं०. १० ६४ शल्रुअ्ययात्रास्तोत्र श्रीशत्तंजयतित्थे प्रा० ९ सं० १३७ध्यात्रा ६५ मथुरास्तृपस्तुतयः श्रीदेवनिर्मितस्तूपश्वृंगारति ० सं० 9 ६६ पंचकल्याणकस्तुतयः पद्मप्रभप्रभोजन्मर्भा०. सं०_ १५ ६७ त्रोटक निय जम्मु सफल प्रा० ज्‌ ६८ पहाड़िया राग अकलु अमलुअ जोणि संभवु प्रा० || ६५ प्रभातिक नामात्रलि सौभाग्याभाजनममंगुर ( विधिग्रपाके परिशिष्टमें प्रकाशित ) ७० प्राकृतसिद्धान्तस्तव सिरि वीरजिणं सुयरयण._( समाचारी शतक प्रृ० ७६ में प्र० ) ७१ उवसग्गहरपादपूर्ति पार््रस्तवन गा०. २२ ७२ मायाबीजकल्प प्राग्गा० ३० ७३ गशान्तिनायाष्टक अजिकुह् काफु जुनू ० पारशीमाषाचित्रक अ्रीजिनप्र मसूरिकी शिष्यपर म्परा । १ श्रीजिनदेव सूरि- आप सा० कुलूधरकी पत्नी वीरिणीकी कुक्षिसे उत्पन्न हुए थे। आपने श्रीजिन- सिंह सूरिजीके पास दीक्षा ग्रहण की थी। जिनप्रभ सूरिजीने इन्हें अपने पद पर स्थापित किये थे | सुछतान महमदसे जब सूरिजी मिले तब आप भी साथ ही थे । मम्रादने सूरिजीके साथ इनका भी बड़ा सन्‍्मान किया था। सूरिजीके विहार करने पर आप सम्रादके पास बहुत समय तक रहे थे और इनका सम्राद्‌ पर अच्छा प्रभाव था | इनका उल्लेख आगे आ चुका है। आपकी रचित कालकाचार्येकथा प्रकाशित हो चुकी है । २ श्रीजिनमेरु सूरि-आप श्री जिनदेव सूरिजीके शिष्य थे | इनके गुरुभाई श्रीजिनचंद्र सूरि थे । ३ श्रीजिनहित सूरि-इनका रचा हुआ एक वीरस्तवन गा० ९ (हमारे संग्रहके गुटकेमें ) है । इनके प्रतिष्ठित १ पाश्वनाय पंचतीर्थीका लेख सं० १४४७ फा० ब० ८ सोम श्रीमाल ढोर पिरीयाराम कर्मसिंद् कारित, बुद्धिसागरसूरिके धातुप्रतिमा लेखसंग्रह, भा० २, लेखांक ६१७ में प्रकाशित हो चुका है । 9 श्रीजिनसच्चे सूरि ५ श्रीजिनचन्द्र सूरि - इनके प्रतिष्ठित प्रतिमा लेख, सं० १४६९, १४९१, १७५०६ के उप- ल्व्घ होते हैं । ६ श्रीजिनसमुद सूरि-श्नकी रचित कुमारसंभव टीका, डेक्न कालेजवाले संग्रहमें उपलब्ध है। ७ श्रीजिनतिछक सूरि-इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाओंके लेख सं० १५०८ से १५२८ तक के उपलब्ध हैं। इनके शिष्य राजहंसकी की हुई वाग्म्ठालझ्लारइृत्ति सं० १४८६ में लिखित उपलब्ध है । संक्षिप्त जीवन चरित्र हक ८ श्रीजिनराज सूरि- इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाका लेख सं० १५६२ बै० सु० १० का प्रकाशित है। « श्रीजिनचन्द्र सूरि - इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाका लेख सं० १५६६ ज्येष्ठ सुदि २ और सं०. १५६७ मा० सु० ५ के उपलब्ध हैं | ु १०. श्रीजिनभद्र सूरि- इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाओंके लेख सं० १५७३ वै० छु० ५ और सं० १५६८ मि० छु० ७ के प्रकाशित हैं। १०४ अ्रीजिनमेरु सूरि । ११ श्रीजिनभानु सूरि- आप श्रीजिनभद्र सूरिजीके शिष्य थे (सं० १६४१)। इसके पश्चात्‌ आचाये परम्पराके नाम उपलब्ध नहीं है। सं० १७२६ के नयचक्र वचनिकासे-जो कि श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी परम्पराके पं० नारायणदासकी प्रेरणासे कवि हेमराजने बनाई थी - श्रीजिनग्रभ सूरिजीकी परम्परा १८ वीं शताब्दीतक चली आ रही थी, ऐसा प्रमाणित द्वोता है। श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी परम्परामें चारित्रवर्द्धन अच्छे विद्वान्‌ हुए हैं जिनके रचित “सिन्द्र प्रकर टीका' (सं० १५०५), नेषधमहाकाज्य टीका, रघुबंश टीका - आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। श्रीजिनप्रभ सूरिजीके शिष्य वाचनाचाये उदयाकरगणि, जिन्होंने विधिप्रपाका प्रथमादश लिखा था, रचित श्रीपार्थनाथकलश, गा० २४ हमारे संग्रहके गुटकेमें उपलब्ध है। दि० जैन विद्वान्‌, पं० बनारसीदासजी, जिनप्रभ सूरिजीके शाखाके विद्वान्‌ भानुचन्द्रके पास प्रतिक्रमणादि पढे थे, ऐसा वे खय अपनी जीवनीम लिखते हैं। उपसंहार- उपयुक्त वृत्तान्तसे, श्रीजिनप्रभ सूरिजीका जैन साहित्यमें बहुत ऊँचा स्थान है यह खतः प्रमाणित हो जाता है। उन्होंने सुखढ्तान महम्मदकों अपने ग्रभावसे प्रभावित कर जैन समाजको निरुपद्रव बनाया, जैन तीर्थों व मन्दिरोंकी सुरक्षा की । सम्रादको समय समय पर सत्परामश दे कर दीन दुःखियोंका कष्ट निवारण किया । उसकी रुचिको धार्मिक बना कर जनता पर होने वाले अद्याचारोंको रोका । जैन शासनकी तो इन सत्र कार्योंसे शोभा बढ़ी ही, पर साथ साथ जन साधारणका भी बहुत कुछ उपकार हुआ । सूरिजीने साहित्यकी जो महान्‌ सेवा की उससे जैनसाहित्य गौरवान्वित है। उनका विविध तीर्थकल्प प्रन्य भारतीय साहित्यमें अपनी सानी नहीं रखता । इस ग्रन्थसे सूरिजीका विह्यर कितना सावैत्रिक था, और पुरातन स्थानोंका इतिबृत्त संचय करनेकी उनमें कितनी बड़ी लगन थी,- यह बात इस प्रन्थके पढने वालेसे छिपी नहीं है। इसी प्रकार दृशश्रयकाव्यसे सूरिजीकी अप्रतिम प्रतिभाका अच्छा परिचय मिलता है। विधिग्रपा प्रन्य मी आपके श्रुतसाहित्मके गम्मीर अध्ययन ओर गुरुपरम्परासे श्राप्त ज्ञानका प्रतीक है। आपके निर्माण किये हुए स्तुतिस्तोत्र, स्तोत्रसाहित्यमें महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं । एक ही ब्यक्ति द्वारा इतने ुन्दर और वेशिश्यपूर्ण अनेक स्तोन्नोंका निमोण होना अन्यत्र नहीं पाया जाता। तपागच्छीय सोमतिलक सूरिसे मिलने पर सूरिजीने जो शब्द कहे, अपने रचित स्तोत्नोंको उन्हें समर्पित किया एवं अन्य गच्छीय विद्वानोंको शाख्रीय अध्ययन रकाया, उन्हें प्रन्य रचनेमें साद्घाय्य प्रदान किया-इन सब बातोंसे सूरिजीकी उदार प्रकृतिकी अच्छी झांकी मिलती है | इस प्रकार विविध सत्मरदृत्तियों द्वारा श्रीजिनप्रभ सूरिने जैन शासनकी महान्‌ प्रभाषना करके एक विशिष्ट आदर्श उपस्थित किया | मुसलमान बादशाहों पर इतना अधिक प्रभाव डालने वालॉर्म आप सर्वप्रथम हैं। जैन धर्मकी महत्ताका और जैन बिद्वानोंकी विशिष्ट प्रतिभाका सुन्दर प्रभाव डालनेका काम सबसे पढले इन्दरों-दी-मे किया । सचमुच ही जैनधर्मके ये एक मद्दाप्रभावक आचार्य हो गये । आयकर. 2०-ह व लकलकाक-न्‍>++> श्कु ओजिनप्रभ सूरिका सिमप्रभ सूरिकी परम्पराके प्रदांसात्सक कुछ गीत और पथ [ शस शीर्षकके नीचे जो कुछ प्राचीन गीत, पद और गायादि दिये जाते हैं वे बीकानेरके संडारकी एक प्राचीन प्रकीर्ण पोथीमें उपलब्ध हुए हैं। यह पोथी .प्रायः इन्हीं जिमप्रभ सूरिकी शिष्यंपरंपरामेंके किसी यतिकी हॉथकी लिखी हुई प्रतीत होती है। इसमें जो “गु्वॉबलि गाथा कुछक लिखा हुआ मिख्ता है उसमें जिनहित सूरि तकका नामनिर्देश है उसके बादके किसी आचायेका नाम नहीं है। अतः यह जिनहित सूरिके समयमें --बि० सं० १४२७-७० के अससेमें-लिखी गई होनी चाहिए। इस पोथीमेँ प्राकृत, सेस्क्त, अपक्षंश और तत्कालीन देश्य भाषामें बनी हुई अनेक प्रकीर्ण रचनाओंका सेप्रह्न है। इसी संप्रहमेंसे ये मिश्रोश्वुत कृतियां, जो श्रीजिनप्रम सूरिकी परंपराके गुरु और शिष्य रूप आचार्योके गुणगानात्मक रूप हैं -- उपयोगी समझ कर यहां पर प्रकाशित की जाती हैं । इनमें जिनप्रभ सूरिके गुणवर्णनपरक जो गीत हैं वे उसी समयके बने हुए होनेसे भाषा और इतिद्दास दोनोंकी इश्टिसे उल्लेखनीय हैं |- जिनब्िजम ) [९] लिनेश्वरसूरिवधावणा गीत - जलाउर नयरि वधावणउं | चढु न चलु हलि सखे देखण जाहिं | गणधरु गोतमसामि समोस्तरिउ ॥ १ ॥ वीरजिणभवणि देवलोकु अवतरियले । छुगुरु जिणसरघुरि मुनिरयणु ॥ आंचली ॥ अग्नुविधि रयछी समोसरणु । चतुर्विध बइठले संघसमुदाओं । जिणसरसूरि सूध देसण करए ॥ २ ॥ दिढ पहरि ग्या[रि])से दिण सोधियले | छुमभ लगनि सुभ मुह[र]ति महतरि पहु थापियलि | चउद॒ह मुणिवर दिख दिनले ॥ ३ ॥ तवसिरि पिवेसिरि संजमसिरि । नाणि दरिसणि दुद्धरु संजमु भरु लशयले | जिणसरसुरि फुड वचन समुधरिउ ॥ ४ ॥ ॥ वधावणागीत॑ ॥ (२१] श्रीमिनसिहसरि गीत - हियडइ छाछि परी वस॒ए चलणइ ए आविकदेवि | उठि गोरा उठि पातलए । उठि सहिय परगलओं विहद्वणउ, छह चादणु करि बादणओं ॥ १ ॥ बादणओं करि रिसम जिणेसर, जेणइ धरमु प्रकासियओं ॥ २ ॥ वंदणगडठ करि सांतिजिणेसर, जिणि सरणागत राखियओं ॥ ३ ॥ बादणडउ मुणि सुत्रतसामिय, जीणइ मीतु प्रतिबोधियओं ॥ ४ ॥ बादणडउ करि नेमिजिणेसर, जेणइ जीव रखावियए ॥ ५॥ वादणडउ करि पासजिणेसर, जेण३ कमठु दरावियओं ॥ ६ ॥ बांदणउ करिं वीरजिणेसर, जेणइ मेरु कंपाबियओं ॥ ७ ॥ वांदणडउ गुरु बडठ सोहइ, जिणसिघसूरि चारिति नीमछओं ॥ ८ ॥ ॥ गीतपदानि ॥ [३१] अजिनप्रभसरि गीत- उदयले खरतरगच्छगयणि अभिनव सहसकरों | सिरि जिणग्रमस्नरि गणहरओ जंगमकल्पतरों ॥ १ ॥ वंदहु भविक जना जिणसासणवृणनववसंतों । छतीस गुण संजतो वाहयमयगलदलुणसीहो ॥ आँचली ॥| . संक्षिप्त जीवन चरित्र प्र तेर पंचातियह पोसुदि आठमि सणिह्िं वारे । मेटिउ असपते महम्दों छग॒र ढीलिबनयरे ॥ ३२ ॥ आपुण पास बहसारए नमिवि आदरि नरिंदों | अभिनव कवितु बस्लाणिवि राय रंजइ मुर्णिदों # ३ ॥ इरक्षितु देह राय गय तुरय धण कणय देस गाम। भणइ अनेवि जे चाहदो ते तु दिउ इमा(म*) ॥ ४ # लेइ णह किंपि जिणप्रद्भुसुरि मुणिवरों अति निरीहो । श्रीमुखि सलद्विउ पातसाहि विविहपरि मुणिसीहों ॥७॥ पूजिषि छुगुरु बल्लादिकिहिं करिबि सहिथि निसाणु । देह फुरुमाणु अनु कारवइ नव कसति राय छुजाणु #ै॥ पाठद्ूथि चाडिवि जुगपवरु जिणदिक्युरि समेतो । मोकल्‌इ राउ पोसालद्ध॑ वहु मलिक परिकरीतो ॥ ७ ॥ बाजहि पंच सबुद गहिरसरि नाचहि तरुण नारि। इंदु जम गइईंद सठितु गुरु आवह बसतिई मझारि ॥८98 घंमधुरधवल संघवहइ सयकू जाचक जन दिति दानु। संघ संजूत बहु भगति भरि नमहिं गुरु गुणनिघानु ॥९%॥ सानिधि पउमिणि देवि इम जगि जुग जयबंतो | नंदउ जिणप्रभस्रि गुरु संजमसिरि तणउ कंतो ॥१०॥ ॥ जिनप्रमस्रीणां गीत॑ ॥ [४] के सलहउ हीली नयरु हे, के वरनउ बखाणू ए। जिणप्रश्लुसुरि जगि सल्हीजइ, जिणि रंजिउ घुरताणू ९॥ १ ॥ चलु सखि वंदण जाह, गुण गरुवउ जिणप्रमुछ्ुरि | रलियइ तसु गुणगाह, रायरंजणु पंडियतिलओं | आंचली || आममु सिद्धंतु पुराणु बखाणिइ, पडिबोदइ सब छोई ए्‌। जिणप्रभसुरि गुरु सारिखउ, हो विरछ॒ठ दीसइ कोई ए॥ २॥ आठाही आठमिहि चउथी, तेडावइ सुरिताणू ए। प्रहसितु मुख जिणप्रमुखुरि चलियठ, जिम ससि इंदु विमाणू ए॥ ३ ॥ असपति कुंदुबुदीनु मनि रंजिउ, दीठलि जिणप्रभसूरी ए। एकंतिहि मन सासउ पूछइ, रायमणोरह पुरी ए ॥ 9 ॥ गामन्तरिय पटोला गजब, रूढउ देह सुरिताणू ए। जिणप्रभसुरि गुरु कंपि न ईछ३, तिहुयणि अमलिय माणू ए९॥ ५४ ढोल दमामा अरु नीसाणा, गहिरा वाजइ ठूरा ए। इणपरि जिणप्रभसुरि गुरु आवइ, संघमणोरह पूरा ए॥ ६ ॥ [ ७ ] मंगलु सीधिहि मंगलु साह मंगु आयरिय मंगलु च[ उ ]विहसंघ पर देवाधिदेवा | मंगल्ु राणिय तिसलादेविहि वीरजिणिंदहं जा जणणि। मंगल सबसिधंतपरा मंगलु वहु लपमीई मंगलु चबिह संघ पर देवाधिदेवा ॥ आंचकी । मंगठु रायह कुमरह्पालहं जेणि पछाविय जीब दया | मंगलु सूरिहि जिणप्रभसूरिहि वाब(च ?)गजी भडिया ॥ ॥ मंगल गीत॑॥ [६] अ्रीजिनदेवस्रि गीत - निरुपम गुणगणमणि निधानु संजमि प्रधान, छुगुरु जिणप्रभसुरि पट उदयगिरि उदयले नवक भाणु ॥१४ बंदहु भविय हो घुगुरु जिणदेवसुरि । दिल्विय वर नयरि देसग अमिय रसि वरिसए मुणिवरु जणु घणु ऊनविठ || आचली | जेदि कन्नाणापुर मंडणु सामिउ वीरजिणु । महमद राइ समप्पिड यापिड छुभ छूगनि सुभदिवसि ॥ २ ॥ नाणि विनाणि कलाकुसले विद्यानलि अजेओं। छखण छंद नाटक प्रमाण वखाणए आगमि गुणि अमेशों ॥३॥ ष्र्छ भीजिनप्रभ सूरिका धनु कुलधरु जसु कुलि उपनु इह मुणिरयणु | धनु वीरिणिं रमणि चूडामणि जिणि गुरु उरि घरिड़ ॥४४ धनु जिणसिंघसूरि दिखियाओं पनु चंद्रगच्छु । पतन जिणप्रश्ुतुरि निजयुरु जिणि निजपादिद्दि थापियाओं ॥५ हलि सखे | घणउ सोहावणिय रलियावणिय । देसण जिणदेवसुरि मुणिरायहं जाणउं नितु सुणउं ॥ ६॥ महिमंडलि धरमु समुघरए जिणसासणिहिं । अणुदिण प्रभावन करइ गणधघरों अवयरिउ वयरसामि ॥ ७ ॥ ब्रादिय मयगढ दलणसीद्वो विमल सील घरु। छत्रीस गणधर गुण कलिउ चिहु जयउ जिणदेवसुरि गुरु ॥८॥ ॥ श्री आचायाणां गीतपदानि॥ [७] खुगुरू परंपरा गीत - खरतर गच्छि वद्धमानसरि जिणेसरसरि गुरो । अभयदेवसूरि जिणबवलहसरि जिणदत्तु डुगपवरों । सुगुरु परंपर थुणहु तुम्हि भवियहु भत्तिभरि । सिद्धिरमणि जिम वरइ सयंवर नवियपारि ॥ आचलछी || जिणचंदसूरि जिणपतिठुरि जिणेसरु गृणनिधानु । तंदणुक्रमि उपनले छुगुरु जिणसिंघस्नरि ज॒गप्रधानु ॥ २ ॥ तासु पटि उदयगिरि उदयले जिणग्रभस्नरि भाण । भवियकमलपडिबोहणु मिच्छततिमिरहरणु ॥ ३ ॥ राउ महंमदसाहि जिणि नियगुणिरंजियाओं । मेढमंडलि दिल्लियपुरि जिणघरमु प्रकठु किओ ॥| ४ ॥ तप्तु गछ घुरधरणु भयलि जिणदेवसुरि सूरिराओं । तिणि थापिउ जिणमेरुसरि नमहु जधु मनह राओ ॥ ५॥ गीतु पवीतु जो गायए सुगुरुपरंपरह | सयल समीहि सिश्नहिं पुहविि तसु नरहं ॥ ६ ॥ | सुगुरु परंपरा गीत॑ ॥ [८] गुवोवली गाथा कुलक- वेदे सुददमसामि जबूसामि च पभवसूरिं च। सिजेमव-जसभई अजसंभूय तहा वंदे ॥ १ ॥ तह भद्दबाहुसामिं च थूलमई जईजि(ज)णवरिट्वं । अज महद्ा[गि]रिसूर्रि अजखुहत्यि च वंदामि ॥ २ ॥ तह संतिसूरि-हरिमदसूरि मं(सं)डिलसूरिजुगपवरं । अजसमुद्द तह अज्ञमंगु अजपम्म॑ अहं बंदे ॥ ३ ॥ भदगुत्त च बइर॑ च अजरक्खियमुणिवरं | अजनेदि च वंदामि अजनागहटत्थि तह्ा || ४ ॥ रवेय-खंडिछ-हिमवंत-नाग-उजोयसूरिणो वंदे। गोबिंद-भूइदिने छोहब्चिय-दूससूरिओं ॥ ५॥ उमासाइवायगे बंदे वंदे जिणभदसूरिणों । हरिमदसूरिणो वंदे बंदे हूं देवसूरिं पि | ६ ॥ तह नेमिचंदसूरिं उज्ोयणसूरिपमिइणो बंदे । तह वद्धमाणसूर्रि सूरिसिरिजिणेसरं वंदे | ७ ॥ जिणचद्द अभयर्सारें सूरिजिणवल्लढं तहावंदे | जिणदत्तं जिणचेद जिणवइ य जिणेसरं बंदे ॥ ८ ॥ संजमसरसइनिलय घुमुणीण तित्थभरघरणं । सुग्रुरुं गणहररयणं वदे जिणर्सिहसूरिमह ॥ ९॥ जिणपहसरिसिणिंदों पयडियनीसेसतिहुयणाणंदो । संपह जिणवरसिस्बिद्धमाणतित्य पभावेइ || १० ॥ सिरिजिणपहसरीणे पहटमि पह्ट्टिओ मुणगरिट्टो | जयह जिणदेवसूरी नियपन्नाविजयमुरसूरी ॥ ११ ॥ जिण॑देवसरिपट्टोदयगिरिचूडाविभूसणे भाणू । जिणमेरुसरिछ्गुरू जयउ जए सयलबिजनिही ॥ १२ ॥ जिणहितसरिसिणिंदो तप्पट्टे भवियकुमुयवणचंदों। मयणकरिकुंभविद्डणदुद्धरपंचाणणो जयउ॥ ६३ ॥ घुगुरुपरंपरगाद्वाकुलयमिर्ण जे पढेह पच्ूसे । सो लहइ मणोवंछियसिद्धि सबं पि भब्वजणे ॥ १४ ॥ ॥ इति गुर्वावलीगाथाकुलक समाप्त | छ ॥ ०-+-/ककन्पयक्कााकद-..__.> है; ९) प्दशाका++ककमनन्‍्यक+»++-न« अद्दग खरतरगच्छालझ्ारश्रीजिनप्रभसूरिकृता विधि प्रपा नाम सुविहितसामाचारी । "है ु-8+ चले िक +-्+-ुफ- नमिय महावीरशिणं , सम्म सरिउ गुरूवएस थ॑ | साथय-म्ुणिकिया्ण सासायारिं लिहामि अहं॥ [१] $ १, सम्मत्तमूलतेण गिहिधम्मकप्पतरुणों पढमं सम्मत्तारोहणविही भण्णइ - तत्य जिणमवणे समोसरणे वा सुहेसु तिहि-मुहुत्ताइए्सु उबसमाहइगुणगणासयस्स' उवासयस्स विसिद्वकयनेवत्थश्स चंदणरसरइय- भालयलूतिल्यस्स जहासत्ति निश्त्तियजिणनाहपूओवयारस्स अखंडअक्खयाणं वह्लुतियाहिं तिहिं मुट्टीहिं * गुरू अंजलिं भरेह । सल्रिहियसावओ साविया वा तदुवरि पसत्थफलं नालिकेराइ धारेइ । तओ नवकार- पुब्॑ समोत्र्ण (तिय्वाहिणी काउं सावओों हरियावहियं यड़िक्कमिय समातयथ दाउं भजइ-इच्छा- कारेण तुब्मे अम्ह॑ सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयआरोवणत्थं चेहयाईं वंदायेह !” गुरू भणइ -“बंदावेमो ।! पुणों खमासमण दाउं-इच्छाकारेण तुछ्मे अम्हं सम्मत्सामाइय-सुयसामाइयआरोवशत्थं बासनिक्खेव करे त्ति मणह । तओ “करेमी'ति भणित्ता निसिज्यासीणो कयसकलीकरणो सूरिमंतेण इयरो वद्धमाण- विज्ञाए वासे अमिमंतिय तस्स सिरे देइद; चंदणक्खए य रक्‍्खं च करेह । तओ त॑ वामपासे ठवित्ा व्ुंति“ याहिं थुददेहिं संघहिओ गुरू देने वंदह। चउत्थथुईअणंतरं सिरिसंतिनाह-संतिदेवया-सुयदेवबा- मवणदेवया-खेच्देवया-अंबा-पउमावई-चकेसरी-अच्छुत्ता-कुबेर-ब॑भसंति-गोत्तसुरा-सकाहवेयावद्गराणं नवकारनिंतणपुष्ष॑ थुदओ । इस्थ य अंबाथुईं जाव थुईओ अवस्सदायक्षाओ | सेसाणं न नियमु त्ति ग्ुरूवएसो । अम्हाणं पुण पठमावई गच्छदेवय त्ति तीसे थुई अवस्सदायध्षा । तओ सासणदेवयाकाउ- ४ स्सस्‍्गे बउरों उज्जोयगरा गणुवीसुस्सा चिंतिजंति । तओ गुरू पारित्ता थुईं देह । सेसा काउस्सम्गहिया सुणति । तओ से पारिता उच्जोयगरं पठिता नवकारतिग भणित्ता जाणूसु भविय सक्कत्थय॑ भर्णति । /५७०५७० ८ ५ ५८ ५८3७ “अरिहाणा'दि धुत गुरू भणह | तओ “जयपीयराय' इचाइ पणिहाणगादवदुर्ग सबे भणंति। हलेसा पकिया सबनंदीयु तुछा; णवरं तेण तेण अमिलावेणं | तओ खमासमणं ढाउं सड़ो भणइ -ृच्छाक़ारेण तुब्मे अर सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयभआरोबणत्थं काउस्सग्गं करावेह । गुरू भणह -“कराबेमो)#पुंणों ख़मसमण् दाउं भणइ -सम्मत्तसामाहथ-सुमसामाइयआरोवणत्य॑ करेमि काउस्समां)ति । तओ.#डिस्सर्गे संत्तावौसु स्सासं उज्जोममर चिंतिय पारित्ता मुहेण भणह सब । गुरू वि काउस्समगं 0200 5 ति अँभे। तओओ खेमासमर्ण 3 अलल227754 474 नकल अल पक अमर स कप आर काले कक तर 0 ! 8 वीरणिण । 2 3 क। 3 3 'झगावरत्स। 4 3 बहुंतवाह । 5 73 भुवण”। है पा श्‌ विधिप्रपा | दाउं भणह -इच्छाकारेण तुब्भे अरू सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयसुत्त उच्चारावेह” त्ति। गुरू भणह- “उच्चारावेमो' | तओ नवकारतिगं भणित्तु वारतिगं दंडर्ग भणावेइ । जहा -“अहं ण॑ मंते तुम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ पडिकमामि; सम्मत् उवसंपञ्ञामि । नो मे कंप्पह अज्वप्पमिद अज्नतित्यिए वा, अन्नतित्यिय- देवयाणि वा, अन्नतित्यियपरिग्गहियाणि अरहंतचेइयाणि वा; वंदित्तर वा, नमंसित्तए वा, पुष्विं अणा- £ रत्तरणं आलवित्तए वा, संलवित्तए वा; तेसि असर्ण वा, पाणं वा, खाइम वा, साइम॑ वा, दाउं वा अणुप्पयाड वा, तेसिं गंधमछाई पेसेउ वा, नज्नत्थ रायामिओगेणं, गणाभिओगेणं, बल्ामिओगेणं, देवया- भिओगेणं, गुरुनिग्गहेणं, वित्तीकंतारेणं;-तं च चउबिह, ते जहा - दबओ, खेत्तओो, काहुओ, भावणों । तत्थ दब्बओ - दंसणदबाई अहिगिच्च; खित्तओो जाव भरहम्मि मज्झिमखंडे; कालओ जाव जीवाए; भावओं जाब छलेण न छलिज्ञामि, जाव सल्निवाएणं न भुजञामि, जाव केणह उम्मायवसेण एसो मे दंसणपारुण- ॥ परिणामों न परिवडह; ताव में एसो दंसणामिग्गहों त्ति' ॥ तओ सीसस्स सिरे वासे खिबेइ । तओ निसि- ज्जोवधिट्टो गुरू सकलीकरणरक्खामुद्दापुक्बयं अक्खए अभिमंतिय उवबरिं पणव(३:)-मभुवणेसर( हीँ )-लच्छी- ( श्री )-अरहंतबीयाईं * हत्थेण लिहित्ता, लोगुत्तमाण पाए सुगंधे खिवित्ता, संघस्स देह । 82538 पंचपरमिट्टिसुदा, सुरही-सोहरग-गरूडवज्या य। मुग्गककरा य सत्तओ एया अक्खयपयाणं मि ॥ [२] ४ 6४२, तओ खमासमण दाउं॑ सावओ भणइ-इच्छाकारेण तुब्मे अम्ह॑ सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइय आरोवेह” । गुरू भणइ -“आरोवेमो' । पुणो वंदिऊण सीसो भणइ -संदिसह कि भणामी ?” । गुरू भणइ “वंदित्ता पवेयह” | पुणों वंदिकण सीसो मणइ-इच्छाकारेण तुब्मेहिं अर्ह॑सम्मत्तसामाइय-सुय- सामाइयं आरोवियं ? ” । एवं पण्हे कए गुरू भणइ -“आरोवियं' | ३ खमासमणाणं; हस्येण, सुत्तेण, अस्थेणं, तदुभएणं सम्म॑ धारणीयं चिरं पालणीयं । सीसो भणइ -“इच्छामो अणुसद्ठि' | पुणो वंदिय भणइ-- » तुम्हाणं पवेइयं; संदिसह साहर्ण पवेणमि' । गुरू भणइ-“पवेयह” | तओ खमासम्ण दाउं नमोक्वार पढंतो पयाहिणं करेह । “गुरुगुणेहिं वद्भाहि; नित्थारपारगा होहि'-त्ति भणंतों गुरू संघो य वासक्खए खिवेइ | एवं जाव तिन्नि वारा। तओ वंदित्ता मणइ --(तुम्हाणं पवेइयं, साह्ृर्ण पवेइयं;' संदिसह काउस्सम्गं करेमि' गुरू आह-'करेह' । तओ खमासमणपुर्ध॑ 'सम्मत्तसामाइय-सुयसामाइयथिरीकरणत्थं करेमि काउस्सग्गं'त्ति। सत्तावीसुस्सासं काउस्सम्गं काउं चउवीसत्थ्य च भणिय ग़ुरुं तिपयाहिणी करेइ | तओी गुरू लूगवेलाए- कर इय मिच्छाओ विरमिय सम्म॑ उवगम्म भणह गुरुपरओ | अरहंतो निस्संगो मम देवो दक्सखिणा [साहू ॥ [३] इंइ वारतियं भणावेइ । विणेओ वि तत्थ दिणे एगासणगाह जहसत्ति तवं करेइ | तओ खमासमर्ण दाउं भणइ-इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं धम्मोवएसं देह” | तओ गुरू देसण करेह । भूएस जंगमत्तं, तत्तो पंचिदियत्तमुक्को|सं। की, तेसखु विय माणुसत्त, मणुसत्ते आरिओ देसो ॥ [४] देसे कुल पहाणं, कुले पहाणे य जाइमुकोसा। तीय वि रूवसमिद्धी, रूवे य बल पहाणयरं॥ [५] # “बीजानि पदानि $* हीं श्रीं अहँ नमः इत्यमूनि ” इति टिप्पणी 4. आदरों । द्वितारकान्तर्गतः पाठो नोपल- भ्यते 3 भारी । ] नासि 3 आदर्श । 2 .8 अरिहंतो । | 'सरला निष्कपटा इत्यरथ: । इति . आदर्श टिप्पणी । सम्यक्त्वश्रतारोपणविधि । हे होह बसे विय जीयं, जीए वि पहाणयं तु विन्ना्ण । विज्ञाणे सम्मरं, सम्मत्ते सीलसंपत्ती ॥ [६] सीले खाहइयभावो, खाहयमावेण केवल नाणं। केवलिए पडिपुश्ने, पत्ते परमक्खरे मोक्खे॥ [७] पन्चरसंगो एसो समासओ मोक्‍्खसाइणोवाओ । ४ हत्थ बहू पत्त ते थेव॑ संपावियव ति ॥ [८] तो तह कायबं ते जह ते पावेसि थोवकालेणं | सीलस्स न5त्थड्सज्झं जयंमि त॑ पावियं तुमए-त्ति ॥ [९] पुरिसो जाणुद्धिओ इत्वियाओ उद्धद्वियाओ सुणंति | जिणपूयणाइ अमिमाहे य गुरू देह | जिणपूया कायबा । दष्षभावमिन्ने लोइय-लोउत्तरिण अणाययणे न गंतबं । परतित्थे तव-न्हाण-होमाइ धम्मत्थं ७ ने कायब । लोइयपबाई गहण-संकंति-उत्तरायण-दुब्द्ठमी--असोयद्वमी-करगचउत्थी-चित्तद्रमी-महा- नवमी-विहिसत्तमी-नागपंचमी-सिवरत्ति-वच्छवारसि-दुद्धधारसि-ओघबारसि-नवरत्तपुआ-होलियपया- हिणा-बुहअद्वमी-कज्जरूतइया-गोमयतइया-हलिदुुव चउद्सी-अण॑ तच उद्सी-सावण चंदण छट्टी-अक्क- छट्ठटी-गोरीमत्त-रविरदनिक्खमणपमुहाई न कायबाई । तहां कज़्मारंभे विणायगाइनामग्गहणं, ससि- रोहिणिगेयं, वीवाहे विणायगठवर्ण, छट्ठीपूयणण माऊरणं ठावणा, बीमाचंदस्स दसियादाणं, दुम्गाईण ४ ओबाइयं, पिंडपाडणं, थावरे पूया, माऊर्ण मलछगाईं, रवि-ससि-मंगलवारेसु तवो, रेबंत-पंथदेवयाणं पूया, खेते सीयाइअथर्णं, सुत्निणि-रुप्पिणि-रंगिणिपूया, माहे घयकंबलदाणं तिलुदब्भदाणेण जहूं- जली, गोपुच्छे करुस्सेहों, सवत्ति-पियरपडिमाओ, भूयमल॒गं, सद्ध-मासिय-वरिसिय करणं, पर्व दाणं, कन्नाहलूगगहो, जलघडदाणं, मिच्छदिद्वीणं लाहणयदाणं, धम्मत्थं कुमारियाभत्तं, संडविवाहों, पियरहं नई- कूवाइ-खणणपह॒ट्टोवए्सो, वायस-विरारूइपिंडदाणं, तरुरोवण-वीवाहो, तालायरकहासवर्ण, गोघणाइपूया, » धम्ममिठयकरणं, इंदयाल-नडपिच्छण-पाइक्र-महिस-मेसाइ-जुज्झ-भूयखिलणाइदरिसणं, मूछ-असिलेसाजाए बाले बंभगाहवण-तबयणकरणं, -- एमाइ मिच्छत्तठाणाईं परिहरियाई । सकत्थएण वि तिकालूं चीवंदर्ण कायब । ठम्मासं जाव दोवाराओ संपुण्णा चीवंदणा कायबा । नवकाराणं च अद्गत्तरं सय॑ गुणेयर्व | बीया- पंचमी-अद्टमी-एगारसीए चउदसीए उदिष्रपुन्निमासु दोकासणाइतवं । जा जीव चउवीसं नवकारा गुणेय्वा । पंचुबरी-मज्झ-मंस-महु-मक्खण-मट्टिया-हिम-करग-विस-राईभत्त-बहुबीय-अणं तकाय-अत्थाणय-# घोलबडय-वाइंगण--अमुणियनामपुप्फ-फल-तुच्छ-फल--चलियरस--दिणदुगातीयदहि माईणिं वज्जेयघाई । संगरफलिया-मुग्ग-मउद्ट-मास-मसूर-कलाय--चणय--चवरूय--वछ-कुरूुत्थ-मेत्थिया-कंडुय-गोया रमाइ बिदलाईं आमगोरसेण सह न जिमेयघाई । एएसि रायत्तयं न कायबं । निसिन्हाणं, अच्छाणियजलेण य॑ दह्दाइसु प्हाणं, अंदोलणं, जीवाणं जुज्झावणं, साहम्मिए्हिं सद्धि धरणगाइविरोहो, तेसुं च सीयंतेसुं सई- विरिएडमोय्ण, चेहयहरे अणुचियगीयनई निद्वीवणाइआसायणाओ, देवनिमित्ते थावरपाउमागकूबारामकर- » णाणि य बज्जणिजाई । उस्सुत्तमासगर्लिंगीणं कुतित्यियाणं च वयर्ण न सदृद्देयवं। एमाइ अभिग्गहा गुरुणा दायधा । सो वि तम्मि दिणे साहम्मियवच्छल्ल सुविहियाण च वत्थाइपडिलाहणं करेइ त्ति ॥ ॥ सम्मत्तारोवणविही समत्तो ॥ १७ 8 पूृथणाय। 4 हल्िदुब' । 8 .3 बंदिण”'। ६ 3 "इच्भदार्ण दाणे जल । 5 8 “वीरसिय? 9 8, पबादार्ण । रे विधित्रपा । ६ ३. पडिपतज्नसम्मत्तस्स य पहदिणं देव-शुरु-पूया-धम्मसवणपरायणस्स देसबिरहपरिणामे जाए बारस- बयाईं आरोविज्जति | तत्थ इमो विददी- गिहिधम्मे चीबंदण, गिहिवयउठरसरगयहवउजरण । जहसत्ति वयग्गहर्ण, पयाहिणुस्सग्गदेसणया ॥ [१०] $ हत्थद्वियपरिग्गहपारिमाणटिप्पणयस्स य। वयामिलाबों जहां-अहं णं भंते तुम्हाणं समीबे थूलगं पाणाइवायं संकप्पओ निरबराह पत्चक्खामि | जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं, मणेणं बायाए काग्रेणं, न करेमि न कारवेमि । तस्स भंते पडिक्रमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि! त्ति वारतिगं मणियर्क । एवं, अहं णं भंते तुम्हाणं समीवे थूलगं भुसावारयं जीह्वाच्छेयाइहेडयं कन्नालियाइपंचविहं पश्चक्खामि । दक्खित्ाइअविसए अद्यागहियभंगएणं । एवं थूलग अदिल्लादाणं खत्तखणणाइरय चोर॑कारकरें रायनिगाह- ७ कारय॑ सचित्ताचित्तवत्थुविसय पच्चक्खामि । एवं, ओरालियवेउबियमेयं थूलगं मेहु्ं पश्चक्खामि, अह्ा- गहियमंगएणं । तत्थ दुविह॒तिविद्देण दिवं, तेरिच्छ॑ एगविहतिविहेणं, माणुस्सय एगविहएगविददेण वोसि- रामि । जहं णं भेते परिग्गह पडुच अपरिमियपरिमंहं पश्चक्वामि । धणधन्नाइ-नवविह-वत्थुविसय इच्छापरिमाण उवसंपञ्ञामि, अहागहियमभंगएणं । एवं गुणब्यवए दिसिपरिमां पडिवज्ञामि | उषभोग- परिभोगवए भोयणओ अणंतकाय-बहुबीय-राइभोयणाई परिहरामि । कम्मओ णएं पत्नरसकम्मादाणाईं ७ इंगालकम्माइयाइं बहुसावज्जाइं खरकम्माइयं रायनिओगं च परिहरामि | अणत्थदंडे अवश्ञाण-पावोवएस- हिंसोवकरणदाण-पमायायरियरूव॑ं चउविह अणत्थदंड जहासत्तीण परिहरामि । अहं ण॑ भंते तुम्हाणं समीवे सामाहय॑ पोसहोवबासं देसावगासियं अतिहिसंविभागवर्य च जहासत्तीए पडिवज्ञामि | इच्चेयं सम्मत्तमूल पंचाणुबइयं सत्तसिक्खावइयं दुवाल्सविहं सावगधम्म॑ उवसंपज्जित्ता णं विहरामि !” पयाहिणा-वासदाणाइय सेस॑ पुष्ति व दह्वव ॥ #+ 8१३४, पुषोछिंगियं परिम्गहपरिमाणरिप्प्ण च गाहाहिं वित्तेहिं वा अत्थओं एबं लिहिजइ--वीराइअन्नयरं जिणं नमित्तु, सम्मत्तमूरं गिहत्थधम्मं पडिवज्ञामि | तत्थ अरहं' मह देवो। तदाणाठिवसाह गुरुणों । जिणमय पमाण । धम्मत्य॑ परतित्थे तत-दाण-न्हाण-होमाह न करेमि । सक्वत्यएण बि तिकाछ चीबदर्ण काहं ! पाणिवह-सुसावाए अदत्त-मेहुण-परिग्गहे चेव । 9 दिसि-भोग-दंड-समहय-देसे तह पोसह-विभागे ॥ [११] संकप्पियं निरवराहं थूलं जीव॑तिधकसायवसा मण-वय-तणूहिं जावज्लीबं न हणे न हणावे, सकज्जे सयणाइकज्े वा ओसहाइसावज्ले किमि-गंडोलग-जछ॒गाविसए ये जयणा। कल्राहथूलूग- मलीय॑ दुविहं तिविहेण वोसिरे । देव-संघ-साहु-मित्ताइकज़े लहणिल्व-दिज़ज-पड़िकयववहारे य जयणा । थूल्मदत्त दुविहतिविहेण वज्जे । निहि-सुंकाइसु जयणा । दुविहतिविहेण दिधमिथाइभणिय- » अंगेणं मेहुणनियमो । परदार॑ परपुरिसं वा काएण सबहा नियमों वा। माणुस्से दु्चितिय-दुब्भासिय- दुचचिट्ठिय-हास-कलहवयणाई अकयाणुबंध वजित्ता जहासंभवं सबया। घण-घन्न-खेत्त-वत्थू--रुप्प-सुक्ने चउप्पए दुपए कुविए परिमाहे नवविददे इच्छापमाणमि्ण । जाहफल-पुष्फछाइगणिमं, कुंकुम-गुढाइ- ] & अरहंतो । परिप्रहपरिमाण-सामाविकत्रतारोपणविधि । ४ घरिम, चोप्पड-जीराइमेज, रमण-वत्थाइपरिछिज । एवं चउकिह पि पणे गहणक्खणे सबया वा इत्तिय- पमार्ण, इत्तिओ धण्णसंगहो, इत्तियाईं हकाईं खेत्ताई चरी वा, किसिनियमों वा । इत्तियाईं हद्घराई । रुप्प- कणगेसु टंकयपमाणं तोलयपमाणं गद्टियाणगपमाणं वा। चउप्पय-तिरियाणं प्रमाणं जहाजोग्गं नियमों बा। दुपए दासरूवाणं, सगडाईणं च पमाणं । कुबियं इत्तियमोल्लं उवकक्‍्खर-भाराइ; भणियपमाणाओं अहिय॑ धम्मवए दाह । एसो नियमों मह सपरिग्गह्यवेक्‍्लाए। भाइ-सयणाईण तु रखण-ववहूरणं * मुककलूय॑ अड्डाणगाइ य। तहा, अमुगनगराओ चउद्दिसि जोयणसयाइं, उद्चु जोयणदुगाइ, अहोदितसि पुरिसपमाणं धणुहमाणं वा। दुविहतिविहेणे मंसं, एगविहं मज्ज-मक्खणं, अन्नत्थ ओसहाइकज्जेण महुं च वज्जेमि | सामझ्ेणं वा मंसाइ नियमेमि । अप्पडलिय-दुप्पठलिय-सुच्छफलेसु जयणा । एबं पंचुबरि- वाइंगण-पुंपुश्य-अज्नायफरू-सगोरसविद्क-पुप्फिओयणाइं । वडिय-तीमणाइनिक्खित्तअदयाइ मुचुं अणंतकायं च । असण-खाइमे निसि न जिमे, पाण-साइमेसु जयणा । अत्थाणयाणं नियमों परिमाणं वा। असणे सेह्या-सेराइपमाणं । भोयणे न्हाणे य नेहकरिस*दुगाइ । सचित्तदध्न-विगहई-ओगाहिम- पाणगमेय-साहूणयउक्कडद॒बाणं परिमाणं । पाणे एगाइघडा, उच्छुल्याणं, चिब्मडाइ-गणियफरछाणं च बोराइ-मेजजफलाणं, दक्‍्खाइ-तोलिमफलाणं संखा-मण-माणगाइपरिमाणं जहासंखं कायब । संपत्ति गुच्छाणं पण्णाणं पृष्फ-फलाणं च संखा। कपूर-एलाइसु रूवयपरिमाणं । तियडुय-तिहलाइसु पलाइ- परिमा्णं । धोवत्तिय-सीओढणवर्ज इत्तियमुछ्ाओ इत्तियाओ तियलीओ ।ै फुल्ाणं तुझुर-चउसराह- फ संखा नियमो वा। आभरणे संखा सुवण्ण-रुप्प-पलमाणं वा । कुंकुम-चंद्मविलेवणे पछाइसंखा | जलूघड़- दुगाइणा मासे इत्तिया सिरिन्हाणा, दिणे य अंगोहलीओ । आसण-सिज्जाणं संखा। ओहेण वा भोग- परिसोगाणं इंगालगाइकम्मादाणाणं नियमो, भाइगाइसु परिसाणं वा। मणुयाणं कयविकयनियमों। चउप्पयविकयसंखा । तछाराइखरकम्मनियमो । विचित्तोवरिं लहाइछोमेणं तिले न धारहस्सं । चुड्लीसंघु- बखण-जरूघढणयणसंखा, खंडण-पीसण-दलूणाइसु मण-कलरूसियाइपरिमाणं । # घउठहा अणत्थदंडं, अवश्माणं, वेरितप्पुरवहाई। घज्े वद्धावणयं, छुत्तु महं गीयनद्वाई ॥ [१२] जूयजलकीलणाई चएमि दक्खिनस्नअवसए' देमि । नो सत्थग्गिहलाह पाओवएस थ कहयावि ॥ [१३] मासे वरिसे वा सामाइयसंखा । दुब्भासियाइसु मिच्छादुकडदाणं । अहोरत्तते गमणे जल-थलूपहेसु जोयण- # संखा । पोसहे वरिसंतो संखा जहासंभवं वा। अद्ठमि-चउदसि-चटमासिय“-पल्नुसणेसु जहासत्ति एगास- णाइ तब, बंभचेर॑, अन्हाणाइयं च | काले नियगरेहागयसुविहियाणं संविभागपुत्र भोयण । दिणतो नवकार- गुणणसंखा य । दइृत्तियं धम्मबयं बरिसंतो काहं । इत्तिओ य सज्ञाओं मासे । एए य मह अमिमाहा ओसह-परवसत्त-देहअसामस्थ-वित्तिच्छेय-रोग-मम्गकंतार-दैवया-गुरु-गण-रायामिमोग--अणाभोग- सहसागार-महरर--सबसमाहिवत्तियागारे मोत्तु । मज्झिमखंडाओ बाहिं सध्ासवदाराणं तिविहं तिविहेण » नियमो, चिरकमसब्बाहिगरणाणं च । इत्थ य पमाएण नियममंगे सज्ञायसहस्सं, आंबिरक च पच्छित्त ।” ! 93 कर्ण । * 'वंचमिर्शजामिमोषकः, तैः पोडशलिः कपेः !! इति 2. टिप्पणी । 2 3 चिडिभिडा"। ई अंभफाकारि: २ इति 2. दिमनी । 8 33 जविसए। 4 2, अउमासय । ६ बविधिप्रपा । एवं लिहिता एसा गाहा लिहिजइ- सम्मत्तमूलमणुषयखंघं उत्तरगुणोरुसाहालं । गिहिधम्मदुर्म सिंचे सदासलिलेण सिवफलयं॥ [१४] तओ गुरुक्षम लिहित्ता अमुगगणहरपायमूले अमुगसंवच्छर-मास-तिहदीमु अमुगेण अमुगीए वा एसो $ सावगधम्मो पड़िवण्णो त्ति परिग्गहपमाणटिप्पणविही ॥ ॥ परिग्गहपरिसाणविही समत्तो ॥ २॥ ९५, पडिवन्नदेसविरश्यस्स विसिद्ठतरसद्धस्स सड्डुस्स छम्मासिय सामाइयवर्य आरोविजइ । तत्थ य चेइ्यबंदणाइविही हिठिललो चेव । नवरं, काउस्सग्गाणंतरं अहिणवमुहपोत्तिया वासविज्ञासपुरं समप्पणीया । तीए य तेण छम्मासे जाबव उभयसंझ सामाइय॑ गहेयब्चं | तओ नवकारतिगपुर्ब॑'करेमि मंते सामाहर्य॑ ७ सावज्ज जोगं पश्चक्खामि, जाव नियम पज्ुवासामि, दुविह तिविद्देणं मणेणं॑ वायाए काएणं, न करेमि न कारवेमि, तस्स भंते पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।” तहा “दब्ओ खेत्तओो कालओ भावओ । तत्थ दबओ सामाइयदबाई अहिगिच; खेत्तओ णं इहेव वा अल्नत्थ वा; कालओ णं जाव छम्मासं। भावओ णं जाव रोगायंकाइणा परिणामों न परिवष्इ, ताव मे एसा सामाइयपडिपत्ती ।' इति दंडगो वारतिगमुच्चारणीओ । सेस॑ पुर्वि व दब ॥ मं ॥ इंह् सामाइयारोवणविही ॥ ३॥ ६७, अंगीकयसामाइएण य उभयसंझ सामाइय॑ गहेयब्व | तस्स एसो विही-पोसहसाछझाए साहुसमीवे गीहेगदेसे वा खमासमणदुगपुष्ध॑सामाइयमुहपोत्ति पडिलेहिय पढमखमासमणेण “सामाइय संदिसा- वेमि, बीयखमासमणेण सामाइए ठामि” त्ति भणिऊण पुणो वंदिय, अद्भावणओ नमोकारतिगपुन्न॑ “करेमि भते सामाइये- इच्चाइदंड्गं- वोसिरामि' पज्जत वारतिगं कब्डिय, खमासमणेण इरियावहियं पडिक्रमिय, + खमासमणदुगेणं वासासु कट्ठासणं, उद्धुबद्धे पाइंछणं, खमासमणदुगेण सज्झायं च संदिसाविय, पुणों वंदिय नवकार5द्गंं भगह । तओ सीयकाले पंगुरण संदिसावेइ | संझाएण सज्शायाणंतरं कद्ठासण संदिसा- वेह त्ति। जइ पुण कयसामाइयं पोसहहत्ते वा, कोह कयसामाइओ पोसहरत्तो वा बंदर, तया “वंदामो! त्ति वत्त॑ं, जद इयरो वंदइ तत्थ “सज्झायं करेह'त्ति वत्ततं | जहण्णओ त्रि घडियादुगं सुहज्ञवसाएण चिद्वित्ता, तओ मुहपोत्ति पडिलेहिय पढठमखमासमणे 'सामाइय॑ पारावेह'-गुरू आह-'पुणों वि कायबो' । ४ बीयखमासमणे 'सामाहयं पारेमि'-गुरू आह-'आयारों न मुत्तब्रो' । तझो नवकारतिगं भणिय, (भयव दसभ्रभद्दो' इचाइगाहओ भूमिनिहित्ततिरों मणइ। ्ि ॥ इय सामाइयग्गहण-पारणविही ॥ ४ ॥ 8७, इत्थ केइ आइड्लार्ण चउण्हं सावयपड़िमाणं पडिवत्ति इच्छंति | तं च न सुगुरू्णं संमय । जओ संपर्य पडिमारूव॑ सावयधम्म॑ बोच्छिन्नं बिंति गीयत्था । आओ न तस्स विही भण्णद । + $८, इयार्णि उवद्दणविहदी - सोहणतिहि-करण-मुहुत्ताइदिणे जिणभवणाइसु नंदी कीरइ | पंचमंगल- महासुयक्खंघे इरियाबहियासुयक्संघे य; अज्लेस उबहाणतवेसु नंदीए न नियमो। जह कोइ समो- सरणे पूर्य करे तया कीरइ न5भ्हा । दोसु आइछउबहाणतवेसु पुण नियमा नंदी । तत्थ सावजो साबिभा उपधानविधि । | वा विसिट्रकयनेवत्था महया विच्छड्डेण गुरुसमीवमागम्म समवसरण वत्थ-नेवेज-अक्खय-थारू- नालिएरविसिट पूयाए पूरऊण नालिकेर॑ अंजलीए करित्ता पयाहिणं करेइ, चउसु ठाणेसु पणामपुषध* | तओ समवसरणपुरओ अक्खए नालिएरं च मुंचईं । तओ दुवालसावत्तवंद्ण दाउं, खमासमणं दाऊण भणइ -इच्छाकारेण तुब्मे अम्ह॑ पंचमंगरुमहासुयक्खंधाइउवहाणतव॑ उक्खिवह” । गुरू भणइ- “उक्खिवामो! । तओ इच्छ॑'ति भणित्ता, वंदिय भणइ -ईच्छाकारेण तुब्मे अम्ह॑ पंचमंगलमहासुयक्‍्ख धाइडवहाणतवउक्खिवणत्थ॑ काउसम्गे करावेह” | गुरू भणइ-करेह! | सीसो “इच्छ!ति मणिय, खमासमण्ण दाउं भणइ - 'पंचमंगलमहासुयक्खंधाइडवहाणतवउक्खिवणत्थे करेमि काउस्समों । अज्नस्थो ऊससिएण!”मिल्वाइ । तत्य नवकारं उज्जोयगर॑ वा चिंतेह । तओ नमोकारेण पारित्ता, नमोक्कारं उज्जोयगरं वा भणिय, खमासमण्ं दाउं, भणइ -इच्छाकारेण तुब्मे अरूं पंचमंगलमहासुयक्खंघाइउबहाण- तवउक्खिवणत्थं चेइयाईं वंदावेह' । गुरू भणइ -“वंदोवेमो' | सीसो भणइ - “इच्छ'ति । तओ गुरू तस्सु- त्तमंगे वासे खिवेह, वारतिन्नियं सत्त वा। तओ गुरू चउविहसंघसहिओ वहुंतियाहिं थुईहिं चेइए बंदावेइ । संतिनाह-सुयदेवयापमुह-जाव-सासणदेवयाए काउस्सग्गे करित्ता, तार्सि चेव थुईओ दाउं, सासण- देवयाए काउस्समों चउरो उज्ोयगरे चिंतिय, नमोक्कारेण पारिय, थुईं दाउं, चउवबीसत्थय कहित्ता, नवकारतियं कहिय, बहसिऊण, सक्कत्थय कहिय, पंचपरमेट्टिथवं भणेइ । तओ गुरू लोगुत्तमाण पाएसु लि वासे छुह्िय, समवसरणंमि सबदेवयाणं सरणं करिय, वासे खिवेइ । तओ वद्धमाणविज्ञाइणा अक्खए ४ वासे य अहिमंतिय चउबिहसंधस्स दाऊण, गुरू सीसं दुवालसावत्तवेदण दाविय, भणावेइ -“ईच्छाकारेण मे अम्हं पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउबहाणतव॑ उद्दिसह” । गुरू भणह -“उद्दिसामो” । सीसो इच्छ! इति भणिय, वंदिय, भणइ -“संदिसह कि भणामो' । गुरू भणइ-“वंदित्ता पवेयह” । सीसो “इच्छ'ति भणिय, खमासमणेणं वंदिय, भणइ -इच्छाकारेण तुब्मेहिं अग्ह पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवहाणतवो उद्दिद्दो ” | तओ गुरू वासे खिवंतो आह-“उद्दिद्रो' | ३ खमासमणाणं । हस्थेण सुत्तेणं अत्थेणं तदुभणण # सम्म॑ जोगो कायबो | सीसो भणइ -इच्छामो अणुसह्टि' | तओ वंदिय भणह -'तुम्हाणं पवेइय; संदिसह साहर्ण पवेएमि' । गुरू भणइ -पंवेयह” । तओ बंदिय, नम्मोक्षार॑ मर्णतों पयक्खिणं करेइ। अणेण विहिणा अन्ने वि दो वारे पयक्खिणं करेइ | चउधिहो वि संघो तस्सुत्तमंगे वासे अक्खए य खिव३। तओ खमास- म्ण दाउं भणह-शुम्हणं पवेहयं, साहूर्ण पवेइयं। संदिसह काउस्समां करेमि! । गुरू भणइ-करेह! । तओ वंदिय खमासमणेणं भणइ (पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवहाणतवउद्देसनिमित्त करेमि काउस्समां | अन्नत्थ उससिएणं! इच्चाइ । उज्मोअगरं चिंतिय सागरवरगंमीरा जाव पारिय, चउविसत्थयं पढह । तओ पंचमंगलमहासुयक्खंधाइउवह्मणतवउद्देसनंदिथ्रीकरणत्थं अह्ुस्सासं उस्समां काउं नमोकारं मणित्ता खमासमणदुगदाणपुर्॑पुत्ति पेहिय बंदर्ण दाउं मणह -इच्छाकारेण संदिसह, पवेयणण पवेयहे” । गुरू भणइ-“पवेयह” । तओ वंदिय भणइ-पंचमंगलमहासुयक्लंधदुबाबूसमपवेसनिमित्ु| तपु करहं | गुरू भणइ -“करेह” । बंदिय उबवासाइतवं करे, बंदर्ण देइ । तम्मि जेब समए पोसह करेह सज्ञाएु वा म करेइ । तत्थ पोसहविद्दी सब्ो वि कीरइ । # “उक्खिवावणियं नंदिपवेसावणिय करेमि / इति छे दिप्पणी। | यों प्रतिकृम्य मुखकखिकां प्रतिदिस्य + -इति 3 टिप्पणी। 3 .. अन्षर्यूससिएण । 2 73 निमित्त तबु । थे विधिप्रपा | . 8९, एवं सेसेसु वि दिणेसु नंदिवज्ण गुरुसगासे पोसहं सामाइयं च करेइ, पोसहकरणविहिणा। सो ये इमो - इरियं पडिकमिआ आगमणमालोइय खमासमणदुगेणं पोसहमुहपोचिं पडिलेहिता, पढमखमासमणे्ण 'योसहं संदिसावेमि' | बीयखमासमणेण “पोसहं ठामि! । पुणो तइयखमासमर्ण दाउं नवकारतिगं भणिय,- 'करेमि भंते पोसहं । आहारपोसहं देसओ, सरीरसक्कारपोसहं सब्बओ, बंभचेरपोसह सबओ, अधावार- ४ पोसहं सबओ । चउद्विद्े पोसहे सावज्ज जो पश्चक्वामि जाव अहोरत्तं पत्जुवासामि । दुविह तिबिद्देणं, मणेणं वाबाए काएणं, न करेमि न कारवेमि, तस्स मंते पडिक्रमामि निंदामि गरिद्यामि अप्पाणं बोसि- रामि'-ह३ दंड वारतिग भणइ । तओ इरियावज्ज पुश्ब॒विहिणा सामाइयं गिण्हह। तओ मुहपोरत्ति पड़ि- लेहिय दुवालसावत्तवंदर्ण दाउं भणइ -इच्छाकारेण संदिसद पवेय्ं पवेयहं” । जो पुण पुढो पडिक्कतो सो दुवाल्सावत्ततंदणेण आलोयणं, दुवालसावत्तवंदणेण य खमासमर्ण काउं, दुवाल्सावत्तवंदणेण पवेयणं पवे- » दृए । तओ वंदिउं मणइ-पंचमंगलमहासुयक्खंधडवहाणदुवारूसमपवेसनिमित्त तपु करहं” । तओ गुरू भणइ -करेह” । तओ “इच्छ!ति भणिय, वंदिय, पदच्चक्खा्ं काउं, खमासमणदुगेण बहुवेलं संदिसाविय, खमासमणदुगेण सज्ञायं, खमासमणदुगेण बइसणं च संदिसाविय, वंदणयं देह । तओ गुरुणा सुहतवे पुच्छिए “देवगुरुपसाएण”त्ति भणइ। एसो पभायसमये विही कीरइ । जओो पठणपहरमज्ञे पवेय्ण न पवेणएड, तओ सो दिवसो गलइ त्ति। उवहाणवाही पाभाइयपडिकमणे नवकारसहिय चेव पत्चक्खंति । ४ 'उम्पए सूरे नवकारसहिय पलक्खामि' इचाइ । तओ चरमपोरिसीए गुरुसमीवमागम्म इरियावहियं पडिकमिय, आगमणं आलोइय, खमासमणदुगेण पुर्ति' पडिलेहिय, दुवाल्सावत्तवंदर्ण दाउं, आलोयर्ण खामणं च *पशच्चक्वाणं च करिय, खमासमणदुगेण उवहि-थंडिल-पडिलेहरणं संदिसाविय, खमासमणदुगेण सज्ञायं संदिसाविय, खमासमणदुगेण बइसणं संदिसाविय, कट्ठासणं पाउंछणं वा पडिलेहिय, दुवालसावत्तवंदर्ण देश । एसो चरमपोरिसीए विही । # सेसविहदी जहा पोसहविहीए भणिओ तहा कीरइ | 8१०. तओ दुवालसमतवे पडिपुन्ने वायणा दिजइ । तत्थ एसो विही- पृत्ति! पेहाविय, बंदर्ण दाविय, गुरू भणावेइ-“इच्छाकारेणं संदिसह पंचमंगलमहासुयक्खंधवायणापडिगाहणत्थ काउस्सर्गं करावेह' । गुरू मणइ-“करावेमी”! । तओ (इच्छंति भणिय, खमासमणेणं वंदिय, भणइ-'पंचमंगलमहामुयक्खंधवायणा- पडिगाहणत्थं करेमि काउस्सम्गं | अन्नत्थ ऊससिएण'-इच्चाइ जाव-“वोसिरामि'त्ति भणिय, सागरवरगंमीरा # जाव उज्ोयगर चिंतिय, नमोक्कारेण पारिय, उज्जोयगरं भणिय, खमासम्ण दाउं, मणइ -इच्छाकारेण पंचमंगलमहासुयक्खंघवायणापडिगाहणत्थं॑ चेहयाईं वंदावेह' | गुरू भणह-“बंदावेमो' | तओ सकत्थय॑ मणिय खमासमणेण वंदिय, सीसो भणइ-“इच्छाकारेण संदिसह वाय्ण संदिसावेमि' । बीयखमासणेण शायणं पडिगाहेमि' । गुरू भणइ-'पडिगाहेह” । तमो “एच्छ'ति भणिय, खमासम्ण दाउं, उभयकर- विहिमहियमुहपोत्तियाथहयमुहकमलस्स, अद्भोणयकायस्स सीसस्‍्स तिक्खुत्तो पंचनमुझार॑ कब्लिय पंचरण्ह » अज्ञगणाणं पढमा वायणा दिजह। तओ दिज्ञाए कयणाए तस्सुत्तमंगेसु गुरू वासे खिबद । तओ सीसो बंदिय सज्ञायमाइ करेह | तओ अद्ृृहिं आयंबिल्ेहिं तिहिं उववासेहिं कएहिं बीया वायणा तिष्हं चूछा- अज्ययणाणं दिलाई । ! ए मुहुतति।: # /. खामर्ण च करिय खमासमणपुव्य॑ पश्रक्सिय । 4 33 भुदृपुत्ति। सपधानसासाथारी । - ४ ६११, एयंस्स चेब निक्खिवणविही वोलइ-सौंसो गुरुसमीवमागम्म इस्यायहिय पदिश्मिय, गमणा- गमण आलोशय, खमासमणदुगदाणपुष्र पुत्ति पेहिय' दुवाल्सावतबंदर्ण दाउं, भणइ-/इच्छाकारेण तुड्मे छह पंचमंगलमहासुयक्खंघउवहाणतव निव्खिवह' । गुरू भणइ-“निक्खिवामों' । सीखे “इच्छ/ति अणिव, खमासमणेण वंदिय, भणई-:इच्छाकारेण संदिसह चजरथं काउस्समां करावेह” | गुरू मणइ-“करावेमो' । (चछ'ति भणिय खमासमणेण बंदिय, एंचमंघक- * प्रहासुयक्लंघाइउवहाणतवनिक्खिवणत्थ॑ करेमि काउस्समंगं। अज्नत्थ ऊससिएण” इचाइ जाव “वोसि- समि'त्ति । तत्थ नवकारं चिंतिय, पारिय, नमोकारं पढिय, खमासमणेण वंदिय, भणइ -इच्छाकारेण संदि- सह पंचमंगलमहासुयक्खंधाइटबहणतवनिक्खिवणत्थ चेइयाई वंदाबेह” । गुरू भणइ--बंदावेमो! तञओ सक्त्थयं भणिय, दुवालसावत्तवंदर्ण दाउं, 'प्रवेय्ण पवेयह'ति भणिय, पडिपुण्णा विमदपारणगेश य्शक्ख३र । तओ पोसह सामाइयं च पारिय, खमासमणं दाउं, मणइ-“उपधघाण' मज्मि अविधि आसातना भनि वचमि काइ ज कोई कीई तहिं मिच्छामि दुकड़! ॥ ॥ उवहाणनिक्खिवणविही समत्तो ॥ ६ ॥७ $ १६, श्याणें उबहाणसामायारी भण्णइ । पंचमंगलमहासुयक्खंधे पढम॑ दुवालुसम पुब्सेबाए' । तओ पंचप्ह अज्झ्यणाण वायणा दिजइ ॥ १ ॥ तत्थ पुण सब अज्ञयणा अट्ठ, आयंबिहद्रगेणं उववासतिगरेण। तओ तिए्ह चूढामज्यबणां वायणा दिज्जइ । इत्थ उबवासतिगं उत्तरसेवाए | २॥ ॥ पंचसंगलउवहाणं समत्त ॥ $ १३, एवं इरियावहियासुयक्खंधे वि अद्ठ अज्ञयणा । तिण्णि चरिमाणि चूछा भण्णइ। सेसं जद्दा पंचमंगलमहासुयक्खंघे । दोसु वि दो दो वायणाओ | उत्तरिद्लेस चउसु एगा पुबसेवा | अंते उवबास्ष भावाओ उत्तरसेवा नत्यि ॥ ३॥ भर मायारिहंतत्थए पढम॑ अट्टमं, तओ तिप्हं संपयाणं वायणा दिजाइ। १ । पुणो बत्तीसं आयंबिराणि। सोहूसहिं गएहिं तिण्द संपयाणं बायणा दिज्जह। २। अज्नेह्टिं सोलसहिं गएहिं तिण्ह संगयाण यायजा दिलाह। चरमगाहाए वि वायणा दिज्जइ । ३ । सक्ृत्थए सवाओ तिण्णि वायणाओं। ठबर सकृत्मण 'नमोत्युण वियद्छठमाणमुत्त'मिति क्‍्यणा सेसा बत्तीसं पया बत्तीसं हुंति अज्ययणा । ठबणारिहंतत्थए आईए चउत्थं, तओ तिन्नि आयंबिलाणि, तओ अंते तिण्हनि अज्हायणाणं एगा ४ वायणा दिजह । अज्ययणतिगं च इस -अरिहंतचेहयाणं . . .जाव. . .निरुवसमावत्तियाएं । १। ध्षद्धातु . ..जाब. . .ठामि काउस्सम्ग! । २ | “अज्नत्यऊससिएणं . ..जाव . ..बोसिरामि! । ३ । # ॥ ४ ॥ मामाअरिहंतबउविसत्थए आईए अट्टं। तभो चउरतिसयसिलोगस्स पढमा कायप्म दिज्ाइ । ९ । पुणों पंचवीस आयंबिलाणि | बारसहिं गएहिं अष्ृइनाम गाहातिगरस बीया वायणा दिझछाइ । २। पुणोतरि तेरसहिं गएहिं पणिहाण-गाहातिगस्स तइया वायणा दिज्जह | ३। नवर॑ छहिं रूबगेहिं चउनौस॑ अ अध्यक्षणा, पंचवौसइम सत्तम-सबंगाहाएं। 9 | # ॥ ५ ॥ ! 5 मुद्रपुस्ति। 2 28 पढ़िकेहिय । एतद्निदण्डान्तगेता पकिनोपलम्यते 3 जादर्शे। 3 73 उबहाण मज्े । ड "सेवाओं । ु १० “विधिप्रपा । . दबारिहंतसुयत्थए पढम चउत्थं, तओ पंच आयंबिलाणि, अंते एगा वायणा दिजाइ। १ । नवर अज्ञयणाई तिहिं रूवगेहिं तिन्नि, चउत्थरूवगे दोहिं पाएहिं चउत्थमज्ञयणं, अन्नेहिं दोहिं पंचम ॥ ६॥ सबत्थ जत्थ जेत्तियाणि अंबिलणि तत्थ तेत्तियाणि अज्झयणाणि भवंति । सिद्ध्थधुईए उबहाण 'बिणावि मालादिणकओवबासस्स तिण्हं गाहण वायणा दिज्जइ । न उण गाहादुगस्स । जेण बोडियपरिस्ग- १ हियउज्िततित्थसंगहत्थं । दाहिणदारपविट्ट-सिरिगोयमगणहरवंदिय-अट्टावय-सीहनिसीहिहचेह्यट्टिय- जिणर्बिबकमउवदंसणत्थ च पच्छा वुद्'ेहिं कय॑ ति अज्ले भणंति | एयस्स वि एगा परिवाड़ी दिजइ। वायणा किर सब्त्थ परिवाडीतिगेणं दिज्जइ। एयर्स पुण गाहदुगस्स एगा चेव परिवाड़ि त्ति भावत्थो ॥ संपरयं पुण जहोत्ततवोविह्ाणअसामत्या एगविगइगहण-एगासण-पारणगंतरिया दस उवबवासा पंचमंगलमहासुयक्खंधे कीरंति । जओ दुवालसमद्ठमेहिं अद्ठ उववासा, आयंबिलट्ठगेणं चत्तारि, मिलिया ७ बारस उववासा पंचमंगलमहासुयक्खंधे | जयावि दस एगासणा, दस उववासा, तयावि चउहिं एगासणेह्ि उववासो त्ति दुवाहसोववासा साइरेगा जायंति त्ति परमत्थओ सो चेव तवोवीही । एवं च वीसं पोसहदिणाई भवंति । आओ चेव वी स ड ति! भण्णइ | जो य असहू पारणगे दोक्ासणं करेइ तस्स इकारस उववासा। अद्गृहिं दोकासणेहिं च एगो उबवासो । एवं दुवालस ॥ एवं चेव इरियावहियासुयक्खंधे वि ॥ भावारिहंतत्थए पणतीसं पोसह॒दिणाईं उबवासा इंगुणवीसं पारणएहिं सह पूरिज्जति ॥ छ एवं ठवणारिहंतत्थए अड्डाइज्जा उववासा चत्तारि पोसहदिणाई । एये च उवहाणदुर्ग एगद्दमेव वहिजइ । अओ चेव एगूणत्ते वि रूढीए “चा छी स ड'ति भण्णइ । [उक्खेब-निक्‍्खेवा पुण पुढो पुदो कायबा। ॥ नामारिहंतत्थए अट्ठावीसपोसहदिणा पन्नरस उबवासा पारणेहिं सह पूरिलति | आओ चेव “अ द्वावी स ड'ति रूढे । एवं सुयत्थए अद्भुद् उबवासा छप्पोसहदिणाईं । आओ चेव “छ क डे 'ति भण्णइ । » साहु-साहुणीओ य निधिगइ-आयंबिछोववासेहिं जहुत्तोववाससंख॑ पूरंति | न उण तेसिं दिणसंखानियमों पिगइपचेसो वा ॥ ॥ उवहाणसामायारी समत्ता ॥ $ १४. संपर्य एय उज्जमणरूवों मालारोवणविही भण्णइ। तत्थ पुबििल्लो चेब नंदिकमों । *नाणत्त पुण एये । मारूग्गाही भ्बो मालादिणाओ पुबदिणे परमभत्तीए वत्थासणाइणा पडिलामियसाहु-साहुणिवम्गो, » विहियसाहम्मियवत्थतंबोलाइपवरवच्छलो, पत्ते थ पसत्थतिहि-करण-मुहुत्त-नक्खत्त-जोग--लूग--चंदब- लोवेए मालादिणे नियविहवाणुरूत॑ कयजिणपूओवयारोपक्खेव-बलिनिक्खेवपुश्ध विरहयविसिट्ठ-उचियणेवर्थो मेलियनीसेसमाया-पिउमाइबंधुजणों कय-साहु-साहम्मियवंदणों सब्निदीकयपठरगंध-चंदण-अक्खय-नालि- केराइपसत्थवत्थू अखंड-अक्खय-नालिकेरसणाहकरं॑जली तिपयाहिणीकयसमोसरणों खमासमणपु्ष भणह-- 'पंचमंगलमहासुयक्खंध-पडिक्रमणसुयक्खंध- चीवंदणसुत्त अणुजाणावणिय वासनिक्खेव करेह, देवे वंदावेहः » त्ति। तओ गुरुणा अहिमंतियसिरोविज्नत्थगंधो जिणपडिमानिच्वलीकयदिट्टी जिणमुद्गाइविहिणा पए पएु सुत्तत्थ भावितो सद्धासवेगपरमवेरमाजुत्तो पवब्रमाणसुहपरिणामो भत्तिभरनिब्भरो हरिसुलृसियरोमंत्रो गुणा चड़बिहसंघेण य सद्धिं समोसरणपुरो बद्युमाणधुईहिं देवे बंदेइ । जाव परमिट्टिधुत्तमणणाणंतर उद्ठित्त पंचमंगलमहासुयक्खंध-पडिकमणसुयक्खंघ-भावारिहंतत्थय-ठवणारिहंतत्थय-चउवीसत्थय-ना त्यय-सिद्धत्थय-अणुजाणावणियं नंदिकड्ठावणियं सत्तावीयूस्सास॑ काउस्सझां दो वि करंति । पारितता, 4 एलदूड्िदण्डान्तगतः पाठ: पतितः मे आदशशे। # “विशेषः पुन? इति .॥ टिप्पणी । डपधानविधि । है. $ | चउवीसत्थय भणित्ता, नवकारतिग भणित्तु,-'नाणं पंचविहं पण्णत्त ते जहा-आमिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं, .. .जाव. . .सुयनाणस्स उद्देसो समुद्ेसो अणुज्ञा अणुओगो पवत्तइ'-- इति मंगलत्थ नंदिं कब्डिय सूरी निसिज्जाए उवविसिय “भो भो देवाणुप्पिय! इशच्चाइगाहाहिं, अह वा- कछ्काणकंदकंदलकारणमहतिक्खदुक्खनिदलण। सम्मद्सणरयणं सिवस्ुहसंसाहरग भणिय ॥ १॥ तस्स य संसिद्धिविसुद्धिसाहर्ग बाहगं विवक्खस्स । चिह॒यंदणमिह चुत्त तस्सखुवहाण अओ चुक्त ॥ २॥ लोए थि अणेगंतियपयत्थलूुंमे निह्माणमाहम्मि । पुरिसा पवत्तमाणा उवहाणपरा पयदंति ॥ ३॥ कि पुण एगंतियमोकक्‍्खसाहगे सयलमंतमसूलम्मि । पंचनमोकाराईसुयम्मि भविया पयटंता ॥ ४॥ किंच - कप्पियपयत्थकप्पणपठणा वरकप्पपायवलया वि। पाविद्वयह पाणीहिं ण उणो चीवंदणुबहाणं ॥ ५ ॥ लाभंमि जस्स न॒र्ण दंसणसुद्धिवसेणनिमिसेण । करतलगय ब जायइ सिद्धी धुवसिद्धिभावस्स ॥ ६॥ घन्ना सुणंति एयं छुणंति घन्ना कुणंति धन्नयरा। जे सदृहंति एय ते वि हु धन्ना विणिद्दिष्ठा ॥ ७॥ कम्मक्खवओवसमेणं गुरुपयपंकयपसाय ओ एय। तुब्मेहिं सुयं सुणिय सदरहियमणुद्धियं विहिणा ॥ ८ ॥ इच्चाइगाहाहिं देस्ण करित्ता तिसंझ चेइय-साहुबंदणामिर्गह देह | तओ वासक्खए अभिमतेह । तम्मि समये सुरहिगंधदु अमिलाणसियपुप्फमाला सत्तसरिया जिणपडिमापाओवरि विण्णसणीया । तओ उद्गाय सूरी जिणपाए सुगंधे खिविय चउबिहसंघस्स वासक्खए देह । तओ माछागाही वंदित्ता भणइ- “(ूच्छाकारेण तुब्मे अरूं पंचमंगलमहासुयक्खंध॑ अणुजाणह” । गुरू भणइ-“अणुजाणामो' । तओ सीसो वंदिय भमणइ-'संदिसह कि भणामों ? । गुरू भणइ--वंदित्ता पवेयह” । पुणों वंदिय सीसो भणइ- एच्छाकारेण तुब्मे अग्हं पंचमंगलमहासुयक्खंधो अणुन्नाओ !” । तओ गुरू वासे खिवंतो भणइ-“अगु- # जाओ' । ३ खमासमणाणं । हत्थेणं सुत्तेणं, अत्थेणं, तदुभएणं, 'सम्म॑ं घारणीओ, चिरं पाछणीओ, साहुं पह पृणु अश्लेसि पि पवेयणीओ त्ति'। सीसो भणइ-इच्छामो अणुसद्ठि' । सीसो वंदिय भणइ--तुम्हार् पवेइ्यं, संदिसह साहूर्ण पवेएमि' | गुरू भणइ--'पवेयह” । तओ वंदिय, नमोक्वारं भरणतो पयक्खिणं देइ। संघो गुरू य तस्स सिरे वासे अक्खण य खिवइ; “नित्थारगपारगो होहि'त्ति भणिरों। एवं पढमा पयक्खिणा ॥ १ ॥ इरियावहियासुयक्खंध अणुजाणह”-अणेण अमिलावेण संतरे आलावगा भणिजंति। बीया पयक्खिणा ॥ २ | भाबारिहंतत्थय अणुजाणह”-अणेण तईया पयक्खिणा ॥ ३ ॥ "“ठवणारिहं- तत्थय॑ अणुजञाणह'--अणेण चवत्थी पयक्खिणा ॥ ४॥ नामारिहंतत्थय अणुजाणह”-अणेण पंचमी पयक्खिणा ॥ ५॥ सुयत्थय अणुजाणह”-अणेण छट्टी पयक्खिणा ॥ ६॥ 'सिद्धत्ययं अणुजाणह*-अणेण 2 सत्तमी पयक्खिणा || ७ ॥ सत्तसु य पयक्खिणासु सत्त गंधमुद्ठीओ हवंति। अन्ले अक्खयदाणाणंतरं एग-- म्5 श्र्‌ जिधिप्रता । शण्ये खमासमण दाउं सीसो भणइ-ततुम्हाणं पवेहयं, साहर्ण पवेइमं, संदिसद काउस्सम्मे कारवेह* । शुरू मणइ-“करावेमो' । तओ खमासमर्ण दाउं-“पंचमंगलमहासुयक्खंधाइअणुभ्ानिमित्त करेमि काउस्समा! । उज्जोब॑ चिंतिय, ते चेव पढ़िय, खमासम्ण दाउं भणइ--इच्छाकारेणे तुब्चे अग्ह उवद्ाणविहिं सुणावेह” । तओ सूरी उद्धष्टिओ उवहाणविहिं वक्‍खाणेइ । 8 १७, सो य इमो- पंच नमोकारे किल, दुवालस तथो उ होह उवहाणं। अट्ट य आयामाइं, एगे तह अट्टठमं अंते ॥ १॥ एये चिय निस्सेस हरियावहियाह होह उचहाणं। सक्॒त्थयंमि अद्ठटममेगं बत्तीस आयामा ॥ २॥ अरहंतचेहयथए उचहाणमिणं तु होह कायब । एगं चेव चउत्थं तिन्नि अ आयबिलाणि तहा॥ ३॥ एग॑ं चिय किर छट्ठ॑ चउत्थमेग च होह कायब। पणवीस आयामा चघउठवीसथयंमि उवहाणं ॥ ४ ॥ एग चेव चउत्थं पंच य आयंबिलाणि नाणथए। चिहवंदणाइसुत्ते उवहाणमिण्णं विणिदिटंं ॥ ५ ॥ अधावारो विगहाविवद्धिओ रुदझ्माणपरिसुको । विस्साम अकुणंतो उबहा्णं वह उबज़ुत्तो ॥ ६ ॥ अह कह्बि होज् बालो वुह्दो वा सत्तिवद्वचिओ तरुणो । सो उवहाणपमाणं पूरिञ्ञा आयसत्तीए ॥ ७॥ राईमोयणविरई दुविह तिविहं चउबिहं वाबि। नवकारसहियमाई पशथ्चक्लाण विहेऊण ॥ ८ ॥ एकेण सुद्धअच्छेषिछेण हयरेहिं दो््टि उबवासो । नवकारसहियएहिं पणयालीसाए उबवासो ॥ ९ ॥ पोरसिचउबीसाए होह अवद्ेहिं दसहिं उवयासो | विगईचाएहिं छहिं एगट्टाणेहि य चऊहि ॥ १० ॥ जीएण निवियतियं पुरिमहा सोलसेव उववासो । एक्कासणगा चउरो अट्ट प विक्ासजा तह ये ॥ ११ ४ अयवं ! पमूयकालो एव करेंतस्स पाणिणो होजझा । तो कहथि होज़ सरण नवकारबिवजद्ियस्साथि ॥ १२॥ नवबकारवजिओ सो निवाणमजुत्तरं कह लमिखा | तो पढम चिय गिण्हह, हआ णंहोठयामाचा॥१३॥ गोयम ! जे समय चिय सुओवयारं करिज्र सो पाणी | ते समर्य चिय जाणसु गहियतयईं जिणाणाए॥ १४ ४ (एवं कयठयहाणों भवंतरे खुलभबोहिओ होजा। वि हु गोयम! आराहमो समणिओ ॥ १५॥ 4 8 कुणह । उपधलविधि | जो उ अकाऊणमिम गोयम ! गिण्हिल्ल भत्तिमंत्रो जि |. सो मणुओ वद्धत्ो अगिण्हमाणेण सारिच्छो ॥ १६९॥ आसायह तित्थयरं तवयण्ण संघ-गुरुजण चेय। आसायणबहुलो सो गोयम ! संसारमणुगामी ॥ १७ ॥ पढस चिय कन्नाहेडएण जं पंचमंगलमहीय। तस्स थि उयहाणपरस्स खुलहिया वोहि निशिट्ठा ॥ ६८ ॥ इय उवहाणपहाण निउणं सब पि वंदणविहा्ण। जिणपूयापु्ध चिय पढिज् सुयमणियनीहए ॥ १९॥ ते सर-बंजण-मत्ता-बिंदु-परिच्छेयठाणपरिसुद्ध । पढ़िऊण चियवंदणसुस अत्थं बियाणिज्ला ॥ २० ॥ तत्थ बि य जत्थे य सिया संदेहो छुत्त-अत्थविसयंमि । ते बहुसो बीमंसिय सयल निस्‍संकियं कुणस ॥ २१ ॥ अह सोहणतिहि-करणे मुहुत्त-नक्खत्त-जोग-लग्गंमि । अणुकूलंसि ससिबलेे “सस्से सस्सेयसमयंमि॥ २२ ॥ निययबविहवाणुरूव संपाडियछुवणनाहपूएण । फुडभत्तीए बिहिणा पडिलाहियसाहुवस्गेण ॥ २३॥ अत्तिभरनि्भरेणं हरिसवसोछसियबहलपुलएणं। सद्धा-संबेग-बविवेग-पर मवेरग्गजुत्तेणं ॥ २४ ॥ निधट्चियधणराग-दहोस-मोह-मिच्छत्त-मलूकलकेण । अइउछुसंतनिम्मलअज्शवसाएण अणुसमय ॥ २५॥ तिह॒ुयणगुरुजिणपडि साविणिवेसियनयणसाणसेण तहा। जिणचंदवंदणाए धन्नोध्झी मज्लसाणेण ॥ २६ ॥ निययसिररइयकरकमलमउलिणा जतुविरहिओगासे । निस्संक सुत्तत्थं पं पर्य भावयंलेण ॥ २७॥ शिणनाहदिद्वगं मीरसमयकुसछेण सुहचरित्तेणं । अपमायाईवहुविहगुणेण गुरुणा तहा सद्धि ॥ २८ ॥ चउठविहसंघजुएणं विसेसओ निययबंधुसहिएणं |. इय बिहिणा निउणेणं जिणबिंबं वंदणिज्वं चं ॥ २९॥ लयणंतरं गुणडे साहू वद्ज्ञ परम भत्तीए। साहम्मियाण कुझ्ा जहारिह तह पणामाई ॥ ३० ॥ जाव यथ महग्घ-साउक -चोक्ख-वत्थप्पयाणपुव्रेणं । पडिबत्ति'विहाणेण कायदो गुरुपसम्माणो ॥ ११ ॥ एयथाचसरे ग्रुरुणा खुविष्यगंभीरसमयसारेण । अक्लेषणि-विक्लेवणि-संवेयणिपसुहृविहिणा उ ॥ ३२॥ # 'प्रशस्चे! इति 2. द्विप्णी। 4 -5त। १ ग्रदुत्व' इति 2. टिप्पणी। 4. पद्चिवित्ति । श् ३४ विधिप्रपा । अवनिधेयपहाणा सद्धासंवेगसाहणे पठणा। शुरूएण पबंधेणं धम्मकहा होह कायबा ॥ ३३ ॥ सद्धासंवेगपरं सरी नाऊण ते तओ मर । चिहवंदणाइकरणे इथ वयर्ण भमणह निउठणमई ॥ ३४॥ लो भो देवाणंपिय ! संपावियसयलजम्मसाफक् !। तुमए अज्वप्पभिई तिकाल जावजीवाए ॥ ३५ ॥ वंदेयबाई चेहयाई एगरग्गसुथिरचित्तेणं । स्वणमंगुराओं मणुयत्तणाओं हणमेव सारं ति ॥ ३६॥ तत्थ तुमे पुब्ण्हे पाणं पि न चेब ताव पेय । नो जाव चेहयाहं साहू विय वंदिया बिहिणा ॥ ३७॥ मज्ञझण्हे पुणरवि बंदिऊण नियसेण कप्पए भोक्तुं। अवरण्हे पुणरवि वंदिऊण नियमेण सयर्ण ति॥ ३८ ॥ एवसमिग्गहबंधं काउं तो वद्धमाणविज्धाए। अभिमंतिऊण गेण्हइ सत्त गुरू गंधमुद्दीओ ॥ ३० ॥ तस्सोत्तमंगदेसे 'नित्थारगपारगो भविज्धत्ति। उच्चारेसाणु चिय निक्खिवह गुरू सुपणिहाणं ॥ ४० ॥ एयाए विज्ञाए पभावजोगेण जो स किर भवो। अहिगयकल्लाण लहुं नित्थारगपारगो होह ॥ ४१ ॥ अह चउवबिहो वि संघो “नित्थारगपारगो भविज्ञ तुम पन्नों । सुलक्खणो' जपिरो त्ति से निक्खिवह गंधे ॥ ४२॥ तत्तो जिणपडिमाए पूया देसाउ सुरहि गंधड । अमिलाणं सियदाम गिण्हिय विहिणा सहत्थेण ॥ ४३ ॥ तस्सोमयखंघधेस् आरोवितेण सुद्धचित्तेणं । निस्संदेह गरुणा वत्तव एरिसं वयण्ण ॥ ४४ ॥ “नो भो खुलद्धनियजम्म ! निचिय अइयुरुअ-पुण्णपब्भार [| नारय-तिरियगईओ तुज्झ अवस्सं निरुद्धाओ ॥ ४५॥ नो बंधगो य सुंदर ! तुममित्तो अयस-नीयगोत्ताणं । 84 जज 45- य दुलहो तुह जम्मंतरे वि एसो नमोकारों ॥ ४६९॥ पंचनसोक्कारपभावओ य जम्मंतरे बि किर तुज्झ । जातीकुलरूवारोग्गसंपपाओ पहाणाओ ॥ ४७॥ अन्न च इसाउ चिय न हुंति मणुया कयाबि जियलोए। दासा पेसा दुभगा नीया बिगलिंदिया चेव ॥ ४८ ॥ कि बहुणा जे गोयम ! विहिणा एयं सुय्य अहिजित्ता। खुय मणियविहाणेणं खुद्धे सीले अभिरमिद्ला ॥ ४९॥ ] बयणे ) जृद्नबे। 2 5 ाफा। ........ ए्ए््/एए । हे ! माछारोपणविधि | ले जह नो तेणं चिय 'मवेण निवाणमुत्तर्म पत्ता । ताएणुत्तरगेविज्ञाहएस सुइरं अभिरमेड ॥ ५० ॥ उत्तमकुलंमि उकिट्ठलट्टसबवंगसुंदरा पयडी । सयलकलापत्तद्ा जगमणआणंदणा होड़ ॥ ५१ ॥ देविदोवमरिद्धी दयावरा बिणयदाणसंपन्ना। निविन्चकासभोगा धम्मं सयलं अणुद्वेंड ॥ ५२॥ सुहर्माणानलनिदृहधाइकम्मि घषणा महासत्ता | उपन्नविसलनाणा विहुयमला झत्ति सिज्ञ॑ति ॥ ५३ ॥ इय विमलफल सुणिईं जिणस्स मह मा णदे व सू रि सस । महानिसीहा .४८४०५४४५०५८०४०४१४०६ ॥ उवहाणविही समत्तो ॥ ७॥ $ १६, तओ मालोवबूहणं करेह । जहा- सावज्कज्वज़णनिद्ुरणुद्टाणविशिविद्णेण । दुकक्‍्करठवहाणेणं विद्या हव सिज्मए माला ॥ १॥ परमपयपुरीपत्थियपवयणपाहेयपाणिपटियस्स । पत्थाणपढमसंगलूमाला पथडा परमपसवा ॥ २॥ संतोसग्वग्गदारियमोहरिउत्तेण रुद्धविसयस्स । आणंदपुरपवेसे वंदणमाला जियनिवस्स ॥ ३ ॥ अहवा दुजोह-सब-मोह-जोहबिजयत्थसुत्भमपरस्स । जीवज्रोहस्सेसा रणमाला हइव सहह माला ॥ ४॥ समत्त-नाण-दंसण-चरित्तगुणकलिय भचजी वस्स । गुणरंजियाह एसा सिद्धिकुमारीह वरमाला ॥ ५ ॥ साला सर्गपवग्गमग्गगसणे सोवाणवीही समा, एसा भीसमवोयहिस्स तरणे निच्छिदपोओवमा। एसा कप्पियवत्थुकप्पणकए संकप्परुक्खोवमा, एसा दुग्गहदुग्गवारपिहणा गाढग्गला देहिणं ॥ ६ 0 जह पुडपायबिसुद्ध रयर्ण ठाण वरं लहइ तह य। तवतवणुतवियपायों परमपर्य पावए पाणी ॥ ७॥ जह सूरसमारुहणे कमेण छिल्लति सयलछायाओ। तह सुहमभावषारुहणे जीवार्ण कम्मपयडीओ ॥ ८ ॥ दा सील तव-भावषणाओ धम्मस्स साहर्ण भमणिया | ताओ एय बिहाणे बहु पडिपुश्नाओं नायवा ॥ ९॥ _# 'शोमते' इति 2. टिप्पणी । 9 छजति । विधिन्नणा | - इचाह । इत्यतरे सुनेवत्थेहिं माठागाहिणो बंधवेहिं जिणनाहपूया5:देसाओ अणुजाणाबित्तु माला आणेयब्ा । संपइ सुत्तमई रत्तवत्थुच्छुया माला कीरह । सूरी य तत्थ वासे खिवेह । तओ तब्बंधवहत्येण : तस्स भवस्स कंठे माला पखेवणीया । इत्थ केई भर्णति-“पक्खित्तमाला समोसरणे पयाहिणाचउक् दिंति; संधो य तस्सीसे वासक्खए खिवइ'त्ति | तओ पंचसद्दे वजजते मालागाहिणो जिणग्गजो सपरियणा नश्वति, $ दाणं च दिंति। आयंबिलं उपवासो वा तस्स तम्मि दिणे पच्चक्खाणं | संपर्यं उबवासो कारविजइ त्ति दीसह | तओ आरत्तियमाइ सावया कुणंति | तभी महयाविच्छड्ेणं॑ सावय-सावियाओ मालागाहिणं गिहे नेंति | सो वि गिहागयाण तेसिं ससत्तीए वत्थ-तंबोलाइ देह | जइ पुण वसहीए नेंदीरयणा कया, तओ चेईहरे समुदाएण गम्मह त्ति, सा य माछा घरपडिमाअग्गओ ठाविया हम्मासं जाव पूइजह ति॥ ॥ मालारोवणविही समत्तो ॥ ८॥ ॥# (६ १७, इत्थ केई उदग्गकुग्गाहगहियचित्ता महानिसीहसिद्धंतमवमन्नंता उवहाणतवं न मन्नंति चेव । तओ य तेसिं जुत्तिआभासेहिं भावियमइणो* सीसा मा मिच्छत्त गमिहिंति त्ति परिभाविय पुब्बायरिएहिं उवहाणपहट्टापचासयं नाम पगरणं विर्‌इयं त॑ च सीसाणमणुग्गहद्ठाए इत्थ पत्थावे लिहिज्ज३ । नमिऊण वौीरनाहँ, बोच्छ नवकारमाह उवहाणे। कि पि पहट्ठाणमह बिमूृट्संमोहमहणत्थं॥ १ ॥ ज॑ सुत्ते निदिटटं पमाणमिह ते सुओवयाराह। आयाराइणं जह जहुत्तस्वह्वणनिबहर्णां ॥ २॥ व॒ुत्त च सुए नवकार-हरिय-पंडिकमण-सक्थयविसय । चेइय-चउबीसत्थय-सुयत्थएसं च उबहाणं ॥ ३॥ कि पुण सुत्त ते इृह जत्थ नमोकारमाइउठवहाणं । उवहद्द आह गुरू, महानिसीहक्खसुयस्थंघे ॥ ४ ॥ एसो वि कह पमार्ण नंदीए हँदि कित्तणाओ त्ति। जे तत्थेव निसीह महानिसीहं च संलक्त ॥ ५॥ अह ते न होह एय एवं आयारमाइबि तयन्न । तुछे वि नंदिपाढे को हेऊ विसरिसत्तम्मि ॥ ६॥ अह दुब्बलिसूरीणां, पराभजत्थं कर्य सबुद्धीए । गोद्टेणं ति मय नो इम पि वय्ण अविण्णू्ण ॥ ७॥ पुटष्टमबद्ध कम्म॑ अप्परिमा्ण च संवरणमुत्त | जे तेण दुर्ग एयं त॑ विय अपमाणमक्‍्खायं ॥ ८॥ सेसं तु पमाणत्तेण कित्तियं गोट्ठमाहिछुत्त पि। इग-दुगप भेयए थिय ज॑ झुत्ते निण्हवा वुत्ता ॥ ९॥ किंच न गोट्टामाहिलकयमेय नंदिसेणचरिए ज॑। कह भोगफलं भणिही अवद्धिओ बद्धपुट्टं सो ॥ १० | प्रश्षेप: । 3-32 227 कस कक अपन रब मदन मे पक मील # “भव्या' इति 2 टिप्पणी । | “निम्मवण” इति 4. आदर्शे पाठमेद्सूबिका टिप्पणी । 3 त्यए झुय॑ थे । 4 2 नयत्त। 3 33 संबरमु्त + 4 9 * मइमेए। लपधानभप्रतिधाप्रकरण । १७ अह भूरि सयबिरोहा प्साणया नो सहानिसीहस्स | लोइयसत्थाणं पिच तहाहि तम्मी अणुचियाह ॥ ११॥ सत्तमनरयगमाईणि इल्थियाणं पि वण्णियाईं ति। तन्न लिहणाइदोसा संति बिरोहा' खुए वि जओ॥ १२॥ आशभिणिवोहियनाणे अद्वाचीसं हव॑ंति पयडीओ | नाणमवाय-घिहओ दंसणमिट्टं च उगगहेहाओ । एवं कह न विरोहो विवरीयक्तेण भमणणाओ ॥ १४॥ किंच - गइ-इंदियाइसु दारेसु न सम्मसासण हट । एगिदीणं विगलाण सह-सुए त॑ च5णुन्नायं ॥ १५ ॥ सयगे पृण विगलाणं एगिंदीणं च सासणं हट । न पृणो मह-सुयनाणे तहेवर्मावस्सए चुक्त ॥ १६ ॥ सीहो तिविद्ुजीओ जाओ सत्तममहीओं उद्बद्ठो। जीवाभिगममएणं मीणत्त चेव सो लह३इ ॥ १७ ॥ नायासु पुब्ण्हे दिक्‍खा नाणं च भणियमसवरण्हे । आवस्सपम्समि ना्ण बीयम्मि दिणम्मि मछीस्स ॥ १८ ॥ छडमत्थप्परियाओ सह्डछम्भास-बारससमाओं । मग्गसिर किण्हद्समी दिक्खाए बीरनाहस्स ॥ १९ ॥ वहसाहसुद्धदसमी केवललाभम्मि संभविजद्ञ कह । इय 'सत्थेसु बहवो दीसंति परोप्परविरोहा ॥ २० ॥ तस्संभवे वि आवस्सयाई सत्थाई जह पसमाणाह । तह कि महानिसीह घिप्पश न पसाणबुद्धीए ॥ २१ ॥ अह पंचनसोकाराइयाणसुवहाणमणुचिय भिन्न । आवस्सयस्स अंतो पादाओ तहाहि सामहय ॥ २२॥ नवकारपुवर्य चिय कारह ज॑ ता तयंगमेसो ति। अन्न थ इत्थ अत्थे पयर्ड चिय कित्तिअं एयं ॥ २३ ॥ नंदिमणुओगदारं, विहिवहववग्घाइयं व नाऊर्ण । काऊण पंचमंगलमारंभो होह झुत्तसस ॥ २४ ॥ हय सामाइयनिज्जुत्तिमज्यमज्ञासिओ इमो ताव। पडिकसणे य पविद्दो हरियावहियाएँ पाठो थि॥ २७ ॥ अरिहंतबेहयाण य वंदणदंडो सुयत्थओ य तहा। काउसग्गज्झयणे पंचमए अणुपविट्टों ति॥ २६॥ ] 9 बिरोहो । 2 9 'समि्त। 38743 "कष्ह 4 4 73 सुतेसुं। | “विधिपथोद्धातिक उपन्यास इल्यर्थ: । इति 0. टिप्पणी । विधि०_३ ॥ट 4 2“. निजराहिक। 2 3 "द्ारेण ! विधिप्रपा । शथीयज्समयणसरूयों चडबीसथओ वि ज॑ विणिदिटो | आवस्सयाउ न पिहो जुल्नह ता तेसिमुवहाणं ॥ २७ ॥ आवस्सओवहाणे ताणुबहाणं कर्य समचसेय॑ । कयओवहाणे य पिहो तक्करणे होइ अणवत्था ॥ २८ ॥ मण्णइ उत्तरमिहई नवकारों आइमंगलत्तेण । चुचह जया तयचिय सामहशयउणुप्पवेसो से ॥ २९॥ जहया य सयण-भोयणनिज्ञरहेउं' पढिज्जए एसो। तहया सतंत एव हि गिज्झह अज्ञों सुथक्खंधो ॥ ३० ॥ हह-परलोयत्थीणं सामाइयबिरहिओ वि वावारो । दीसह नवकारगओ तदत्थसत्थाणि य बहूणि ॥ ३१ ॥ नवकारपडल-नवकारपंजिया-सिद्धचक्कमाईणि । सामाहयंगमावो इमस्स णेगंतिओ तम्हा ॥ ३२॥ पटमुचारणमित्ते वि 5णुप्पवेसो हविज़ सामइए। एयस्स सबहा जइ ता नंदणुओगदाराणं ॥ ३३॥ तदणुप्पवेसओ चिय तवचरणं नेय जुज्नह विभिन्न । दीसइ य कीरमाणं जोगविहीए य 'भन्नंत ( भिन्नत्त ) ॥ ३४ ॥ कि वा भिन्नत्ते सव॒हा वि सामाइयाउ एयरस।। काऊण पंचमंगलमिचाई अणुचियं वयणं ॥ ३५ ॥ इय भेयपक्खमणुसरिय जह तवो कीरई नमोकारे | ता को दोसो नंदणुओगदारेखु व हविज्ञ ॥ ३६ ॥ हरियावहियाहेय सु्यं पि आवस्सयस्स करणम्मि। अणुपविसह तम्मि तयज्ञया य भिन्न हि तेणेव ॥ ३७॥ भत्ते पाणे सयमणासणाइसुत्त पि जायह कयन्थ। तिन्नि वि कहइ तिसिलोइयत्थुइचाइसुत्त पि॥ ३८ ॥ आवस्सए पवेसो जइ एसि सबहाबि य हविज्ञ । तो पिहुपठर्ण एसि सवेसि कह घडिज्ञ त्ति॥ ३९०॥ जंच कक सणमेव च वुच॒ह इमाण। पादेण विणा ण हि तव॑ विणा नेसिं पाठो ति ॥ ४० ॥ ते पि हु अवूसण जह पचहउमछ॒वद्धियरस उणुन्नायं । सामाहयाइयाणं आलावगदाणमतवे वि।॥ ४१॥ एवं जह पढ़िएसु वि नवकाराईसु ताणसुवहाणं। . सर्विसेसगुणनिमित्त कारिज्जह को णु ता दोसो ॥ ४२॥ नियमइबिगप्पिय॑ पि हु कारिज्न३ह सुक्खदंडयाहतय । सत्थुत्त पि निसिज्ञइ उवहाण ही सहामोहो ॥ ४३ ॥ पोषधविधि । १९ मंतंमि पुवसेवा जह तुच्छफले थि वुचड हद ता। सुक्खफले वि उवहाणलक्खणा कि न कीरइ सा 0 ४४ ॥ एशेह परमसिद्धी जायइ ज॑ ता द॑ लओ अहिगा। जत्तमि वि अहिगत्तं भवस्सेयाणुसारेण॥ ४५॥ अह सकविरयणाओ सक्कथए नोवहाणमुववन्न । ४ एयं पि केण सिट्टं जमेस सकेण रहइओ ति ॥ ४६॥ सकसस अविरयत्ता जिणथुहे जह अणेणणुन्नाया । ता तकठ त्ति सो वुत्तुमेबमुचिय कहं तम्हा ॥ ४७॥ केवलिणा दिद्ठाणं उवह्द्टाणं च विरइयाणं च | नवकारमसाहयाणं महष्पभावो व वेयाणं ॥ ४८ ॥ थे तिकालियमहवा सत्तकालिय सुमरणे निउत्ताणं। जुत्त चिय उवहाणं महानिसीहे निबद्धाणं ॥ ४९ ॥ उवदहाणविहीणाण वि मरुदेवाइेण सिवगमो दिद्वो। एयं च वुच्माणे तबदिक्खाइण वि निसेहो ॥ «० ॥ इय भूरिहेउऊत्तीज॒यंमि बहुकुसलसलहिए मग्गे। ७ कुग्ग हविरहेणुत्लनमह महह जह मोकक्‍्खसुहमणहं ॥ ५१ ॥ ॥ उवहाणपइद्वापंचासगपगरणं समत्तं ॥ ९ ॥ पत++__ण 5२0 ₹६₹४₹र)००- ४8-75 $ १८, संप्य पुत्वुछंगिओ पोसहविही संखेवेण भण्णइ। जम्मि दिणे सावओ सावया वा पोसहं गिण्हिद्दी, तम्मि दिणे अ प्पभाएु चेव वावारंतरपरिच्चाएण गहियपोसहोवगरणो पोसहसाराए साहुसमीवे वा गच्छइ। तओ हरियावहियं पडिकमिय गुरुसमीवे ठवणायरियसमीये वा खमासमणदुगपुत्न पोसहमुहपोत्ति पडिलेहिय पढमखमासमणेण पोसहं संदिसाविय, बीयखमासमणेण पोसहे ठामि त्ति मणइ । तओ बंदिय, नमोक्कारतिग कब्डिय, 'करेमिभंते पोसहमिश्वाइ दंड. ..वोसिरामि! पज्जंते भणइ । तओ पृुव्वुत्तविहिणा सामाहय॑ गेण्हह । वासासु कद्ठासणं, सेसइ्मासेसु पाउंछ्ण च संदिसाविय, उबउत्तों सज्ञायं कर्रितो, पडिकमणवेल जाव पडिवालिय, पाभाइय पडिकमइ । तओ आयरिय-उवज्ञाय-सबसाह वंदइ । तओ जह पडिलेहणाए सेल, ताहे सज्ञायं करेइ | जायाए य पडिलेहणाए खमासमणदुगेण अंगपडिलेहणं संदिसावेमि, पडिलेहर्ण करेमि त्ति मणिय, मुहपोत्ति पडिलेहेइ | एवं खमासमणदुगेण अंगपडिलेहर्ण करेइ । इत्थ अंगसद्ेणं “अंग- ट्विय॑ कडिपट्टाइ णेय! इह गीयत्था । तओ ठवणायरियं पडिलेहित्ता नवकारतिगेणं ठविय, कडिपट्टयं पडि- लेहिय, पुणो मुहपोर्त्ति पडिलेहित्ता, खमासमणदुगेण उवहिपडिलेहणं संदिसाविय, कंबल-वत्थाइ, अवरण्हे पुण बत्थ-कंबलाइ, पडिलेहेइ । तओ पोसहसार्ू पमज्जिय, कज्जयं विद्वीए परिद्वविय, इरिय पडिक्कमिय, सज्झायं संदिसाविय, गुणण-पदण-पुच्छण-वायण--वक्खाणसवणाइ करेइ । तओ जायाए पठणपोरिसीए, खमासमणदुगेण पडिलेहणं संदिसाविय, मुहपोरत्ति पडिलेहिय, भोयणभायणाईं पडिलेहेश । तओ पुणों सज्ञायं करेइ, जाव कालबेला । ताहे आवस्सियापु्ध॑ चेईहरे गंतुं देवे बंदेह । उवहाणवाही पुण पंचहिं सकत्थएहिं देवे बंदेइ | तओ जह पारणइत्तओं तो पश्चकखाणे पुल्े खमासमणदुगपुष् मुहुपोत्ति पडिलेहिय, वेदिय, भणइ -“भगवन्‌ ! भाति पाणी पारावह ।” उवहाणवाही भणइ -“नवकारसहिउ चठविद्ारु।” इयरो हज हा जज हि 4 च्क् २० विधिप्रपा ! भणइ-“पोरिसि पुरिमदो वा, तिविहारं चउविहारं वा, एकासणउ निवी आंबिल वा, जा काह बेला, तीए भत्तपाणं पारावेमि'त्ति । तओ सक्कत्थयं भणिय, खर्ण सज्ञञायं च काउं, जहासंभव अतिहिसंविभागं काउं, मुह-हत्ये पडिलेहिय, नमोक्कारपुबं, अरत्तदुट्ढों असुरसुरं अचवचवं अद्ुयमविलंबियं अपरिसार्डि जेमेह । ते पुण नियघरे अह्ापवत्त फासु्यं ति; पोसहसालाए वा पुब्रसंदिद्ठरयणोवर्णीयं | न य भिक्‍खे हिंडेइ । तओ 5 आसणाओ अचलिओ चेव दिवसचरिम पच्चक्खर । तओ इरियावहिय पडिक्रमिय, सक्वत्थय भणइ। जद पुण सरीरचिंताए अट्टो तो नियमा दुगाई आवस्सिय करिय साहु ब उबउत्ता निज्जीवर्थडिले गंतु “अणु- जाणह जस्सावग्गहो' ति भणिऊण, दिसि-पवण-गाम-सूरियाइसमयविहिणा उच्चारपासवणे वोसिरिय, फासुयजलेणं आयमिय, पोसहसालाए आगंतृण, निसीहियापुर्च॑ पविसिय, हरियावहियं पडिकमिय, खमास- मणपुत्ध भणंति -इच्छाकारेण संदिसह गमणागमर्ण आलोयहं' । (इच्छ' आवस्सियं करिय, अवर-दक्खिण- ५ प्पमुहदिसाए गच्छिय, दिसालोयं करिय, संडासए थंडिलं च पडिलेहिय, उच्चार-पासवर्ण वोसिरिय, निसी- हिय॑ करिय, पोसहसाल्ूं पविद्ठा आवंतजंतेहिं ज॑ खंडियं ज॑ विराहियं तस्स मिच्छामि दुकई । तओ सज्ञायं ताव करेइ, जाब पच्छिमपहरो । जाए य तम्मि खमासमणपुत्न 'पडिलेहरं करेमि, पुणो पोसहसालरूं पमज्जेमि'त्ति भणइ । तओ पुर्च॑ व अंगपडिलेहण काउ, पोसहसालं दंडग-पुंछझणेण पमज्िय, कज्यं उद्ध- रिय, परिट्वविय, इरिये पडिक्रमिय, ठवणायरियं पडिलेहिय ठवेइ । तओ गुरुसमीबे ठवणायरियसमीवे वा 5 खमासमणदुगेण मुहपोत्ति पडिलेहिय, पढमखमासमणे “इच्छाकारेण संदिसह भगवन्‌ ! सज्झायं संदिसा- वेमि'; बीए खमासमणे “सज्ञायं करेमि'त्ति भणिय, काऊण य, वंदणयं दाऊण गुरुसक्खियं पद्चक्खाइ । तओ खमासमणदुगेण उवहिथंडिल्पडिलेहं संदिसाविय, खमासमणदुगेण “बइ्सण संदिसावेमि, बइसणे ठामि'त्ति भणिय वत्थकंबलाइ पडिलेहेइ । इत्थ जो अभत्तद्ठी सो सब्बोवहिपडिलेहणाणंतरं कडिपट्टयं पडिलेहेइ । जो पुण भत्तट्टी सो कडिपट्टये पडिलेहिय, उबहि पडिलेहेश क्ति विसेसो । तओ सज्ञायं ताव- » करेइ, जाव फालवेला । जायाए य तीए उच्चारपासवणर्थडिले चउवीसं पडिलेहिय, जह तम्मि दिणे चउ- इसी तो पक्खियं चउम्मासियं वा; अह अट्टमी उद्दिद्वा पुन्नमासिणी वा तो देवसियं; अह मदवयसुद्ध- चउत्थी तो संवच्छरियं, पडिक्ममणसामायारीए पडिक्षमिय साहुविस्साम्ं कुणइ । तओ सज्झायं ताव करेंइ जाव पोरिसी । उबरिं जइ समाही तो लहुयसरेणं कुणइ; जहा खुद्दजंतुणो न उद्ठिति । तओ असज्झ- भणणपुरओ भूमिपमज्जणाइविहिविहियसरीरचितों खमासमणदुर्गण मुहपोत्ति पडिलेहिय, खमासमणेण राई- # संथारयय संदिसाविय, बीयखमासमणेण राईसंथारएण ठामि त्ति भणिय, सक्ृत्थय भणइ । तओ संथारगं उत्तरपटट च जाणुगोवरि मीलित्त पमज्जिय भूमीए पत्थरेइ । तओ सरीरं॑ पमज्जिय, निसीही “नमोखमासम- णाणं'ति भणिय, संथारए भविय, नमोक[रतिगं सामाइयं च उच्चारिय-- अणुजाणह परमगुरू ग्रुणणणरयणेहिं भसियसरीरा । बहुपडिपुन्ना पोरिसि राइ्संधारए ठामि ॥ १॥ $ अणुज्ञाणह संधारं बाहुबहाणेण वामपासेण । कुकडपायपसारण अतुरंतु पमञ्जए भूमि ॥ २॥ संकोहयसंडासे उचत्तंते य कायपडिलेहा । दवाओ उवओग ऊसासनिरुंभणा लोए॥ ३ ॥ जह में होज़् पमाओ इमस्स देहस्स इसाह रयणीए। आहारखुवहिदेहं तिबिहं तिबिहेण बोसिरियं ॥ ४॥ . + 3 मंतरंतु । पोषधविधि । २१ 'खामेमि सबजीवे' इच्चाइगाहाओ भणिऊण वामबाहवहाणो निद्वासोक्‍्ख करेइ | जह उद्चत्तह तो सरीरसंथारण पमज्जिय, अह सरीरचिताए उद्भेह, तो सरीरचिंतं काऊण, इरियावहिय पडिक्रमिय, जहब्रेण थाई परिभावेइ । तओ पच्छिमरयणीए उद्धिय, इरियावहिय पड़िकमिय, कुसुमिण-दुस्सुमिणकाउस्सम्गं सयउस्सास॑ भेहुणसुमिणे अद्दुत्तरसयउस्सासं करिय, सक्षत्थयं भणिय, पुृव्वुत्तविहीए सामाइये काउं, सज्झाये * संदिसाविय, ताव करेइ जाव पडिक्षमणवेला । तओ विहिणा पडिक्रमिय, जायाएु पडिलेहणाए, पुष्- विहिणा काऊण पडिलेहणं, जहज्नओ वि मुहुत्तमेत्त सज्ञायं करिय, पोसहपारणट्वी खमासमणदुगेण मुह- पोत्ति पडिलेहिय, खमासमणपुत्र भणइ-इच्छाकारेण संदिसह पोसहं पारावेह” । गुरू भणइ-“पुणो वि कायब्ो” । बीयखमासमणेण “पोसहं पारेमि'त्ति | गुरू भणइ -“आयारो न मोतब्ो'ति । तओ नमोकारतिगं उद्धद्ठिओो भणइ । पुणों मुहपोत्ति पडिलेहिय, पृब्॒विहिणा सामाइय पारेइ | पोसहे पारिए नियमा सह संभवे साहू पडिलामिय, पारियबं ति। जो पुण रत्ति पोसहं लेइ सो संझाएु उवहिं पडिलेहिय, तो पोसद्दे ठाउं, थंडिलपेहणाई सब्ं करेइ । नवरं जाव दिवससेसं रत्ति वा पज्जुवासामि त्ति उच्चर | पाए पुण जाव अहोरत्त दिवस वा पज्जुवासामि त्ति उच्च । भणियत्थ संगाहियाओ इमाओ गाहाओं - वत्थाहअ पडिलेहिय, सड्टो गोसंमि पेहिउ पोत्ति। नवकारतिगं कट्टिउमिय पोसहर॒ुत्तमुचरह ॥ १ ॥ ४४ करेमि भंते पोसह मिच्चाइ' । सामाहयं परग्िण्हिय कयपंडिकसणो थ कुणह पडिछेहं। अंगपडिलेहण पिय कडिपटद्दय-ठावणायारिए ॥ २॥ उवहिस्ुह॒पोत्ति-उवहीपोसहसालाइपेहसज्ञझाओ। पुत्ती भंडुवगरणस्स पेहर्ण पठणपहरम्मि ॥ ३४ अ चेइयचियवंदण-पृत्तिपेहण भत्तपाणपारवर्ण । सकत्थय-भोयण-सकत्थयग-वंदणय-संवरणे ॥ ४ ॥ आवस्सियाहइगमणण सरीरचिताइ-आगमनिसीही । काऊं गमणागमणालोयणमह कुणह सज्ञाय ॥ ५॥ तह चरिमपोरिसीए विहीह पडिलेहणंगपडिलेहे । क कडिपटद्ट-बसहिपेहा-ठवणायरिउवहिमुहपोत्ती ॥ ९॥ तो उवहियथंडिले संदिसावह कंबलाइ पडिलेहे । पुण मुहृपोत्तिय-सज्ञाय-आसणे संदिसावेह ॥ ७॥ पद खुणेह जाव कालवेलमह थंडिले चउचीसं। पेहिय पडिकमिउ जाममित्तमिह गुणइ विहिणाउ ॥ ८॥ के राहयसंथारय-पृत्तिपेह-सकत्थएण उ खुवित्ता । रत्तुष्ठिओ उ इरियं सक्कथयं कहिय मुहपोत्ति ॥९॥ पेहिय विहिणा सामाहयं पि काउं तओ पडिक्कमह । पडिलेहणाहपुर्ध च कुणइ सच पि कायब ॥ १० ॥ १ 8 संगाहिणाओं इमाइ गाद्यओ । २२ विधिप्रपा । जो पृण रमणीपोसहमाययहे सो वि संझसमयम्मि । पढम॑ उबहिय॑ पडिलेहिझऊण तो पोसहे ठाह ॥ ११ ॥ थंडिल्लपेहणाई सो वि विहीए करेह स्व पि। पारितो पुण पोत्ति पेहित्ता दो खमासमणे ॥ १२॥ के दाउं नवकारतिगं मणह ठिओ एवमेव सामाहय॑ । पारेह कि पुण “सथर्व द्सण्ण'भणणे इह विसेसो ॥ १३॥ गुरुजिणवछहविरश्यपोसहविहिपयरणाउ संखेवा । दंसियमेयविहाण्ण विसेसओ पुण तओ नेये ॥ १४ ॥ आसाढाइंपुरओ चउरंगलवुड्टिमाहओ हाणी | ॥॥ पहरो दु-ति-ति-ति-एगे सह| छट्ददसद्टछहिं पठणो ॥ १७ ॥ एयाए गाहाए उवरि पोसहिएण पडिलेहणाकालो नायबो ति ॥ ॥ इति पोसहविही समत्तो ॥ १० ॥ >3>३««<-) ९ (९७०६० ६१९, पुब्बोलिंगिया पडिकमणसामायारी पुण एसा । सावओ गुरूहिं सम इक्को वा जावंति चेह्याइ'ति गाह्मदुग-धुत्तिपणिहाणवर्ज चेययाई वंदित्तु, चउराइखमासमणेहिं आयरियाई वंदिय, मभूनिहियसिरों » सिब्स्सवि देवसिय' इच्चाइदंडगेण सयलाइयारमिच्छामिदुक्कड दाउं, उद्ठिय सामाइयसुत्तं भणित्तु, 'इच्छामि ठाहउं काउस्सग्ग'मिच्चाइसुत्तं भणिय, पलंबियभुयकुप्परधरिय नाभिअहो जाणुड चउरंगुलठवियकडियपट्टो संजइकविद्वाइदोसरहिय काउस्सगर्गं काट, जहक़म दिणकए अहयारे हियए धरिय, नमोकारेण पारिय, चवीसत्थयं पढिय, संडासगे पमज्जिय, उवविसिय, अलरूग्गविययबाहुजुओ मुहणंतण पंचवीसं पडिलेहणाओ काउं, काए वि. तत्तियाओं चेव कुणइ । साविया पुण पुद्ठि-सिर-हिययवर्ज पन्नरस कुणइ | उद्दिय » बत्तीसदोसरहिय पणवीसावस्सयसुद्धं किइकम्मं कांड अवणयंगों करजुयविहिभरियपुत्ती देवसियाइयाराणं गुरुपुरओ वियड॒णस्थं आलोयणदंडर्ग पढइ । तओ पृत्तीए कद्भासणं पाउंछ्ण वा पडिलेहिय वाम॑ जाणुं हिह्ठा दाहिणं च॒ उड्डूं काउं, करजुयगहियपुत्ती सम्म पडिकमणसुत्त भणइ | तओ दब्बभावुद्टिओ “अब्मुद्रिओमि! इचचाइदंडगग पढित्ता, वंदर्ण दाउं, पणगाइसु जइसु तिन्नि खामित्ता, सामन्नसाहूसु पुण ठवणायरिएण सम॑ खाम्रणं काउं, तओ तिन्नि साह खामित्ता, पुणो कीइकम्म काउं, उद्धद्धिओ सिरकयंजली “आयरियउबज्ञाए! ५ इच्चाइगाहातिगं पढित्ता, सामाइयसुत्त उस्सग्गदंडयं च भणिय, काउस्सरगे चारित्ताइयारसुद्धिनिमित्त, उज्जोयदुर्ग चिंतेद । तओ गुरुणा पारिए पारित्ता, सम्मत्तमुद्धिहेड उद्जोयं पढिय, सब्बलोयअरिहंतचेइयाराहणुस्सग्गं काउं, उज्जोयं चिंतिय, सुयसोहिनिमित्त 'पुक्खरवरदीवद्ं” कद्डिय, पुणो पणवीसुस्सासं काउस्सर्गं काउं पारिय, सिद्धत्थवं पढित्ता, सयदेवयाण काउस्सग्गे नमुककारं चितिय, तीसे थुई देइ सुणेह वा । एवं खित्त- देवयाए वि काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंतिकण पारिय, तत्युई दाउं सोउं वा पंचमंगछू पढ़िय, संडासए पमज्िय, » उवविसिय, पुत्र व पुत्ति पेहिय, बंद दाउं, 'इच्छामो अणुसिद्ठिं'ति मणिय, जाणूहिं ठाउं वद्धमाणक्खरस्सरा । 3 समणा। 2 43 संखेवो। | 'एवं हादशमासेवुः । | “यथासंख्येन घडाविभिरंगुलैःः इति 4. आदर्श स्थिता टिप्पणी । प्रतिकमणविधि । श्र तिमिथुदेउ पढिय, सक्षत्थय थुत्त च भणिय, आयरियाई वंदिय, पायच्छितविसोहणत्थ काउस्सस्ये काऊं उजल्लोयचउकं चितेह त्ति। ॥ इति देवसियपडिक्मणविही ॥ ११ ॥ ६ २०, पक्खियपडिक्षमणं पुण चउद्दसीए कायबं । तत्य “अब्मुद्ठिभोमि आराहणाए! इच्चाइसुत्ततं देवसिय पडिकमिय, तओ खमासमणदुगेण पक्खियमुहपोत्ति पडिलेहिय, पक्खियामिलावेण वंदर्ण दाउं, संबुद्धाखामर्ण * उद्ठिय पक्खियालोयणसुत्तं 'सबस्स वि पक्खियः इच्चाइपज्जंत पढिय, वंदर्ण दा भणइ-दिवसियं आलोइये पडिकंतं, पत्तेयखामणेणं अब्मुट्टिओऊहं अड्भितरपक्खियं खामेमि” त्ति भणित्ता, आहारायणियाए साहू सावए य खामेइ, मिच्छुकड दाउं सुहतवं पुच्छेद, सुहपक्खियं च साहूणमेव पुच्छेह, न सावयाणं । तओ जहामंडलीए टाउं बंदर्ण दांउं भगह-'देवसिय आलोइयं पडिक्कतं, पक्खिये पडिकमावेह' । तओ गुरुणा-'सम्म॑ पडिक्मह”त्ति भणिए, इच्छेति भणिय, सामाइयसुत्त उस्सम्गसुत्त च मणिय, खमासमणेण ॥५ “पक्खियसुत्त संदिसावेमि', पुणो खमासमणेण 'पक्खियसुत्त कद्डैमि'त्ति भणित्ता, नमोक्कारतिग कब्»िय पडि- क्मणसुत्त भणइ । जे य सुणंति ते उस्सग्गमुत्ताणंतरं “तस्सुत्तरीकरणेण'ति तिदंडर्ग पढिय काउस्सग्गे ठंति। सुत्तसमत्तीए उद्धद्गिओं नवकारतिगं भणिय, उवविसिय, नमोकारसामाइयतिगपुत्चे 'इच्छामिपडिकमि् जो मे पक्खिओ अइयारो कओ! दइच्चाइदंडगग पढिय, सुत्ते मणित्ता, उद्ठनिय “अब्भुट्टिओमि आराहणाए/त्ति दंडगं पढित्ता, खमासमणं दाउं “मूलगुण-उत्तरमुण-अश्यारविसोहणस्थं करेमि काउस्सग्गंति भणिय, ४ “करेमि मंते' इच्चाइ, इच्छामि ठामि काउस्सग्ग'मिच्चाइदंडयं च पढित्ता, काउस्सग्ग काउं, बारसुज्जोए चिंतेइ । तओ पारित्ता, उज्जोयं भणित्ता, मुहपोत्ति पडिलेहिय, वंदर्ण दाउ, समत्तिखामणं काउं, चउहिं छोभवंदणगेहिं तिन्नि तिन्नि नमोकारे, भूनिहियसिरों भणेइ त्ति। तओ देवसियसेसं पडिकमइ । नवरं सुयदेवयाथुद्रअणंतरे भवणदेवयाए काउसग्गे नमोकारं चितिय, तीसे थुई देइ सुणेइ वा । थ्रुत्ते च अजियसंतित्थओ । एवं चाउम्मासिय-संवच्छरिया वि पडिक्रमणा तदमिलावेण नेयबा । नवरं जत्थ पक्खिए बारसुझ्योया चिंतिज्जति, + तत्थ चाउम्गासिए वीसं, संवच्छरिण चालीसं, पंचमंगर च | तहा पक्खिए पणगाइसु जदसु तिए्हं संबुद्ध- खामणाणं, चाउम्मासिए सत्ताइसु पंचण्हं, संवच्छरिण नवाइसु सत्तण्ह | दुगमाईनियमा सेसे कुज्ज त्ति भावत्थो । तहा संवच्छरिण भवणदेवयाकाउस्सग्गो न कीरइ न य थुई । असज्ञाइयकाउस्सग्गों न कीरह। तहा राइय-देवसिएसु 'इच्छामोडणुसद्विंति भणणाणंतरं, गुरुणा पढमथुईए भणियाए मत्थए अंजलिं काउं नमो खमासमणाणं'ति भणिय, मत्थए अंजलिपग्गहमित्तं वा काउं इयरे तिन्नि थुईओ भर्णति । पक्खिए पुण # नियमा गुरुणा थुइतिगे पूरिण, तओ सेसा अणुकडु/ूँति त्ति ॥ ॥ पक्खियपडिकसणविही ॥ १२६ ॥ #----<जककपि-टसुप चमक ६२१, देवसियपडिकमणे पछ्छित्तउस्सग्गाणंतरं खुद्दोवहवओहडावणियं सयउस्सासं काउस्सम्ग काउ, तओ खमासमणदुगेण सज्झायं संदिसाविय, जाणुट्टिओ नवकारतिगं कद्िय विग्घावहरणत्थ सिरिपासनाहनमोक्वारं सक्षत्थय 'जावंति चेइयाई'ति गाह च भणित्तु, खमासमणपुष्ष 'जावंत केइ साहू” इति गाह पासनाहथव च॑ # जोगमुद्दाए पढित्ता, पणिहाणगाह्ादुर्ग च॑ मुत्तासुत्तिमुद्दाए भणिय, खमासमणपुच्च॑भूमिनिहित्तसिरो 'सिरिथंभणयद्टियपाससामिणो” इच्चाइगाहादुगमुचरित्ता, 'वंद्णवत्तियाए' इच्चाइदंडगपुबं चउ लोगुज्जोयगरियं काउस्सरग काउं चउवीसत्थयय पढ॑ति त्ति पडिक्रमणविहिसेसो पुश्बपुर्सिसंताणकमागओ, “आयरणा वि हु श््े विधिश्रपा । आण! त्ति वयणाओ कायबो चेव | जहा धुइतिगभणणाणंतरं सकत्थय-थुत्त-पच्छित्त-उस्सग्गा | पुर्ष हि गुरुथुइगहणे थुईतिन्नि त्ति पल्नेतमेव पडिक्रमणमासि । आओ चेव थुइतिगे कड्डिए छिंदणे वि न दोसो । छिंद्ं ति वा अंतरणि त्ि वा अगलि त्ति वा एगट्टा। छिंदर्ण च दुह्म-अप्पकर्य, परकर्य च। तत्थ अप्पकर्य॑ अप्पणों अंगपरियत्तणेण मबइ । परकर्य जया परो छिंदइ । पक्खियपडिक्षमणे प्तेयखामर्ण कुणंताणं पुढो- £ कयआलोयपणं मुत्तु नत्यि छिंदगदोसो । अओ चेव अम्ह सामायारीए मुहपोत्तिया पत्तेयखामणाणंतरं न पडिलेहिजइ त्ति। जया य मज्ञारिया छिंदह तया- जा सा करडी कबरी अंखिहि कक्कडियारि । मंडलिमाहिं संचरीय हय पडिहय मज्जारि-त्ति ॥ १॥ चउत्थपयं वारतिगं भणिय, खुद्दोपह्वओहडावणियं काउस्सग्गो कायब्ो। सिरिसंतिनाहनमोकारो घोसेयब्ो। ४ कारणंतरेण पुढोपडिकंता पढ़ोकयआलोयणा वा पडिक्रमणानंतरं शुरुणों वंद्ण दाउं, आलोयण-खामण- पत्चक्खाणाईं कुणति । पडिक्कषम्ं च पुब्बाभिमुह्रेण उत्तराभिमुह्ेण वा । आयरिया इद्द पुरओ, दो पच्छा तिन्नि तयणु दो तत्तो। तेहिंपि पुणो इक्की, नवगणमाणा इमा रयणा॥ १॥ 0 इद्गाहाभणियसिरिवच्छाकारमंडछीए कायब । श्रीवत्सस्थापनाचेयम्‌ू- ९,९५९ ४ तत्थ देवसिय पड़िकमर्ण रयणिपढमपहरं जाव सुज्ञ । राइये पुण आवस्सयचुण्णिजमिप्पाएण उम्धाडपोरिसि जाव, ववहाराभिष्पाएण पुण पूरिमडुं जाव सुज्ञइ । जो वद्माणमासो तरस य मासस्स होह जो तइओ। तन्नामयनक्खत्ते सीसत्थे गोसपडिकमण ॥ १ ॥ राश्यपडिक्रमणे पुण आयरियाई वंदिय भृनिहियसिरों 'सब्ृस्स वि रइय! इच्चाहदंड्ग पढिय, 9 सक्कत्थय भणित्ता, उद्धिय, सामाइय--उस्सग्गसृत्ताई पढिय, उम्सग्गे उज्जोय चिंतिय पारिय, तमेव पढ़ित्ता, बीये उस्सग्गे तमेव चिंतित्ता, सुयत्थय पढित्ता; तईएण जहक़म निसाइयारं चिनित्ता, सिद्धत्थ्य पढित्ता, संडासए पमज्िय, उवविसिय, पृत्ति पेहिय, बंदर्ण दाई, पुष्षि व आलोयणसुत्तपदण-बंदणय-खामणय-- वंद्णय-गाहातिगपढण-उस्सग्गसुत्तउचारणाईं का, छम्मासियकाउस्सग्गं करेइ । तत्थ य इम॑ चिंतेइ- 'सिरिवद्धमाणतित्थे छम्मासिजों तवो वढ्ठइ | ते ताब कार्ड अहं न सकुणोमि | एवं एगाइएगूणतीसंतदि- # णूर्ण पि न सकुणोमि । एवं पंच-चउ-ति-दु-मासे त्रि न सकुणोमि । एवं एगमासं पि जाब तेरसदिणुणण न सकुणोमि | तओभो चउतीस-बत्तीसमाइकमेण हा्वितों जाव चउत्थं आयंबिर निब्ियं एगासणाइ पोरिरसि नमोक्कारसहियं वा ज॑ सक्के्ट तेण पारेइ । तओो उज्जोयं पढिय, पूर्ति पेहिय, बंदर्ण दाउं, काउस्सग्गे जं चिंतियं ते चिय गुरुववणमणुभर्णितों सयं वा पत्चक्खाइ । तो “इच्छामोणुसद्वि'ति भणंतो जाणूहिं ठाउं तिन्नि वद्बुमाणधुईओ पढित्ता, मिउसद्देणं सकृत्थयय पढ़िय, उट्ठिय, “अरहंतचेइयाणं' इच्चाइपढिय, थुइचउ- » केंणं चेहए वंदेइ । 'जावंति चेश्याई' इच्चाइगाहादुगधुत्त पणिहाणगाहओ न भणेह । तओ आयरियाई वंदेइ । तओ वेलाए पडिलेहणाइ करेद् त्ति ॥ ॥ राश्यपडिक्मणविही ॥ ॥ पडिकमणसामायारी समत्ता ॥ ११ ॥ सरोधिधि। ५६ ६ ३५, भणिओ पसंगाणुप्पसंगसहिओ उवह्यणविही | उवहार्ण च तबों। जग तबवोविसेसां अज्नेवि उबदंसिज्ति । तत्थ कल्लाणणतवों चवण-जम्मेसु जिगा्ं तासु ताखु तिहीसु उकबासा कीरंति ॥ १ ॥ दिक्‍खा-नाणोप्पत्ति-मोक्खगमणेसु जो तबो उसमाईहिं जिणेहिं कओ सो चेव जहासत्ति कायबों। सोय इमो- ६ सुमइत्थ निचभत्तेण निग्गओ वासुपुल्लो जिणो चउत्येणं। पासो मछी विय अट्ठमेण, सेसाउ छट्ठेण ॥ १॥ निश्चभत्ते वि उववासों कीरइ त्ति सामायारी । अट्टमतवेण नाणं पासोसभ-मछि-रिह्दनेमीण । वसुपुश्नस्स 'चउस्थेण छट्टम्तेण सेसाणं ॥ २॥ ५ निवाणमन्तकिरिया सा चठद्समेण पढठमनाहस्स । सेसाण मासिएणं वीरजिणिंदस्स छट्टेण ॥ ३ ॥ एगंतराइकरणे वि तहा कायबाईं निक्खमणाइतवाईं, जहा तीए कल्लाणगतिहीए उबवासो एड त्ति। सग तेरस'' दस' चोइहस, पनरस ' तेरस'' य सत्तरस' दस छ। नव चउ ति कत्तियाइसु, जिणकछाणाह जह संखं।॥ ४ ॥ फ प्रतिमासकल्याणकसंख्यासंग्रह:, सवोग्रेण १२१ । तहा सुक्पक्खे अद्बोबवासा एगंतरआायंबिल्पारणेण स्ंगसुंद्रो खमामिम्गहजिणपूयामुणिदाणपरेण विदेओ ॥ 9 ॥ एवं चिय किप्हपक्खे गिलाणपडिजागरणाभिग्गहसारों निरुजर्सिहो ॥ ५॥ तहा एगासणपारणेण बत्तीसं आयंबिराणि परमभूसणो । इत्युज्मणे तिलुग-मउडाइ जहासत्ति » जिणभूसणदाणं ॥ ६ ॥ हु कज्ेसु अणिगूहियबलरूविरियस्स अश्च॑ंतपरिसुद्धो हवइ ॥ ७ ॥ एगे पुण एव्माहंसु-/अणिगूहियबलूविरियस्स निरंतरबत्तीसायंबिलपमाणों एगासणंतरियबत्तीसोववास- प्पमाणो वा आयहजणगो त्ि। मल तहा सोहकग्यप्परक्खों चित्ते एगंतरोववासा गुरूदाणविहिपुष् सब॒रर्स पारणगं च। उज्जमणं पुण सुवण्णतंदुछाइमयस्स नाणाविहफलभरोणयस्स जिणनाहपुरओ कप्परक्खस्स कप्पणेण चारित्तपवित्तमुणिजण दाणेण य विहेय ॥| ८ ॥ तहा इंदियजओ जत्थ पुरिमडु-इकासणग-निविय-आंबिर-उववासा एगेगमिंदियमणुसरिय पंचरहिं परिवार्डीहिं कज्जति हत्थ तवोदिणा पंचवीस ॥ ९ ॥ अ कसायमहणो उण पुरिमदझुवज्ञाहिं चउहिं परिवाडीहिं पहकसाय किजह । तवों दिणा सोखस ॥ १० ॥ . . जोगसुद्धी उम हकेक जोगं पडुच निधिगहय-आयाम-उववासा कीरंती तति पुरिमझु-एगा[सणवजाहिं तिहिं परिवा्डीहिं तवोदिणा नव ॥ ११ ॥ ध्यूा २६ विधिप्रपा । .. तहां जल्येगेगं क्म्ममणुसरिय, उववास-एगासणग-एगसित्थय-एगठाणग-एगदतिग-निबिय- आयंबिरू-अट्टकवलाणि अह्ृ्हिं परिवाडीहिं किज्जति, सो अद्वकम्मचूडणो तवो दिणा चउसट्ठी | उजमपे सुवन्नमयकुहाडिया कायवा ॥ १२ ॥ तहा अष्टठमतिगेण नाण-दंसण-चरित्ताराहणातवों भवइ ॥ १३ ॥ तहा रोहिणीतवो रोहिणीनक्खत्ते वासुपुज्जजिणविसेसपूयापुरस्सरमुववासों सत्तमासाहियसत्तवरिसाणि। उज्जमणे वासुपुजार्बिबपइट्टा ॥ १४ ॥ तहा अंबातवो पंचसु किप्हपंचमीसु एगासगगाइ-नेमिनाह-अंबापूयापुब्ध किजइ ॥ १५ ॥ तहा एगारससु सुक्रएगारसीसु सुयदेवयापूया मोणोपवासकरणजुत्तो सुयदेवया तवों ॥ १६ ॥ तहा नाणपंचर्मि छ अकम्ममासे वज्जित्ता मग्गसिर-माह-फर्पुण-वहसाइ-जेह्-आसाढेसु सुक- ॥ पंचमीए जिणनाहपूयापुत्ब॑ तयग्गविणिवेसियमहत्थपोत्थर्य विहियपंचवण्णकुसुमोवयारों अखंडक्खयामिलि- हियपसत्थसत्थिओ घयपडिपुन्नपब्रोहियरत्तपंचवष्टिपपवों फलबलिविहाणपुर्ष पडिकज्जेइ । उववासबंभचेरवि- हाणेण । एवं पडिमासं पंचमासकरणे लहुई | महई उण पंचवरिसाणि । विसेसो उण पंचगुणपूयाविहाणं, पंचपोत्थयपूयणं, पंचसत्थियदाणं, पंचपईवबोहणं च त्ति। केइ पुण एये जहज्न पंचमासाहियपंचर्हि वरिसेहिं; मज्झिम तु दसमासाहियदसवरिसेहिं; उकिट्वं पुण जावज्जीब॑ ति भणति । असहणो पुण बालाई पंचसु नाण- ४ पंचमीसु इकासणे, तओ पंचसु निश्वीए, तओ पंचसु आयंबिले, तओ पंचसु उबवासे कुणंति त्ति। उज्जम्ण पुण तीए आईए मज्झे अंते वा कुज्जा । तत्थ सविभवाणुसारेण जिणपूया-पुत्थयपंचयलेहण-संघदाणाइ कायबं । पंचविहबलिवित्थारों नाणग्गे, पंच ठवणियाओ, पंच मसीभायणाईं, एवं लेहणीओ, पंचकवलियाओ, कट्ठगरणाईं, निक्‍्खेवणाइं, छिद्ददोरयाइं, फुियाओ, उत्तरियाओ । पद्दुगुल्लाइपुत्थयवेद्णयाईं । कुंपियाओ, पडलियाओ, जवमालियाओ, ठवणायरिया, ठवणायरियर्सिहासणाई, मुहपोत्तियाओ, सिरिखेंडियाओ, पिंगा- » णियाओ, पट्टियाओ, वासकुंपगा; अन्नाइं वि जोडय-धूवकडुच्छय-कलस-मभिगारथाल--आरत्तियमाह पंच पंच उवगरणाई दायबाईं । सवित्थरुज्ममणे पुण सबं पंचवीसगुणण कायबं । नाणपंचमीतवोदिणे पुत्थयपुरओ नाणस्स तइयथुइरूबे अज्ने वा नमोकारे पढ़िय, उद्धितु 'तमतिमिरपडल/इच्चाइदंडगं भणिय, काउस्समानमो- कार चितिय, पारिय - देविंदबंदियपएहि परूवियाणि नाणाणि केवलमणोहिमइेसुयाणि । ४. पंचावि पंचमगई सियपंचमीए पूया तवोगुणरयाण जियाण दितु ॥ १ ॥ इच्चाइथुइं दाऊण पुणो जाणुट्टिओ नाणथुत्ते भणिय, “ोधागाध'मिश्चाइनाणथुईं पढइ त्ति। नाण- चीवंदणविही ॥ १७॥ तहा अमावसाए, मयंतरेण दीवूसवामावसाए, पडिलिहियनंदीसरजिणभवणपूयापुं उववासाइसत्त- वरिसाणि नंदीसरतवों ॥ १८ ॥ शव तहा एगा पडिवया, दुल्नि दुइज्ञाओ, तिन्नि तिज्ञाओ, एवं जाव पंचद्सीओ उववासा भवंतिं जत्थ सो सश्चचुक्खसंपत्तिततों ॥ १९ ॥ तहाचित्तपुलमासीए आरब्भ पुंडरीयगणदहरपूयापुक्मुववासाइणमज्नतरं तवो दुवारुूसबुलिमाओ युंढदीयतवों ॥ २० ॥ तपीविधि | २७ तहा सत्तसु भदृवण्सु पहदिण नवनवनेवज्जदोबणेण जिणजणणिपूयापुत्ध सुक्रसत्तमीए आरब्म तैरसिपजंत एगासणसत्तग कीरह जत्य स मायरतवो। भददवयसुद्धचउद्सीए पहवरिसं उजवर्ण कायब । बलि-दुद्ध-दहि-घिय-खीर-करंबय-लूप्पसिया-घेउर-पूरीओ चउवीस॑ खीश्रडीथारं, दाडिमाइफलाणि य सपुत्तसाबियाणं दायबाई । पीयलीवत्यं च तंबोलाइ ऊसवो य ॥ २१॥ तहा भद्दवए किण्हचउत्थीए एगासण-निश्चिगइय-आयंबिर-उववासेहिं परिवाडीचउकेण जहासत्ति- * कएहिं समवसरणपूयाजुत्त चउसु भद्दवण्सु समवसरणदुवारचउकस्साराहणेण समवसरणतंबों चउसट्ठिदिण- माणों होइ। उज्जमणे नेवजथालाइ चत्तारि भद्दवयसुद्धचउत्थीए दायबाई ॥ २२ ॥ तहा जिणपुरओ कल्सो पहद्ठिओ मुद्ीहिं पहदिणखिप्पमाणतंदुलेहिं जावइयदिणेहिं पूरिजइ, ताबइयदिणाणि एगासणगाई अक्खयनिहितवो ॥ २३ ॥ तह आयंबिलवद्धमाणतवो जत्य अलूवण-कंजिय-संठत्नभत्तमोयणमित्तरूवमेगमायंबिरू, तओ उवब- / वासो; दुन्नि आयंबिलाणि, पुणो उबवासो; तिन्नि आयंबिलाणि, उववासों; चत्तारि आयंबिलाणि, उववासो; एवं एगेगायंबिलवुड्डीए चउत्थं कुणंतस्स जाव अंबिल्सयपज्ते चउत्थं । तओ पड़िपुन्नो होह । एत्थाये- बिलाणं पंचसहस्सा पंचासाहिया, उववासाणं सयय॑ । एयस्स कालरूमाणं वरिसचउद्सगं, मासतिगं, वीसे च दिणाणि त्ति॥ २४ ॥ तहा येराइणो वद्धमाणतवो-जत्य आइतित्थगरस्स एगे, दुइजस्स दुच्नि, जाव वीरस्स चउवीस ४ आयंबिरूनिवियाईणि तम्स विसेसपूयापु्ध कीरंति | छुणो वीरस्स एगे जाव उसहस्स चउवीसं, तओ पडिपुन्नो होइ सि॥ २५॥ तहा एगेगतित्थगरमणुसरिय वीस-वीस-आयंबिदाणि पारणयरहियाणि | एगे चायबिकें सासण- देवयाए । उज्ञमणे विसेसपूयापु्ध॑ तित्थयराणं चडवीसतिलुयदाणं चर जत्य सो दवदंतीतवों ॥ २६ ॥ नाणावरणिजस्स उत्तरपयडीओ पंच; दंसणावरणिझस्स नव, वेयणीयस्स दो, मोहणीयस्स » अट्टावीसं, आउस्स चत्तारि, नामस्स तेणउई, गोयस्स दो, अंतरायस्स पंच;-एवं अड्यारूसएण उववासाणं अद्ढकम्मउत्तरपयडीतवो ॥ २७ ॥ ि धा। तओ एगोत्तरबुद्डीए जाव पुन्निमाए किण्हपडिवयाए य पंचद्स । तओ एगेगहाणीए जाव अमाव- साए एगदततियं एगकवर् वा। हय जवमज्झो । वजमज्झे किण्दपडिवयाए पंचदस | तओ एगेगहाणीएं # जाव अमावसाए सुकृपडिवयाए य एगो । तओ एगेगवुद्भीर जाव पुलिमाए पंचदस | इय वज्जमज्ञो । दोसु वि उज्जमणे रुप्पमयचंददाणं; जवमज्झे बत्तीसं सुवन्नमयजवा थ, वज्ञमज्ञे वज्ज च॥ २८ ॥ तहा अट्ट-दुवाढइस-सोरूस-चडवीसपुरिसाण एकतीसं, थीं सत्तावीसं कवछा । जह॒क्षम्म पंचहिं दिणेषिं ऊगोयरियातवों | जदाह- अप्पाहार अथहा दुमागपत्ता तहेव किंचूणा। अ अट्ट-तुवारूस-सोलस-यउबीस-सहिकतीसा य ॥ इति ॥ उज्मणे पुण भीढिय॑ सबदिणकवकृपरिमियमोमंगा पूयापुष्॑ तित्मनाहस्स ढोएयश ॥ २९ ॥ १८ विधिक्पी | अद्याहतबेसु सहा, हसालया श्गे दु तिश्ष चड पंच। लह लि चउ पंथ हग दो सह पण इग दो तिग चउकं।॥ १॥ तह हु ति चउ पण एगेग॑ तह चउ पणगेग दु तिक्षेव । पणहुत्तरि उबबासा पारणयाणं तु पणबीसा ॥ २॥ भर ४ पमणामि महाभद, हग दुग तिग चठउ पण उछ सत्तेव | तह चउ पण छग सत्तग इग दुग तिग सत्त इक्क दो ॥ ३॥ तिझ्लि चउ पंच छक्क तह तिग चउ पण छ सत्तगेगं दो । तह छग सत्तग हग दो तिग चठउ पण तह दुग चऊ ॥ ४॥ पण छग सत्तेक्ष तह, पण छग सत्तेक दोज्षि तिय चउ । ० सो पारणयाणुगवन्ना छन्नउयसय चउत्थाणं ॥ ५॥ ८5|<६| ० ४०] [+ क्र पारणा ४९, अदोतरपडिमाए पण छग सत्त ट नव तहा सत्त । अड नव पंच छ तहा नव पण छग सत्त अड्डेव ॥ ६॥ तह छग सत्तड नव पण तह हट नव पण छ सत्तमभत्तद्टा । पणहृत्तरसयमेब पारणगार्ण तु पणवीसं ॥ ७ ॥ भद्रो तरतपः। तपोदिन क्र ह १७७, पारणा २५. ४ पड़िशाह सचमहाएं पण छ सत्त ट्व नव दसेकारा | लशह अर नव दस एकार पण छ सत्त थ तहेक्कारा ॥ ८ ॥ प्ज कम सस्ग जड़ नच दस तह सत्त ट्वर नव दसेकारा। पण छ तहा दस एगार पण छ सत्तद्ट नव य तहा ॥ ९॥ छय सत्तड्ध नव दस एकारस पंच तह य नव दस । + एक्कारस पण छक॑ सत्त ६ य इृह् तवे हॉति ॥ १० ॥ तिल्चिसया बाणउया इत्थुववासाण होंति संखाए। पारणयागुणवज्ञा महाहइतवा इसे मणिया ॥ ११॥ एश चतारि वि तक पारणगर्भेया चउबिहा होंति । सबकामगुणिएण वा, निवीएण वा, वहा- जअग्रमाइणकेबाडेण वा, आरयक्लिण वा । चउक्िधि पारणग ति ॥ ३० ॥ अ तहा एगारससु सुद्धण्गारसीसु सुयदेवयापूयापुत् एगासणगाइ तवो मासे एगास्स कीरइ जत्म सो एगारसंगतवों । उज्मम् पंचमी तुलले । नबरं सबवत्थूणि एगारसगुणाईं ति ॥ ३१ ॥ एवं बारससु सुद्धवास्सीसु दुषाल्संगाराहणतवों । उज्जबणे पुण बास्सगुणाणि बत्थूणि ॥ ३२ ॥ एवं चठदसदु धद्धनद्इरसीय्र भरदुरपुशसदणतम्ो उल्कये उत्हसअपात्रि ॥ रे२ ॥ सर्वतो भद्गरतप: । तपोदिन ३९२, पारणा ४९, तपोविधि-ननस्दिर्थने विधि | ३ तेही आसोयसियदरमिमाइ अहृदिणे एगासणाइतवों त्ति पढमा पाउडी। एवं भ्टतु करिसेंसु अह- पाउडिओ । उज्जवणे कणगमयअट्ठावयपूया कणगनिस्सेणी य कायबा । पकन्नाइ फलाइ चउवीसकत्थूणि जतथ सो अट्टावयतवों ॥ २४ ॥ सत्तरसय जिणाणं सत्तरसय उववासाई तवो कीरइ जत्थ सो सत्तरसयनिणाराहणतवों । उनव्णे लड्डुयाइ वस्थूहिं सत्तरसयसंखेह्िं सत्तरसयजिणपूया ॥ ३५ ॥ 8 पंचनमोकारउवहाणअसमत्थस्स नवक्कारतवेणावि आराहणा कारिज्जह । सा य इमा-पढमपण अक्खराणि सत्त, आओ सत्त इक्कासणा ! एवं पंचक्खरे बीयपए पंच इक्कासणा । तहयपए सत्त । चउत्थपएँ वि सत्त। पंचमपए नव । छट्वपए चूलापयदुगरूबे सोलस, सत्तमपए चूलाअंतिमपयदुगरूवे सत्तरस्सखरे सत्तरस्स इक्कासणा । उज्जमणे रुप्पमयपट्टियाए कणयलेहणीए मयनाहिरसेण अक्खराणि लिहित्ता अड्ठसह्ठीए मोयगेह्दिं पूया | ३६ ॥ ह तित्ययरनामकरणाइ वीस॑ ठाणाइं पारणंतरिएहिं वीसाए उववासेहिं आराहिजंति ति चालीसदिणं- माणों वीसट्वाणतवों ॥ २७ ॥ कीरंति धम्मचके तवंमि आयंबिलाणि पणवीसं। उद्समणे जिणपुरओ दायबं रुप्पमयचक्क ॥ १॥ अहवा-दो चेव तिरत्ताईं सत्तत्तीसं तहा चउत्थाई। # ते धम्मचकवालं जिणगुरुप्या समत्तीए ॥ २॥ ३८ ॥ चित्तबहुलुद्ठमीओ आरब्भ चत्तारिसया उववासा एगंतराइकमेण जहा अंगिकारं पूरिज्जति । तईय- वरिससंतियअक्खयतइयाए संघ-ग्ुरु-साहम्मियपूयापुर्व पारिज्ति | उसभसामिचित्नो संवच्छरियतवों ॥३९॥ एवं उसभसामितित्थसाहुचिण्णो बारसमासियतवों छट्ठेहिं तिहिं तिहिं सएण उववासाणं । बावीस- तित्थयरसाहुनिण्णो अट्टमासियतवों चालीसाहियदुसयउववासेहिं। वद्धमाणसामितित्थसाहुचिण्णों असिय- # सएण उववासाणं छम्मासियतवों || 9० ॥ आप अंज्े य माणिक्रपत्थारिया-मउडसत्तमी-अमियद्ठमी-अविहबदसमी-गोयमपडिग्गह-मोक्खदंडय- अदुक्खदिक्खिया-अखंडद्समीमाइतवविसेसा आगमगीयत्थायरणबज्ञ त्ति न परूविया | जे य. एगार- संगतवाइणो अद्बावयाइणों य तवविसेसा ते तहाविहथेरेहिं अपवत्तिया वि आराहणापगारो त्ति पयंसिया | जे पृण एगावढी-कणगावली-रयणावली-मुत्तावकी-गुणरयणसंवच्छर-खुद्डमहछ-सिंहनिकीलियाइणो ४ तवमेया ते संपर्य दुकर त्ति न दंसिया । सुयसागराओ चेव नेय त्ति ॥ ॥ तवोबिही समत्तो ॥ १४ ४ 8 २३, संपय पृण सम्मत्तारोवणाइसावयकिदश्वाणि वित्थरनंदीए भवंति, दबत्थयप्पहाणवरेण तेसिं; साहू पुण भावत्थयप्पहाणत्तेण संखेबनंदीए वि कीरंति त्ति-सावयकिश्चाहिगारे नंदिरियणाविही भण्णइ । अहवा सावय-साहुकिश्वाणमंतरे भणिओ नंदिरियणाबिही, डमरुगमणिनाएण उभयत्थ वि संबज्ञद त्ति इहेव » भण्णद । तत्थ पसत्थखित्ते सूरिणा मुत्तासुत्तिमुद्दार 3“ हीँ वायुकुमारेभ्यः खाद्य” इश्मंतेण वायुकुमारा आहविज्ति । तओ सावएहिं अवणीएं सुपरिमज्जणं तेसि कम्म॑ कीरइ । एवं मेहकुमारादवणे गंधोदग- दाणं । तओ देवी आहवणे सु्ंधरंचवण्णकुसुमबुद्दी । अग्मिकुमाराहबणे धुवक्खेवो। वेमाणिय-जोइस- हे अवन्या' इति ,0 दिप्पणी । इछ विधिप्रपों | मंवेणवासिआहचण रयंण-कंचंण-रप्पवण्णएहिं पगारंतिगल्ासों | बेंतराहवणे तोरण-चेइय-त्तरु-सिंहा- सेण-छत्त-ज्ञाणाइणं विज्ञासों । तओ उक्रिट्रवण्णगोवरि समोसरणे बिंबरूुवेण भुवणगुरुठवणा। एयस्स पुधददक्खिणभागे गणहरमम्गओ मुणीरणण वेमाणियत्थीसाहुणीणं च ठावणा । एवं नियगवण्णेहिं अवरदक्खिणे भवेणइ-वाणवंतर-जोहसदेवाणं । पुश्नोत्तरेण वेमाणियदेवा्णं नराणं नारीणं च। बीयपायारंतरे अहि- ४ नउरू-मय-मयाहिवाइतिरियाणं । तईयपायारंतरे दिवजाणाईणं ठावणा । एवं विरइए, आलिक्ख- समोसरणे जिणभवणागिहकद्ठाइनंदिआलगट्टिय पडिमासु वा थालाइपइट्टियपडिमाचठके वा, वासक्खेवं चउद्दिसिं काऊरण, तओ धूृववासाइदाणपुष्ष॑दिसिपालछा नियनियमंतेहिं आहविजंति। ते जहा-“<* हाँ इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय सपरिजनाय इह नन्यां आगच्छ आगच्छ खाहा ।” एवं अम्ये, यमाय, नैर्फताय, वरुणाय, वायवे, सौम्याय, कुबेराय वा ईशानाय, नागराजाय, त्रक्मणे | दससु वि दिसासु वास- ४ बखेवो । तओ समोसरणस्स पुप्फवत्थाइएहिं पूया । एवं नंदिरियणा स्किश्वेसु सामना । नंदिसमत्तीए तेणेव कमेण आह्ृय देवे विसज्ेह | जाव “3» हीँ इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय सपरिजनाय पुनरागमाय खख्मानं गच्छ गच्छ यः ।” इच्चाइमंतेहिं दिसिपाले विसज्जिय, समोसरणमणुजाणाविय, खमावेइ | ज॑ च॑ इत्थ पुबायरिएहिं भणियं जहा-“अक्खएहिं पुप्फेहिं वा अंजलिं भरित्ता सियवत्थच्छाइयनयणो पराहुत्तो बा काऊण, दिक्खट्टमुवष्टिओं संतो5णंतरोत्तविहिर्‌इयसमोसरणे अक्खयंजलिं पुष्फंजर्लि वा खेवाविज्जइ । ४ जद तस्स मज्झदेसे सिहरे वा पड॒इ तया जोग्गों; बाहिरे पड॒इ अजोग्गो । इंह परिकर्ख काऊर्ण सावयत्त- दिक्‍्खा दिज्इ त्ति।' त॑ मिच्छद्ट्वीहोंतो जो सम्मत्त पडिवज्जइ त॑ पडुच बोधब | जे पुण पर॑परागयसावय- कुलप्पसूया तेसि परिक्खाकरणे न नियमो । अओ चेव सावयधम्मकहा पीहमाइपंचलिंगगम्मम्स अत्यिणो चेव॑ गुरुविणयाइपंचलक्खणलक्खियबस्स समत्थस्सेव संब्रजणवल्लहत्ताइलिंगपंचगसज्झस्स सुत्तापडिकुद्वस्सेव य सांवयधम्माहिगारित्ते पुधायरियमणिए वि संपर्य परिक्खाए अभावे वि पवाहओ सावयधम्मारोवर्ण पसिद्धं ति । » $ १३४, देववंदणावसरे वद्डंतियाओ य थुईओ इमाओ- यदड्लिनमनादेव देहिनः सन्ति सुस्थिताः । तस्मे नमोस्तु वीराय सर्वविश्नविघातिने ॥ १ ॥ सरपतिनतचरणयुगान्‌ नाभेयजिनादिजिनपतीन नोमि । यद्बचनपालनपरा जलाज्लि ददन्ति दुःखेम्यः ॥ २॥ झ बदन्ति वन्दारुगणाग्रतो जिना;, सदर्थतो यद्‌ रचयन्ति सूत्रतः | * गणाधिपास्तीर्थेंसमर्थनक्षणे, तदड्लिनामस्तु मत तु सुक्तये ॥ ३॥ शझाक्रः सुरासरवरे! सह देवताभिः, सर्वज्ञशासनसुखाय समुद्यताभिः । ओवद्धेमानजिनदृत्तमतप्रवृत्तानू, भव्यान्‌ जनानवतु नित्यममंगलछेभ्यः ॥ ४॥ 8२५७, संतिनाहाइथुदओ पुण इमाओ- हा रोगशोकादिभिदोषेरजिताय जितारये । नमः श्रीशान्तये तस्मे, विहेतानतशान्तये ॥ ५ ॥ अआ्रीशान्तिजिनभक्ताय भव्यांय छुखसंपदम । अ्रीशान्तिदेवता देयादशान्तिसपनीय मे ॥ ६ ॥ खुबणेशालिनी देयाद्‌ द्वादशाड़ी जिनोद्भवा । 5 ख़ुतदेवी सवा मच्यमशेषश्लुतसंपदम ॥ ७॥ 28%: 5४90 #929499४0७99७७४७७७#४७८-&्थकल नन्दिस्यनाविधि । वतुवेण्णाय संघाय देवी भवनवासिनी । निहत्य दुरितान्यथेषा करोतु सुखमक्षतम्‌ ॥ ८ ॥ यासां क्षेत्रगताः सन्ति साधवः श्रावकादयः । जिनाज्ञां साधयन्तस्ता रक्षन्तु क्षेत्रदेवता। ॥ ९॥ अंबा निहतर्डिया मे सिद्ध-बुद्खुताओअिता । सिते सिंहे स्थिता गौरी वितनोतु समीहितम्‌ ॥ १० ॥ घराधिपतिपत्नी या देवी प्मावती सदा । क्षुद्रोपद्रवतः सा मां पातु फुछत्फणावली ॥-११ ॥ चश्चकरकरा चारु प्रवालदलसब्निभा। चिर चक्रेश्वरी देघी ननद्तादवताच माम्‌ ॥ १२॥ खड्खेटककोदंडबाणपाणिस्तडिद्द्युतिः । तुरह्षगमना5च्छुपा कल्याणानि करोतु मे ॥ १३ ॥ मथुरापुरिसुपाश्वे-श्रीपाश्वैस्तूप रक्षिका । अ्रीकुबेरा नरारूढा खुताडगा 5वतु यो मयान्‌॥ १४ ॥ ब्रह्मशान्तिः स मां पायादपायाद्‌ घीरसेवकः । श्रीमत्सत्यपुरे सत्या येन कीत्ति; कृता निजा ॥ १५॥ या गोज्न पालयल्येव सकलापायतः सदा । श्रीगोश्नदेवता रक्षां सा करोतु नताड़िनाम्‌ ॥ १६ ॥ श्रीशकप्रमुखा यक्षा जिनशासनसंश्रिताः । देवा देव्यस्तदन्ये5पि संघ रक्ष त्वपायतः ॥ १७ ॥ अश्रीमद्विमानसारूढा यक्षमातहुसड़ता । सा माँ सिद्धायका पातु चक्रचापेषुधारिणी ॥ १८ ॥ हम 8२६, अरहाणादि थुत्त व इमे- अरिहाण नमो पूर्य अरहंताणं रहस्सरहियाणं । पयओ परमेट्टीणं अरहँता्णं घुयरयाणं ॥ १ ॥ निद्ृहु अद्टकम्मिधणाण घरणाणदंसणधराणं । मुत्ताण नमो सिद्धाणं परमपरमेट्टि र्ूयाणं ॥ २॥ आयारघराण नमो पंचविहायारसुद्दियाण थ। नाणीणायरियाणं आयारुवएसयाण सया ॥ ३ ४ बारसविहंगपुर्ध॑ दिताण झुय नमो छुयहराणं। सययपम्ुवज्ञझायाणं सज्झ्ायज्ञझाणजुत्ताणं ॥ ४ ॥ स्वेसि साहु्ण नमो तिग॒त्ताण सबलोए थि। तह नियमनाणदंसणजुत्तार्ं बंसयारीण ॥ ५ ॥ रैरे ११ विधिप्रष | एसो परमेट्टीणं पंचण्ह वि भावओ नमोकारो | सघस्स कीरमाणो पावस्स पणासणों होहइ ॥ ६ ॥ ख़बणे वि समंगलाणं मणुयासखुरअमरखयरमहियाणं । से सिसिमो पढसो होह महाभंगरू पढठम ॥ ७ ॥ चत्तारिमंगलं मे हुंतु 5रहँता तहेव सिद्धा य । साहू अ सबकाल धम्मो य तिलोअमंगलो ॥ ८ ॥ चत्तारि चेव ससुरासुरस्स लोगस्स उत्तमा हुंति। अरहंत-सिद्ध-साहू धम्मो जिणदेसियसुयारों ॥ ९ ॥ चत्तारि वि अरहंते सिद्धे साहू तहेव धम्मं च। संसारधोररक्खसभणएण सरणं पवज्ञामि ॥ १०॥ अह अरहओ भगवओ महह सहावीरवद्धमाणस्स । पणयसुरेसरसेहरवियलियकुसमचियकमस्स ॥ ११॥ जस्स वरधम्मचकं दिणयरबिंबं व भासुरच्छाय॑ । तेएण पत्नलंत गचछइ पुरओ जिणिंदरस ॥ १२॥ आयासं पायाल सयल महिसंडल पयासंत । मिच्छत्तमोहतिमिरं हरेह तिण्ह पि लोयाणं ॥ १३॥ सयलम्मि बि जीयलोऐँं चितियमेत्तो करेह सत्ताणं । रक्‍खे रक्खस-डाइणि-पिसाय-यह-जक्ख-मूयाणं ॥ १४0 लह्दृह बिवाए वाए ववहारे भावओ सरंतो य | जूए रणे य रायंगणे य विजयं विसुद्धप्पा ॥ १५॥ पचृस-पओसेखुं सयय॑ मद्यो जणो सुहज्लाणो | एवं झाएसाणो मसुक्‍्खे पह साहगो होह ॥ १६॥ वेयाल-रुहद-दाणव-नरिंद-कोहंडि-रेवईणं च । स्वेसि सत्ता पुरिसो अपराजिओ होइ ॥ १७ ॥ विज्ञु व पत्नलंती सवेख वि अक्खरेस मत्ताओ। पंच नमोक्‍्कारपए इक्किक्के उवरिमा जाव ॥ १८ ॥ ससिघवलसलिलनिम्मलआयारसहं थ वण्णिय बिंदु । जोयणसयप्पमाणं जालासयसहसदिष्पंत ॥ १९ ॥ सोलससु अक्खरेसं इक्किकं अक्खरं जगुज्जोय । भवसयसहस्समहणो ज॑मि ठिओ पंच नवकारो ॥ २० ४ जो धुणति हु इकमणो भविओ भावेण पंचनवकारं। सो गउछह सिवलोयं उज्घोयंतो दसदिसाओ ॥ २१ ॥ तव-नियम-संजमरहो पंचनसमोक्कारसारहिनिउत्तो । नाणतुरंगमजुत्तो नेह फुड परमनिधा्णं ॥ २२॥ नन्विश्वनाविधि । सुद्धप्पा सुद्धभणा पंचछ समिईस संजय तिगुला। जे तम्मि रहे लग्गा सिर्ध गउछ॑ति सिवलोय ॥ २३ ॥ थंमेह जले जलर्ण चिंतियमत्तो वि पंचनयकारों । अरि-मारि- घोर - राउल-- घोरुवसग्ग पणासेह ॥ २४ ॥ अट्टेव य अद्डसया अद्डसहस्सं थ अट्वकोडीओ । रक्‍खे तु मे सरीरं देवासरपणमिया सिद्धा ॥ २५ ॥ नसों अरहताण तिलोयथपुञ्रो य संठिओं भयदं। अमरनररागमहिओ अणाइनिहणो सिय दिसउ ॥ २६ ॥ सबे पओसमच्छर आहियहियया पणासमुवर्यति । दुगुणीकयधणुसई सोउठ पि महाध्"णु सहसा ॥ २७ ॥ इय तिहुयणप्पमाणं सोलसपत्तं जलतदित्तसरं | अट्टारअद्टवलयं पंचनमोकारचकमिणं ॥ २८ ॥ सयलुज्वोइयभुवर्ण विदावियसेससत्तुसंघाय । नासियमिच्छसतम वियलियमोह हयतसोह ॥ २९ ॥ एयस्स य मज्झत्थों सम्महिट्ठी विसुद्धचारिक्तो । नाणी पवरयणभत्तों गुरूलणसुस्सूसणापरभो ॥ ३० ॥ जो पंच नमोककारं परमो पुरिसो पराह भत्तीए। परियत्तेह पहदिणं पयओ सुद्धप्पओ अपपा॥ ३१ ॥ अद्वेव य अट्टसयं अद्टसहस्स च उमयकालं पि। अट्ेव य कोडिओ सो तइयमवे लहइ सिर्द्धि ।|। ३९॥ एसो परमो मंतों परमरहस्सं परंपरं तत्त । नाणं परम नेय॑ खुद्ध झाणं पर झेयं ॥ ३३॥ एयथं कवयमसेय खाहयमत्थ परा श्ुवणरक्खा । जोईखुन्न॑ बिंदुं नाओ तारालयो मत्तो ॥ ३२४॥ सोलसपरमक्खरबीयबिंदुगब्भो जगोक्तमों जोओं | सुयवारसंगसायरमरहत्थपुधत्थपरमत्थो ॥ ३५ ॥ नासेह चोर-सावय-बिसहर-जल-जलण-बंधणसयाइई । चिंतिल्लतो रकक्‍्खस-रण-रायमयाहश भावेण ॥ ३६ ॥ ॥ अरिहाणादिथुत्त समत्त ॥ अन्न पि वा परमिद्दटिथवर्ण मणिजदइ त्ति। ॥ नंदिरयणाविही समत्तो ॥ १५॥ क्र ॥। ३85 केक 2 ( रक्‍खो। 8 35 तारो। 4 > भित्तो। ० ज ऐै३े . ३४ विधिप्रपा । 8 २७, सावओ कयाई चारित्तमोहणीयकम्मक्खआओवसमेण पश्जापरिणामे जाए दिकख पडिवजाइ त्ति, तीए विही भण्णइ - पश्चजादिणस्स पुष्रदिणम्मि संझासमये वयग्गाही सत्तो जहाविभूईए मंगलतूरसहिओ रयहरणाइवेससंगयछब्बएणं अविहवसुइनारीसिरम्मि दिल्लेणं समागम्म गुरुक्‍सहीए, समोसरणाइ-पूयसकार॑ अक्खयवत्तनालिएरसहियं करेत्ता गुरूणं पाए वंदई । तओ गुरू वासचंदणअक्खए अहिमंतिऊण सीससस्‍्स ४ सिरम्मि वासे खिवंतों वद्धमाणविज्ञाईहिं अद्टाओं अहिवासिय कुसुभरत्तदसियाए उग्गाहेइ, चंदर्ण अक्खए य सिरे देह । तओ रयहरणाइवेसमहिवासिय तस्स मज्झे पूगीफलानि पंच सत्त नव पणवीसं वा पक्खि- बावेद | भूइपोइलियं च वेसछब्बएणं अविहवनारीसिरदिन्नएण उभओ पासट्टिण्सु निकोसखग्गहत्थेसु दोसु पत्चइ्यनरेसु गिह गंतृण जिणबिबे पूहत्ता, तेसि पुरओ सासणदेवयापुरो वा छब्बय ठवित्ता, रयर्णि जग्गंति । सावया सावियाओ य देव-गुरूण चउब्िहसंघस्स य गीयाणि गायमाणीओ चिट्गति, जाव पभायवेला । तओ ॥ पभाए गुरूणं चउबिहसंधसहियाणं गिहमागयाणं पूर्य काऊण अमारिधोसणापुश्चयं दाणं दा्वितो जहोचियं सयणाइवर्गं सम्माणेह | तओ तस्स माइपिइबंधुक्गो गुरूणं पाए वंदिय भणइ -इच्छाकारेण सच्चित- भिक्‍खं पडिग्गाहेह ।” गुरू भणइ -इच्छामो, वद्धमाणजोगेण !! तओ गुरुसहिओ जाणाइसु आरूढ़ो मंगल- तूररवेणं सयमेव दाणं दिंतो जिणभवणे समागच्छई। रूग्गाइकारणे पच्छा वा। तओ जिणाणं पूय्य करेइ। तओ अक्खयाणं अंजलि नालिएरसहिय भरिऊर्ण पयाहिणत्तय॑ नमोकारपुब्यं देह | तओ पुषोत्तविहिणा ४ पुप्फे अक्खए वा खेवाविज्जइ, परिक्‍्खानिमित्त । तओ पच्छा हरियावाहिय पडिक्षमिऊण खमासमणपुषश्चय॑ पुष्चि पडिवन्नसम्मत्ताइगुणो सीसो भणइ - (इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं सबविरइसामाइयआरोवणपत्थ चेइयाईं वंदावेह' । जो पुण अपडिवन्नसम्मत्ताइगुणो सो 'सम्मत्तसामाइय-सबविरइसामाइयआरोवणत्थ' ति भणइ । गुरू आह-'वंदावेमो' । पुएपवि खमासमर्ण दाउं, गुरुपुरओ जाणूहिं ठाइ । गुरू वि तस्स सीसे वासे खिवेइ । तओ गुरुणा सह चेइयाइं वंदेइ । गुरू वि सयमेव संतिनाह-संतिदेवयाइथुईओ देइ । सासण- » देवयाकाउस्सग्गे उज्लोयगरचउकं॑ चंदेसुनिम्मल्यरापज्जंत चिंतंति । गुरू. वि पारित्ता थुई देह, सेसा काउ- स्सग्गठिया सुणंति । पच्छा संबे वि य उज्जोयगरं पढंति | तओ नमोक्कारतय कड्ुति । तओ जापूहिं ठाऊण सक्कत्थयं पंचपरमेट्टित्थवं च भण्णिति | तओ गुरू. वेसमभिमंतेइ । पच्छा खमासमणणं दा सीसो भणइ -(इच्छाकारेण संदिसह तुब्भे अम्हं रयहरणाइवेसं समप्पेह्ट! | तओ नमोकारपुष्ठ 'सुगृहीतं कारेह! त्ति भणंतों सीसदक्खिणबाहासंमुहं रओहरणदसियाओ करिंतो पुबाभिमुहो उत्तरामिमुहों वा वेसं समप्पेह । » पुणो खमासमणं दाउं, रथहरणाइवेसं गह्यय, ईसाणदिसाए गंतृण आमरणाइअलंकारं ओमुयह | वेसं परिहरेह । पयाहिणावत्त । चडरंगुलोवरिं कप्पियकेसो गुरुपासमागम्म खमासमणं दाउं भणइ -इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं अद्ुछं गिण्हह” । पुणो खमासमण्ं दा उद्धट्टिबस्स ईसिमोणयकायस्स नमोक्वारतिगमुश्चरित्त उद्ष्टिओ गुरू पत्ताए रूगवेलाए समकालनाडीदुगपवाहवर्ज अडिभितरपविसमाणसासं अक्खलियं अद्टतिगं गिप्हह । तस्समीवष्टिओं साहू सदसवत्येणं अद्यओ पडिच्छह | तओ खमासमण्णं दाउं सीसो भणई-- » “इच्छाकारेण तुब्मे अम्ह॑ सबविरइसामाइयआरोवणत्थ काउस्सर्गे करावेह ।” खमासमणपुषयं 'सबबिरह- सामाइयआरोवणत्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थूससिणण' मिश्चाइ पढिय, उज्जोयगरं सागरवरयगंमीरापजंत॑ सीसो गुरू य दो वि चिंतंति । पारित्ता उल्नोयगरं भणेति | तओ खमासमर्ण दाऊं सीसो भणइ -इच्छा- कारेण तुब्मे अग्हं सबविरहसामाइयसुत्त उच्चारावेह' | गुरू आह-“उच्चारावेमी” | पुणो खमासम्ण दाऊण ईसिमोणयकाओ गुरुवयणमणुभणतो, नमोक्कारतिगपुर्ध॑ सब्विरइसामाहयसुत्तं वारतिगमुणरइ । गुरू; मंतो- | 'सिखा' इति 4 दि" । [| “बल्नाति' इति 3 टि०। ] 73 सवणबरणं । प्रश्रज्याविधि-छोचकरणविधि । ३३५ खारणपुष्ध पणाम॑ काउं लोगुत्तमाणं पाएस वासे खिवेह | अक्खए अभिमंतिऊण संघस्स देइ | तओ खमा- सम दाउं सीसो भणह -इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं सब्विरइसामाइयं आरोवेह” । गुरू भणइ -“आरसोवेमो” । खमासमण्ण दाउं सीसो मणइ-“संदिसह कि भणामो' । गुरू भणइ-“बंदित्ता पवेयह” । पुणो खमासमर्ण दाउं भगइ-इच्छाकारेण तुब्मे अग्हं सब्विरइसामाइयं आरोविय ? गुरू वासक्खेवपुब्॒य भणइ --आरो- वियं! । ३ खमासमणाणं, हत्थेणं सुत्तेण, अत्थेणं, तदुभएण, सम्म॑ धारणीयं, चीर॑ पालणीयं, नित्यारग- पारगो होहि, गुरुगुणेहिं वद्माहि! । सीसो-“इच्छामो अणुसद्ठ'ति मणित्ता खमासमरण दाऊण भणइ- (ुम्हां पंवेहयं, संदिसह साहर्ण पंवेणएमि' | तओ खमासमणं दाउं नमोक्कारमुच्चरंतो पयाहिण देश, वाराओं तिन्नि । संघो य तस्सिरे अक्खयनिक्खेवं करेइ | तओ खमासमर्ण दाउं भणइ -ततुम्हा्ं पंवेइय, संदिसह्‌ काउस्समां करेमि' | गुरू भणइ -“करेह' । खमासमर्ण दाउं 'सबंविरइसामाइयआरोवणत्थ करेमि काउ- सम्गं, अन्नत्थूससिएण'मिच्चाइ पढिय, सागरवरगंभीरापज्जंत उज्जोयगरं चिंतिय, पारित्ता उज्जोयगरं पढइ | तओ खमासमणपुर्ध॑ भणह -इच्छाकारेण तुम्हे अम्ह॑ सब्विरहसामाइयथिरीकरणत्थ काउस्सग्ग करावेह” । सबविरइसामाइयथिरीकरणत्थ करेमि काउस्सग्गं” | तत्थ सागरवरगंमीरापज्जंतं उज्जोयगर् चिंतिय पारित्ता उज्जोयगर॑पढइ । तओ खमासमर्ण दाउं-इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं नामठवर्ण करेह” । गुरू भणइ- 'करेमो! | तओ वासे खिवंतो रवि-ससि-गुरुगोयरसुद्धीर जहोचिये नाम करेइ । तओ कयनामो सेहो सबससाहणं वंदेह । अज्िया सावया सावियाओ वि तं॑ बंदंति । तओ खमासमणपुष्॒य॑ सेहो गुरु मणइ - ठुब्मे अम्ह धम्मोवएसं देह” | पुणो खमासम्ण दाउं जाणूहिं ठिओ सीसो सुणई । गुरू- चत्तारि परमंगाणि दुलुहाणीह देहिणो। माणुसत्त सुई सद्धा, संजमंमि य वीरिय॑ ॥ इच्चाइ उत्तरज्ञयणाणं तइयज्ञयणं चाउरंगिज्ज वक्‍खाणइ । पश्चज्जाविहाणं वा। “जय चरे जर्य॑ ट्वे”” इच्चाइयं वा | सो वि संवेगाइसयओ तहा सुणेह, जहा अन्नो वि को वि पध्चयइ। इत्थ संगहो- चिहवंदण वेस5प्पण समहय' उस्सरग लर्ग अद्गहो। सामाइय तिय कटह्ण तिपयाहिण वास उस्सर्गो ॥ ॥ पब्ज्ञाविही समत्तो ॥ १६ ॥ 8 ३८. पश्चदएण य लोओ कायब्ो | अओ तबिही भण्णद - गुरुसमीवे खमासमणदुगेण मुहपोर्तति पडि- लेहिय दुवालसावत्तवंदर्ण दाउड, पढमखमासमणेण “इच्छाकारेण संदिसह छोय॑ संदिसावेमि!; बीए “छोय॑ कारेमि!; तइए “उच्चासणं संदिसावेमि'; चउत्थए “उच्चासणे ठामि! | तओ छलोयगारं खमासमणपुष्ब भणइ - “(च्छाकारि छोयं करेह! । मत्थयरक्खधारिणों य इच्छाकारं देह । तओ- पुर्धि पडिवय नवमी तहया हक्कारसी य अग्गीए | दाहिणि पंथमि तेरसि, बारसि चउत्थि नेरशए ॥ १४७ पच्छिस छट्टि चडइसि सत्तमि पडिपुज्न वायवद्साए। दसमि दुड्ज्ा उत्तर, अद्वमि अमावसा य ईसाणे ॥ २॥ ह॒इ गाहकमेण जोगिणीओ वामे पिन्‍्ठधओ वा काउं, बुह-सोमवारेसु चंदबलाइभावे सुक-गुरू- पु वि, पुस्स-पुणबसु-रेवह-चित्ता-सवण-घधणिट्वा-मियसिर-5स्सिणि-हल्थेसु कित्तिया-विसाह-महा-- ] 'सामासिक । सर्वविरतिसामायिकोत्सगे; ।/ इति .. टिप्पणी । ] ३६ विधिप्रपां | भरणीवज्जेसु अल्लेसु वा रिक्खेसु उवविसिय सम्ममहियासंतो छोय कारिय, लोयगारबाहुं विस्सामिय, इरियाँ- वहिय॑ पड़िक्मिय, सक्वत्थयं भणिय, गुरुसमीवमागम्म, खमासमणदुगेण मुहपोत्ति पडिलेहिय, दुवाल« सावत्तवंदण्ं दाउं, खमासम् दाउं, पढमखमासमणे भणइ-“इच्छाकारेण संदिसह लोय पवेएमि! । गुरू भणद -“पवेयह”; बीए “संदिसह किं भणामो' । गुरू भणइ-“वंदित्ता पवेयह'; तदए कैसा में पहुवा- ४ सिया! । तओ '“दुकरं कयं, इंगिणी साहिय/त्ति गुरुणा वुत्ते 'इच्छामो अणुसह्ठिति भणइ । चउत्ये 'तुम्हाणं पवेहयं, संदिसह साहर्ण पवेएमि'; पंचमे नमोक्ारं भणइ । छट्ठेणं तुम्हाणं पवेइयं, साहू्ण पवेहयं, संदिसह' काउस्समां करेमि! । सत्तमे केसेसु पल्जुवासिजमाणेसु सम्म॑ जन्न अहियासियं, कुइय॑ ककराइय छीय॑ जंभाइय॑ तसस ओहडावणियं करेमि काउस्सरग अन्नत्थूससिएण'मिश्चाइणा सत्तावीसुस्सासं काउस्सम्गं करेह | चउवीसत्थयं भणित्ता जहारायणियं साह बंदह, पाए य विस्सामेइ । जो डण सयय चिय छोय॑ करेइ सो ॥ संदिसावणपवेयणाइ न करेइ । ॥ इंद् लोयकरणविही ॥ १७ ॥ 8६ २९, पब्॒इएण य उभयकाल पडिक्कमणं विहेयं । तबिही य सावयकिल्चाहिगारे वुत्तो । जओ साहणणं सावयाण पडिकमणविहदी तुलो चेव । नाणत्त पुण इमं - साहुणो ससूरिए चेव चउबिहाहारं पच्चक्खिय, जलाइ उज्िय, जलमभंडाइ संठविय, सम्म इरियं पडिकमिय, चउवीसं थंडिले जहन्नओ बिहत्थमित्ते बाहिं अंतो य ४ अहियासि-अणहियासिजुग्गे आसल्ने मज्यिमे दूरे य दंडाउंछणेणं पेहिय गुरुपुरओ खमासमणेण “गोयरचरियं पडिक्कमेमो'; बीयखमासमणेणं 'गोयरचरियपडिक्कमणत््थं काउस्सग्गं करेमो'त्ति भणित्ता, अन्नत्थूससिएणमिचाइ भणित्ता, नवकार॑ चिंतिय पढित्ता य इमं गाह घोसंति - कालो गोयरचरिया थंडिल्ला वत्थपत्तपडिलछेहा। संभरऊ सो साहू जस्सवि ज॑ किंचि अणुवउत्तं ॥ भ् तओ अहारायणियाए साहू वंदित्ता, तहा देवसियपडिक्मणमारभंति, जहा चेहयवंदणाणंतरं अद्भ- निवुद्दे सूरिण सामाइयसुत्त कद्डुंति | सावया पुण वावारबाहुलण अत्थमिण वि पडिकरमंति | तहा साहुणो रयणीचरमजामे जागरिय, सत्तद्न नवकारे भणिय, इरियं पडिकमिय, कुसुमिण-दुस्सिमिणुस्सम्गे उज्जोय- चउक चिंतिय, सक्त्थएण चेहए वंदिय, मुहपोत्ति पडिलेहिय, खमासमणदुगेण सज्ञाय संदिसाविय, नवकारं सामाइयं च तिक्खुत्तो कड्डिय, अहारायणियाए साहू वंदिय, सज्ञायं काउं, पडिक्रमणाणंतरं मुह- ४ पोत्ती-रयहरण-निसिज्ञा-दुगचोलपट्ट-कप्पतिग-संथारुत्तरपट्टेस पडिलेहिएस जहा सूरो उद्ढेइ तहा वेले तुलित्ता राइयं पडिक्षमंति । तहा चेइयवंदणाणंतरं साहुणो खमासमणदुगेण “बहुवेलं संदिसावेमि, बहुवेलूं करेमि? त्ति भणित्ता, आयरियाई वंदंति | सावया पृण बहुवेल न संदिसावेयंति अपोसहिया । तहा साहुणो “आयरियउवज्ञञाए! इच्चाइगाद्यातिंग न भणंति | पडिक्षमणमुत्त च साहर्ण “चत्तारिमंगल'मिश्चाह । सावयाणं तु “वंदित्तु सबसिद्धे! इचाइ । तहा पक्खिए पज्जंतियलामणाणंतरं चउसु छोभबंदणएसु साहुणों » भूनिहित्तसिरा पिये च मेज मे! इच्चाइदंडगे भरते | सावया पुण तिन्नि तिन्नि नवकारे पढंति । पढमे छोभवंदणए 'साहूहिं सम; बीए “अहमवि चेहयाईं वंदे'; तहए “गच्छस्स संतियं!'; चउत्ये “नित्थारपारगा होह'त्ति जहक्म गुरुवयणाईं । पक्खियसुत्त च साह्ण 'तित्थ करेह तित्थे” इच्चाइ। सावयाणं पुण पड़ि- कंमणसुत्तमेव । तहा साहुणो खुद्दोवद्वबकाउस्सग्गाणंतरं॑ पक्खिए चाउम्मासिए वा “असज्ञाइय अणाउत्त- ओहडावणियं करेमि काउस्समा अज्नत्यूससिएण' मिश्वाइ भणिय, चगुणं पंचवीसुस्सास काउस्सम्गं कुणति । ४6 साववा ने कुणंति । डपयोगविधि-आद्मिअटनविधि । ३७ ६ ३०, संपयं उदओग बविणा न भत्तपाणविहरणं ति उवओगविही भण्णइ - तत्थ सूरिए उम्गए पमज्ियाए वसंदीए गुरुणो पुरओ आयरिय-उवज्ञ्ञाय-वायणायरिया पंगुरिया, सेसा कडिपट्टमेत्तावरणा पढमे खमा- समणे 'सज्ञायं संदिसावेमि” त्ति; बीए 'सज्ञायं करेमि! त्ति भणिय, जाणूवरि धरियरयहरणा मुहपोत्तिया- भ्रहयवयणा “धम्मो मंगलाइ” सत्तरससिलोगे थेरावलियं वा सज्ञायं सुत्तपोरिसि-आयारसब्चवणत्य करिता, खमासमणं दाउं 'उबओगं संदिसावेमि'त्ति; बीए 'डव॒ओग करेमि'त्ति भणिय, उद्धित्ति 'उवओगस्स कारा- वणियं करेमि काउस्सग्गं'ति दंडगं मणिय, काउस्समां करिय, नवकार॑ चिंतेति । गुरुणो पुण नवकार॑ चिंतिता वारतिगं मंत सुमरिति | सो य इमो- अउम्‌ नअ मओ भअ गअ वअ तह कआ मए झछावअ गृह अ ननअम्‌ पऊ गृणअम्‌ भअज वअ तउ सवआ हआ। तओ नमोक्कारेण गुरुणा पारिएण काउस्सगर्गे, साहुणो पारित्ता पंचमंग् भणंति । तओ जिट्ठो ४ ओणयकाओ भणइ-इच्छाकारेण संदिसह” । इत्थंतरे गुरुनिमित्तोवउत्तो भणइ 'लाभु' त्ति पुणो जिट्टो ओणयतरकाओ भणइ - 'कह लेसहं” । गुरू भणइ “तह'त्ति | जहा पुब्बसाहूहिं गहिय॑ तहा घित्तबमित्यर्थः । तओ ह॒त्थं आवसियाए जस्स वि जोगो त्ति मणिऊण जहारायणियाए साहुणो वंदंति । ॥ उवओगविही समत्तो ॥ १८७ 6३१, कए य उवओगे सो नवदिक्खिओ मोम-सणिवज्जिय पसत्थदिणे, चित्ता-अणुराहा-रेबई-मियसिर- ४ रोहिणि-तिउत्तरा-साइ-पुणबसु-स्सवण-धणिद्वा-सयमिस-हत्थ-स्सिणि-पुस्स-अमीइ रिक्खेस_ अहिण- वपत्ताबंध उम्शाहिय॑ कयवासक्खेवपत्ती महूसवपुष्ष गोयरचरियाए गीअत्थसाहुसहिओ मिक्खालाभं जाव भूमिअद्टठवियदंडगो वच्चह | तओ उच्च-नीय-मज्झिमकुलेसु एसियं वेसियं गवेसिय फासुयं घयाइ- मिक्‍्खमादाय पडिनियत्तो-(निसीही ३, नमों खमासमणाणं गोयमाईण महामुणीण” ति भणिय उवस्सए पविसइ । तओ गुरुपुरमो खमासमणपुष्च॑ इरियं पडिक्मिय, काउस्सग्गे ज॑ं जहा गहियं ते तहा चिंतिय, » नमोक्कारेण पारित्ता, गमणागमर्ण आलोइत्ता, कविया-करोडिया-चट्ठुयाइणा इत्थीओ पुरिसाओ वा ज॑ जहा गहिये भत्तपाणं त॑ तहा आलोइजा । तओ <“दुरालोइय-दुपडिक्कतस्स इच्छामि पडिक्षमिठं गोयरचरियाएं मिक्‍्खायरियाए! . ..इच्चाइ जाव. ..जे उग्गमेण उप्पायणेसणाए अपरिसुद्धं पडिग्गाहिय परिभुत्ते वा ज॑ं न परिट्ठविय तस्स मिच्छामि दुक्कड । तस्सुत्तरीकरणेणमिच्चाइ . . .जाव . - वोसिरामि त्ति पढिय, काउस्सरगे य-- अहो जिणेहिउ्सावज्ा, वित्ती साहूण देसिया। थ मोक्खसाहणहेउस्स साहुदेहस्स धारणा ॥ १॥ इंद चिंतेश | तओ नमोकारेण पारित्ता, चडविसत्थ्य भणित्ता, भत्तपाणं पाराविय, उवबरिं जहे य पमज्जियाए भूमीए दंड ठाविय, देवे वंदिता जहन्नओोवि “धम्मो मंगल्मुक्किद्द'मिच्चाइ सत्तरससिलोगे सज्झायं करित्ता, जहारायणियं जहारिहं दबाइ जेसिं न अट्टो ते अणुन्नवित्ता, मुहपोत्तियाए मुह पडिलेहित्ता, रगहरणेण पायभाणद्वा्णं च पमज्िय, असुरसुरमिच्राइविहिणा अरत्तदुट्ठों जेमेइ । भर ॥ आइमअडणविही ॥ १९ ॥ जँ १ एपणादोषपरिशुद्धं एसियं। ३ वेषमाश्रेण लब्ध तत्त्वमुको5६ अमुकशिष्य एवंगुण इत्यादि कथनत इति वेसियं । * खबं गत्वा अवलोकितं गंवेसियं । ४ एतेनादौ एत बिहर्तव्यमित्युक्तम्‌ । इति 0. आदर टिप्पणी । इ्ट विधिप्रपा । ६३२, ततो य आवस्सगतव कारिज्जइ । मंडलिसत्तगायंबिलाणि य | मंडलिसचग च इमे- सुत्ते' अत्थे भोयण' काले! आवस्सए य' सज्श्लाएं। संधारए विय तहा सत्तेया संडली होंती ॥ १ ॥ अन्ने पुणुवद्ठावियं चेव कारियायंबिल मंडलीए पवेसंति, ते च जुत्तयर॑ | जओ भणियं-- हे अणुचद्वा विधासहं अकयविहाणं च मंडलीए उ। जो परिभ्ुंजह सहसा सो गुत्तिविराहगो भणिओ ॥ २॥ तओ दसवेयालियतवं कारित्ता उद्डावणा कीरइ । आवस्सय-दसवेयालियजोगविही उवबरिं भण्णिही। तीए विही पुण इमो - पढिए य कहिय अहिगय परिहर उवठावणाए सो कप्पो। १ छक्क तेहिं बिसुद्ध परिहरनवएण भेएण ॥ ३ ॥ धधम्मो मंगलाइ-छज्जीवणियास्‌त्त' पाढित्ता, तस्सेव अत्थं कहित्ता, पुडविकायाइजीवरक्खणविर्हिं जाणावित्ता, पाणाइवायविरमणाईणि वयाणि सभावणाई साइयाराणि कहिय, पसत्थे तिहि-करणजोगे ओसरणे गुरू अप्पणों वामपासे सीसं ठ|वेऊण मुहपोत्ति पडिलेहाबिय, दुवालसावत्तवंदणय दाविय भणेइ- 'इच्छा- कारेण तुब्भे अग्हं पंचमहबयाणं राईभोयणवेरमणछट्टाणमारोवणत्थ चेहयाई वंदावेह” | गुरू भणइ-“दा- ४ बेमो” । तओ सेहस्स वासक्खेवं काउं वड्डुमाणथुईहिं चेइए बंदिय, जाव थोत्तमणणं पणिहाणपज्जंत | तओ सेह खमासमर्ण दावित्ता, पंचमहयसुत्तउचारावणत्थ सत्तावीसुम्सासं काउस्सम्गं कराविय, चउवीसत्थय भाणित्ता, लोगुत्तमाण पाएसु बासे छुह्दित्ता, पंचमंगर् तिक्खुत्तो कद्ित्ता, गुरुकुप्परेहिं पद्टं धरिय, वामहत्थ- अणामियाए मुहपोत्ति लंबंति धरित्ता, गयर्गदंतोन्नणहिं करेहिं रयहरण धारिय, तिक्खुत्तो पंचमहब्याईं राईमोयणवेरमणछद्ठाइ उच्चारावेइ | जाव रूग्गवेलाए इच्चयाईं पंचमह्याईं! इति आलावगं तिन्रिवारे # कद्'ुइ | गुरू वासक्खए अभिमंतेह । तओ गुरू लोगुत्तमाण पाएसु वासे खिवइई । वासक्खए अभिमंतिए संघस्स देह | तओ खमासमर्ण दा सीसो भणइ-इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं पंचमहब्॒याईं राईभोयणवेरमण- छट्ठाईं आरोवेह” । गुरू भणइ -“आरोवेमि” । सीसो खमासमण्ण दाउं भणइ -'संदिसह किं भणामो” । गुरू भणइ -“ंदित्ता पवेयह” | पुणो खमासम्ण दाउं भणइ -इच्छाकारेण तुब्भेहिं अम्हं॑ पंचमहब्याई राई- भोगणवेरमणछट्ठाईं आरोवियाई ?” । गुरू वासक्खेवपुबय भणइ -आरोवियाई । ३ खमासमणाणं, हत्थेणं, # सुत्तेणं, अत्थेणं, तदुभणणं, सम्म॑ धारणीयाणि, चिरंपालणीयाणि, नित्थारगपारगो होहि, गुरुगुरुणेहिं वड्ाहिइ।॥ सीसो “इच्छामो अणुसद्ठिति भणित्ता, खमासमणं दाऊण भणइ -ततुम्हाणं पवेइयं, संदिसह साहृरणं पवेणमि' । तओ खमासमण्ं दाउं नमोकारमुच्चरंतो पयाहिणं देह वाराओ तिज्नि | संघो य तस्स सिरे वासअक्खय- निक्‍्खेवं करेह । तओ खमासमर्ण दाऊण मणहइ -तुम्हाणं पवेइयं, साह्ण पवेइयं, संदिसह काउस्सग्गं करेमि' । गुरू भणइ-“करेह” । खमासमर्ण दाऊण “पंचमहब्याणं राईभोयणवेरमणछट्टाणं आरोवणर्त्य » करेमि काउस्समां, अन्नत्थूससिएण'-मिश्चाइ पढिय, सागरवरगंमीरापज्जंत उज्जोयगर चिंतिय, पारित्ता उज्जोयगरं पढइ । तओ खमासमणपुश्रय भणइ -इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं पंचमहत्याणं राईमोयणवेरमण- छट्टां थिरीकरणत्थं काउस्सम्गं करावेह” । गुरू मणइ -“करावेमो” । 'पंचमहद्ययाणं राईभोयणवेरमणछट्ठाणं थिरीकरणत्थं करेमि काउस्सम्ग! इच्चाइ भणिय, काउस्समां करेह | तत्थ सागरवरगंगीरापज्जंत्त उज्ोयगर॑ चिंतिय, पारित्ता उज्जोयगरं पढइ । तओ खमासमर्ण दाउं॑ भणइ-इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं॑ नामठब्णं # करें! | गुरू भणइ -“करेमो' । तओओ वासे खिबंतो जह्ोचियं नाम॑ करेह । तओं कयनामो सीसो से उपस्थापनाविधि | १९ साहुणो बंदह । अज्िया सावया सावियाओ वि त॑ बंदंति | पुणो खमासमणण दाउं भणह-इच्छाकारेण तुम्हे अम्ह दिसिबंध करेह” | गुरू भणइ-“करेमो” | तओ सीसस्स आयरिओवज्ञायरूतो दुविहो दिसि- बंधो कीरए । जहा-चंदाइयं कुरं, कोडियाइओ गणो, वहराइया साहा, अप्पणिश्वया गुरुणो आयरिया उवज्ञाया य । गच्छे य उबज्ञ्ञायाभावे आयरिया चेव उवज्ञाया । साहुणीए अमुगा पवत्तिणीय ति तिविहो । तम्मि दिणे जहासत्तीए आयामनिश्चियाइ तवो कारिज्इ । तओ खमासमणपुधय॑ सीसो गुरु मणइ - (तुब्मे अग्ह धम्मोवएस देह” । पुणो खमासमण्ं दाउं जाणूहिं ठिओ सीसो सुणई । गुरू य नायाधम्मकहा- अंग-पढमसुयक्खंध-सत्तमज्ञयणस्स रोहिणीनायस्स अत्थओ वक्‍्खाणं करेइ | सो वि संवेगाइसयओ तहा सुणेह, जहा अन्नो वि को वि पत्रयइ । रोहिणीनायं पुण सुपसिद्धं । तस्स य अत्योवणओ एवं - ३३१३३, जह सिद्दी तह गुरुणो जह नाइजणो तहा समणसंघो। जह वहुया तह भव्ा जह सालिकणा तह बयाह ॥ १॥ जह सा उज्शियनामा उज्शियसाली जहत्थममभिडाणा। पेसणगारित्तेण असंग्वदुक्खक्स्वणी जाया ॥ २॥ तह भद्दयो जो कोई संघसमक्खं गुरुविदज्ञाई । पडिवज़िउ समुज्ञह महबयाहई महामोहो ॥ ३ ॥ सो इह चेव भवंमी जणाण घिक्कारमायणं होह। परलोए उ दुद्त्तो नाणाजोणीसखु संचरह ॥ ४॥ उक्त च-धम्माउ भट्टं सिरिओववेय जन्नग्गिविज्ञायमिवप्पतेय । हीलति ण॑ दुधिहिय कुसीला दाढोद्धियं घोरविसं व नाग ॥ ५ ॥ हहेव धम्मो अयसो अ कित्ती दुन्नामधिज्झं च पिहुज्जणमि। चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नचित्तस्स उ हिहओ गई ॥ ६॥ जहवा सा भोगवह जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा | पेसणविसेसकारित्तणेण पत्ता दुह चेव ॥ ७॥ तह जो महबयाहईं उवभुंजह जीविय त्ति पार्लितो | आहाराइसु सत्तो चत्तो सिबसाहणिच्छाए ॥ ८॥ सो इत्थ जहिच्छाए पावह आहारमाइ लिंगित्ति। बिउसाण नाइपुत्नो परलोगम्मी दुही चेव ॥ ९॥ जहवा रक्खियवहुया रक्खियसालीकणा जहत्थक्खा। परिजणमन्ना जाया भोगसुहाहं च संपत्ता ॥ १०॥ तह जो जीवो सम्म पडिवज़ित्ता महव्॒ए पंच। पाछलेड् निरहयारे परमायलेसं पि वज्यतो ॥ ११ ॥ सो अप्पहिश्करुहे इहलोयंमि वि बिऊहिं पणयपओ । एगंतखुडी जायह परंमि मोक्ख पि पावेह ॥ १२॥ जह रोहिणी उ सुण्हा रोवियसाली जहत्थममभिहाणा। वहित्ता सालिकणे पत्ता सबस्स सामित्त ॥ १३॥ 98% विधिप्रपा । तह जो वो पाविय वयाईं पालेह अप्पणा सम्म | अन्ञेसि वि भवाणं देश अणेगेसि हियहेउ॥ १४॥ सो इद संघपहाणों हुगप्पह्माणो त्ति लह॒इ संसई । अप्पपरेसिं कक्काणकारओ गोयमपट्ट ब॥ १५॥ ४ तित्थस्स वुष्टिकारी अक्खेवणओ कुतित्थियाईण । विउसनरसेवियकमो कमेण सिद्धि पि पायेइ ॥ १९॥ उद्बावणा जहज्ञओ सत्तराइंदिएहिं, सा पुण पुब्बोवद्गभावियपुराणस्स कीरइ । मज्शिमओ चउहिं मासेहिं, सा य अगहिजओ मंदसद्धस्स य । उक्कोसओ छम्मासेहिं, सा य दुम्मेहस्स | असद्धाहओ य रूग्गा- इकारणे य अइरित्तेणावि कालेण कीरइ त्ति ॥ ॥ उद्ठावणाविही समत्तो ॥ २० ॥ 88३४. उद्यविणण य सुयमहिज्झियबं । सुयाहिज्ञणं च न जोगवहणमंतरेण त्ति संपयं जोगविही भण्णइ-तत्थ पढ़म॑ ताव जोगवाहीहिं एवं भूएहिं होयबं। पियधम्मा सुविणीया लख्ालुइया तहा महासत्ता। उलज्नत्ता य विरत्ता दढधम्मा सुट्ियचरित्ता ॥ १॥ कि जियकोह-माण-माया जियलोहा जियपरीसहा निरुया। मण-वयण-कायगुत्ता एरेसया जोगवाहीओ ॥ २॥ थोवोवहिओवगरणा निइजयाहारजयपहाणा य। आलोयणसलिलेणं पक्खालियपावमलपडला ॥ ३ ॥ कयकप्पतिप्पकिरिया सन्निहिचाई गुरूण आणरया। के अणगाढजोगिणो बिहु अगाढजोगी विसेसेण ॥ ४॥ तत्थ पसत्थे दिणे अमियजोग - सिद्धिजोग - रविजोगाइगुणगणोवेए मिगसिराइनाणनक्खत्तजुत्ते मच्चुजोगवज्जपायाइदोसलेसादूसिए. संझागय - रविगय - विड्वेर -- सगगहविलंबि - राहुहय -- गहमिन्ननक्ख- तचत्ते सुभेसु सुमिणसठणनिमित्तेसु दिणपढमपोरिसीए चेव अंगसुयक्खंधाणं उद्देस-समुद्ेसाणुन्ञाओ कीरंति । नो पच्छिमपोरिसीए राईए वा । अज्झयणुद्साइयं राईए वि कीरइ । * 8३६७, तहा जोगा दुविहा - गणिजोगा, बाहिरजोगा य | तत्थ गणिजोगा आगाढा चेव | आगाढा नाम जेस सबसमत्तीए उत्तरीजहइ । इयरे आगाढा अणागाढा य। तत्थ उत्तरज्ञयणसत्तिक्षय पण्हावागरण-- महानिसीहाणि आगाढा । आवस्सगाई अणागाढा असमत्तीए वि उत्तरिजइ त्ति काउं। अमन दिणचउका- णंत्तरमुत्तरिजाइ त्ति भर्णति । तहा उक्कालिया कालिया य। तत्युक्कालिएस जोगुक्खेबवों कीरहइ न संघ । केसिंचि मएण न जोगुक्खेबो न संघ । कालिए्सु जोगुक्खेवों संघट्टं न । केसु वि आउत्तवाणयं च्‌। » एयविहाणं पत्थावे भण्णिही । . $ ३६. तहा कालिएसु काल्महणाइय च होइ | कालगहर्ण च अणज्ञाए न विहेयब ति पृथ्मणज्ञ- यणविद्दी भण्णए । तत्थ गब्भमासेसु कत्तिय-ममासिराइसु महियाए पडतीए रए वा जाव पड़॒ह ताव अस- ज्ञाओ | जओ महिया पडणसमकालमेव सबब आउक्कायभावियं करेइ । अओ तकाल्सममेव सबनिट्ठाओ निरुब्मति पाणिदयट्टा । सचित्तो आरण्णो उद्युओं आगओ रओ भण्णइ । वण्णओ ईसि आयंबो दिवतेसु 4 8 छयमहिज्झणं। १ “भातात्रो दिगन्तेषु' इति .& टिप्पणी अनध्यायविधि । ४१४ दीसह । जह आगासे गंधब्नगरं विज्जु उक्ा दिसदाहों वा तो असज्ञाओ । जाव एयाणि वहईति । थकेसु वि एगा पोरुसी हवह । उककालक्खणं पड़ियाए वि पच्छओ रेहा, अहवा उज्जोओ हवइ । कणगो पुण तबिरहिओ | तहिं वरिसाले सत्तहिं, सीयाले पंचहिं, उण्हयाले तिहिं पहरमित्तमसज्ञाओ हवइ । गज्जिए पुण पहरदुग । तहा आसाढचा उम्मासियपडिक्रमणानंतरं पडिवया जाव असज्ञाओ । बीयाए सुज्ञइ । एवं कत्तिय- चाउम्मासिण वि। आसोयसुक्पक्खपंचमीपहरदुगाओ आरब्भ बारसदिणाणि, जाव पड़िवया ताव असज्ञाओ, * बीयाए सुज्ञद । एवं चित्तमाससुकपक्खे वि; नवरमेगारसीए आरब्भ जाव पुन्निमा दिणतिगे अवित्तरजओ- हडावणिय काउस्सग्गो कीरइ । छोगस्सुज्जोयगरचउकं चितिजाइ । अह न सुमरियं तो बारसी-तेरसीओ वि आरब्भ कीरइ । अह तेरसीए वि न सुमरियं तो संवच्छरं॑ जाव धूलीए पडेंतीए असज्ञाओ होइ । दोण्ह राईणं कलहे, मेच्छाइभए, आल्यासन्ने, इत्थीणं पुरिसाणं वा जुज्झे, फरग्गुणे धूलिकीलाए य जाव एयाणि बद्ति, ताव असज्ञाओ । दंडिए पंचत्त गए जाव अज्नों न हवइ ताव असज्ञाओ | ठविए वि ४ जाव न समंजसं ति । नयरपहाणपुरिसे अहोरत्तमसज्ञाओ । आल्याओ सत्तघरमज्झे पसिद्धि पंचत्त गए अहोरत्तमसज्ञाओ । अणाहपुरिसे पृण जत्तियावेला मड॒य चिट्दह । एवं तिरिए वि नीणिए सुज्ञह । तिरियाणं रुहिरे पडिए, अंडए फुट्टिण, गोणीए य पसूयाए, जराउपडणे, पहरतियं असज्ञ्ञाओ हवह। माणुसरुहिरे पडिए, उद्धरिण वि अहोरत्त । जइ महईए वुद्दीए धोय॑ तो तबेलाए वि सुज्ञद । अह रयणीए घडियामेत्ताण वि चिट्वंतीण पडिये उद्धरियं च तो अहोरत्तछेओ त्ति सूरूग्गमे सुज्ञद । माणुसहडे बारस ४ संवच्छराणि असज्ञाजो । अह दंता वा दाढा वा पडिया, पयत्तेण पलोइया बि न लद्धा, तो ओहडावणिज्ज- काउस्सग्गों कीर३। नवकारो चिंतिज़इ भणिज्जइ य। जइ मूसगं बिराली गहिऊण जीवंत नेह तो न असज्ञाओ; अह विणासिऊण नेइ तो अहोरत्तमसज्ञाओ | तिरियाणमव॒यवा रुहिरं च सह्दिहत्थमज्झे असज्ञाय कुणंति | माणुस्साणं पुण हत्थसयमज्झे, जह न अंतरे सगडस्स उभयदिसिगामिणी वत्तणी । हत्थसयमज्झे इत्थीण पसूयाए जइ कप्पद्रगो' तो सत्तदिणाणि असज्ञाओ, अह कप्पट्टिया तो अद्गदिणाणि । रत्तुक॒डा इत्थिय # त्ति- इत्यीए मासे मासे रिउरुहिरं पड३, जइ जाणिजइ तो तिन्नि दिणाणि असज्ञाओ कीरइ । अह पवाहि- यारोगाओ उबरिं पि पवहह, ता असज्ञायओहडावणत्थं काउसग्गो कीरइ। अद्वाइनक्खत्तदसगे आइश्चेण संगए विज्ञु-गज्जियं पि सज्ञायं न उवहणइ | तारगादंसणमव्रि जाव साइनक्खत्ते आइच्चगमर्ण होइ | सेसकाले उण अवस्सं तारगतिगदंसणे सुज्ञद । अह के्सि पि साहू्ण तहाविहं नक्‍्खत्तपरिण्णाणं न हवइ, तओ आसाढ- चउम्मासाओ कत्तियचउम्मासं जाव विज्ु-गज्जिएसु वि न असज्ञाओ होइ । उक्का सयावि उबहणइ । तहां ४ घडहडे भूमिकंपे य संजाए अट्नपहरा असज्ञाओ होइ । जत्तियावेलाए संजाओ बीयदिणे तत्तियाए वेलाए परओ सुज्ञर । ससद्दो धडहडो, सदरहिओ भूमिकंपो | पलीवणे य संजाए जाव ते वह ताव असज्ञाओ | संपर्य चंदसूरगहणअसज्ञाओ भण्णइ - चंदे गहिए उक्कोसेण बारस पहरा असज्ञाओ । कह ! - उप्पायगहणे चंदो. उम्गमंतो चेव गहिओ, गहिओ चेव सबराई पज्जंते अत्थमिओं | एए रयणीए चत्तारि पहरा, अन्न च्‌ अहोरत्त, एवं दुवाल्स पहरा असज्ञाओ। अहवा अन्नहा दुवाहस पहरा । को वि » साहू अयाणओ न जाणइ कित्तियाए बेलाए गहण, इत्तियं पुण जाणह जहा अजय पुण्णिमाराईए गहणं भवि- स्सह । जब्मच्छज्तत्तेणत य गहणद्सगाभावाओ चत्तारि वि पहरा परिहरिया | पभायसमये अब्भविगमे सगहो अत्थमंतो दिल्लो तओ एए रयणितणया चत्तारि पहरा अन्न च अहोरत्त। एवं दुबालल्‍स। जहलन्नेण पुण अट्ढ | पुण्णिमारयणीपज्ते चंदो गहिओ, तह॒ट्ठिओ चेव अत्यमिओ; तओ अहोरत्त परिहरिज्ञइ । एवं अट्ट । एयाणं मज्झे मज्शिमो । सग्गहनिबुद्धे एबं । जइ पुण राईए गहिओ, राईए चेव घड़ियाए सेसाए बिमुक्को तो तीए * १ “पुत्रः” इति 3. टिप्पणी । २ “पुत्री” इृति .8. टिप्पणी । विभि० ६ ४५ विधिप्रपा । जेब राईए सेसं परिहरिज्जह । सूरे उग्गए सज्याओ हवइ । आइचश्वगहणे पुण उक्ोसेण सोलसपहरा अस« ज्ञाओ | कहं ! - उप्पायगहणे उम्गमंतो चेव गहिओ, सब दि॑ ठाऊण गहिओ चेव अत्थमिओं । तओ एए चत्तारि दिणपहरा, चत्तारि राईपहरा, अन्न च अहोरत्तं- एवं सोलस | अहवा अब्भच्छन्ने साहू न याणह क्रेबवइवेलाए गहर्ण भविस्सहई; तहाविहपरिण्णाणाभावाओ । तओ त॑ दिवसं सूरुग्ग्माओ आरब्भ परिहरिय । ४ अत्थमणसमए गहिओ अत्थमंतों दिटद्ले, तओ सा राई य परिहरिया; अन्न च अहोरत्त - एवं सोल्स । जहस्षेणं पुण बारस | कहं ः- अत्थमंतो आइश्चो गहिओ, तह चेव अत्थमिओ, तओ आगामिराइतणयाँ चत्तारि पहरा असल च अहोरत्त - एवं बारस । सोलस-बारसण्हमंतराले मज्झिमो असज्ञाओ । सम्गहनिबुड्े एवं । जद पुण दिणमज्ञझे गहिओ मुक्को य, तो गहणाओ आरब्भ अहोरत्तं परिहरिज्जह । जदाह- उकोसेण दुवालस चंदो जहजेण पोरिसी अट्द । प् सरो जहम्नबारस पोरसि उक्कोस दो अट्ठ ॥ १ ॥ सग्गहनिवुद्यु एवं सूराई जेण हॉत उहोरत्ता । आइन्न दिणछुको सो थिय दिवसो य राई य ॥ २॥ संपयं बुद्ठीअसज्ञाओ - बारससरु वि मासेसु बुछ्युयवरिसे अहोरत्ता उद्भुपि जह वरिसइ तो अस- ज्ञाओ, जाव वरिस३ । बुब्बुयवज्जवरिसे दोण्हमहोरत्ताणमुवरि जाव पड॒इ, ताव असज्ञाओ । फुसिय- # बरिसे सत्तण्हमहोरत्ताणमुवरि संतर्या पड़ते जाव पड़॒ड, ताव असज्ञाओ, न परओ | अणुदिए सूरे, मज्झल्ले अत्थमणे अड्डरते य त्ति चउसु संझासु असज्ञाओ । सुकपक्खस्स पडिवय बीय॑ वा आरब्म दिणतिगं जूवओ तत्थ वाधाइयकालो न घिप्पद । एवं पक्खियदिणे वि । ॥ अणज्ञायविही समत्तो ॥ २१॥ $ ३७. अह कालग्गहणविही - तत्थ सामल्नेण कालो दुविहो- वाघाइओ अब्राघाइओ य। तत्थ जो » बाघाइओ सो घंघसालाए घेप्पदइ, जो उण अब्वाधाइओ सो मज्ये बाहिरे वा। जह मज्झे घिप्पद तो नियमा सोहगो ठावेयब्यो । अह बाहिरे, तो ठाविज्जह वा नवा । दंडघरो चेव सोहइ | विसेसो, जहां- चत्तारि काला | त॑ जहा-पाओसिओ वाधाइओ वा १. अद्'ुरत्तिओं २. वेरतिओं ३. पाभाइओ ४ । तत्थ पाओसिओ पओसवेलाए घेप्पट् | तीए य वेलाए छीयकलयलाइ अणेगे वाधाया होंति । आओ घंघसालाए घेप्पह । आओ चेव पाओसिओ वाघाइओ भण्णइ १ । अद्'ुरत्तिओ अद्भुरत्तुवरिं घेप्पह २। वेरत्तिय-पाभा- ४ इया चउत्थपहरे धिप्पंति। पाओसिय-अद्भुरत्तिणसु नियमा उत्तरदिसाए कारूग्गहणं पुष्॑ कायब । वेरत्तिए भयणा उत्तरा वा पुष्ता वा। पाभाइए पुद्रा चेव । काल गेण्हमाणस्स वाणारियस्स दंडधरस्स वा वश्चतस्स कालउस्सग्गे वा वंदणाणंतरं संदिसावण - पवेयणसमए वा जद छीय-खलिय-जोइ-निरधाय-विज्जुक्-- गज्जियाईंणि भवंति तओ चडउरो वि हम्मंति । पाओसिय-अद्डुरत्तिय-वेरत्तिया जइ उवहया तो उवहया चेव । पाओसिओ एगं वारं घिप्पइ न सुद्धो तो उवहम्मह । अद्युरत्तिओ दो तिन्लि वारा, वेरत्तिओं चत्तारि » पंच वा, पाभाइओ नव वारेत्ति। आओ चेव पाभाइए असुद्धे योगवाहीणं जाव काला न पुज्जति ताव दिण गलूइ त्ति। एवं पि पवाओ सुबह त्ति-पाभाइओ उण पुणो पुणो नियत्तिय घेप्पह नववेला जाव । इमिणा बविहिणा जद संदिसावणापुष्षिं भज्जय तो मूलाओ घेप्पड; अह संदिसावणाणंतर॑ वच्चतस्स कालमंडलस्स पढिलेहणाए पुष्व॑ वा भज्जह, तो एवमेव नियत्तिकण काल्गेण्हगो ठवणायरियसमीवे खमासमणपुष्ध संदिसा- विउण विहिणा कालमंडले आगच्छई । अह कालपडिलेहणाणंतरं कालकाउस्सग्गो, कालकाउस्सरगाणंतर # कालमंडले टियस्स, तो तत्येव ठिओ ठवणायरियसंमुहँ ठाऊग खमासमणपुष्ध॑संदिसाविऊण पुणो मूझाजो ! 2 स्ब्ब'। 2 2 'राईए तणया। सनन्‍्ततं। सज्ञायपट्टवणविधि । छ१ काउस्समां करेह। अह कालकाउस्सम्गाणंतरं गच्छंतस्स पवेयणसमए वा भज्जह तो मूलओ गच्छेह । एगम्मि कालमंडले जह तिज्नि वेला मज्जह तो तम्मि गहणण न कप्पइ । अओ दुद्ए कालमंडले इमाए विद्वीए मूछाओ घेप्पइ । तम्मि वि तिलि वेला; एवं तहएण बि। अहवा अज्नम्मि कालमंडले जह गेण्हिड व जाइ तो एगंमि चेव नववेला घेप्पह | तदुवरि न कप्पद । $ ३८, अहुणा विसेसेण कालग्गहणविहदी भण्णइ - तत्थ पाभाइयस्स ताव जहा पच्छिमदिसि ठवणायरियं ठवित्ता, दंंडगं च तस्स समीवे धरिय कारूग्गाही वामपासट्ठियद्‌डधरसमेओ कालमंडले ठाउं नमोकारं भणद। तओ दोबि आवस्सियं काऊण, असज्ज ३. निसीही ३. नमो खमासमणाणं ति भणंता ठवणायरियमंडले गंतृण खमासमर्ण दाउं भणंति - 'इच्छाकारेण संदिसह पाभाइउ काछु पडियरहं; इच्छ मत्थएण बंदामि! आवस्सी असज्ज ३. निसीही ३. नमो खमासमणाणं ति भणिय कालूमंडलसगासे दोवि ठंति | तओ दंडघरो दिसालोय॑ करिय, आवस्तियाह पुश्बोत्त भणंतो ठवणायरियमंडलमागम्म, इरियं पडिक्षमिय, अह्दुस्सासं काउस्सग्गे करित्ता, नमोकारं भणइ । तओ मुहपोत्ति पडिलेहिय, दुवालसावत्तवंदर्ण दाऊण, खमासमणपुष्र च्छाकारेण पाभाइयकालवेला वइह. साहुणो उबउत्ता होह त्ति' भणिय, दंड गिण्हिय, आवस्सियाईं कुणंतों कारूग्गाहि- समीवमागम्म पच्छिमामुहो चिट्ठर । तओ कालूग्गाही आवस्सिई असज्ज ३. निसीही ३. नमो खमासमणाणं ति भणंतो ठवणायरियमंडले गंतृण, इरियं पडिकमिय, अहद्ठुसासुस्सग्गं करिय, पारिय, पंचमंग्ं भणिय, मुहपोत्ति पडिलेहिय, दुवालसावत्तवंदणं दाऊण, खमासमणदुगेण भणइ- “पाभाइउ काछ संदिसावहं, पाभाइउ काड लेह !! जउ सुद्धु, तठ मोणेणं आवस्सी असज्ज ३. निसीही ३. नमो खमासमणाणं ति भणंतो काल- मंडले जाइ । तदागमणे दंडघरो हत्थसंठियं दंड तस्संमुहं ठवेह । तओ काढछूग्गही तयग्गे उद्ध्टिओ इरियं पडिक्रमिय, अह्वुस्सासमुस्सग्गं करिय पारिय, नमोकारं भणिय, संडासगे पडिलेहिय, उवविसिय, पुत्ति- तिगपडिलेहणेण अक्खलियाइविहिणा रयहरणेण वारतिगं काल्मंडरू पडिलेहेइ । इत्थ कालमंडलकरणे उब- ओगहत्थपरावत्ताइविही गुरुमहाओ सिक्खियब्बो । न लिहिउं पारिजइ । तओ दंड नमोक्कारपुष्व देडघर- करे समप्पेह । अणंतरं पाए हस्थेसु लाएयंतो निसीही नमोखमासमणाणं ति भणंतो, कालमंडले पव्रिसिय, चोलपई वेइयाअंतो पडिलेहिय, उद्धो होऊण भणइ - “उवउत्ता होह । पाभाइयकाललियावणियं करेमि- काउस्समां, अन्नत्थूससिएणमिश्चाइ” जावअद्ठुस्सासं काउस्समां उद्धट्विय दंडघरधरिय दंडअग्गे करिय पारित्ता सणियं बाहाओ समाहद्दु रयहरणसणाहं मुहपोत्तियं मुह्दे दांउं, जोडियकरसंपुडो चउवीसत्थयं भणिय दुमपुप्फिय - सामन्नपुश्रियअज्ञ्यणे तइ्यअज्झयणसिलोग च चिंतेह । णवरं अज्ञयणसमत्तिआलावगे न उच्चारेइ । उचचारणे कालवहो । एवं पुब्ाए चिंतिय, दाहिणाए पच्छिमाए उत्तराए य सिलोग १७ चिंतेइ । दंडघरो वि जत्थ जत्थ सो पडिदिसं पाए ठाविस्सह, तत्थ तत्थ रयहरणेण अग्गं पड़िलेह्देद । पुणों पुष- दिसाए बाहाओ अवलंबिय, नमुक्कार॑ चिंतिय, पारित्ता नमोक्वारं कद्डित्ता, 'मत्थएण वंदामि आवस्सिईं असज्ज ३. निसीहदी ३. नमो खमासमणाणं” ति भणंतो, ठवणायरियमंडलूसमीवे पवरिसिय, खमासमणपुष्े इरिये पड़ि- कमह । काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंतिय पारित्ता भणित्ता य, खमासमणमुहपोत्तिपुष्च बंदणं दाऊण-:इच्छाकारेण संदिसह पाभाइठ काल पवेयहं । इच्छाकारि तपसियहु पामाइउ काल सूझह” । संबे भणंति सूझति त्ति। तओ दोवि जाणुट्टिया दुमपुष्फियज्ञयणेण सज्ञायं करेंति । तओ काहग्गाही दुवालसावत्तवंदर्ण दाउं भणह 'इच्छकारि तपसियहु दिद्व सुयं ?” । सबे भणंति न किंचि । एवं वाधाइय-अह्डरत्तिय-वेरत्तिया वि तथय- णामिरलावेण घिप्पंति। नवर॑ पाभाइयकालो पाए वसहिपवेयणाणंतरं पवेइज्जह । सेसा गहणाणंतर॑ चेव पवेइजति । तहा पाभाइयकाछो अवरण्दे पडिलेहणाए कयाए सज्ञायं पद्वविय, काल्‍ूमंडलाईं दुक्खुत्तो कक ] ही] डे काठ, पलक्खाण बंदण्ण दाऊण, सज्ञञायपढिक्षमणाणंतरं च पढिक्षमिजइ ! अब्भसंघडाइस उदुबद्े गलि- . छ्छ विधिभपा । माइभया कयाइ उद्देसाइकिरियाए अणंतरं सज्ञायं पदट्टाविय, कालमंडलाईं दुक्खुत्तो काऊण, सज्ञायं पडि- कमिय, पठणपहरमज्झे वि पडिक्कमिज्जइ । सेसा पुण उद्देसाइ किरियाणंतरं चेव पडिक्मिज्जंति | जाव कालो न पडिकंतो ताव गज्जिमाईहिं उबधाओ । उद्देसाइसु कएसु खमासमणदुगेण 'सज्ञाउ पडिक्षमहं, सज्ञाय- पडिक्कमणत्थु काउसग्यु करेहं” इति भणिय, मोणेण अन्नत्थूससिएणमिश्चाइ पढित्ता, अद्वृस्सासं काउस्समां £ क्रिय, पारित्ता, नमोक्वारं भणंति । एवं कालो वि पाभाशयाइअभिलावेण पडिक्कमियवो | एय पसंगओ भणियं | 6 ३९, एवं सुद्धे पाभाइए काले पडिक्कमणं काउं, पडिलेहणं अंगपडिलेह्ण च काउं, वसहिं पमज्िय, सोहित्ता य हड्डाई परिट्वविय, वायणायरियअग्गओ इरियं पडिक्कमिय, पृत्ति पडिलेहित्ता, वसहिं पवेयंति | 'इच्छकारि तपसियहु वसति सूझदह” । जो वसहिं सोहिड सह गओ सो भणइ सुज्ञद त्ति। तओ काढुग्गाही एवं चेव॑ कार्ूं पवेणइ । नवरं इत्थ दंडधरो सूझइ त्ति भणइ | तओ वायणायरिओ वामपासट्टिओ सीसो य ठवणायरि- ४ आगगओ सज्ञायं पट्टवेति । जहा मुद्दपोत्ति पडिलेहिय बारसावत्तवंदर्ण दांडं, खमांसमणदुगेण भणंति-- “इच्छाकारेण संदिसह सज्ञाउ संदिसावहं, सज्ञाउ पाठविसहं” | जउ सुद्धू तउ मोणेण - 'सज्ञाय पह्वणत्थं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थूससिएण'मिश्चाइ भणिय, अद्वस्सासं काउस्सग्गं वेहयामज्झे काउं पारिय, चउवीसत्थय सत्तरससिलोगे य पढित्ता, पुणो ओलंबियबाहू नवकारं चितिय, भणिय, उवविसिय, वेइया- मज्ञे दाहिणपासट्टियरयहरणे वंदणय दाउं, खमासमणेण भण्ंति - 'इच्छाकारेण संदिसह सज्ञाउ पवेयहं” । ४ पुणो खमासमर्ण “इच्छाकारि तपसियहु सज्ञाउ सूझइ ” | सब्बे भणंति सूझइ | तओ खमासमणदुगेण सज्ञायं संदिसाविंति, कुणंति य धम्मोमंगलाइ'सिलोग ५। पुणो वायणारिओ निसिज्ञाण सीसो पाउंछणे वासासु कट्ठासणे रयहरणं ठाविय, वंदर्ण दाउं भरणति - “इच्छाकारि तपसियहु दिट्वं सुयं ”' । संबे भणंति न किंचि । इत्थवि छीय-खलियाईयं कालगमणेण नेयबं । ॥ सज्ञायपट्टवणविही ॥ २२॥ »+ ६ ४०. एवं सुद्धे सज्ञाए जोगवाहिणो वंदर्ण दाउं भर्णति - “इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं जोगे उक्खिवेह ।! गुरू भणइ 'उक्खेवामो' । पुणों वंदिय भर्णति - 'तुब्भे अम्ह॑ जोगोक्खेवावणिय काउस्सग्गं करावेह' | गुरू भणइ “करावेमो' । तओ जोगोक्खेबावणियं पणवीसुस्सासं अट्ठोस्सासं वा, मयंतरे सत्तावीसुस्सासं वा, काउस्समां करेंति । पारित्ता चडवीसत्थय भणंति | तओ सावयकयपूयाचेइयहरे वसहीए वा समोसरणे सुयकक्‍्खंधस्स अंगस्स वा उद्देसनिमित्त अणुन्नानिमित्त वा वासे सिरसि खिवारवेति | पुणो वंदिय भणंति- # “तुब्मे अम्ह॑ अमुगसुयक्खंधाइ - उद्देसाइनिमित्त चेइयाईं वंदावेह' । गुरू भणइ “बंदावेमो' । तओ ते वाम- पासे काऊण वु्रुतियाहिं थुईहिं गुरू चेइए वंदइ पुश्बविहीए, जाव थुत्तपणिहाणपज्जंत । तओ पुक्ति पडिलेहिय बारसावत्तवंदर्ण दाऊं नंदिकद्भावणियं अह्ुस्सासं काउस्सग्गं करेंति | पारित्ता नमोक्कारं पढंति । अन्नेसि पुण सत्तावीसुस्सासं काउस्सग्गं काउं चउवीसत्थयं मणंति । तओ तेहिं खमासमणपुष्न इच्छाकारेण ठुब्मे अम्हं नंदि सुणावेह'त्ति वुत्ते गुरू नमोकारतिगपुष्ष उद्देसत्थ अणुन्नत्थं वा नंदि कडुइ । भर जहा - नाणं पंचविहं पण्णत्त | त॑ जहा -- आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जव- नाणं, केवलनाणं । तत्थ चत्तारि नाणाईं ठप्पाईं ठवणिजाइं, नो उद्दिसिज्जंति, नो समुद्दिसिजति, नो अणुन्न- विज्ंति । सुयनाणस्स उद्देंसो समुद्ेसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तर । जद सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ, कि अंगपविट्ठस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ? अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ? । अंगपविट्ठस्स वि उद्देसो समुद्ेसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ, # अंगबाहिरस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवतड । जह अंग्रबाहिसस्स उद्देसो समुद्देसो अषुण्णा जोगनिक्खेबणविधि । श्ष अणुओगो पवत्तइ, किं आवस्समास्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ?; आवस्सगवदइरित्तस्स उद्देसो समुंद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ! । आवस्सगस्स वि उद्देसो समुदेसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ; आवस्सगवइरित्तस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पबततइ । जद आवस्सगस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ; कि सामाइयस्स, चउवीसत्थयस्स, वंदणस्स, पडिकमणस्स, काउस्सगस्स, पश्चक्खा - णस्स संबेसि पि एएसिं उद्देसो समुद्ेसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तह ?! । जइ आवस्सगवहरित्तस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ, कि कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्त३ ?; उक्कालियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ ? । कालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ; उक्कालि- _ अस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ । जद उक्कालियस्स उद्देसो सुमुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ, किं दसवेयालियस्स, कप्पियाकष्पियस्स, चुललकप्पसुयस्स, महाकप्पसुयस्स, पमायप्पमायस्स, ओवाह- न कम कब यस्स, रायपसेणईयस्स, जीवामिगमस्स, पण्णवणाए, महापण्णवणाए, नंदीए, अणुओगदाराणं देविंदत्थ- चल यस्स, तंदुलवेयालियम्स, चंदाविज्ञ्यस्स, पोरिसीमंडलूस्स, मंडलिपवेसस्स, गणिविज्ञाए, विज्ञाचरण- -3०४०४२४८ ००५ पल पल नर विणिच्छियस्स, झाणविभत्तीए, मरणविभत्तीए, आयविसोहीए, मरणविसोहीए, । संलेहणासुयस्स, वीयराय- 3८बढए 2४-६३ ५७+७३५४३ ४5०४-5१ ३3०चम उत्तरज्ञयणाणं, दसाणं, कप्पस्स, ववहारस्स, इसिभासियाणं,. निसीहस्स, जंबुद्दीवपन्नत्तीए, चंदपन्नत्तीए, सूरपन्नत्तीए, दीवसागरपन्नत्तीए, खुड्डियाविमाणपविभत्तीए, मह्ियाविमाणपविभत्तीए, अंगचूलियाए, वर्गचूलियाए, विवाहचूलियाए, अरुणोववायस्स, गुरुलोववायस्स, धरणोववायस्स, वेलूंपरोववायस्स, वेसमणोववायस्स, देविंदोववायस्स, उद्माणसुयस्स, समुट्ठाणसुयस्स, नागपरियावलियाणं, निरयावलि- याणं, कप्पियाणं, कप्पवर्डिसियाणं, पुष्फियाणं, पृष्फचूलियाणं, वण्हीदसाणं, आसीबिसभावणाणं, दिद्ि विसभावणाणं, चारणभावणाणं, महासुमिणगर्भावणाणं, तेयग्गनिसग्गाणं, सब्ेसि पि एएसि उद्देसो समु- #घढ जज ल जलन दसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तद | जइ अंगपबिट्ठस्स उद्देसो समुद्ेसो अणुण्णः अणुओगो पवत्तइ, आयारस्स, सूयगडस्स, ठाणस्स, समवायस्स, विवाहपण्णत्तीए, नायाधम्मकहाणं, उवासगदसाणं, अंत- गडदसाणं, अणुत्तरोबवाइदसाणं, पण्हावागरणाणं, विवागसुयस्स दिद्धिवायस्स। संबेसि पि एएसि उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ | इम॑ पुण पट्ठबर्ण पडुच -- इमस्स साहुस्स इमाइ साहुणीए वा अमुगस्स अंगस्स, सुयक्‍्खघस्स वा उद्देसनंदी अणुण्णानंदी वा पयद्इ । तओ गंधामिमंत्णं तित्थयरपाएसु गंधक्खेबो अहासनिहियाणं वासदाणं । तओ बारसावत्तवंदणयपुत्च॑ खमासमाण दा भणंति-इच्छाकारेण तुब्मे अम्ह अंगे -सुयक्‍्खंध वा उदसिह! | गुरू भणइ -“उद्दिसामो' | १ । पुणो वंदित्ता भणह-संदिसह कि भणामो' | गुरू भणह -वंदित्ता पवेयह”' । २ । इच्छ॑ भणित्ता; पुणों वंदित्ता भणइ-इच्छाकारेण तुब्भेहिं अम्हं सुयक्‍्खंधाइ उद्दिट्ट ” | गुरू आह “उदिह्ठं/ | ३. खमासमणाणं । हत्येणं, सुत्तेण, अत्थेणं, तदुभयेणं । सम्म॑ जोगो कायबो!। सीसो भणइ-इच्छामो अणुसह्ठि' । ३ । पुणो वंदितति भणइ-तुम्हाणं पवेहयं, संदिसह साहू पवेएमि' | गुरू आह-“पवेयह” | ४ । इच्छे ति भणिऊण वंदित्ता नमो- कार कड्ितो पयाहिणं देह | ५ । पुणो वि, एवं दुल्लिबारे |-तओ वंदित्ता-तुम्हाणं पवेहय, साहण छ्न जल क तञञ्_न +तत+ ] 2. संदेहणा" । ४9६ विधिप्रपा । पवेहयं, संदिसह काउस्सग्ग करावेह' | गुरू आह-“करावेमो' | ६। इच्छे भणिता, वंदित्ता, सुयक्खंधाइउद्सिवणियं करेमि काउस्सग्गं. ..जाव. . -वोसिरामि” । सत्तावीसुस्सासं काउस्सग्ग काऊण पारित्ता, पुणो चउवीसत्थयं भणइ । एवं सब्त्थ सत्त छोभा वंदणा भवंति । तओ उद्देस - अणुण्णानंदि- थिरीकरणत्थं अद्ुस्सासं काउस्सर्ग करिय नवकारं भणति । सुयक्खंधस्स अंगस्स य उद्देसाणुल्नासु नंदी । ४ एवं उद्देसे सम्म॑ जोगो कायबों । समुद्देसे थिरपरिचियं कायबं । अणुण्णाए सम्म॑ धारणीयं, चिर॑ पाल- णीयं, अलेसिं पि पवेणीय । साहुणीण तु अन्नेर्सि पि पवेयणीयं ति न वत्तष्न । उद्देसाणंतरं खमासमणदुगेण वायणं संदिसाविय तहेव बइसण्ण संदिसाविज्जइ । अणुण्णानंतरं बंदणयपुष्ष पवेयणे पवेहए | पढमदिणे असहस्स आयंबिरू निरुद्ध ति वुच्चइ, सहस्स अब्भत्त्ं | बीयदिणे पारणयं निद्चीयं । तओ दोहिं दोहिं खमासमणेहिं बहुवेल सज्ञायं बइसणं च संदिसाविय, खमासमणदुगेण 'सज्ञाउ पाठविसहं, सज्ञाय- ॥ पाठवणत्थु काउस्सग्गु करिसहं । तहेव कालमंडला संदिसाविसहं, कालमंडरा करिसहं” । तओ खमा- समणतिगेण “संघट्टउ संदिसाविसहं संघट्टऊ पडिगाहिसहं, संधट्ठपडिगाहणत्थु काउस्सम्गु करिसहं” । केसु वि आउत्तवाणयं च एमेव संदिसावेति । तओ खमासमणदुगेण 'सज्ञाउ पडिक्मिसहं, सज्ञायपडि- कमणपत्थु काउस्सग्गयु करिसहं । तहेव पाभाइकाहु पडिक्रमिसहं, पाभाइयकारूपड़िक्रमणत्थु काउस्सस्गु करिसहं” । ततो तबवंदणय दिंति । गुरुणा सुहतवो पुच्छियब्बो | तओ मुहपोत्ति पडिलेहिय, खमासमण- ४ तिगेण 'संघट्टउ संदिसावउं, संघट्टउऊ पडिगाहडं, संघट्ठापडिगाहणत्थु काउस्सर्गु करउं | संघट्टापडिगाह- णत्थे करेमि काउस्सरं अन्नत्थूससिएण'मिश्चाइ | नमोक्वारचितर्ण भणणं च। एवं आउत्तवाणय पि घेप्पह । पुणो खमासम्ण दाउं त्रांबा त्रउया सीसा कांसा सूना रूपा हाड चाम रुहिर लोह नह दंत वाल 'सूकीसान लादि' इच्चाइ ओहडावणियं करेमि काउस्सग्गं! | नवकारचितर्ण भण्ण च । 8६ ४१. जोगसमत्तीए जया उत्तरंति तया सिरसि गंधक्खेवपुश्ष॑वायणायरिओ योगनिक्खेवावणियं देवे » वंदाविय, पुत्ति पडिलेहाबिय, वंदर्ण दाविय, पत्चक्खाणं कारिय, विगहलियावणियं अध्दुस्सासं काउस्सग्गं कारेइ । अल्ने भणंति दुवालसावत्तवंदर्ण दाउड, खमासमणेण (इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं जोगे निक्खिवह; बीए जोगनिक्खेवावणियं काउस्सग्ग करावेह'त्ति भणित्ता,-जोगनिक्खेवावणियं करेमि काउस्सम्ग । नव- कारचित्ण भणणं च | तओ 'जोगनिक्खेवाबणियं चेहयाई वंदावेह'त्ति खमासमणेण भणित्ता, सक्षत्थयं कहिंति । पुणो बंदर्ण दाउ, भणति -'पवेयणं पवेयहं । पडिपुण्णा विगइ, पारणउं करहं”? । गुरू » भणइ -'करेह'त्ति | तओ विगईपच्चक्खाणं काउं, वंदिय गुरुणो पाए संवाहिय, जोगे वहंतेहिं अविददी आसायर्ण च मण - वयण - काएहिं मिच्छादुकडेण खमाविय आहारायणियाए सब वंदंति । ॥ जोगनिक्खेवणविही ॥ २३ ॥ $ ४२. राइयपडिक्मणे जोगवाहिणों पहदिणं नवकारसहिय पश्चक्खंति । जोगारंभदिणादारब्भ हम्मासं जाव काछा न उवहम्मंति, तत्तियाणि दिणाणि जाव संघट्टा कीरंति; उवरि न सुज्ञझति । एस पगारो अणा- » गाढेसु आयाराइसु नेओ । चित्तासोयसुद्धपक्खे वि आगाढा गणिजोगा न निक्सखिप्पंति। कंप्पतिप्पकिरिया य कीरइ । सज्ञाओ पुण निक्खिप्पह । छम्मासियकप्पो य वहसाह-कत्तियबहुलपाडिवयाउद्'ु उत्तारिज३ । अल च रयणीए पढम-चरमजामेस जागरण बाल्वुद्ाईंण सामन्न | जोगिणा उण सबवेरूं अप्पणिदेण दोयबं । विसेसओ दिवा हास-कंदप्प-विगहा-कलूहरहिएण य होयब । एगागिणा सया वि हत्थसया बाहिं न गंतबं। किमुय जोगवाहिणा । अह जाइ अणाभोगेणं आयाम से पच्छित्त । ज॑ च हत्थे भरत पाणं वा 3-4 नमन न थ+-+++3- नम नली +3+ननक+ यमन नम मन कनन कम + «धन 3+ननन न न नमन न“ न ++ कनननमीनन-न- मनन ननन-म -न-न ली नननत3+3९ज+-+-+3५>+- न नानक +५+.--००००»3७७००७७५५५०.५....>. यू को हि2।. 2.3 'लव'। योगविधि । छ्ुछ ते उबहम्मह | आगाढजोगवाही सीवण-तुत्रण-पीसण-लेवणाई न करेह | उभयपोरिसीसु सुत्तत्थाईं परि- यद्वेह । वहिजमाणसुय मुत्तृण अपुब्बपढणं न फरेह | पुश्षपढियं न वीसारेइ । पत्ताइडवगरणं सया उबवत्तो नियनियकाले पडिलेहेह । अप्पसंदेण वयइ न दड्डरेण | कामकोहाइनिग्गहो कायबों | तहा कप्पह भरते वा पाणं वा अब्भितरं संघट्ट, वेहबाहिं गये न कृप्पए । उम्शुडिओं तुझथों विगहाओ वा असंखड व करेमाणो संघट्टेट उस्संघट्ट, उग्गुडिओ भूमीए मेलइ । परिसाडिं वा भत्तपाणे छुद्देट | तिनि भायणाईं उवबरिं ठवेह । उबवबिद्वस्स उब्मो भत्तपाणं अप्पेह | संघंट्टे वा पयलाइ, उस्संघटट वल्लीसंघई भत्ते पाणं च न कप्पद । भत्त पा्ण वा मज्ञपविट्ठकरंगुलिचउकगहिये तिप्पणय-तुंबगाइयं, मज्ञपविष्ठकरंगुट्दगहियं तुंब- गाहपत्तं च न उस्संघट्टट । एयविवरीयं उस्संघट्ट३ । उम्गुडिओ भूमिट्टिय संघट्टह उस्संघट्ट । 8 ४३. संपर्य गणिजोगविहाणे कप्पाकप्पविही भण्णइ-सा य जोगिपरिण्णेया जोगि - सावयपरिण्णेया य । तत्थ जोगिपरिण्णेया जहा - पिंडवायहिंडयसंघाडयछित्ते परोप्परं न उवहम्मइ । सीवण-तुन्नणाइयं वाणायरियाणुन्नाए करेह | जोगवाहिणों सण्णा असज्ञाइयं च रुहिराइ न उवहणइ । ओली सण्णाँ मणुय-साण-मज्जाराईणं, आमिसासी्णं पक्‍खीणं च। अतिणभक्खिणो “तन्नयस्स य गय-हय-खराण य छिक्कासमाणी उवहणइ, न सुक्का । उलं चम्म॑ हुँ च। गोसाले अणुण्णाए वाल्सुकचम्मट्ठिसुकसत्नाओ वि न उबहणंति । तेसि अणुवधायद्वा पवेयणासमए काउस्सम्गो कीरइ । अट्ंगुरूहियप्पमाणो दिद्ठो भोयणाइसू वालो उवहणइ । तहा गिहत्थीए बारए थर्ण पियंते सुके जइ थणे दुद्धं न दीसह, तो कृप्पिय होइ । एवं गोपमुहेसु वि। सन्निहि-आहाकम्म-मणुय-तिरियपंचिदियसंघट्टे उवहम्मह | लेवाडय- परिवासे पत्ते पत्ताबंधे वा भत्ते पाणं च उवहम्मइ । आहाकम्मिओवहए पत्तगाईं चउकप्पाई अन्नत्थ तिकप्पाईं । जद कप्पिएणं भाणं हत्थाइकप्पिया तो उल्लेणावि हत्थमत्तएर्ण घिप्पह । अह पुण मूलमंड- लियाणं पाणएणं ताहे सुक्ेसु काउस्सग्गे कए घिप्पष । वायणारियाणुण्णाए पढण-सुणण-वक्‍्खाण-घधम्म- कहाओ कीरंति न समईए । परियट्टणं अणुप्पेशा य जहाजोगं कीरहइ । पढमपोरिसिमज्ञे पवेयणे पवेहए संधट्टाइए य संदिसाविए कप्पद असणाइपडिगाहित्तए; न उण उवबरिं। कप्पद निश्विगहयघय- तिछ्ेह्टिं कारणे पायगायाइ अब्भंगित्तएए वायणायरियसंसंद्रेण य ॥ श्याणि जोगिसावयपरिण्णेया जह -आ छट्ठजोगाओ दससु विगईसु, छट्ठजोगे पुण रूग्गे पक- लवज्ञासु नवसु विगईसु, छिवणदाणलिवणाइवावडहत्थो उवहम्मह | तेसि जह अवयवबं पि छिवह तो भत्त पाणं वा ज॑ हत्थे त॑ उवहम्मइ । विगइसंसट्ड ति परंपरं न उवहणहइ । मयगमभत्त न कंप्पह । तिहलघ- याइअन्भंगिया इत्थी पुरिसो वा ज॑ संघट्टेः सो उवहम्मद । तद्दिणनवणीयमोहयकज््रू छिवती तेणंजिय- नयणा वा दिंती उवहम्मइ; न सेसदिवसेसु । अन्न पि अकप्पिएणं दब्ेणं मीसियं छिक्क॑ वा बीयदिणे न उवहणइ । ण्हाया जह केसेसु असुकेसु असणाइ देह तो उबहम्मइ । तद्दिणतिल्लाइमोइयकुंकुमर्पिजरिय- सरीरा य उवहणइ । दीवओ वि ज॑ पुण थिरं कट्दकवाडाइयं अकप्पिएण दब्ेणं छिक्क ते न उबहणह । जह ते दर न छिवह थिरकट्कवाडाइ जोगवाहिणा छिक्काई न उवहर्णति । उत्तिविडिठियअकप्पवत्थु- मायणछिक्क सत्तपरंपरमवरि अणायरियं | एगे तिपरंपर॑ गिण्हंति, अश्ने दुपर॑पर पि | एवं तिरिच्छथलीठिएसु वि परोप्परसंबद्धेसु दायगेसु वि तहा कप्पह । कक्षव-इक्खुरस-गुडपाय-गुरूुबाणीय-खंड-सकरवाट-खीरि- दुद्धक॑जिय-दुद्धसाडिया-कक्करियग-मोरिंडग-गुलहाणा । दुद्धसाडिया नाम दकक्‍्खदुद्धरद्धा । मोरिंडगाणि 8 उग्गुड़भो । 2 ( भूमिहिय संघ । 8 ( उठा सण्णा। * (0 सन्यपरायिन:। 4 2. स्पृष्टासती' । 9 3 मूद्तिर। 6 33 वाणायरि?। 7 8. छियणाह; () लिंवणाइ । ८ विधिप्रपा । कक्वरियविसेसा । तहा मोहय कुछरि' चुप्पडिय मंडग मोइय सत्तुय दहिकरंबय घोल सिहरणि तिलवष्टिय पगरणसंसट्ट माइसराव एयाणि वासियाणि कप्पंति । वीसंदण भरोलूग नंदिहलि नालिएर तिललमाइ गिहत्येहिं अप्पणो कए कर कप्पहइ । वीसंदर्ण तावियधयहंडियाए वेसणाइकर्य । भरोलगाणि घयलोट्टकयमुदट्ठियाणि | अन्न पि खुट्ददडियदक्खा, दक्‍्खावाणयं, अंबिलियावाणय-नालिएरचाणय-सुंठिमिरियमाइय कप्पह । तहा £ दहिकयआसुरी, धूविय इडडरी मोकलिपमुहं तद्दिणि उवहणइ; बीयदिणे कप्पह । छट्ठजोगे रूग्गे संधूहय तकतीमर्ण भज्जियाइयं च कप्पद; न आरओ कप्पडइ | अववाएणं असहुस्स तिण्ह घाणाणोबरि जं निब्भजणं चउत्थधाणों गाहिमे, अन्नधयाइअपबखेवे पुव्िल्घयभरियतावियाए बीयधाणपक्क पि ओगाहिसं कृप्पइ । जइ एगेण चेव पूएण ताविया पूरिज्जइ । उद्देसाइ, जइ साहुणीहिं सह तो चोलपइसंजुयाणं; अह्‌ अन्नहा, तो अग्गोयरेणावि कप्पद । कप्पइ साहुणीणं उद्देसाइ पडिक्षमर्ण वा काउं सया ओडियपरिहियाणं । ॥ कृप्पइ दुगाउयद्धाणं भिक्‍्खायरियाए अडित्तए । कप्पइ्ट बत्तीस॑ कवला आहारं आहारित्तए। कप्पंति तिन्नि पाउरणा पाउरित्तए । असहुस्स चत्तारि पंच जाव समाही । कप्पइ दिया वा राओ वा आयावेउ | एवं सब्ो वि जो जं॑मि कप्पे विही उवहयाणुवहय-कप्पा-कप्पाइ जहा दिद्ों गीयत्थेहिं, सो तहेव संकारहिएहिं वायणायरियाणुन्नाए कायबो; न समईए । अन्नहाकरणे बहुदोसप्पसंगाओ । तथाहि - उम्मायं व लभिज्ञा रोगायंक॑ व पाउणह दीहं । छ केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ वा वि मंसिज्ञा ॥ १ ॥ इह लोए फलसेय परछोए फल न दिति विज्ञाओ। आसायणा सुयस्स य कुधह दीहं च संसार ॥ २॥ ज॑ जह जिणेहिं भणियं केवलनाणेण तत्तओ नाउं। तस्सन्नहाविहाणे अणाभंगो महापावों ॥ ३॥ १0 एसो य उवहयाणुबहयविही भत्तपाणनिमित्त आउत्तवाणयकाउस्सग्गे कए दह्बो, न सामज्नेण । विगइवावडहत्थाइदंसणेण, तहा अंजियनयणाए पुछिए घोयद्हिए वि जेहिं सा दिद्ल तेसि तीए हत्थेण न कप्पइ । जेसि पुण न दिद्ठा ते धूयद्ठहिए गेण्हंति, जइ दिद्गपुद्जोगीहिं न साहिये । अओ चेब परोप्परं अमुगा उचहय त्ति न साहियबं । एवं भत्त पा च इमाएु विहीए अडित्ता, इरियं पड़िकमिय, गमणागमण- मालोइत्ता, भत्तपाणं च जहागहियविहिणा तओ पारावित्ता, सन्निहियसाहुणों अणुण्णवित्ता, मुहपोत्तियाए » मुह पडिलेहित्ता, उवउत्ता असुरसुरं अचवचव अदहुयमविलंबियं अपरिसाड़ि अकसरकक अकुरुडुकभुरुड़क इच्चाहविहिणा अरत्तदुद्ना जेमंति । इत्थ य पमाय-अन्नाणाइणा अन्नहाणुद्दाणे जोगवाहिणो पच्छित्त, उबररिं तवाइयारपच्छित्ते भणीहामो । एवं जोगविहाणं संखेवेणं तु तुम्हमक्खायं। ज॑ घ न इत्थ उ भणियं गीयायरणाह ते नेय॑ ॥ # 6 ४४, संपयं जो जत्थ तवोविही सो भण्णइ- के आवस्सयंमि एगो सुयक्‍्खंधो छव होंति अज्झयणा। दोण्णि दिणा सुयक्खंधे सवे वि य होंति अट्टदिणा ॥ १ ॥ सब्ंगसुयक्खंधोदिसाणुज्ञासु नंदी हवइ । पढमदिणे सुयक्खंधस्स उद्देसो पढमज्झयणस्स य उद्देस- परमुदेसाणुण्णाओो । बीयाइदिणेसु बीयाइअज्ञयणा । सत्तमदिणे सुयक्खंधस्स समुद्देसो, अट्ठमदिणे ॥ मे 0 इह्डरे। 2 2 छददशिय । 9 3. ददिकय)। 4 'पूरण। 52 भरदकं। योगविधि । ४९ तससेव अणुण्णा | सुयवखंधस्स अंगस्स य उद्देसे समुद्देसे अणुण्णाएं य भायंबिझ । अन्नदिणेसु निश्ीग । एवं सबजोगेसु नेयं, भगवह - पण्हावागरण - महानिसीहवर्ज । अन्नसामायारीसु पुण निबियंतरियाणि सायंबिरृणि चेव कीरंति। जहा निसीहे असहू बालाई निबीयदिणे पणगेणाति णिक्बाहिज्जति एवं दसकालिए वि । उच्च अज्ञयणा पुण-सामाइय १, चउवीसत्थओ २, वंदर्ण ३, पढ़िक्रम्ण ४, काउस्सम्गों ७, पश्चक्खाण ६ ति । ओहनिजञ्ञत्ती आवस्सय चेव अणुप्पविद् आओ न तीए पुदो उबहाणं । ६७७, दसयालियम्मि एगो सुयक्खंधो बारसेव अज्ञयणा। पंचम-नवमे दो-चउउदेसा दिवसपश्चरस ॥१॥ ऐगेगमज्ञझयणमेगेगदिणेण वच्चद । नवर॑ पंचम अज्ञयणमुद्देिसिय पढम-बीयउद्देसया उदिस्संति । तओ ते अज्ञयणं च समुद्िह । तओ ते अज्ञयर्ण च अणुण्णवद्व । एवं नवमं दोहिं दिणेद्टिं दो दो उद्देसा दिणे जंति त्ति काउं दो दिणा सुयक्‍्खंघे । एवं पत्तरस | ॥ बारस अज्ञयणाई इमाइ, जहा - दुमपुप्फिया १, सामन्नपुव्रिया २, खुड्दियायारकहा ३, छज्जीवणिय भम्मपन्नत्ती वा 9, पिंडेसणा ५, इत्थ पिंडनिज्त्ती ओयरइ । धम्मत्थकामज्ञयर्ण - महल्लियायारकहा वा ६ वक्षसुद्धी ७, आयारप्पणिही ८, विणयसमाही ९, सभिक्खु अज्ञयण १०, रहवका ११, चूलिया १२ । -दसवेयालियजोगविही । $ ४६. उत्तरज्ञयणाणं एगो सुयक्‍्खंघो, छत्तीसं अज्ञयणाणि, एगेगदिणेण एगेगे जाइ। नवर॑ चउत्थमज्झ- । यणमसंखय पठणपहरमज्झे जइ उद्ववेह, तओ तम्मि चेव दिवसे निब्रिएण अणुण्णवष्ट | अह न उद्वेइ, तथो तम्मि दिणे अंबिर्ल काउं, बीयदिणे अंबिलेण अणुण्णवह । एवं दोहिं दिणेहिं आयंबिलेहि य असंखय जाइ । केई भणति जह पदमपोरिसीए उद्धवेश तो निब्रिणण अणुजाणिजइ; अह न, तो आयंबिल कारि- जइ । तओ जह पच्छिमपोरिसीए उद्दावेइ, तो वि तम्मि चेव दिणे अणुजाणिजइ ! जइ पुण बीयदिणे पढमपोरिसीमज्से तो वि तम्मि दिणे निधिएण अणुजाणिजाइ । अह न, तो आयंबिलदुगेण । ते चेमे-. » असंखय जीबिय मा पर्मायए जरोवणीयस्स हु नस्थि ताण | एयं वियाणाहि जणे पमसत्ते कन्नु विहेंसा अजया गहिंसि ॥ १॥ जे पायकम्मेहिं घण्ण मणूसा समाययंती अमहं गहाय । पहाथ ते पासपयद्टिए नरे वेराणुबद्धा नरय॑ उ्वेति ॥ २॥ तेणे जहा संधिस्॒हे गहीए सकम्ठुणा किचवह पावकारी । ध एवं पया पिच्च इहं च लोए कडाण कम्माण न मोक्खु अत्थि ॥ १॥ संसारमावश्नपरस्स अद्ठा साहारणं हूं च फरेह कम्स । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले न बंधवा वंधवर्य उ्ेति ॥ ४ विशेण ता न लगे पमत्ते इममि लोए अदुबा परत्था। दीवण्पणट्टे व अणतमोहे मेयाउय वहमवद्ुमेव ॥ ५ ॥ अर झुत्तेछु आबी पडिबुद्धजीवी न वीससे पंडिय जाऊुपसे । थोरा लुहुशा अबछ सरीर मारंडपक्‍्सखीय चर5प्यसत्तो ॥ ५ | ५७ विधिप्रपा । चरे पयाईं परिसंकमाणो जं किंचि पास हह मन्नमाणों | लामंतरे जीविय बूहइत्ता पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥ ७॥ छद॑ निरोहेण उचेह मुक्खं आसे जहा सिक्खियवम्मधारी । पुवाई वासाईं चर5प्पमत्तों तम्हा छुणी खिप्पमुवेह सुक्ख ॥ ८ ॥ ह स पुध॒मेव न लभेज्ञ पच्छा एसोवमा सासयवाइयाणं । बविसीयई सिढिले आउयंमि कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥ ९॥ खिप्प न सकेह विवेगमेउं तम्हा समुद्दाय पहाय कामे। समिच लोगं समया महेसी आयाणरक्खी चरअप्पमत्तों ॥ १० ॥ मुहं मुहं मोहगुणा जयंत अणेगरूवा सम्ण चरंतं | ५ फासा फुसंती असमंजसं च न तेसु भिक्‍्खू मणसा पऊसे ॥ ११॥ मंदा य फासा बहुलो मणिज्ञा तहप्पगारेसु मण न कुज्ा । रक्खिज्ब कोहं विणइज्त मार्ण माय न सेवे पयहिज् लोह ॥ १२॥ जे संखया तुच्छपरप्पवाई ते पिज् दोसाणुगया परज्झा । एए अहम्मु त्ति दुगुंछमाणो कंखे गुणे जाव सरीरभेउ ॥ १३॥ - त्तिवेमि ॥ ॥$ समत्तेसु अज्ञगणेसु छत्तीसाण सत्तत्तीसाए वा दिणेद्टं एगायंबिलेण सुयक्खधों समुद्दिसइ । बीएएणं नंदीए अणुजाणिजइ । एवं अद्टत्तीसा एयूणचत्ता वा दिणाई हवंति | अहवा जाव चोदस ताव एगसराणि, सेसाणि २२ एगेगदिणे दो दो उद्दिसिज्जति, समुद्दिसिजति, अणुजाणिज्जति । दो दिणा सुयक्खंघे । एवं सत्तावीसं अद्गावीसं वा दिणाणि होंति। आगाढइजोगा एण । एण्सु संधूविय-मोइय-बोट्टियाइं च तद्दिवसियं न कप्पइ । तेसि नामाणि जहा - विणयसुर्य १, परीसहा २, चाएउरंगिज्जे ३, असंखरय पमायप्पमा्य » वा 9, अकाममरणिज्ज ५, खुड्डागणियंटिज्ज ६, एलइज्ज ७, काविलिजं ८, नमिपव्रज्ञा ९, दुमपत्तयं १०, बहुस्सुयपुर्ज ११, हरिएसिज १२, चित्तसंभूइज्ज १३, उसयारिज्ञ १४७, सभिक्खु अज्ञयण्णं १७५, बंभचेरसमाहिट्ठा्ण १६, पावसमणिज १७, संजइज्ज १८, मियापुत्तिज १९, महानियंठिज्ज २०, समुदृपालिज २१, रहनेमिज २२, केसिगोयमिज २३, समिईओो २०, जन्नइज २५, सामायारी २६, खुलंकिज २७, मोक्खमगगई २८, सम्मत्तपरक्रमं २९, तवममाइज्ज ३०, चरणविही ३१, » पमायटार्ण ३२, कम्मपयडी २३, लेसज्ञयणं २४७, अणगारमग्गो ३५, जीवाजीवविभत्ती ३६। छत्तीसं उत्तज्झयणाणि ।-उत्तरज्ञयणजोगबिही । जे ६४७, संपर्य पढममायारंगं नंदीए उद्देसिय अणंतरं पढमसुयक्खंधो उद्दिसिजइ । पढम अंगउद्देसका- उसग्ग काऊण तओ सुयक्खंधउद्देसकाउस्सग्गों कायवों । तओ तस्स पढममज्ञयणं, पच्छा तस्स पढम- बीयउद्देसया उद्दिसिज्जति समुद्दिसिजति अणुजाणिज्नंति य | एवं एगदिणेण एगकालेण दो उद्देसगा जंति । » एवं तइ्य-चतुत्था वि पंचम-छट्टा वि, सत्तमउद्देलओ एगकालेण उद्देसिजइ समुद्देसिजइ वा। तओ अज्ञ्ञयणं समुद्दिसिजश, तओ उद्देलओ अज्ञय्ण च अणुजाणिजइ | एवं पढमज्ञयणे दिण 9, काछू ४ । एवं जर्थ अज्ञयणे समा उद्देसया तत्थेगेगदिणेण एगेगकालेण य दो दो वच्बंति । विसमुद्देस- योगविधि । ५१ णसु चरिमो उद्देसमों अज्ञयणेण सह एगदिणेण एगकालेण य वच्चहई । एवं सबंगसुयक्खंधज्ञयणेसु दहृण । बीए उद्देसा ६, दिणा ३। तद॒ए उद्देसा 9, दिणा २। चउत्थए उद्देसा ७, दिणा २। पंचमे उद्देसा ६, दिणा ३। छट्ठे उद्देसा ५, दिणा ३। सत्तमे उद्देसा ८, दिणा 9। अद्दमे उद्देसा 9, दिणा २। नवमज्ञयणं वोच्छिन्न । त॑ च महापरिण्णा-इत्तो किर आगासगामिणी विजा वहरसामिणा उद्धरिया आपि त्ति साइसयत्तणेण वोच्छिन्न । निज्ञत्तिमित्त चिट्ठी! । सीलंकायरियमएण पुण एये अट्टमं, विमुक्खज्ञझयणं * सत्तम॑, उवहाणसुर्य नवर्म ति । एएसि नामाणि जहा - सत्थपरिण्णा १, लोगविजओ २, सीओसणिज्ल ३, समत्ते 9, आबंती, लोगसारं वा ५, धूयं ६, विमोहों ७, उवहाणसु्य ८, महापरिण्णा ९। सुयक्‍्खंधो एगकालेण एगायंबिलेण बच्चई । तम्मि चेव दिणे समुद्दिसिय नंदीए अणुजाणिजाइ । एवं बंभचेरसुयक्खंधे दिणा २०। एवं अन्नत्थ वि जत्थ दो सुयक्खंधा तत्थेगकालेण एगायंबिलेण य समुद्दिसिज्जह, नंदीए अणुजाणिजाह य । जत्थ पुण एगो सुयक्खंधो सो एगकालेण एगायंबिलेण समुद्दिसिजइ, बीयदिणे बीय- ४ कालेण आयंबिलेण य नंदीए अणुजाणिजइ । इयाणिं आयारंगबीयसुयक्खंध नंदीए उद्दिसिय पढमज्ञयणमुद्दिसिज्जइ । तम्मि उद्देसगा १ १। एगेग- दिणेण एगेगकालेण य दो दो जंति । चरिमुद्देसओ पुष्र॑व अज्ञयणेण सम दिणा ६। बीए, उद्देसा ३, दिणा २। तइए उद्देसा ३, दिणा २। चउत्ये उद्देसा २, दिण ?१। पंचमे उद्देसा २, दिण १। छट्ठे उद्देसा २, दिण १। सत्तमे उद्देसा २, दिण १। अणंतर॑ सत्तसत्तिकया नामज्ञयणा एगसरा आउत्तवाणएणं ४ पुष्चत्तमगवईबिदह्णछट्ठजोगा रूम्गविहीए एक्रेक्केण दिणेण वच्चंति | एवं चोदस-पनरसमे दिणमेगं, सोलसमे दिणमेग॑ । एएसि नामाणि जहा-पिंडेसगा १, सेजा २, इरिया ३, भासाजाय॑ ४, वत्थेसणा ५, पाएसणा ६, उग्गहपडिमा ७, एएहिं सत्तहिं अज्ञयणेहिं पढमा चूला। तओ सत्तसत्तिकएहिं बीया चूला | तत्थ पढम॑ ठाणसत्तिकय १, बीय॑ निसीहियासत्तिकर्य २, तइयं उच्चारपासवणसत्तिकर्य ३, चउत्थ सहसत्तिकर्य 9, पंचम रुउसत्तिकय ५, छट्ं परकिरियासत्तिकिय ६, सत्तम अन्नोन्नकिरियासत्तिकर्य # ७। एएसुं च उद्देसगाभावाओ इक्कशववणसों । ठाण-निसीहिय-उच्चारपासवण-स ह-रूव-परकिरिया । अन्नोन्नकिरिया वि य सत्तिक्थसत्तगं कमेण' ॥ तओ भावणज्ञ्यणं तहया चूछा | तओ विमुत्तिअज्ञयणं चउत्थी चूलछा। एवं बीयसुयक्खंघे आयारन्गे अज्ञयणा १६, उद्देसा २५। पंचमचूला निसीहज्झयर्ण सुयक्खंधसमुद्देसाणुण्णाए दिणमेगं । एवं बीय- # सुयक्खंघे दिणा २४। अंगसमुद्देसे दिण १। अंगाणुण्णाए दिण १। एवमायारंगे दिणा ५०। सब्ेदिस- गपरिमाणमिणं - सत्तय १, छ २, चउ ३, चउरो ४, छ «, पंच ६, अद्वेव ७ होंति चडरो य ८। -इति पढमसुयक्खधस्स । एक्कारस १, दोख तिग ३, चउझुं दो दो ७, नविकसरा १६॥ १॥ ४ -इति बीयसुयक्‍्खंघस्स | आयारंगविही । $ ४८. बीय॑ श्रूयगर्डंग नंदीए उद्देसिय पढमसुयक्खंधों उद्दिसिजइ, तओ पढमज्झयणं । तम्मि उद्देसा :३, दिणा ३। बीए उद्देसा ३, दिणा २। तइए उद्देसा 9, दिणा २। चउत्ये उद्देसा २, दिण !। पंचमे # इर्य बाबा बाखि () आदर, की कद विधिवत | उद्देसा २, दिण १। इभोणंतरमेगारसज्ञगणाणि एगसराणि एगेगदिणेण एगकालेण जंति । पढमसुगकखंध- ज़्हयणनामाणि जहा -समओ १, वेयालीय २, उवसग्गपरिण्णा ३, थीपरिण्णा 9, निरयब्मिती ५, वीरत्थओो ६, कुसीलपरिभासा ७, वीरियं ८, धम्मो ९, समाह्दी १०, मग्गो ११, समोसरणं १२, अहृतहूं १३, गंधो १४, जमईयं १०७, गाह्ा १६। सुयकक्‍्लंधसमुद्देसाणुण्णाए दिणमेगं । सब दिणा २०। * पढ़मसुयक्खंधो गाह्मयसोलसगो नाम गओ । बीयसुयक्खंधे नंदीए उद्सिए तत्स सत्त महज्झायणाणि, एग« सराणि; एगेगदिणिण एगेगकालेण य बच्चति । ते्सि नामाणि जहा -पुंडरीम॑ १, किरियाठाणं २, आहारपरिण्णा ३, पश्चक्लाणकिरिया 9, अणगारं ५, अहृरज्ज ६, नाढंदा ७। सुयक्खंधसमुद्ेसाणुण्णाए दिणमेग । उद्देसगमाणमिण - सूयगड़े सुयखंधा दोज्षिउ पहममिमि सोलसज्ञझयणा | ॥ चउ १, तिय २, चउ ३, दो ४, दो ५, एक्कारस ६, पढठमरुयरंधरस ॥ १॥ सत्त इक्सरा बीयसुयक्खंधस्स । अंगसमुद्देसे दिण १, अंगाणुण्णाए दिण १। संब्े दिणा ३०। - सूयगडंगविही । 8६४९, तहय॑ ठाणंग॑ नंदीए उदसिजाइ । तओो सुयक्खंधो, तओ पढमज्ञयणं, एगसरं एगदिणेण एग- कालेण बश्चर । बीए उद्देसा 9, दिणा २। तदृण उद्देसा 9, दिणा २। चउत्थे उद्देसा 9, दिणा २। पंचमे ४ उद्देसा ३े, दिणा २। सेसाणि पंचठणाणि एगसराणि पंचहिं दिणेहिं वच्चति | एयउद्देसगमाणमिणं - पठम एगसर चिय? चउ२चउ१ चडउरो४ ति«५ पंच१० एगसरा । ठाणंगे सुयखंधों एगो दस हॉति अज्झ्ययणा ॥ १॥ तेसि नामाणि जहा - एगठाणं दुढाणमिश्चाह....जाव. .दसठाणं ७। सुयकक्‍्खंधसमुद्देसाणुण्णाए दिणा २, अंगसमुद्देसाणुण्णाए दिणा २, सबे दिणा १८ ।-ठाणंगविही। # 8००, चउत्थ समवायंगं एगदिणे नंदीए उद्दिसिजाद, बीयदिणे समुद्देसिजइ, तइ्यदिणे नंदीए अणुजाणिजञह । एवं तिहिं कालेहिं तिहिं आयंबिलेहिं वच्चह । सुयक्‍्खंधज्ञयणुदेसा इत्थ नत्यि । - समवायंगविही । 8५१, इत्थंतरे इमे जोगा - निसीद्दे एगमज्ञझयणं वीस॑ उद्देसगा एगेगदिणेण एगेगकालेण य दो दो वश्चति | दसहिं दिवसेहिं एगंतरायामेहिं समप्पष । इत्थ अज्ञयणत्तेण नेंदी नत्यि । अणागाढइजोगो । ४ निसीद्दे दिणा १०। ६५२, दसा-कप्प-ववहाराणं एगो सुयक्खंधो सो नंदीए उद्दिस्सइ। तत्थ दस दसाअज्ञयणा एगसरा, दसहिं दिवसेहिं वर्चति । तेसि नामाणि जहां-असमाहिठाणाईं १, सबला २, आसायणाओ ३, गणिसंपया 9, अत्तसोही ५, उवासगपडिमा ६, मिक्‍्खुपडिमा ७, पत्नोसवणाकप्पो ८, मोहणीयठाणाई ९, आयाइ ठाणं १० ति। कष्पज्ञयणे उद्देसा ६, दिणा २। बबहारड्झ्यणे उद्देसा १०, दिणा ५। एगदिणे » सुयक्‍्खंघसमुद्देसो, बीयदिणे नंदीए सुयक्खंधाणुण्णा, सके दिणा २०। केह कप्च-ववयहाराण्ं भिन्न सुयकसंधमिच्छति । एवं च दिणा २२। तद्ा पंचकष्पो आयंबिलेण मंडडीए वहिजर । जीयकप्पों निदौएणं ति। निसीह-दसा-कप्प-बवहारसुपक्खंघ-पंचकप्प«॑जीप्रकपप्रथिही | गोगविधि । 4३ .. $ ७३, इयाणें भगवईए विवाहपक्षत्तीए पंचमंगस्स जोगविद्यण्ण- गणिजोगा छहिं मासेददिं छह्ठिं दिक्‍सेहिं आउत्तवाणएणं वश्चेति । तत्थ सुयक्खंधो नत्थि । अज्झयणाणि य सयनामाणि एकत्ताढीसं। भंग नंदीए उद्देसिय पठमसय उद्देसिज॒इ । तत्थ उद्देसा १०; कालेण दो दो वच्चति । एंगंतरायामेण दिणेद्दिं ५, कालेहिं ५ पढमसय जाइ । एगंतरायाम॑ जाव चमरो। बीयसए उद्देसा १०; नवरं पढमुद्देसओ खेंदओ । तस्स अंबिलेण उद्देसो समुदेसो य कीरइ । तओ जह उद्दवेह तो त॑मि चेव दिणे तेण चेव कालेण * अणुजाणिय आयाम कारिजइ । अह न उद्लिओ, तो बीयदिणे बीयकालेण बीयअंबिलेण अणुजाणिजइ । उद्ठिओ ति पाढेणागओं । अणुण्णाए य तंमि अंबिले पविद्ठे अग्गओ काउस्सग्गाइअणुद्वाणं कीरइ । एव्थो पंच दत्तीओ सपाणमोयणाओ भवंति । सेसा दो दो उद्देसा दिणे दिणे जंति। जाव नवमुद्देसो । एगंमि पंचमे दिणे दसमो सय॑ च। सबे दिणा ७, काछा ७। तहयसए वि उद्देसा १०; नवरं पढमदिवसे पढमकालेण पढमुद्देसयं मोयानामगमणुजाणिय, बीयकालेण चमरस्स उद्देसो समुदेसो य कीरइ । सेस ४ तओ जइ उद्दवेह इचाइ जहा खंदए | दत्तीओ वि सपाणमोयणाओ पंच। केई चत्तारि भणंति । एवं चमरे अणुण्णाए पनरसहिं कालेहिं पनरसहिं दिणेहिं य गएहिं छट्ठजोगो लूग्गइ । छट्ठजोगअणुजाणावणत्थ ओगाहिमविगइविसजणत्थ काउस्सग्गो कीरइ; नमोक्कारचिंतर्ण भणण च । पंचनिवियाणि छठ निरुद्धं ४। अन्ने छत्रिद्यियाणि सत्तम॑ निरुद्धं ति भणति । तम्मि रूग्गे संघूरयतक-तीमण-वबंजणाइ तद्णक्य पि कप्पह्‌। तओ पुष्च एयमकप्पमासि । ओगाहिमविगई वि न उवहणइ । जहा दिदट्टिवाए मोयगो गुरुमाइकए आणेऊं ४ पि कप्पह । सेसा अट्ठ उद्देसा चड॒हिं दिवसेहिं सएणसम वच्चंति । सब्वे दिणा ७, काछा ७। चउत्थसए वि उद्देसा १०, दोहिं दिणेहिं बच्चति । पढमदिणे ८, चत्तारि चत्तारि आइल्ला अंतिल्ठ त्ति काअण उद्दिसि- जाति, समुदिसिज्जति, अणुन्नविज्ञति | बीयदिणे दो सएण सम॑ वच्चंति । दिणा २, काछा २ । पंचम-छट्ठ- सत्तम-अट्ठमसएसु दस दस उद्देसया दो दो दिणे दिणे जंति। चत्तारि वि वीसाए दिणेहिं कालेहिं य वच्चति। अट्टसु सएसु काला ७१। नवमं दसम॑ णगारस बारसं तेरसं चउदसम॑ च एयाई “छस्सयाईं एकेककालेण 2 वच्चति । नवरं नवमसयमुद्देसिय तस्खुद्देसा ३४ दुह्यकाउं (१७+१७) पढममाइछा उद्दसिजति, तओ अंतिन्ला सय॑ च समुद्वेसिजञति | तओ आइछा अंतिल्ला सय॑ च अणुन्नविज्नेति। एवं सए सए नव नव काउस्सग्गा कीरंति | एवं दसमसए वि उद्देसा ३४ दुह्ा (१७+१७ ); एक्कारसमे उद्देसा १२ दुह्य (६+६); बारसमे तेरसमे चउदसमें य दस दस प्तेयं पंच पंच दुहा कज्जति। पनरसम गोसालसयमेगसरं पढमदिणे उद्दसिजह | तओ जह उद्दिओ तो तम्मि चेव दिणे तेणेव कालेण आयंबिलेण य अणुजाणिल्लाइ। अह न उद्ठिओ, तो बीय- # दिणे बीयकालेण बीयअंबिलेण अणुजाणिजजह । इत्थ दत्तीओ तिन्नि तिन्नि सपाणभोयणाओ भवंति | गोसाले अणुन्नाए अट्टमजोगो छग्गइ । तस्स अणुजाणावणत्थं काउस्सग्गो कीर्‌इ । सत्त निवियाणि अद्ठम निरुद्ध । अण्णे अट्ट निब्िियाणि नवम निरुद्धं । सेसाणि निवियाणि ति। गोसारूयसए तेयनिसग्गावरनामगे अणुण्णाए निशष्ियदिणे नंदिमाईण बंदणय-खमासमण-काउस्सग्गपुब्ब॑ उद्देसाई कीरंति । ते य इमे-नंदि १, अणुओग २, देविंद ३, तंदुरू 8, चंदवेज्स ५, गणिविज्ञा ६, मरण ७, ज्ञञाणविभत्ती ८, आउर ९, महा- ४ पश्चनसखाणं च १० | गोसालो जो जइ दर्तीहिं अलुद्धियाहिं उबहओ ताहे उबहओ चेव। अह बहवे जोग- बाहिणो ताहे ताण संबंधिणीओ घेप्पंति। गोसाछाणुण्णं जाव एगूणवज्नासं काछा ४९ हवंति । तदुवरि सेसाणि छब्वीससयाणि एकेक्रेण कालेण वच्चति । एएहिं २६ सह ७५ भवंति । एगेणंग समुद्दिसिजद । बीएण नंदीए अणुजाणिज्ञाद | गणिसदपज्जत नाम च ठाविजर । अंगस्स समुद्देसे अणुण्णाए य अंबिलं | 3 8 बिहीणं। 3 8 इत्य। 3 नासि 3,। 4 30 छथ सयाइ। 85 नास्तिपदमेतत्‌ू ७&,। 0973 माखि इत्म' । 7 भाखि लो' 8. (2 । > ॥ ्े विधिप्रपा णवं सतहत्तरि ७७ कालेहिं भगवईपंचमंग समप्पह । नवरं सोलसमे सए उद्देसा चडदस ७+७। सत्तर- समे सत्तरस ९+८। अद्डाससमे दस ५+७। एवं एगूणविसइमे वि ५+५। वीसहमे वि ५+५ | इक्क- वीसइमे असीई ०४०+४० । बावीसइमे सट्ठी २०+३० । तेवीसइमे पण्णासा २५+२० | हत्थे इकवीसमे अट्ववग्गा, बावीसइमे छवस्गा, तेवीसहमे पंचवग्गा । बग्गे वग्गे दस उद्देसा। आओ असीइ-सह्ठि-पण्णासा ४ उद्देसा कमेण । चउवीसइमे चउवीसं १२+१२। पंचवीसइमे बारस ६+६ । बंधिसए २६। कर्रिसुग- सए २७। कम्मसमजिणणसए २८। कम्मपद्ठरणसए २९। समोसरणसए ३०। एएसु पंचसु वि सएसु एकारस-एक्कारस उद्देसा दुहा ६+५ कज्जति । उववायसए अट्ठावीसं १४+१४; ३१। उद्बद्वणा- सए अद्टावीसं १४+१४; ३२। एगिंदियजुम्मसयाणि बारस, तेसु उद्देसा १९४७, दुह्ा ६२+६२; २३॥। सेढीसयाणि बारस तेसु वि उद्देसा १२४, दुह्ा ६९+६२; ३४ । एगिंदियमहाजुम्मसयाणि बारस, तेसु उद्देसा ॥ १३२, दुह् ६६+६६; ३५। बेइंदियमहाजुम्मसयाणि बारस, तेसु वि उद्देसा १३२; दुह्दा ६६+६६, ३६ तेइंदियमहाजुम्मसयाणि बारस, तेसु वि उद्देलसा १३२, ६६+६६; ३२७। चउरिंदियमहाजुम्मस- याणि बारस, तेसु वि उद्देसा १३२, ६६+६६; ३८। अससन्निपंचिंदियमहाजुम्मसयाणि बारस, तेसु वि उद्देसा १३२, दुह् ६६+६६; ३९ । सल्निपंचिंदियमहाजुम्मसयाणि इक्षवीसं, तेसु उद्देसगा २३१, दुह्ा ११६+११०७; ४०। रासीजुम्मसण उद्देसा १९६, दुह्ा ६८५९८; ४१। इत्थ य तेत्तीसइमे # सए अवंतरसया १२, तत्थ अद्ठसु पत्तेय उद्देसा ११, चउसु ९, सबग्गेणं १३४ । एवं चउतीसइमे वि १२४ | पणतीसइमाइसु पंचसु सएसु अवंतरसया १२, तेसु पत्तेयं उद्देला ११, सक्रग्गेणं १३२। चालीसइमे अवंतरसया २१, तेसु पत्तेय उद्देसा ११, सबग्गेण २३१ । एवं महाजुम्मसयाणि ८१, एवं सबस्गेणं सया १३८। सबस्गेण उद्देसा १९२३ । इत्य संगहगाहाओ उबरिं जोगविहाणे भण्णिहिंति । 'भगवईए जोगबिही । 2४ गणिजोगेसु वूढेसु संघट्टओ थिरो भवह । नय घिप्पह नय विसज्जिजइ त्ति समायारी । आउत्त- बाणयं तु घिप्पह विसजिजह य त्ति। अथ यत्नरकम््‌ । हद सकल रातकउद्देशादि यक्चतो5वसेयम । शत १ शत ४ शत ७ शत १० उद्देस १०। उद्देश १०। उद्देश १०। उद्देश ३४। # दिन ५। प्रणदि० ८। [ दिन ५। दिन १। का द्वि०दि० २। दास के शत रे अत शत ८ शत ११ उद्देस १०। हैं उद्देश १०। उद्देश १२। दिन ५। दिन: 5 । दिन ५। दिन १। शत ३ शत ६. शत ९ शत १२ #. उद्देस १०। उद्देश १०। उद्देश ३४। उद्देश १० ' 'दिन७। दिन ५। दिन १। दिन १। 4 लालि पदमिदम .4. । पी ह जे ग्रोगषिधि ! ५५ शत रैरईू शत २१ शत २८ शत ३६ हा १०| उद्देश ८०। उद्देश ११। उद्देश १३२॥ शत्रु दिनानि १। दिन १। दिन १। ते चहल अन्न हक हे । अंत रे शत २९ खत 2 दिन १। उद्देश ६०। 3288 के उद्देश १३२। ४ गोशर्मत हद, कप न् दिन १। उद्देश ० शत २३ उद्देश ११। शत ३८ दिनर। उद्देश ५०। दिन १) उद्देश १३२॥ शत १६ दिन १। शत ३१ दिन १। उद्देश १४। कद ब््क दिन | शत २४ 3 शत ३९ ॥; शत 2, उद्देश २४। ही उद्देश १३२॥ उद्देश १७ । हक डे दिन १। दस श२८। दिन १। शत २५ दिन १। शत ४० शत १८ उद्देश १२। शत ३३ उद्देश १३१। के । उ्देश २8... गिर! हें शत १९ शत २६ गा आफ हर ११। शत २३४ उद्देश १९६। उद्देश १०। के उद्देश १२४। दिन १। दिन १। 0028 दिन १॥ दे शत २० शत २७ शत ३७ शत स० ४१ उद्देश १०। उद्देश ११। उद्देश १३२। उद्देश सर्वाग्न | दिन १। दिन १ दिन १। १९३२। 6५४. अणंतरं कयपंचमंगजोगविहाणस्स तस्सामम्गिविरहे अन्नहावि अणुण्णवियगुरुषणस्स छट्टमं्गं नायाधम्मकद्ा नंदीए उद्सिज्जई । तम्मि दो सुयक्खंधा नायाईं धम्मकहाओ य। तत्थ नायाणं एगृूणवीर्स अज्ञयणाणि । एगूणवीसाए दिणेहिं बर्चति | तेसिं नामाणि जहां- उक्खित्तनाए १, संघाडनाएं २, अंडनाए ३, कुम्मनाए 9, सेल्यनाए ५, तुंबयनाए, ६, रोहिणीनाए ७, मह्लीनाए ८, मायंदीनाए ९, ,; चंदिमानाए १०, दावहवनाएं ११, उद्गगनाए १२, मंडुकनाए १३, तेतलीनाए १७, नंदिफलनाएं १५, अवरकंकानाए १६, आहइण्णनाए १७, सुसुमानाए १८, पुंडरीयनाए १९। एगं दिणं सुयकक्‍्खंधसमुद्दे- साणुन्नाएं । सब दिणा २०। धम्मकहाणं दस वग्गा दसहिं दिवसेहिं जंति । तत्थ मंदीए सुयक्खंधमुद्सिय पढमवग्गो उद्दिसिजह । तम्मि दस अज्ञझयणा । पंच पंच आइछा अंतिल्ल त्ति काझण उद्दसिज्ति, समुद्दि- सिज्ति य | तओ वन्‍्गो समुद्सिज३ । तओ आइल्ा अंतिल्ला वग्गा य अणुण्णविजंति | एवं बग्गो ॥ एगकालेण एगदिणेण नवहिं काउस्सग्गेहिं वश्च_। एवं सेसाबि नव वग्गा । नवर॑ अज्ञयणेसु नाणत । बीए दस झज्ञ्यणा, तहम-चउत्येठ्र चउप्पण्णं चउप्पण्णं । पंचम-छट्टेस बस्ीसं बचीसं | सत्तम-अह्मेतु ५ई विधित्रपा । चत्तारि चत्तारि। नवम-दसमेसु अट्ट अट्ट अज्ञयणा । दुह्म काऊण सबृत्थ आइला अंतिद्ठ त्ति क्‍तबा | एवं दससु॒पर्गेस दिणा १०। सुयक्‍्खंघसमुद्देसाणुण्णाए दिण १। अंगसमुद्देसे दिण १। अंगराणुण्णाए दिण १। एवं सबे दिणा ३३-नायाधम्मकहांग विही । 8५७, उवासगदसासत्तमंगं नंदीए उद्देसिजाह । तम्मि एगो सुयक्‍्खंधो, तस्स दस अज्ञझयणा, एगसरा * दसहिं कालेहिं दसहिं दिणेहिं वच्चति | तेसि नामाणि जहा-आणंदे १, कामदेवे २, चूलणीपिया ३, मुरादेवे 9, चुछसयगे ५, कुंडकोलिए 5, सद्दालपुत्ते ७, महासयगे ८, नंदिणीपिया ९, लेतियापिया १०। दो दिणा सुयक्खंघे, दो अंगे, सब्षे दिणा १४)- उचासगदसंगबिही । ६५६, अंतगडदसाअट्टमंगे एगो सुयक्खंधो अट्नवग्गा । तत्थ पढ़मे वग्गे दस अज्ञयणा । बीयवग्गे अट्ट । तइए तेरस । चउत्थ-पंचमेसु दस दस । छट्ठे सोलस । सत्तमे तेरस । अद्वमवम्गे दस अज्ञझयणा । ॥ आइल्ला अंतिल्ला भणिय जहा धम्मकहाए तहा। अद्ठहिं कालेहिं अद्गहिं दिणेहिं वच्चति | इत्थ अज्झयणाणि गोयममाईणि दो दिणा सुयक्खंघे, दो अंग्रे, सबे बारस १२।- अंतगडदसाअंगवि ही । ६५७, अषुत्तरोववाइयदसानवमंगे एगो सुयक्खंधो, तिन्नि वग्गा, तिहिं दिणेहिं तिहिं कालेहिं वर्धति। इत्थ अज्ञयणाणि जालिमाईणि । तत्थ पढमे वग्गे दस । बीए तेरस । तइए दस अज्ञझयणा | सेस॑ जहा धम्मकहाणं । बग्गेसु दिणा तिन्नि, सुयक्खंधे दिणा दोज्ि, दो दिणा अंगे, संत्रे दिणा ७, कार ७। ४ - अणुत्तरोववाइयदसंगविही । ६५८. पण्हावागरणदसमंगे एगो सुयक्खंधो, दस अज्झयणा, दसहिं कालेहिं, दसहिं दिवसेहिं वश्चति । तेसि नामाणि जहा-हहिंसादारं १, मुसावायदारं २, तेणियदारं ३, मेहुणदारं ४, परिग्गहदार॑ ५, अहिंसादारं ६, सच्चदारं ७, अतेणियदारं ८, बंभचेरदारं ९, अपरिग्गहदारं १०। सुयक्खंधसमुद्देसा- णुण्णाए दिणा दो, अंग दिणा दो, संबे दिणा चोदस १४। आगादजोगा आउत्तवाणए्ं जह भगवईए # अवूदाएं गुरुमणुण्णविय वह तो भगवईए छट्ठजोगा5लूग्गकप्पाकप्पविहीएं; अह वूढाए तो छट्ठजोग- रूम्गकप्पाकप्पविहीए एगंतरायंबिलेहिं वच्चंति । महासत्तिककय त्ति भण्णंति | इत्यथ केई पंचहिं पंचहि अज्ञझयणेहिं दो सुयक्खंधा इच्छंति |- पण्हावागरणंगबिही । 5५९, विवागसुयइक्कारसमंगे दो सुयक्खंधा | तत्थ पढमे दुष्दविवागसुयक्खंघे दस अज्ञझयणा, दसहिं कालेहिं, दसहिं दिवसेहिं वच्चति | तेसिं नामाणि जहा -मियापुत्ते १, उज्यियण २, अभगासेणे ३, ४ सगडे ४, बहस्सइदत्ते ५, नंदिवद्धणे ६, उंबरिदते ७, सोरियदत्ते ८, देवदत्ता ९, अंजू १०। एगं दिणं सुयक्‍्खंघे, एवं संबे दिणा ११। एवं सुहविवागवीयसुयक्खंधे अज्झयणा १०। तेससि नामाणि जहा - सुबाहु १, भददनंदी २, सुजाय ३, सुवासव्‌ ७, जिणदास ५, धणवह ६, महबरू ७, भद्दनंदी ८, महचंद ५, वरदत्त १० | सुयक्‍्खंघे दिण १, अंगे दिण २, सबे दिणा २०, काढा २४१ विवागरुयंगविही । » दिद्वियाओ दुवालसमंगं त॑ च वोच्छिन्ष । : ६६०, इत्थ य दिवखापरियाएण तिवासो आयारपकप्पं वहिज्ञा वाहज्या य | एवं चउघासों सूयगढ़ । पंचवासो दसा-कप्पववहारे । अद्ववासो ठाण-समवाए । दसवासों भगवई | इक्कारसवासों खुद्डियाविमाणाह- ' प्रैंचज्लयणे | बारसवासों अरुणोववायाइपंचज्ञमणे । तेरसबासो उद्बाणहुयाइचउरज्ञयणे । चड़द्साइ- अष्नारसंतवासों कमोण आसीविसभावणा-दिद्विविसभावणा-चारणभावणा-महासुमिणभावणा-तेयनिसरगे । पणू- गर्वीसियाती दिद्विवायं । संपुन्नवीसबासो सबसुत्तज़ोगो सि। योग्रविधि । ण्क $ ६१, इयाणि उ्बंगा- आयारे उवंग ओवाइय १, सूयगडे रायपसेणइयं २, ठाणे जीवामिगमो ३, समवाए पण्णवणा 9, एए चत्तारि उक्कालिया तिहिं तिहिं आरयबिलेहिं मंडडीए वहिज्यति । अहवा आयारे अंगाणुण्णाणतरं संघट्यमज्झे चेव उद्देससमुंदेसाणुण्णासु आयंबिल्तिगेण ओवाइ्य गच्छ३ । जोगमज्झे चेव निव्ीयदिणे आयंबिलेण अंबिल्तिगपूरणाओ वश्चइ त्ति अल्ले । एवं सूथगडे रायपसेणहरय॑ पि वोदब । एवं चेव जीवामिगमो ठाणंगे । एवं समवाए वूढे दसा-कप्प-बवहारसुयक्खंघे अणुण्णाए य संघट्टयमज्ञे अंबिलतिगेण, मयंतरेण अंबिलेण, पण्णवणा वोढबा | एएसु तिन्नि इक्कसरा। नवर जीवामिगमे दुविहाइ-दसविहंतजीवभणणाओ नव पडिवत्तीओ । पण्णवणाए छत्तीसं पयाईं। तेसिं नामाणि जहा - पण्णवणापर्य १, ठाणपर्य २, बहुवत्तब्षप्य ३, ठिईृपय 2, विसेसपय ५, वुकंतीपय ६, ऊसासपयय ७, आहाराइदससण्णापय ८, जोणिपय ९, चरमपये १०, भासापय ११, सरीरपर्य १२, परिणामपर्य १३, कसायपय १9, इंदियपय १७५, पओगपय १६, लेसापय १७, कायहिहपय १८, सम्मत्तपर्य १९, अंतकिरियापयं २०, ओगाहणापयं २१, किरियापरय २२, कम्मपर्य २३, कम्मबंधगपय २४, कम्मवेयगपय २०, वेयगबंधपयं २६, वेयगपर्य २७, आहारपय २८, उवओगपयं २९, पासणापयय ३०, मणोविज्ञाणसन्नापय ३१, संजमपय ३२, ओहीपय ३२, पत्रियारणापरय ३४०, वेयणापर्य ३५, समुग्धायपय ति २६। भगवईए सृरपण्णत्तीउवंगं आउत्तवाणएणं तिहिं कालेहिं अंबिलृतिगेणं वोढबा । अहवा भगवई- अंगाणुण्णाणतरे एये संघट्टयमज्झे तिहिं कालेहिं अंबिलेहिं च वच्च३ । नायाणं ज॑बुद्दीवषण्णत्ती, उवासग- दसाणं चंदपण्णत्ती; एयाओ दोबि पत्तेयं तिहिं तिहिं कालेहिं, तिहिं तिहिं अंबिलेहिं बहिज्जति संघट्टएण | अहवा निय-नियअंगे5णुण्णाए तस्संघट्यमज्झे चेव तिहिं तिहिं कालेहिं अंबिलेहिं च वच्चति । स्रपण्णत्तीए चंदपण्णत्तीए य वीस॑ पाहुडाईं । तत्थ पढमे पाहुडे अट्ट पाहुड-पाहुडाइं, बिए तिन्नि, दसमे बावीसं, सेसाइं एगसराणि । जंबुद्दीवपण्णत्ती एगसरा । अंतगडदसाइपंचण्हमंगाणं दिद्धिवायंताण एगमुवंग निरया- वलियासुयक्खंघो। तम्मि पंच बग्गा कप्पियाओ, कप्पव्डिसियाओ, पुष्फियाओ, पुष्फिचूलियाओ, वण्हिदसाओ । तत्थ पढम-बीय-तईय-चउत्थवस्गेसु दस दस अज्ञयणा, पंचमे बारस। तत्थ पढमे वग्गे अज्ञयणा कालाई, बीए पउमाई, तईए चंदाई, चउत्थे सिरिमाई, पंचमे निसदाई। सुयक्‍्खंध नंदीए उद्दिसिय पढमवर्ग च । तओ अज्झयणाणि दुह्य काऊण आइल्ला अंतिल्ल त्ति भणिय, वग्गे वग्गे नव नव काउस्सग्गा कीरंति । वम्गेसु दिणा ५, सुयक्खंधे दिणा २, सब्चे दिणा ७; काछा ७। केई सत्त अंबिले करेंति । अन्ने सुयक्खंध-उद्देस-समुद्देसाणुण्णासु अंबिलं करेंति। अन्नदिणेस॒ निब्यीयं । निरयावलिया- सुयकक्‍्खंधो गओ। अण्णे पुण चंदपण्णत्ति सूरपण्णत्ति च भगवईउवबंगे भणणति । तेसि मएण उवासगदसाईण पंचण्ह- मंगाणमुंग निरयावलियासुयक्खंधो । ओण०रा०जी०पण्णवणा स्‌०जं०चं०नि०क०क०पुप्पु०वण्हिद्सा । आपयाराइउचंगा नायबा आणुपुच्चीए ॥ -उ्ंगविही । 6 ६२, संपयं पहण्णगा, नंदी-अणुओगदाराईं च इक्षिक्रेण निशध्वीएण मंडलीए वहिज्जेति । केई तिहिं दिणेहिं निषीएहिं य उद्देसाइकमेण इच्छति । देष॑द॒त्थय॑-तंदुलवेयालिये-मरणसमै।हि-महापश्चररेखाण- आउरपचेक्खाण-संथारय-चंदा विज्य येँ-भर्त परिण्णा-चउसे रण-वी रत्यैय-गणिविज -दी वसा गरपएण- ] 8 विरश्पयं। 2 .5 इकिकनिव्बीएण । विघिं० ८ ध्प्टट विधिग्रपा । सि-संगहणी-गच्छायारें - इचाइपइण्णणाणि इकिकेण निवीएण वर्धति। जह प्रृण संगष्टजोगभेज्से केसिंचि पुछ्ुत्तविहिए खमासमण-वंदण-काउस्सरगा कया ते पुढों न वोढब्ा। दीवसागरपण्णत्ती तिहिं कालेहिं तिहिं अंबिलेहिं जाइ। इसिभासियाहं पणयालीसं अज्ञयणाईं कालियाईं, तैसु दिण ४५ निविएहिं अणागादजोगो । अण्णे भणंति - उत्तरज्ञगणेसु चेव एयाई अंतब्भवंति । पुज्णा पुण एंवेभाइ- संति-तिहिं फालेहिं आयंबिलेहिं य उद्देस-समुद्देसाणुण्णाओ एएसि कीरंति ।- पहण्णगविही । ६ ६३, संपयं॑ महानिसीहजोगविही -- आउत्तवाणएणं॑ गणिजोगविहाणेण निरंतरायंब्लिपणंयारीसाई भवह | तत्थ महानिसीहसुयक्खंध नंदीण उद्दिसिय पठमज्ञयण उद्सिजजइ, समुद्सिजइ, अणुण्णविज्ञई थे | तओ बीयज्ञयणं, तत्थ नव उद्देसा दो दो दिणे दिणे जंति | नवमुद्देसो अज्ञयणेण सह कैचइ । ४ंवं तद॒ए उद्देसा १६, चउत्थे १६, पंचमे १२, छट्टे 9, सत्तमे ६, अठ्ठमे २० । जओो आह - ० अज्ञंयर्ण नव सोलस, सोलर बारसं चउक॑ छ-बीर्सा । अट्टज्झयणुद्देसा ४५, तेसीह महानिसीहम्मि ॥ इत्थ सत्तद्टमाईं चूलारूबाइं तेयालीसाण दिणेह्िं अज्ञयणसमत्ती । एगं दिणं सुयक्‍्खंघस्स समुद्देसे, एगमणुण्णाए, सत्रे दिणा ४५, कारा ४५ । आगादजोगा ।- महानिसीहजोगगविही । मे ॥ जोगविहाणपयरणं ॥ 8४ ६६४. संपर्य भणियत्थसंगहरूव॑ जोगविहार्ण नाम पयरणं भण्णइ - नमिऊण जिणे पयओ जोगविहाण्ं समासओ बोच्छ | पह्अंगसुयक्खंध अज्ञझयणुद्ेसपविभत्त ॥ १ ॥ जंमि उ अंगमि भवे दो सुयखंधा तहि तु कीरंति । सुथग्वघस्स दिणेण दोबि समुददेसणुण्णाओ ॥ २॥ के अह एगो सुयग्बंधो अंगे तो दिणदुगेण सुयखंधो । अणुप्णवह अंग पुण सचत्थ वि दोहिं दिचसेहिं ॥ ३ ॥ आवस्सयसुयस्वंधो तहिये छ चेव हंति अज्ञयणा | अट्ठहिं दिणेहि वचह आयामदुर्ग व अंतम्मि ॥ ४॥ दसयालियसुयग्बंधो दस अज्ञयणाईं दो य चूलाओ | झ पिंडेसण अज्ञयणे भमवंति उद्देसगा दुकञ्षि ॥ ५ ॥ विणयसमाहीए पुण चउरो त॑ जाइ दोहि दिवसेहिं ! इकेकवासरेणं सेसा पकक्‍खेण सुयखंधों ॥ ९॥ आवस्सय-दसकालियमोहण्णा ओह-पिंडनिजुत्ती । एगेण तिहि च निविएहिं णंदि-अणुओगदाराइई ॥ ७४ 8० एगो य खुयकक्‍्खंधो छत्तीस 'भवंति उत्तरज्ञयणा। तत्थेक्रेक़ल्झयर्ण चचइ दिवसेण एगेण ॥ ८ ॥ नवरि चउत्थमसंखयमज्ञझयणं जाइए अंबिलदुगेणं | अह पढइ तदिणि चिय अणुण्णवइ निविगहएणं ॥ ९॥ सवोधि य छुयखंधों वचह मासेण नवहि य दिणेहिं। मर केसि च मएण पुणो अद्वाबीसाह द्विसेदिं॥ १०॥ योगविधानप्रकरण । जा अ-चउत्थ'ं चठइस इगेगकालेण जाइ इकिको । दो दो इगेगकाऊेण जति पुण सेस बावीस ॥ ११ ॥ आयारो पढमंगं सुयखंधा तेसु दोण्णि जहसंख। अड-सोलस अज्प्यणा इत्तो उद्देसए बोच्छ ॥ १२॥ सत्तय छ चरउ चडरो छे पंर्च अद्ठेय हॉति चडरो ये। इकारसं ति तिय दो' दो दो दो नर्व हुति इकसरा ॥ १३ ॥ वीयमिस झुयक्‍्खंधे उग्गहपडिसाणमुवरि सत्तिका । आउत्तवाणएणं सुयाणुसारेण वह्ियवा ॥ १४ ॥ आयारो य समप्पह पन्नासदिणेहिं तत्थ पढमम्मि। सुयखंधे चठबीसं बीए छवीसई दिवसा ॥ १५॥ बीयंग सूयगंड तत्थवि दो चेव होंति सुयखंधा। सोलस-सत्तज्झयणा कमेण उद्देसए खुणसु ॥ १६ ॥ चऊ तिय चउरो दो' दो' इकार्र्स पढमयंमि इक्सरा । सत्तेव महज्ञयणा शकसरा बीय सुयखंधे ॥ १७॥ सूथगडो य समप्पइ तीसाए वासरेहिं सयलो वि। पढमो बीसाए तहि दिणेहिं बीओ तह दसेहि ॥ १८ ॥ ठाणंगे छुयखंधों एगो दस चेव होंति अज्ञझयणा | पढम एगसरं चउ चउ चर तिगं सेस एगसरा ॥ १९॥ समवाओ पुण नियमा सुयखंधविवज्िओ चउत्थंगं। तिहि वासरेहिं गउचछइ ठाणं अट्टारसदिणेहिं ॥ २० ॥ हॉति दसा-कप्पाईसुयर्ंधे दस दसा उ एगसरा | कप्पम्सि छ उद्देसा ववहारे दस विणिडिद्वा ॥ २१ ॥ अज्झयणंमि निसीहे वीसं उद्देसगा मुणेयवा | तीसेहिं दिणेहिं जंति हु सवाणि वि छेयरुत्ताणि ॥ २२॥ निविएण जीयकप्पो आयामेणं तु जाइ पणकप्पो | तिहिं अंबिछेहि उकालियाई ओवाहयाईं चऊ ॥ २३॥ आउत्तवाणएणं विवाहपण्णत्ति पंचम अंगं। छम्मासा छद्िषसा निरंतर हॉति वोदवा॥ २४॥ इस्थ ये नय सुयखंधो नय अज्ञञयणा जिणेहिं परिकहिया । हगचशालसयाइ ताईं तु कमेण वोच्छामि ॥ २५॥ सह ंधरसाह ८, दो चउ 64 १०, बारसहिं एगं ११। पेण दसुददेसाई १४, ग तु एगसरं १५ ॥ २६॥ ३ “अतुर्भभर्सक्षयाप्मय् बरमित्वा” इति दिप्पणी । ५९ ६6 विधिप्रपा । बीए पटठसुदेसों खंदो तहयम्मि चमरओ बीओ | गोसालो पनरसमों पण पण तिग हुंति दत्तीओ ॥ २७ ॥ एया सभत्तपाणा पारणगदुगेण होयणुण्णवणा। खंदाईण कमेणं वोच्छामि विहिं अणुण्णाए॥ २८ ॥ चमरंमि छट्ठजोगो विगईए विसज्लणत्थसुस्सग्गा । अद्ठमजोगो लग्गइ गोसालसए अणुण्णाए॥ २९॥ पनरसहि कालेहिं पनरसदियहेहि चमरणुण्णाए। लग्गह य छट्टजोगो पणनिधिय अंबिलं छट्ठं ॥ २० ॥ अडउणावण्णदिणेहिं अठणावण्णाह वाबि कालेहि । अट्टमजोगो लग्गह अट्टमदियहे निरुद्ध च ॥ ३२१॥ चोदस १६५ सत्तरस १७ तिण्णि उ दस उद्देसाइ २० तह असी २११ सट्ठी २२। पन्नासा २१५ चउवीसा २४ बारस २७ पंचसु य इककारा ३० ॥ ३२॥ अटद्टावीसा दोसुं १९ चडबीससय् च ३४ पणरस बत्तीसं ३९। दोणिण सथा हगतीसा ४० चरिमसए चेव छल्नठय ४१॥ ३३॥ बंधी २६ करिसुगनाम २७ कम्मसमज्जिणण २८ कम्मपट्टवर्ण २९। ओसरणं समपुव ३० उचवा-३१ उचद्टणसर्य च ३१२॥ ३४॥ एगिंदिय ३३१ तह सेठी ३४ एगिंदिय ३२५ बेहंदियाण समहाणं ३६। तेईंदिय २७ चडरिंदिय ३८ असण्णिपाणिदिमह सहिया श९ ॥ ३५०॥ एएसि सत्तण्हं जुम्मसयदुबालसाणि नेयाणि | आहइदुगज॒म्मवर्ज सन्निमहाजम्मि य सयाणि ॥ १६॥ एयाईं इक्तीसं ४० चरम॑ पुण होह रासिजुम्मसय ४१। पणबीसइमा आरा अभिहाणाई वियाणाहि ॥ ३७ ॥ हत्थ चउत्थम्मि सए अद्दुदेसा दुष्ठा उ कायबा । अट्टमसयवोलीणे सघ्चो वि हु बिसमयाई थि ॥ ३८ ॥ दोमासअद्धमासे विहिणा अंगे श्मम्मिष्णुण्णाए । नामट्टवर्ण कीरह पुणरवि तह कालसज्ञायं ॥ १९ ॥ असुहभवक्‍खयहेऊ अचंत अप्पमत्तपियधम्मा । पूरंति हु परियायं जावसमप्पंति कहबि दिणा॥ ४० ॥ सट्टाणे वोढबं होह इस तह सुयाणुसारेणं । आयारेष्णुण्णाए केई आलंबणाइरया ॥ ४१ ॥ सोहणतिहि-रिक्खवाइसु विउलेसण-निरुषसगिग खित्तम्मि | उक्खिवणमाइजोगाण काहि किश निरवसेसं ॥ ४२॥ १ 'कहिय' 3. डदिप्पणी । योगबिंधानप्रकरण । नायाघम्सकहाओ छट्टंग॑ तत्थ दो छुपयकक्‍्खंधा | पढसे इक्सराह अज्ञ्ययणाह अउठणबीसं॥ उ४१ ॥ बीए दसबग्गा तहिं उद्देसा दसं दसेये चउवलाँ। चउपज्नां बत्तीसां बत्तीर्सा चउँ चर् अड्डे ॥ ४४॥ नाथाधम्मकहाओ तेत्तीसाए दिणेहिं वर्धति। पढसे बीस दिवसा सुयखंघे तेरस उ बीए ॥ ४८० 0 सत्तमयं पुण अंगं उवासगदस त्ति नाम तत्थेगो। रुयखंधो हकसरा हत्थउज्ञयणा हवंति दस ॥ ४६९ ॥ अंतगडदसाओ पृण अट्टममंग जिणेहिं पन्नत्त । तत्थेगो सुयखंधों वग्गा परुण अट्ट विण्णेया ॥ ४७॥ अंतगडढवदसाअंगे वरगे बर्गे कमेण जाणाहि। दस दसे तेरस दस दसे सोलर्स तेरसे दर्सुद्ेसा ॥ ४८ ॥ अह5णुत्तरोववाइयदसा उ नामेण नवम्य अंग । एगो य झुयक्खंधो तिन्लि उ वग्गा सुणेयव्वा ॥ ४९॥ उद्देसगाण संर्व बग्गे बग्गे य एल्थ बोच्छामि । दस तेरसे दस चेव य कमसो तीझछु पि वग्गेसुं ॥ ५० ॥ धोहस उवासगदसा अंतगडदसा दुवालसेहिं तु। सफ्तहिं दिणेहि जंति उ अणुत्तरोववाइयदसाओ ॥ ५१ ॥ बग्गस्साइल्लाण उद्देसाणं तहिं तिमिलछाणं। उद्देस-समुद्देसे तहा अणुण्णं करिजल्ासु ॥ ५२॥ दिवसेण जाइ वग्गो उस्सर्गा तत्थ होंति नय चेय । छप्पुधण्हे मणिया अवरण्हे नियमओ तिपन्नि ॥ ५३॥ पण्हावागरणंग दससे एगो य होह छुयखंधो । तलहियं दस अज्ञ्ञयणा एगसरा जंति पश्दिवर्स ॥ ५४ ॥ भोदइसहि वासरेहिं पण्हावागरणमंगमिह जाह । आउत्तवाणएणं त॑ वहियध पयसेण ॥ ५५ ॥ एकारसमं अंग विवागछुयमित्थ दो छुपक्‍्खधा । दोखु पि य एगसरा अज्ञझयणा दस दस हयति॥ ५९॥ कालियचैउपण्णत्ती आउत्ताणेण सूरपण्णत्ती। सेसा संघष्टेण ति-तिआयामेहिं चउरो वि। ५७॥ निरयावलियभिहाणो सुयखंधों सतल्थ पंचवग्गाओ | इक्िकंसि य बर्गे उद्देसा दसदसंतिसे दु जुया ॥ «८ ॥ 3.2. *समुद्देशा । & जिबू०, चंदर०, सूर०, दीष०'-हति 8 दिप्पणी । डरे ईद विधिप्रपा । चउवीसाह दिणेहि हकारसम॑ विधागसरुयमंगं। वचह सक्तदिणेहिं निरधावलियारसुयक्खंधो ॥ ५९ ॥ ओ'०रा'जी"पण्णवणा सू“जं"चं'निक्‌”कपुप्फ“वण्डि दसा । आयाराइडउवंगा नेयबा आयुषुधीए ॥ ६० ॥ मु देविदत्थयमाई पहण्णगा होंति हगिगनिविएण । हसिभमासिय अज्ञयणा आयंबिलकालतिगसज्झा ॥ ९१ ॥ केसि थि सए अंतब्भवंति एयाहईं उत्तरज्ञ्षयणे । पणयालीस दिणेहिं केसि बि जोगो अणाग्रादो ॥ ६२॥ आउत्तवाणएणं गणिजोगबिहीह निसीह तु। फ अच्छिन्न कालंबिल्पणयालीसाहश वोढब ॥ ९३ ॥ एगसंर नव सोलस सोलस बारसे चर्उ छं बीर्स तहिं । तेसीहं उद्देसा छज्झयणा दोपनि चूलाओ ॥ ९४ ॥ कालग्गहसज्शायं संघद्दाइविहिं निरवसेसं । सामायारिं च तहा विसेससुसाओ जाणिज्ञा॥ ६५ ॥ छ नियसंताणवसेणं सामायारीओ हत्थ भिन्नाओ। पिच्छता हृह संक साहु गसिच्छा सया काल ॥ ६६॥ सामायारीकुसलो वाणायरिओ विणीयजोगीण । भवभीयाण य कुजा सकत्नसिद्धि न हहराओ ॥ ६७॥ ज॑ इत्थ अहं चुको मंदमहइत्तेण किंपि होजाहि। 2 ल॑ आगमबिहिकुसला सोहितु अणुग्गह काउं ॥ ९८ ॥ मे ॥ जोगविहाणपगरणं समत्तं ॥श4 समत्तो जोगविही ॥ २४ ॥ 8६५७. जोगा य कृप्पतिप्पं॑ बिया न वहिज्जंति -कयकप्पतिप्पकिरिय'त्ति वयणाओ। अओ संपर्य कप्प- तिप्प॑विही भण्णइ-तत्थ वइसाह-कत्तियबहुरूपडिवयाणंतरं पसत्थदिणे चउवाइयरिक्खे गुरु-सोमवारे सुनिमित्तोवउत्तेहिं सदसवत्थवेढियगिहत्थभायणेणं कप्पवाणियमाणिता, जोईणीओ पिट्ठओं बामओ वा कारउं » मुह-हत्थ-पाए जंडि काऊण अह्यारायणियाए छम्मासियकप्पो उत्तारिज्ञह । पविसमाणस्सासं दसियाह कय- आउत्तजलेण पढम चउरो तिप्पाओ मुद्दे घेप्प॑ति, तओ पाए्सु । इत्य हत्थविण्णासों संपदाया नेयद्ो । छम्मासियकप्पे परदिण्णाओ चेव तिप्पाओ घेप्पंति । इयरकप्पे दसियापुत्तचलकोप्परेहिं परदिण्णाओ वा । तहा छम्मासियकप्पुत्तारणे उद्धट्ठियस्स उद्धट्िओो तिप्पाओ दिल्ला, उवबविद्वस्स उवविद्वों । सामञ्रकप्पे मत्यि नियमो । तओ वसही भंड्रवगरणं च नाणोवगरणबज्मे सब्बं पि तिप्पिजह । नवरं मंडलिट्वा्ण गोमय- # लेवे कए तिप्पिज्इ । कप्पमज्से वावरियं पत्त-भंड-मलम-उद्धरणी-पमज्जणिया-तलिया-लोहरच्छाइ जलेण कप्पिउं तिप्पिज्जइ । एवं कप्पे उत्तारिए बसहिं सोहिछु हड्भु-केसाह परिट्वविय, इरियं पड़िक्रमिय, पढमं 2 'तेप्पं। 2 जोयिणीओं। 3 4 तेपिजड्‌ । कप्पतिस्वविंधि । 6 गुरुणो संजज्ञाए उक्सिविए मुहेपोत्ति पडिलेहिय, दुवालसावत्तवंदर्ण दांडं, खमासमणेण भणंति -सज्झाय॑ डंक्खिवामों, बीयखमासमणेण सज्ञायउक्खिवणत्थ काउस्सम्ग करेमो!। तओ अज्नत्यूससिएणमिश्ाह पढ़िय, मषकार॑ चउवीसत्त्यय चिंतिय, मुहेण ते भणिय, काउस्सर्गतियं कुणति | पढम असज्झाइय-अणा- उत्तओोहडावणियं, घीय॑ खुदोवदबओहडावणियं, तइये सकाइवेयावच्चगरआराहणत्थ | तिसु वि चउ उज्जोय- चिंतण, उज्जोयमणणं च। तओ खमासमणदुगेण सज्ञायं संदिसावेमि, सज्ञायं करेमि त्ति मणिय, जाणुन + हिएहिं पंचमंगलपुर्ष “धम्मो मंगलाइ!” अज्ञयणतियसज्ञाओ कीरइ त्ति। 8६६. सज्ञायउक्स्िषिणविद्दी - जया य चित्तासोयसुद्धपक्खे सज्ञाओं निक्खिविजद, तया दुवाल- सावत्तवंदर्ण दाउं सज्ञायनिक्खिवणत्थं अट्ठुस्सासं काउस्सग्गं काउं पारित्ता, मंगलपाढो कायबों त्ति। राओ' सन्नाए कयाएं वमणे सित्थ-रुहिराइनिस्सरणे य पाए कप्पो उत्तारिजइ । बाहिरभूमीए आगया पिंडियाओ पाए य तिप्पंति | जत्थ पाया मंडोवगरणं वा तिप्पिजइ सा भूमी अणाउत्ता होइ। सा थे आउं- ४ चंजलउलिवरादंडपुंछणेण सिद्धीए तिप्पिजह । ते च दंडपुछण अणाउत्तद्वणे नेऊण तिप्पिज्इ | अणा- उत्तद्वाणं नाम नीसरंताणं वामबाह्यए दुवारपासे भूमिखंडर्ल इष्टिगाइपरिहिजुत्त अणाउत्तड ति रूढं। उच्चारे बोसिरिए वामकरेण तिहिं नावापूरेष्टि आयमिय, आउत्तेण दाहिणहस्थेण दब मत्थए छोद्रण कोप्परेण था दब घित्तणं अहिद्वाणलिंगेस जंघासु कलाइयासु चडरो चउरो तिप्पाओ घेप्पंति । पुरीसपवित्तीए आयाण जह भुटे अणाउत्तो हत्थो रूमगइ तया कप्पुत्तारणेण सुज्ञः । तहा जद आयामंतस्स तिप्पणयं दोरणो का ४ बामहत्ये पाए वा रूग्गइ तया अणाउत्ती हवइ । दवं उज्म्मित्ता दोरयं मज्झे खिवित्ता तं भाषण तिप्पिज्जह । माहिं कंट्याइंमि भग्गे जेण हत्थेण त॑ उद्धरेइ सो हत्थो तिप्पियब्चो । जद दंडओ हड्डे लम्गइ तया तिण्िि- यत्ो । जेण अंगेण उबंगेण वा अणाउत्त मंडोबगरणं साहुं वा छिवह, जंमि य रुहिरं नीहरह ते अणाउत्त होह । कज्ज्य मंडाइस पराणिय तिप्पणयाइ कंठट्ठिय दोरय॑ च राओ जह वीसरइ सब्मणाउत्त होह। जाणतेण विद्वराइकारणे तुंबयकंठदिले दोरयमणाउत्ते न होइ। गुड-घय-तिल-खीराई मोयणवहरित्तकल # आणीयमवस्स तिप्पित्तु वावरिज्जर । नालिएराइसु घसणत्थ तिल निक्खित्त परिवरसिय जणाउच होह, जह लवण मज्धे न निक्खिप्पइ । भुत्तण उद्विएहिं दसाइणा कप्पवाणियं घेत्तु पढम एगं हत्थं मत्यए, एगं व मुद्दे काउं चउरो तिप्पाओ घेप्पन्ति | जइ पुण कारणजाए मुहसुद्धिमाइ मुद्दे चिट्दह, तया पढम॑ मत्थय तिप्पित्ता, तओ मुहं पुढो तिप्पियक्क | तओ मत्थए आउत्तदवं छोदुँ कण्ण-खंध-पंगेड-कोप्पैर-परद्द-हियएसु घत्तारि चत्तारि तिप्पाओ। तओ पिट्ट-पुद्ठीओं समंगे तिप्पिता चोलपट्टय-उकू-जाणु-पिंडिया-बाएसु चउरो » अउरो तिप्पाओ। तओ भायणाई बइसणं च तिप्पिउ निउत्तो साह ओमरायणिओ वा भंडलिं भिण्हिय, तक्क-तीमणाइखरडियं च भूर्ति जलेण सोहिय, दंडठंछण पमजर्णि वा जेण मंडडी गहिया ते मंशकीए 'सिप्किय, तेणेब आउत्तजलूडछियम्गेण मंडलीठाण बाहिं नीसरंतेण तिप्पियदेसं जच्छिवंतेण अविच्छिले तिण्यंध । ते थ दरतिप्पिथं जह केणवि अणाउत्तेहिं पाएहिं अक्ृत पुणो अणाउत्ते होह, तजो दंडाउंछर्ण उद्धरणियाए उबरिं तिप्पितत मंडलिं परिश्वविय उद्धरणियं अणाउत्तद्मणे सिप्पिय र्ीरूए धारिसु अब्भु- क्खणं निव्लिविजर । जो य सेहो गिलाणों सामागारी अकुसत्थे वा सो दंडाउछणेण तिप्पिप्वह । अब- बाएण राओ विद्वारत्थ नगराईहिंतो नीसरंताण जह पाए्सु तलियाओ तो अणाउत्ता न होंति पाया, जजहा होंति । दिया का राजो वा अणाउते हत्थपायाईं अंगे जह पयलाह तो कृप्पुत्तारणेण सुज्ञ३ । भुंजंतस्स 'रात्री! इति हे टिप्पणी। 2.8 पाणयं। 3 “कूप्परस्कस्धग्रोर्मध्ये प्रसंड:। <& भुजामध्यं कूपरः । 5 भआामणिवन्थात्‌ कूर्परस्थाधः प्रकोष्ट: कलाचिका स्वत ? इति टिप्पणी 4. आदशे । ] 'विधिप्रपा । सित्य पियंतस्स वा दव॑ जईइ॒ चोलपटयमज्झे गय॑ तो वि कप्पुत्तारणेण सुज्ञद | कारणपरिवासियजलेण तिप्पाओ न सुज्ञति । अणुग्गए य जइ तिप्पाओ गेण्हंतो एगं दो तिन्नि वा गिण्देश अपडंते वा दबे गिण्हह सश्मणाउत्त होइ | नहा लोयकेसा य वसहीए वीसरिया तइए दिणे अणाउत्ता होति । खहरकक्क- समाणं पूहृत्तावण्णं वा रुहिरमणाउत्त न होइ। रुद्दीए मजजार-सुणग-माणुसाइपुरीसे वा छिक्के' अणाउत्तो ४ होइ। तेप्पणयाइसु द्व अणाउत्तं जाय॑ अइरित्ते वा मा उज्शियत्बं होहिइ त्ति। तओ आकंठ जलेण भरित्ता तिप्पियं आउत्त होइ त्ति। ॥ कप्पतिप्पसामायारी समत्ता ॥ २५॥ जे 6 ६७. एवं कप्पतिप्पाइविहिपुरस्सरं॑ साह्न समाणियसयरूजोगविही मूलग्गंथ-नंदि-अणुओगदार-उत्तरज्ञ- यण-इसिभासिय-अंग-उवंग-पहन्नय-छेयग्गंथआगमे वाइज्जा | अतो वायणाविही भणइ- ७ तत्थ अणुओगमंडलिं पमज्िय गुरुणो निसिज्ज रइत्ता, दाहिणपासे य निसिजञाए अक्खे ठाइतता, शुरूणं पाएसु मुहपोत्तियापडिलेहणपुष्॑ दुवालसावत्तवंदर्ण दाईं, पढडमे खमासमणे अणुओग आइढवेमो त्ति, घीए अणुओगआदवणत्थं काउस्सर्ग॑ करेमो त्ति भणिय, अणुओगआदढवणत्थं करेमि काउस्सग्गं अलत्य उससिएणमिश्चाइ पढिय, अह्ुस्सासं काउस्सर्ग करिय, पारित्ता पंचमंगल॑ भणित्ता, पढमे खमासमणे बायणं संदिसावेसि, बीए वायर्ण पडिगाहेमि, तइण बइसणं संदिसावेमि, चउत्थे बइसण्ं ठामि त्ति भणिऊण, ४ नीयासणत्थो मुहपोत्तियाठइयवयणों उबउत्तो उचियसरेण वाइज्जा । जे के वि अणुओग॑ आढविय उवउत्ता सुणन्ति तेसिं संबेसि वायणा रूग्गइ | अणुओगे आदत्ते निद्दा-विगहा-बत्ता-हास-पश्चक्खाणदाणाइ न कीर्‌इ । जस्स सगासे त॑ सुयमहिज्जियं तमेगं मुत्तुं अन्नस्स गुरुणो वि न अब्भुट्टिजइ । उद्देसगसम- त्तीए छोभवंदर्ण भणंति । अज्ञझयणाइसु वंदणगमेव । अणुओगसमत्तीए पढमखमासणे अणुओगपडिक्कमहं, बीए अणुओगपडिक्रमणत्थ काउस्सम्गु करहं । अणुओगपडिक्कमणत्थ करेमि काउस्सम्गमिश्वाइ पढिय, » अह्दुस्सासं उस्समां काउं पारित्ता, पंचमंगरूं भणित्ता, गुरुणो वंदंति त्ति । ॥ वायणाविही समत्तो ॥ २६ ॥ जह 8६६८, एवं विहिगहियागम सीसं अणुवत्तगत्ताहगुणन्नियं ना वायणायरियपए उवज्ञञायपए आयरियपपए्‌ वा गुरुणों ठार्वेति | सिस्सिणि च पवत्तिणीपए महत्तरापए वा। तत्थ बायणायरियपयठावणा- बिही भण्णह - मर एगकंबलं निसिज्ञज उत्तरच्छयसहियं रदृत्ता पक्खालियंगं सीस॑ वामपासे ठाविय दुवालसावत्तवंदर्ण ' दवांविय, खमासमणपुष्ष गुरू भणावेइ -च्छाकारेण तुब्मे अम्हं वायणायरियपयअणुजाणावणियं वासनि- क्खेव॑ करेह' । गुरू भणइ-“करेमो” । पुणो खमासमणेणं सीसो मणइ--तुब्मे अम्ह॑ वायणायरियपय- अणुजाणावणियं चेहयाईं वंदावेह” । तओ गुरू “बंदावेमो'त्ति मणित्ता, तस्स सिरे वासे खिविय वहुंति- याहिं थुईहिं. तेण सहिओ देवे बंदह । जाव पंचपरमिट्टित्थवमणण पणिहाणगाह्मओो य। तओ गुरू » सीसो य वायणायरियपयअणुजाणावणियं सत्तावीसुस्सासं काउस्सम्गं दो वि करित्ता उज्जोयगरं भणंति। -तञ्यो सूरी उद्धट्ठिओ नंदिकड्डावणियं काउस्समां अह्ुस्सासं कारवित्ता करित्ता य नवकारतिगं भणित्ता 'पूवित्यापन्न! इति 3. टिप्णणी। 4 'ह्पृष्टे' इति 2. टिप्पणी । वाचनाचार्यपदस्थापनाविधि । ६५ “नोण पंचविहं पण्णत्त, त॑ जहां- आमिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपतञ्ञवनाणं, केवडनाएं 'ति” पंचमंगलत्थं नंदि कट्डिय हमे पुण पह्चवर्ण पडुच्च - 'एयस्स साहुस्स वायणायरियपयअणुण्णा नंदी पवत्तह” त्ति भणिय सिरसि वासे खिवेह । तओ निसिज्ञाए उवविसिय गंधे अक्खए य अमिमंतिय प्तंघस्स देइ। तओ जिणचलणेसु गन्धे खिवेह । तओ सीसो वंदिउ भणइ- तुब्मे अम्हं वायणायरियपय अणु- जाणह! | गुरू भणइ -“अणुजाणेमो! | सीसो भणइ-“संदिसह कि. भणामो ?” गुरू भणइ--ंदित्ता पवेयह” । पुणो वंदिय सीसो भणइ-“इच्छाकारेण तुब्मेहिं अम्हं॑ वायणायरियपयमणुन्नायं' ३े खमास- मणाणं, दत्येणं सुच्तेणं अत्येणं तदुभएणं; सम्म॑ धारणीयं चिरं पालणीय अज़ेसिं पि पवेयणीय । सीसो वंदिय भणइ -'इच्छामो अणुसह्टि'; पुणो वंदिय सीसो भणइ- 'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह साहू पवेएमि ' । तओ नमोक्वारमुच्चर॑तो सगुरु समवसरणं पयक्खिणी करेइ तिन्नि वाराओ । गुरू संघो य “नित्थारगपारगों दोहि, गरुरुगुणेहिं वद्बाहि'त्ति भणिरो तस्स सिरे वासक्खए खिवेइ । तओ वबंदिय सीसो भणइ-6तुग्हाणं पत्रेइयं, साहर्ण पवेइयं, संदिसह काउस्सग्गं करेमि'त्ति भणित्ता अणुण्णाय “वायणायरियपयथिरीकरणत्थ करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थूससिएणमिश्चाइ/ मणिय काउसम्गे उज्जोयं चिंतिय, पारिता चडउवीसत्थय भणित्ता, गुरुं वंदिता मणइ -इच्छाकारेण तुड्मे अम्हं॑ निसिज्जे समप्पेह” | तओ गुरू निसिज्जे अभिमं- तिय, उबरि चंदणसत्थियं काऊण, तस्स देइ । सो य निसिज्ज मत्थएण वंदित्ता सनिसिज्ञों गुरु तिपया- हिणी करेह । तओ पत्ताए रूग्गवेलाए चंदणचच्चियदाहिणकन्ने तिन्नि वारे गुरू मंत सुणावेइ - 'अ-उन्मू-न्‌- अ-म-ओ-भू-अ-गू-अ-बू-अ-अ-उ-अ-र-अ-ह-अ-अ-उनम्‌-ज-हू-अ-इ-म्‌-ज-ह-आ-व्‌-ई--अ-वू-अ-दू-ज-स- आ-णू-अ-सू-आ-स-इ-स्सू-अ-सू-ह-ज्मू-अ-उ-म्‌-ए-मू-अ-गू-अ-व्‌अ-ई-स्‌-अ-ह-अ-इ-म्‌-अ-ह-आ-व्‌-इ-ब्नू- आ-अ-उनसू-व्‌ई-र-ए-व-ईै-र-ए-स्‌-अ-ह-आ-वू-ई-नू-ए-जु-अ-य-अ-व्‌-है-२-ए-सूए- णू-अ-व्‌-है-र-ए-व्‌_ज-्दू- अ-म-आ-णू-अ-व्‌-ई-र-ए-जू-अ-यू-ए-व-ह-ज्‌-अ-यू-ए-जू-अ-यू-अं-त्‌-ए-अ-पू-अ-र-आ-ज-३-ए-अ-णू-इ-हू- अ-ए-अ-उ-म्‌-हनू-ईै-म-स-व्‌ू-आ-ह-आ । उवैयारों चउत्थेण साहिजद । पद्रज्जोवठावणा-गणिजोग-पहड्ा- उत्तिमद्रपडिवत्तिमाइण्सु कज्ेसु सत्तवारा जवियाए गंधक्खेवे नित्थारगपारगो होइ, पूयासक्कारारिहो य। तओ वद्धमाणविज्ञामंडलूपडो तस्स दिज्जहइ | तओ नामद्ठवर्ण करिय, गुरुणा अणुण्णाए ओमरायणिया साहू साहुणीओ य सावया साविआओ य तस्स पाएसु दुवाल्सावत्तवंदर्ण दिति। सो य सर जिड्ठम्बे बंदइ । तओ तस्स कंबलवत्थखंडरहियस्स पुड्डिपट्टस्स अणुण्णं दाऊण साहु-साहुणी्ं अणुवत्तणे गंभमीरयाए विणीययाए इंदियजए य अणुसद्ठी दायबा | तओ बंदर्ण दाविऊण पद्चक्खाणं निरुद्ध कारिजइ त्ति। ॥ वायणायरियपयट्रावणाविही समत्तो ॥ २७ ॥ जे ६ ६९, संपयं उवज्ञायपयद्वावणाविही | सो वि एवं चेव- उवज्ञायपयाभिलावेण भाणियश्ो। नवरें उबज्ञायपर्य आसत्नलद्भधपह्भत्तादिगुणरहियस्स वि समग्गसुतत्थगहणघारणवकक्‍्खाणणगुणवंतस्स सुत्त- वायणे अपरिस्संतस्स पसंतर्स्स आयरियट्वाणजोग्गस्सेव दिझाइ । निसिज्णा य दुकंबला; आयरियवरज्ज जेहक- णिट्टा सब्र बंद्ण दिति । मंतों य तस्स सो चेष; नवर॑ आइए नंदिपयाणि अहिज्जन्ति । अ-उनम-न्‌ू-अ-मू-ओ-अ-्‌-अ-हू-अ-म्‌-त-आा-णू-ज-मू । ज-उन्‍्म-नू-अ-म्‌-ओ-स-इ-दु-भा-णू-भ- म्‌। अ-उनस-न-अ-मू-मो-आ-यू-अन्‌-ह-आ-णू-अ-म्‌ । ज-उन्‍म-न्‌ू-अ-म-जो-उ-बू-अ-ज्य-भा-यू-आ-णू- ] 0 आदर्श अनश्न--“उबयारो चउत्येण तम्मि चेव दिणे सहस्सजावेण-सोभाग्यमुद्दा १, परमेप्ठिमुद्रा २, प्रवचनमुद्रा सुरमिमुद्दा ४, एतन्युद्राचतुष्टयं कृत्या मंत्र: स्मरणीय:ः-साहिजइ*-एसाहशः पाते बियते । 2 .&. भाखि पदमिदम्‌ । नर चार 8६ ' विधिभ्पा । अ-म्‌ । अ-उ-म-न्‌-अ-म-ओ-सू-अ-ब-अ-स-आ-हू-ऊणू-अ-म्‌। अ-उ-म-न-ज-म-ओ-अ-उन्‍ह-इ-मनू-ण- अ-अ-णू-अ-म्‌ । अ-उ-सम्‌-न-अ-म्‌-ओ-पू-अन्‌-अ-म्‌-ओ-हू-इ-ज-ह-णू-अ-अ-णू-अ-म्‌ । अ-उन्‍म-न-अ- मू-ओ-सू-अ-ब-ओ-ह-इ-न्‌इ-ण्‌ू-अ-अ-णू-अ-्सू । अ-उन्मू-न-अ-म्‌-ओ-सु-अ-णू-अ-मू-त्‌-ओ-ह-इ-जू-इ- णू-अ-अ-णू-अ-म्‌ । उबयारो सो चेव । संघपूयाइमहसवाहिगारो एत्थ सावयाणं ति। । ॥ उवज्ञायपयट्टावणाविही समत्तो ॥ २८॥ ह ओह ६७०, इयाणिं आयरियपयड्टावणाविही भण्णद । आयार-सुय-सरीर-वयण-वायणा-मइहपओर-महसंगह- परिण्णारूवअट्टविहगणिसंपओववन्नस्स देस-कुल-जाइ-रूवी-इच्चाइगुणगणालंकियस्स बारसवरिसे अहिज्िय . सुत्तस्स बारसँवरिसे गहियत्थसारस्स बारसवरिसे लद्धिपरिक्खानिमित्त कयदेसदंसणस्स सीसस्स लोयं काउं पाभाइयकालं गिण्हिय, पडिक्रमणाणंतरं वसहीए सुद्भाए कारूग्गाहीहिं काले पवेइए अंगपक्खालंण काउं, दाहि- # णकरे कणयकंकणमुद्दाओ पहिरावित्तु, चोक्खनेवत्थ पंगुराविज्जइ । पसत्थतिहि-करण-मुहुत्त-नक्खत्त-जोग- रूग्गजुत्ते दिवसे अक्ख-गुरुजोगाओ दुन्नि निसिज्ञाओ पडिलेहिज्जन्ति। सीसो गुरू य दुन्नि वि सज्झायं पट्वविंति | पट्ठविए सज्ञाए जिणाययणे गन्तूृण समवसरणसभीवे दुल्नि वि निसिज्ञाओ भूमि पमज्ित्त संपष्टियाओ धरिज्ञन्ति। तओ गुरू सूरिमन्तेण चंदणघणसारचच्चियअक्खाभिमंतणे कए निसिज्ञाओ उद्ठित्ता, सूरिपयजोग्गं सीसं वामपासे ठवित्ता, खमांसमणपुष्च॑ मणावेइ -इच्छाकारेण तुछ्मे अम्हं दब-गुण-पजञवेहिं अणुओगअणु- ७ जाणावणत्थं वासे खिवेह” । तओ गुरू सीससस्‍्स वासे खिवेइ, मुद्दाओ सरीररक्ख च करेइ । तओ सीसो खमा[समर्ण दाउं भणइ -इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं दब -गुण-पज्जवेहिं चउबिह अणुओगअणुजाणावणत्थं चेइआई वंदावेह” | तओ गुरू सीस वामपासे ठवित्ता वद्भुतियाहिं थुईहिं संघसहिओ देवे वंदह । संतिनाह-संति- देवयाइ आराहणत्थ काउस्सम्गं करेइ। तेसि थुईओ देह । सासणदेवयाकाउस्सर्गे य उज्जोयगरं चउकू चिन्तह । तीसे चेव थुई देश | तओ उज्जोयगरं भणिय, नवकारतिग कड्डिय, सक्ृत्थय भणित्ता, पंचपर- » मेट्ठित्थवं पणिहाणदंड्ग च भणति । तओ सीसो पुत्ति पडिलेहित्ता दुवालसावत्तबंदर्ण दाउं भणह -इच्छा- कारेण तुब्मे अम्हं दब्-गुण-पजञ्जवे्ट अणुओगअणुजाणावणत्थ सत्तसइय नंदिकड्ठावणत्थ काउस्सम्ग करावेह। तओ दुवे वि काउस्सग्गं करेंति सत्तावीसुस्सासं, पारित्ता चउवीसत्थयं भरणति | तओ सीसो खमासमणं दाउं भणइ -इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं सत्तसइयं नंदिं सुणावेह । तओ सूरी नमोक्कारतिगपुष्ष॒उद्धट्टिओ नंदि- पुत्थियाए वासे खिवित्ता, सयमेव नंदिं अणुकड्डेइ । अन्नो वा सीसो उद्धट्टिओ मुहपोत्तियाठइयमुहकमलो # उवउत्तो नंदिं सुणावेह | सीसो य- मुहपोत्तियाए ठह्यमुहकमलो जोडियकरसंपुड़ो एगम्गमणों उद्धट्टिओ नंदिं सुणेह । नंदिसमत्तीए सूरी सूरिमंतेण मुद्दापुब्ध गंघक्खए अभिमंतेह | तओ मूलपडिमासमीर गुरू गंतृण पडिमाए वासक्खेवं काऊण, सूरिमंत उद्धट्टिओं जवइ । ततो समवसरणसमीवमागम्म नंदिपडिमाचउ- 'कृस्स वासे खिवेइ । तओ अभिमंतिय वासक्खए चउबिहसिरिसमणसंघस्स देइ | तओ सीसो खमासमर्ण दाउं भणइ -इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं दब-गुण-पज्जवेद्दि अणुओग अणुजाणेह” । गुरू मणइ -“अहं एयस्स » दब-गुण-पज्वेहिं खमासमणाणं हत्थेणं अणुओगं अणुजाणामि' । सीसो खमासमर्ण दाउं भणइ -'इच्छाकारेण -मुब्मेहिं अम्हं दब-गुण-पजवेहिं अणुओगो अधुण्णाओ !"- एवं सीसेण पण्हे कए गुरू मणइ -'खमासमणाणं हत्थेणं सुत्येणं अत्येणं तदुभयेणं अणुझोगो अणुण्णाओ ३ । सम्मं घारणीओ, चिर॑ पाछणीओ, अलेसि ञ प्रवेयणिओ!- इति भणंतो वासे खिबेह । तओ सीसो खमासमण्णं दाउं मणइ -ुम्हाणं पवेहयं, संदिसह न्क््ल्ि््ि्िीन्‍0क्‍:::--कउ5:उकफकसफसफफफक्‍ससस डी:ाऊ-++२.व-२२२२२०७७०७०ू००७०० कह ५ कक्वककज७०»७े७»+७७७..५०५-++ ७५७९७ ३७७७ ७७७ ककनक3७७ ७७५५७» +भ००«नाा ०४७५» पवाआव ८3०५५ बंकरय०० ४-३ ]-.8. बारिस) 2 3-रेण्दिप । 8 चितति। हि 0 की न पब् आचायेपदस्थापनाविधि । ६५ साहणं पवेएमिं ? । गुरू भणइ-“पवेयह” । तओ नमोकारमुश्चरंतो चउद्दसिं सगुरु समवसरणं पणमंतो पाउंछणं गहिय, रमहरणेण भूमिं पमर्ञितो पयक्खिणं देह । संघो य तस्स सिरे अक्खए खिवह । एवं तिन्नि वाराओ देह । तओ खमासमण्ण दाउं भणइ -ततुम्हाणं पवेइयं, संदिसह काउस्सगां करेमि ? । गुरू भणह -“करेह” । खमासमण्ण दाउं - दब-गुण-पञ्जवेहिं अणुओगअणुण्णानिमित्त करेमि काउस्सम्गं- उज्जोय॑ चिंतिय त॑ चेव भणह । तओ गुरू सूरिसंतेण निसि्ज अभिमंतेइ । तओ सीसो खमासम्ण दाउं भणह- » (इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं निसिज्ज समप्पेह” | तओ गुरू वासे मत्थए खिबिय तिकंबर्ूं निसिज्ज समप्पेद । ततो निसिज्ञासहिओ समवसरणं गुरु च तिज्नि वाराओ पयक्खिणी करेइ। तओ गुरुस्स दाहिणभुझासल्ले स निसिज्ञाए निसीयह । तओ पत्ताए रूम्गवेलाए चदणचश्ियदाहिणकन्नस्स गुरुपर॑परागए मंतपण कहेह, तिन्नि बाराओ। एसो य सूरिमंतो भगवया वद्धमाणसामिणा सिरिगोयमसामिणों एगवीससयअक्खरप्पमाणो दिल्नो, तेण य बत्तीससिलोगप्पमाणो कओ | कालेण परिहायंतों परिहायंतो जाव दुष्पसहस्स अद्भुद्डसिलोग- ॥ प्पमाणो भविस्सह । नय पुत्थए लिहिजइ; आणामंगप्पसंगाओ | जित्तियमित्तो य संपर्य वद्दर तितियस्स सयल्स्स वि ल्मगवेलाए दाणे इठ्ठरूगंसो न फब्इ। अतो रूग्गस्स आरेणावि पीढचउकं दायबं | इहुलग्गंसे पुण चउपीदसामिणो मंतरायस्स पंच सत्त वा जहा संपदाय पयाई दायबाई ति गुरु आएसो | उवयारो एयरस कोडिअंसतवेण साहिज्जह । तबिददी इमो - उ०नि०आ०नि०आ०नि०आ०नि०उ०ह|ग पणिग पणेग पणिंग हगसेग।_ ४ चिंतण-पदर्ण विकहाचाओ 5होरत्तणुद्वाणं ॥ १ ॥ उ०नि०आ०नि०आ०नि०उ०हगेग ति थउ हग दुग हे पुबवायारो | सबिसेसो जिणथव चत्तमंतडसय च उस्सरगे ॥ २॥ उ०्नि०आ०नि०आ०नि०उ०हगटद्ट पंच सत्तेग दु हर तहयपए । उ०नि०आ०दु हग पणेगिग तुरिए पुधो विही दुरुवि ॥ ३ ॥ । 9 मोणेण सुरहिदवशिय गोयमतप्परेण निस्संक॑। के झाणं इल्थियद्सगमंतपए सोलसायामा ॥ ४ ॥ साहणाविही य अम्हश्षिय सूरिमंतकप्पे दह्वबों। जओ चेव एस महप्पभावों एत्तोश्विय एयस्साराहगों सूयथगभत्त मयगभत्त रयस्सलाछुत्तमत्त मज्जमंसासिभत्त च परिहरह । अन्नेसि साहर्ण उच्चिद्जलकणेणावि लग्गेण एयस्स न भोयर्ण कप्पह त्ति। तओ सीसो खमासमर्ण दाउं भणइ-इच्छाकारेण तुछ्मे अम्हू ४ अक्खे समप्पेह” | तओ गुरू तिन्नि अक्खमुट्ठीओ बहब्ुंतियाओ गंधकप्पूरसहियाओ देह । सीसो वि उबउत्तो करयलसंपुडेण गिण्हह | जोगपट्टयं खड़ियं च गुरू समप्पेह त्ति पालित्तयसूरी । तओ सीसो खमासमण्ण दाउं मणइ -इईच्छाफारेण तुब्मे अम्हं नामहुबर्ण करेह” । तओ गुरू: वासे खिवन्तों जहोचिय॑ सूरिसदपञ्ंत नाम तस्स करेइ । तओ गुरू निसिज्ञाए उद्ढेह, सीसो तत्थ निसीयर । तओ नियनिसिज्जानिसन्नस्स सीसस्स मुहपोर्ति पड़िलेहिउण तुलगुणक्खावणत्थं जीय॑ ति काउं गुरू दुवाल्सावत्तवंदर्ण दां मणइ-कक्‍खाणं करेह!। तओ सीसो जहासत्तीप परिसाणुरूत वा नंदिमाहयं वक्‍खाणं करेइ । कए वकक्‍्खाणे साहवो बंदर्ण दिति। ताहे सो निसिज्ञाओ उद्देह, गुरू निसिज्ञाणु उवविस॒ह । सीसो म जाणू. ठिओ छुणेइ | (! इश । 3 पदमिएं भारित 2. | 'ध्८ विधित्रषा । गुरू वि तस्स उबयूहणं काउं सूरिपयठवियसीसस्स साहुबस्गस्स साहुणीवम्गस्स य अणुसद्ठि देह। अणु« ओगविसज्ञावणत्थं काउस्सम्ग दुवे वि करेंति । कारूस्स पडिक्रमंति । तओ अविहवसावियाओ आर- तियाइअवतारणं कुबंति । तओ संघसहिओ उछत्तेणं धरिज्ञमाणेणं महसवेणं वसहीए जाइ । अणुण्णाया- शुआगो सूरी निरुद्ध उववासं वा करेह । जहासत्तीए संघदाणं करेह | इत्थ संघपूया-जिणभवणट्ठा- ४ हियाइकरणं च सावयाहियारों | भोयणे पुरओ चउठक़ियाइधारण, आसणे य कंबलवत्थखडपडिच्छन्नो पुट्टिपट्ट्री य तस्स अणुण्णाओं । $ ७१, उबवूहणा पुण एवं- निपश्ञामओं भवण्णवतारणसद्धम्मजाणवत्तमि । मोक्खपहसत्थवाहो अज्नाणंघधाण चक्‍खू य ॥ १॥ हि अत्ताणाणंताणं नाहो5्नाहाण भव्बसक्ताणं । तेण तुम झुपुरिस ! गरुयेगउछभारे निउत्तोषसि ॥ २॥ अह अणुसट्ठी - छत्तीसगुणघुराधरणधीरधवलेहिं पुरिससीहेहिं। गोयमपामुक्खेहि ज॑ अक्खयसोक्स्वमोफ्खकए ॥ ३ ॥ ४ सवोत्तमफलजणयं सब्ोत्तमपयमिमं सझधूद । तुमए बि तयं दढमसदबुद्धिणा धीर! धरणीय ॥ ४ ॥ न इओ वि पर परम पयमत्थि जए वि कालदोसाओ | योलीणेस जिणेस जमिण पवयणपयासकरं ॥ ५॥ अओ - नाणाबिणेयवर्गाणुसारिसिरिजिणवरागमाणुगय । 2 अगिलाणीए5णुबजीवणाए विहिणा पहदिणं पि ॥ ६॥ कायधे वक्‍सखाणं जेण परत्थोघ्जनएहिं घीरेहि। आरोवियं तुसमिस नित्थरसि प्य गणहराणं ॥ ७॥ सपरोवयारगरुय पसत्थतित्थयरनामनिम्मबर्ण । जिणभणियागमवक्‍्खाणकरणमिव अनणुग्ुणजणग ॥ ८ ॥ ऊ अगणियपरिस्समो तो परेसिसुबपारकरणदुछलिओ । खुंदर ! दरिसिज्ञ तुम सम्म॑ रम्मं अरिहृधम्म ॥ ९॥ तहा - निश्च पि अप्पमाओ कायथदों सबहा वि धीर ! तुमे । उज्भमपरे पहुंसि सीसा वि समुख्॒मंति जओ ॥ १० - बहुंतओ विहारों कायबों सघहा तहा तुमए। मर. - हे छुंदर ! दरिसण-नाण-चरणशुणपयरिसनिमित्त ॥ ११ ॥ संखित्ता वि हु मूले जह वहुह वित्थरेण ब्ंती। उदईिं तेष वरनई तह सीलगुणेहिं बहाहि ॥ १२॥ . ] 6. गुरुव"। आचायपद्ख्यापनोविधि । सीयाबेइ बिहारं गिद्धों सझहसीलयाह जो सूढो । सो नपरि लिंगधारी संजमसारेण निस्सारो ॥ १३ ॥ वज्बेसु वज्यणिज्ज निय-परपक्खे तहा बिरोहं च। वायं असमाहिकरं विसगरिग मए कसाए य॥ १४ ॥ नार्णमसि देसणंसि य चरणंमि य तीसु समयसारेसु । शोएड जो ठवेडे गणमप्पाण गणहरों सो ॥ १७॥ एसा गणहरमेरा आयारत्थाण वण्णिया सुत्ते । आयारविरहिया जे ते तमवस्सं विराहिति ॥ १६॥ अपरिस्साथी सम्मं समदंसी होझ सवकज्ेस । संरक्खसु चकक्‍्रुं पिच सबालबुहाउल गउछ ॥ १७॥ कणगतुला सममज्ञे घरिया भमरमबिसमं जहा घरह। तुछगणपृत्तज़गलगमाया थि सम जहा हवइ ॥ १८ ॥ नियनयणण जुयलियं वा अधिसेसियमेव जह तुर्म वहसि । तह होज्ज तुछदिट्टी विचित्तचित्ते वि सीसगणे ॥ १९॥ अन्ष च भोक्खफलकंखि मवियसउणाण सेबणिल्लो त॑। होहिसि लद्धच्छाओ तरू घ मुणिपत्तजोगेण ॥ २० ॥ ला एए वरमसुणिणों मणय पि हु नावमाणणीया ते । उक्खित्त मर॒वहणे परमसहाया तुह इमे ज॑ ॥ २१॥ जहा विश्वगिरी आसन्न-द्रवणवत्तिहत्थिजूहाणं । आधारभावमविसेसमेव उद्दहह सच्वाणं ॥ २२ ॥ एवं तुम पि झुंदर ! दूर सयणेयराइसंकप्पं । मुत्तुमिमाण सछुणीण सवाण वि हुज्ल आहारो ॥ २३ ॥ सयणाणमसयणाणं भृणप्पायाण सयणरहियाण । रोगिनिरक्खरकुक्खीण बालजरजज्वराईण ॥ २४ ॥ पेमहुपिया ब पियामहों 5हवाउणाहमंडयो वाबि । परमोबटट भकरो स््वेसि सुणीण होज तुम ॥ २५ ॥ तह इह दुसमागिम्हे साहुण घधम्ममहपिवासाणं। परमपयपुरपहाणुगसुविहियचरियापवाह ठिओ ॥ २९ ॥ संपाडिल्नज्जाण वि कियजल देसणापणालीए । वजियसंसग्गीण वि तुममंतेवासिणीउ त्ति॥ २७ 0 तह वुषिहो आयरिओ हहलोए तह य होह परलोए। इहलोए जसारिणिओ परलोए फुर्ड भणंतो य ॥ २८॥ ता भो देवाणुप्पिया परलोए हुआ सम्मसमायरिओ | मा होश स-परनासी होठ इहलोयआयरिओ ॥ २९ ॥ जलन न+मननकनकनन-नीन-क नननीननना नानक न नि ननन मनन नमक करन मनन बननननलिनननना ने" ५१ “लिन तन लि कक नाताएणण। ० । 30 साहूण वि। 2 3 असारणिओे; (7 सारणिओ। 8 ४ होइ । ६९ ७6 ._ विधिप्रंपा । तह मण-बह-काएहिं करिंतु विष्पियसयाइ तुह समणा | तेस तुम तु पियं चिय करिज्ज सा विप्पियलय ति॥ ३० ॥ निर्गहिऊण अणक्खे अकुंणलो तह य एगपक्खित्त । साहम्मिएस समचित्तयाह स्ेसु वध्ित्ला ॥ ११॥ सघजणबंधुमावारिहं पि इकस्स चेव पडियद्ध । जो अप्पाणं कुणई तओ बिमूदों हु को अन्नो ॥ ३२॥ एवं च कीरमाणे होही तुदह शुवणभूसणा कित्ती । एत्तो चेव य चंद पड़च केणाबि ज॑ भणिय ॥ ३३॥ गयणंगणपरिसकणखंडणदुक्‍्खाईं सहसु अणवरयं। न खुहेण हरिणलंछण ! कीरइ जयपायडो अप्पा'॥ ३४ ॥ अविणीए सासितो कारिमकोबजे वि मा हु मुचिज्ा । मद ! परिणामसुरद्धि रहस्समेसा हि सघत्थ ॥ ३७॥ उप्पाइ्यपीडाण वि परिणामवसेण गइ्बिसेसों ज॑। जह गोव॑-खरय-सिद्धत्थयाण घीरं समासज्व ॥ ३६९॥ अशहतिक्खो खेयकरों होहिसि परिभवपय अइमिऊ य। परिवारंमि खुंदर ! मज्झत्थो तेण होज्व तुम ॥ ३७ ॥ स-परावायनिमित्त संभवह जहा असीअ परिवारों | एवं पहू वि ता तयणुवत्तणाए जएज् तुम ॥ ३८ ॥ अणुवत्तणाह सेहा पाय पावंति जोग्गयं परम । रयणं पि गुणोकरिसं पावह परिकम्मणगुणेण ॥ ३९॥ इत्थ उ पमायखलिया पुब्भासेण कस्स व न होंति। जो तेब्वणेह सम्म॑ गुरुत्तणं तस्स सहल ति॥ ४०॥ को नाम सारही णं स होज्म जो भददवाहणो' दमए। बुद्ठे वि हु जो आसे वमेह त॑ सारहिं बिति॥ ४१ ॥ को नाम मणिइकुसलो वि हत्थ अश्वच्मुयप्पभावम्मि | गणहरपए पह्पयं सघुवएसे खमो बुत्ु ॥ ४२ ॥ परमित्तियं 'भणामों जायह जेणुण्णई पबरयणस्स | ते ते विचितिऊर्ण तुमए सयमेव कायदं ॥ ४३॥ सीसाणुसासणे वि हु पारद्धे अह इमं तुम पि खण । वण्णिल्लंत जशपहु ! पहिट्टचित्तो निसामेहि ॥ ४४ ॥ बस्येह अप्पमत्ता अज्ासंसरिगर्सग्गिविससरिसं । अज्जाणुचरो' साहू पावह ववणिश्रमचिरेण ॥ ४५ ॥ ] 80 गोचरचरवय । 2.30 जाते। 8 'शद्॒वाजिभ? इति 2. टिप्पणी। 4 ॥3 'संसमामम्धि । 5 2. भजाणुबरिं; ।3 अच्याणुक्से । प्रवर्तिनी-महरारा-पद्‌खापनाविधि ! ७९ चेरस्स सवस्सिस्स वि सुबहुसुयस्स वि परमाणभूयस्स | अज्ासंसग्गीए निवड्॒‌ह वयणिज्लवढवज्य ॥ ४५९ ॥ कि पुण तरुणो अबहुस्सुओ य अविगिद्तवपसत्तों य । सदाइशुणपसत्तो न लहइ जणजंपर्ण लोए ॥ ४७ ॥ एसो य मए तुम्हं मग्गसजाणाण मग्गदेसयरों । के चकरू व अचक्खूर्ण सुवाहिबिहुराण विद्ञो व ॥ ४८ ॥ असहायाण सहाओ मभवगत्तगयाण हृत्थदाया य | दिल्लो गुरू गुणगुरू अहं च परिछुकलो इण्िंह ॥ ४९ ॥ एयम्मि सारणावारणाइदाणे वि नेव कुषियव । ् को हि सकण्णो को करिज्ञ हियकारिणि जणम्मि || ५० ॥ ॥ एसो तुम्हाण पहू पभूयगुणरयणसायरों धीरो। नेया एस महप्पा तुम्ह मवाडविनिवर्डियाणं ॥ ५१ ॥ ओमो समरायणिओ अप्पयरसुओ हव त्ति घीरमिस। परिभविहिह् मा तुब्मे गणि त्ति एण्हि दढं पुत्लो ॥ ५२॥ मोक्खत्थिणो हु तुब्मे नय तदुवाओ गुरु विणा अन्नो। ४ ता गुणनिही इसो थिय सेवेयब्ो हु तुम्हा्णं ॥ «३ ॥ ता कुलवहुनाएण कज्ने निः्मच्छिएहि वि कहि पि । एयरस पायसूल आमरणंत न मोत्तव ॥ ५४॥ कि बहुणा मणियवे मिमियते सवचिट्वियवे य। होखह अईव निहुया एसो उवएससारो त्ति॥ «७५ ॥ मर ॥ आयरियपयट्टावणाविही समत्तो ॥ २९ ॥ औः 8 ७२, संपय॑ पवत्तिणीपयद्धावणा । सा य पवत्तिणीपयामिलावेण वायणायरियपगट्रवणातुल्ला, मंतों सो चेव; नवरं खंधकरणी ठूग्गवेलाए दिजइ | सेसं सबब निसिज्जाइ तहे व । $ ७३, अजह महत्तरापयदड्रावणाविह्दी भण्णह। जहासत्तीए संधपूयापुरस्सर॑ पसत्थतिहि-करण-मुहुत्त- नकखत्त-जोगलम्गजुत्ते दिवसे महत्तराजोग्गा निसिज्ञ कीरह। तओ सिस्सिणीए कयलोयाए सरीरपक्खारूणं # काउं जिणाययणनिवेसियसमोसरणसमीवे गुरू अद्दीयसुर्य सिस्सिणि वामपासे द्ववित्ता -'तुब्मे अरूं पुषच- अज्ञाचंदणाइनिवेसियमहयर-पवत्तिणीपयस्स अणुजाणावणियं नंदिकद्भावणियं वासनिक्खेव करेह त्ति-! भणारवितो सिस्सिणीए सिरसि वासे खिवह । वचचंतियाहिं थुद्रहिं चेइआई बंदह, जाब अरिहाणादिशुत्त- भणणं । तओ “महत्तरापयअणुजाणावणियं काउस्सग्ग करेह” त्ति मर्णंती स्तावीसोस्सास काउस्सम्ग गुरुणा सह करेइ । पारिता चउवीसत्थय भणित्ता उद्धट्टिओो सूरी नमोकारतियं भणित्ता, “'नाणं पंचनिहं पत्नत्तं त॑ » जहा - आमिणिबोहियनाणे, सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्नवनाणं, केवलनाणं” ति मंगलत्थ भणिय, इसे पुण पहुवर्ण पहुच - इमीसे साहुणीए महत्तरापयस्स अणुण्णानंदी पयद्वह - सि सिरसि वासे खिबेइ।तओ उबवि- 3 2 कई पि। कप जज «५ | ७५ विधिप्रपा । सिय गंधामिमंतर्ण संपवासदाणं जिणचलणेसु गंधक्खेवों। तओ पढमखमासमणे -इच्छाकरेण तुछ्मे अब्हू महत्तरापयं अणुजाणह -” त्ति भणिए, गुरू भणइ-“अणुजाणामि' | बीए-संदिसह कि भणामि :” गुरू आह -वंदित्ता पवेयह” | तइए--'तुब्मेहिं अम्ह॑महत्तरापयमणुण्णायं ?” गुरू आह-“अणुण्णाय”। ३ खमासमणाणं हत्थेणं ०, 'इच्छामि अणुसट्टिं' ति; गुरू भणइ- नित्थारगपारगा होहि, गुरुगुणेहिं वद्बाहि । चउत्थे-तुम्हाणं पवेहयं संदिसह साहूर्ण पवेणमि' | पंचम खमासम्ण देह । तओ नमोक्षारमुच्चरन्ती सगुरुं समवसरणं पयक्खिणी करेह बारतिगं । छट्टे-तुम्हाणं पवेइयं, साह्ण पवेइयं, संदिसह करेमि! त्ति भणित्ता, सत्तमे अणुण्णायमहत्तरापयथिरीकरणत्थ करेमि काउस्सग्गमिति काउस्सग्गो कीरइ । उज्जोय- चिंतणपु्दय॑ काउस्सरगं पारित्ता, चउवीसत्थयं भणित्ता, वंदित्ता उवविसइ | तओ पत्ताए रूग्गवेलाए - खंधकरणीखंधे निसिज्जह । दुकंबला निसिज्ञा य हत्थे दिजइ । तदुत्तरं चंदणचचियदाहिणकण्णाए उवज्ञायमंतों दिल्जइ वारतिगं, नामट्ृवर्ण च कीरइ। तदुत्तरं अज्नचंदणा-मिगाबईण परमगुणे साहिंतो मदत्तराए बइणीणं च गुरू अणुसट्ठटिं देश | जहां - उत्तममिमं पय जिणवरेहिं लोगोत्तमेहि पण्णत्त। उत्तमफलसंजणयं उत्तमजणसेबिय लोए ॥ १॥ धण्णाण निवेसिज्वह घण्णा गछछन्ति पारमेयरस । गंतुं हमस्स पारं पारं वर्चति दुक्खाणं ॥ २॥ जह वि तुम कुसल चिय सबवत्थ वि तहबि अम्ह अहिगारो। सिक्‍खादाणे तेण देवाणुपिए ! पियं भणिमों ॥ ३॥ संपत्ता ह्य पयवि समत्थगुणसाहणंमि ग़ुरुषयरिं । ता तीए उत्तरोत्तरवुहिकए कीरठ पयत्तो ॥ ४॥ सुत्तत्थो मयरूवे नाणे नाणोत्तकियवग्गे य । सात्ति अश्क्रमित्ता वि उज्जमों किर तुमे किखो | ५॥ रूचिरं पि तवो तवियं चिज्नं चरणं सु च बहुपढियं | संवेगरसेण विणा विहल॑ ज॑ ता तदुबएसो ॥ ६॥ तहा- सन्नाणाइगुणेसु पवत्तणेणं इमाण समणीणं । सच पवित्तिणि चिय जह होसि तहा जडज् तुम ॥ ७॥ निययगुणेहि महर्घं सियवीयाससिकर् जह कलाओ।।. कमसो समछियंती पयई हिमहारघवलाओ ॥ ८ ॥ तह तुह वि तहाबविहनियगुणेहिं अग्धारिहाए लोगम्मि । एयाउ समल्लीणा पयहसु धवलोजलग॒णाओं ॥ ९ ॥ तम्हा निवाणपसाहगाण जोगाण साहणबिहीए । सम्म॑ सहायिणीए होयबं सह इमाण तए ॥ १०॥ लह वजल्लसिखला इव मंजूसा हव सुनिविडयाडी व | पायारु ध हविज़सु तुममश्लाणं पयशेण ॥ ११॥ ] 5. मयहरापय? | महत्तरापद्र्थापनाविधि | अन्न व विदुमलया मुत्तारत्तीओं रयणरासीओं | अशह्मणहराउ घारह न केअलाओं जलहिवेला ॥ १२ मे कि तु जह सिप्पिणीओ मेरीओ तहा वराडियाओ थि। जलजोणि त्ति समत्ता अखुंदराओ वि घारेह ॥ १३ ॥ एवं राईसरसिट्टिपसुरपुत्तीओं पठ॑रसयणाओ। बहुपदियपंडियाओ सवग्ग-सयणीओं जाओ य॥ १४ ॥ मा ताओ चेथव तुम धारिजसु कि तु तदियराओ वि । संजमभरवहणगणेण जेण सबाओं तुछाओ ॥ १५ ॥ अबि नाम जलहिवेला ताओ धरिउं कयाइ उज्हाह थि। नि्थ पि तुम तु घरिज्ञ चेव एयाओ घन्नाओ ॥ १६९॥ अज्न च दुत्यियाणं दीणाणमणक्खराण विगलाएणं। ऊणहिययाण नित्रंघवाण तह लद्धिरहियाणं ॥ १७ ॥ पयहनिरादेयाणं विज्ञाणविवज्ियाण असुहाणं। असहायाण जरापरिगयाण निबृद्धियाण च ॥ १८ ॥ मग्गविलछुग्गंगीण वि विसमावत्थगयखंडखरडाणं । इथरूवाण वि संजमशुणिक्रासियाण समणीण ॥ १९॥ गुरुणीव अंगपडिचारिग व धावीव पियवयंसि व | हुम् भगिणीव जणणीव अहवब पियमाइमाया व॥ २०॥ तह दहफलियमहादुमसाह व तुम पि उचिययुणसहला । समणिजणसउणिसाहारणा दढ़ हुल्ल कि बहुणा ॥ २१७ एवकमणुसासिऊणं पवत्तिणि; अज्ियाओं अणुसासे | जह एसो तुम्ह गुरू बन्धू व पिया व साथा व ॥ २२॥ एए थि महासुणिणों सहोयरा जेद्भायरों व सया। तुम्हं देवाणुपियाण परमवच्छछतदिच्छा ॥ २३॥ ता गुरुणो सुणिणो बि य मणसा वयसा तहेव काएणं। नय पडिकूलेयवा अबि य खुबहुमन्निय्षाओ ॥ २४ ॥ एवं पवक्तिणी वि हु अखलियतबवयणकरणओ चेव। सम्ममणुयक्तणिज्ञा न कोबणिज्ञा मणाग पि॥ २७॥ कुविया वि कष्टवि तुम्हें सदोसपडिवत्तिपुधरमणुबेल । खामेयवा एसा मिगावह हव नियशुरुणी ॥ २६ ॥ एसा सिवपुरगसणे सुपसत्था सत्थवाहिणी ज॑ से । एसा परमायपरचक्कपिछणे पहुयपडिसेणा ॥ २७ | ] 5. पवर?। 2 2. () पिहसावमाबा व । विधिक १० पी श्र । .... विधिप्रपा | तह निहुय॑ चंकमर्ण निहुयं हसर्ण पर्यपिय निहुय॑ | सब पि चिट्टियं निहयमहव तुब्मेहिं कायवं ॥ २८ ॥ बाहिं उवस्सयाओ पर पि नेगागिणीहि दायधं। * बुहज्जियाज़ुयाहि य जिण-जहगेहेसु गंतव ॥ २९ ॥ ड तओ अणुण्णायमहत्तरापया वंदर्ण दाऊण पद्चक्खाणं निरुद्धाइ करेइ । सबलोगो बंदइ, थीजणों बंदणयं च देइ तीए। जिणहरे गुरूणं समोसरणे य पूया कायब्वा | पवत्तिणीपए महत्तरापए य अणुण्णाए वत्थपत्ताइगहणणं से पि तीसे काउं कप्पइ । ॥ महत्तरापयट्रावणाविही ॥ ३० ॥ 5.3] ._$ ७४७. एवं मूलगुरू सम्मत्तारोवणदिक्खाइकज्जाइईं वक्‍खमाणाईं च पहद्ठाईणि काऊण कयाइ आउपजन्तं # जाणिय, तस्सेव कयअणुजोगाणुण्णस्स अन्नस्स वा अहियगुणस्स गणाणुण्णं करेह | जदाह- सुतत्थे निम्माओ पियदढघम्मोष्णुवत्तणाकुसलो । जाइकुलसंपन्नों गंभीरों लद्विमंतो य ॥ १ ॥ संगहुवर्गहनिरओ कयकरणो पवयणाणुरागी य। एवं विहो उ मणिओ गणसामी जिणवर्रिदेहिं॥ २॥ प तहा - गीयत्था कयकरणा कुलजा परिणामिया य गंभीरा | चिरदि्क्खिया य वुद्दा अज्जा य पवत्तिणी भणिया ॥ ३॥ एयगुणबिप्पमुक्के जो देह गण पवत्तिणिपयं वा । जो वि पडिच्छह नवरं सो पावह आणमाईणि ॥ ४ ॥ जओ - बूढो गणहरसहो गोयममाईहि धीरपुरिसेहि। है जो त॑ ठचह अपत्ते जाणतों सो महापावो ॥ ५ ॥ एवं पवत्तिणिसदो वृढो जो अज्नचंदणाईहि । जो ते ठवह अपत्ते जाणंतों सो महापावों ॥ ६॥ लोगम्मि उड्डाहो जत्थ गुरू एरिसा तहिं सीसा | लट्टयरा अन्लेसि अणायरो होह अग्गुणेस्ु ॥ ७ ॥ क् तम्हा तित्थयराणं आराहंतो जहोहयगणेस । दिज्ज गर्ण गीयत्थो नाऊण पवबित्तिणिपरय च॥ ८॥ जे $ ७९, गणाणुण्णाविही य हमो - सुहतिहि-करणाइएसु गुरू खमासमणपुष्व -'इच्छाकारेण तुब्मे अम्हं दिगाइथणुजाणावणत्थं वासनिक्खेव करेह'- ति सीसं भाणिय, काऊण य वासक्खेवं, पुणो खमासमण« - पुष्व॑-इच्छाकारेण तुब्मे अर दिगाइअणुजाणावणियं नंदिकद्भावणियं देवे वंदावेह”- त्ति भाणिय वाम- » पासे त॑ करिय, वड्डातियाहिं थुईहिं देवे बंदइ । तओ सीसो वंदित्ता भणइ -इच्छाकारेण तुब्मे अम्हे दिगाइअणुजाणावणिय नंदिकड्ठावणिय काउस्सम्गं कारेह” । तओ दोवि दिगाइअणुजाणणत्यं काउस्सम्गं करिंति । तत्थ चउवीसत्थयं चिंतित्ता, नमोकारेण पारिता, चउवीसत्थयं भणित्ता, नमोक्षारतिगपुर्ष गुरू ] 28. गणिसामी। 2 .0. पर्रिशिणे। 3 2. जोव । गणालुज्लाविधि । ७) तंदणुण्णाओ अन्नो वा तहाविहो अणुण्णत्थं नंदिं कडुृइ । सीसो उबउत्तो भावियप्पा तयत्मपरिभावणापरो सुणेह । तयंते गुरू उबविसिय, गंधे अभिमंतिय, जिणपाए पूहय साहुमाईणं देह । तओ वंदिता सींसो मणह -इच्छाकारेण तुब्मे अम्ह दिगाइ अणुजाणह! । गुरू आह-“खमासमणाणं हत्थेणं इमस्स साहुस्स दिगाइ अणुत्ञाय ३! । पुणो वंदित्ता भणइ -'संदिसह किं भणामो ?” गुरू आह -“बंदित्ता पवेयह” । तमो वंदिता भणइ -इच्छाकारेण तुब्भेहि अम्हं दिगाइ अणुत्ताय । इच्छामो अणुसद्ठि' । गुरू भाह -गुरू- गुणेहिं वच्चाहि! । पुणो वंदित्ता भणइ -'तुम्हाणं पवेइयं, संदिसह साह्ण पवेएमि' | गुरू आह -“पवेएहि! । तओ खमासमणपुष् नमोक्कारमुच्चरंतो गुरुं पथक्खिणीकरेइ । गुरू. सीसे वासे खिवंतो -“गुरुगुणेहिं वद्दुहि'त्ति भणइ | एवं तिन्नि वेखा। तओ -तुम्हाण पवेइय, साहण पवेइय, संदिसह काउस्सग्गं करेमि!-त्ति भणिय दिगाइअणुण्णत्थ॑ करेमि काउस्सर्गं, अल्नत्थूससिएणमिश्राइ काउस्सरग करिय सूरिसमीवे उवविसइ। सीसाइया तस्स बंदर्ण दिंति | तओ मूलगुरू गणहरगच्छाणुसट्टिं देह | जहा - - चचन्नोज्सि तुम नायं जिणवयर्ण जेण सयलदुक्खहरं। तो सम्ममिस भवया पउंजियबं सयाकालं ॥ १ ॥ हहरा उ रिणं परम असम्मजोगो अजोगओ अबरो। तो तह इृह जहयबं जह इत्तो केवल होह ॥ २॥ परमो य एस हेऊ केवलनाणस्स अजन्नपाणीण्। मोहाबणयणओ तह संवेगाह सयमावेण ॥ ३॥ उत्तममिमं० ... गाहा ॥ ४ ॥ घण्णाण०....-.गाहा ॥ ५ ॥ संपाबिऊण परमे नाणाई दुहियतायणसमत्थे । भवभयभीयाण दहं ताणं जो कुणइ सो धन्नों ॥ ९॥ अज्नाणवाहिगहिया जहबि न सम्म॑ हहाउरा होंति। तहबि पुण भावबिज्धा तेसि अव्णिति ते वाहिं ॥ ७॥ लता तसि भावविद्धों भवदुक्स्ननिवीडिया तुहं एए। हंदि सरणं पवन्ना मोएयबा पयत्तेणं ॥ ८॥ ले पुण एरेसओं थ्िय तहबि हु मणिओसि समयनीईए । निययावत्थास रिसं भवया निचे पि कायबं ॥ ९॥ तुब्मेहिं पि न एसो संसाराडविमहाकुडिल्लम्मि । सिद्धिपुरसत्थवाहो जत्तेण खर्ण पि मोत्तव्रो ॥ १० ॥ नय पडिकूलेयब वयण्ण एयरस णाणरासिस्स । एव गिहवासचाओ ज॑ सफल होह तुम्हाणं ॥ ११॥ हहरा परमगुरूणं आणाभंगो निसेबिओ होह। विहला य होंति तस्सी नियमा हहलोग-परलोगा ॥ ११॥ ता कुलवह्ुनाएणं कज्ले निःः्भच्छिएहिं वि कहिंपि। एयस्स पायमसू्ल आमरणन्त न मोक्तवं ॥ १३ ॥ नाणस्स होह भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। घन्ना आवकहाए गुरुकुलबासं न झुंचति ॥ १४ ॥. ,..... रे ७ध विधिप्रपा । पुब् बत्थ-पत्त-सीसाइया लद्धी गुरुआयत्ता आसि, संपरय तुज्झ वि सब अणुण्णायमिति गुरू भणह। तंओ अहिणवसूरी उद्दितु सपरिवारों मूलायरियं तिपयाहिणी काऊण बंदेह | पवेयणे य जहा सामायारी- आगय॑ तबं कारिजइ । तओ सो वि अन्ने सीसे निप्फाएंइ त्ति। जस्स गणाणुण्णा तस्संतिओ चेव दिसिवंधो कीरइ । सो चेव गच्छनायगो भणइ । तस्सेव भट्टारगस्स गच्छे आणा पवत्तह त्ति। ॥ गणाणुण्णाविही समत्तो ॥ ३१॥ जे $ ७६, एवं मूलगुरू कयकिश्यो हरिसभरनिव्भरो पज्नंताराहणं करेइ, अन्नस्स वा कारेह | आओ तथिदी मण्णइ - पढम॑ च विहियपूयाविसेसस्स जिणबिंबस्स दरिस्ण गिलाणो कारविज्जद | चउबिहसंघ मीलिय॑ गिलाणेण सम॑ संधसहिओ गुरू अहिगयजिणथुईए देवे वंदेइ । तओ सिरिसंतिनाह-संतिदेवया-खेत्तदेवया- भवणदेवया-समततवेयावच्चगराणं काउस्सग्गा थुईओ य । तओ सक्कत्थय-संतित्थयभणणाणंतरं आराहणादेव- बाए काउस्सग्गो, उज्जोयचउक्कचिंतणं, पारिय उज्जोयभणणं तीसे वा थ्रुशदाणं । सा य इमा «- यस्याः सान्निध्यतो भव्या वाडिछतार्थप्रसाधकाः । श्रीमदाराधनादेवी विशज्नत्रातापहाजस्तु बः ॥ १॥ तओ सूरि निसिज्ञाए उवविसिय गंघे अभिमंतिय “उत्तमट्ठआराहणत्थ बासनिक्खेव॑ करेह” त्ति भणिय, आराहयसिरसि वासचंदणक्खए खिवद । तओ बालकालाओ आरब्म आलोयणदावणं | जे मे जाणंति जिणा अबराहे जेसु जेसु ठाणेसु । तेहह॑ आलोएमी उवध्ठिओ सबृभावेण ॥ १ ॥ छठमत्थों मूढहमणो कित्तियमित्त च संभरह जीवो । ज॑ च न सुमरामि अहं मिच्छा मे दुकड तस्स ॥ २॥ जज मणेण बद्ध असुह वायाह भासिये ज॑ ज॑ । ज॑ ज॑ काएण कर्य मिच्छा मे दुक्ड तस्स ॥ ३॥ हा दुद्दु कयं हा दुष्दु कारियं अणुमयं पि हा दुद्दु अंतोअंतो डज्झइ हियय॑ पच्छाणुतावेणं ॥ ४॥ ज॑ पि सरीरं इट्टं कुडुंब-उबगरण-रूव-विज्ञाणं । जीवोवधायजणयं संजाय त॑ पि निंदामि ॥ ५ ॥ गहिऊण य मोकाई ज॑ंमण-मरणेरु जाई देहाईं। पावेसु पवत्ताईं बोसिरियाई मए ताइ ॥ ६॥ हर गाहाओ भाणिजझ्लनह । तभो संघामणा- साह य साहुणीओ सावय-साबीओ चउबिहो संघो। जे मण-वह-काएहिं आसाईओ त॑ पि खामेमि ॥ ७॥ आयरिय उवज्ञ्ञाए सीसे साहम्मिए कुलगणे य। जे मे कया कसाया से तिविहेण खामेमि ॥ ८ ॥ खामेमि सवजीबे सबे जीवा स्वमंतु मे । मित्ती मे सवभएस बेर सज्झ न केणह ॥ ९ ॥ अनछनविंधि । हि म तजो - अरिहं देवो गुरुणो खुसाहुणो जिणमय॑ मह पमाण। जिणपश्चतं तत्त इय सम्मत्त मए गहिय॥ १०॥ ह्‌३ सम्मत्तपुरस्सरं नमोकारतिगपुष्व 'करेमि भंते सामाइयं” ति वेलातिगमुश्चाराविजाइ । 'पढमें मंते महद्ए! इच्चाइवयाणि य एगेग तिनल्नि तिन्नि वेठाओ मणाविज्जइ | जाव इच्चेशयाईं गांहा । “चत्तारि मेंगलं....जाव....केवलिपन्नत्त धम्म सरणं पवज्ञामि'- इति चउसरणगमन दुक्कडगरिहा सुक्कढाणुमोयणा य * कारिजह । नमो समणस्स भगवओ महई महावीरवद्धमाणसामिस्स उत्तमंद्ठे ठायमाणों पश्चकखाइ सर पाणाइवायं १, सब मुसावाय २, सब अदिन्नादाणं ३, सब मेहुणं ४, सबब परिग्गहं ५, सबब कोह ६, मार्ण ७, माय ८, लोम॑ ९, पिज्े १०, दोसं ११, कलह १२, अब्भक्खाणं १३, अरइरई १०, पेसुत्न १७, परपरिवायय १६, मायामोसं १७, मिच्छादंसणसल्ल १८- इच्चेइयाईं अद्वारसपावद्गाणाइईं जावजीवाए तिविहं तिविहेणं वोसिरइ । तहा तद्दिवस॑ सठणसयणाइसंमएणं वंदर्ण दाऊण नमुक्कारपुब्ं गिलाणो अणसण्ण समु- ४ शरह, भवचरिम पत्चक्‍खाई, तिविहं पि आहारं असर्ण खाइमे साइमे अन्नत्थणामोगेण 9 वोसिरामि । अणागारे पुण आइमआगारदुगस्स उच्चारणं, ते जहा - भवचरिम निरागारं पच्चक्‍्खामि, सब्बे असर्ण स्व खाइम सबं साइम अन्नत्थणाभोगेणं सहस्सागारेणं अईय॑ निंदामि पडुप्पन्न संवरेमि अणागयं पश्चक्खामि, अरिहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं [ सम्यग्दृष्टि ] देवसक्खियं अप्पसक्खिय वोसिरामि त्ति। जह में होज़ पमाओ इमस्स देहस्सिमाइ वेलाए । आहारउवहिदेह तिविदं तिविहेण वोसिरियं ॥ तओ संघो संतिनिमित्तं नित्थारगपारगा होहि त्ति भणंतो अक्खए तस्संमुहं खिवह । “अद्वगावयंमि उसभो' इच्चाइतित्थथुई वत्तवा | “चवर्ण च जम्मभूमी” इचचाइ 'पंचानुत्तससरणा' इच्चाइ वा थुत्तं भाणिय्व । देसणा तदुबबूहणा य विहेया । तहा तस्स समीचे निरंतरं “जम्मजरामरणजले' इच्चाइ उत्तरज्ञयणाणि वा मरणसमाहि-आउरपच्चक्खाण-महापच्चक्खाण-संथारय-चंदाविज्ञय-भत्तपरिण्णा-चउसरणाइपइण्णगाणि वा इसिभासियाणि सुहज्झवसाणत्थं परावत्तिजंति । इत्थ संगहगाहाओ - संघजिणपूथवंदणउस्सग्गवयसोहितयणुलमगंधा । नवकार-सम्मसमहयवयसरणाणसणतित्थथुई ॥ १॥ इय पडिपुन्चखुबिहिणा अंते जो कुणइ अणसण्ण धीरो। क सो कछ्लाणकलावं लदु सिद्धि पि पाउणइ ॥ २॥ सावगस्सवि एवमेव । विसेसो उण सम्मत्तगाहाठाणे - अहण्णं भंते तुम्हाण समीवे मिच्छत्ताओ पश्चिक्षमामि - इथाह सम्मत्तदंदओ पंचराणुब्याणि य भाणिजंति । सत्तखित्तेसु संघ-चेहय-जिणर्बिब-पोत्थय- हकखणेयु द्धविणिओोगं जे कारिजाइ । तओ सामग्गीसब्भावे संथारयदिकर्ख पडिवज्जइ ति। ॥ अणसणविही समत्तो ॥ ३२४७ हे अं ६ ७७, एवं विहिविहियपज्जंताराहणस्स लोगंतरियस्स इद्डीण देहनीहरण कीरइ । अओ अचित्तसंजयपा- रिह्वावणियाविद्दी मण्णद । तत्थ गामे वा नगरे वा अवर-दक्खिणदिसाए दूरमज्ञासले थंडिलतिगं पेहिजइ । सेयसुगंधिचोक्खवत्थतिग न धारिज्जह। तत्येग॑ पत्थरिजाइ, एंगे पंगुराविजइ, एगे-उबरिं आच्छायणे छ्८ट | विधिप्रपा । किजाइ । दिया वा राओ वा परोक्‍्खीभूयस्स मुहं मुहपोत्तियाए बज्झइ पाणिपायंगुट्टंगुलिमज्मेसु ईसि फालि- जाइ | पायंगुट्ठा परोप्परं बज्ञति हत्थंगुट्टा य। मयगदेहं पण्हवित्ता अन्वगचोलपट संथारकिडीए कीरइ, दोरेहिं बज्ञद ! मुहपोत्ति-चिलिमिलियाओ चिंधई पासे ठविज्ञेति । जया राईए परछोगो हवह तया अच्छी- निमीलणं किज्जइ, अंगोवंगा समा धरिज्जेति, मुहं झड त्ति ढकिज्जह होट्टमीलणेणं । नवकारों सुणाविज३ । / हत्थपायंगुट्टंतरेसु छेदो किजइ । पंचंगमवि निबव्भयपासाओ कारिविज्जइ । उवउत्तेहिं पहरओ दायबो। तत्व जे सेहा बाला अपरिणया य ते ओसारियबा । जे पुण गीयत्था अभिरू जियनिद्दा उवायकुसला आसुका- रिणो महाबल-परक्षमा महासत्ता दुद्धरेसा कयकरणा अपमाइणों य ते जागरंति | काइयमत्तयमपरिद्ठवियं पासे ठविंति | जद उद्देह्ठ अट्टहासं वा मुंचइ तो मत्ताओ काइय॑ वामहत्थेण गहाय “मा उड्टे, बुज्ञ बुज्झ गुज्ञगा, मा मुज्झ' इइ भर्णतेहिं सिंचेयव । तहा कलेवरं॑ निज्ञमार्ण जइ वसहीए उद्बेह वसही मोत्तबा | ४ निवेसणे पलहीए निवेसणं, साहीए घरपंतीए साही, गाममज्ञे गामद्धं, गामदारे गामो, गामस्स उज्जाणस्स य अंतरा मंडर बिसयखंडं, उज्जाणे कंडं, महलछयरं॑ विसयखंड, उज्जाणनिसीहियंतरे देसो, निसीहियाए थंडिले रज्ज मोत्तवं | तत्थ एगपासे मुहुत्त संचिक्खंति | तो जइ निसीहियाए उद्भेह तत्थेव पड॒ह य, तो वसही मोत्तब्वा | निसीहियाए उज्जाणस्स य अन्तरा निवेसणं, उज्जाणे साही, उज्जाणस्स गामस्स य अन्तरे गामद्ूं, गामदारे गामो, गाममज्झे मंडल, साहीए कंडं, निवेसणे देसी, वसहीए पविसिय जद पड रज्ज मोक्तब । # पुणो निज्जुढ़ों जइ बीयवेलं एड, तो दो रज्जाणि, तइ्याए तिन्नि, तेण पर बहुसो वि इंतो तिन्नि चेव । तहा पणयालीसमुहुत्तिए्स नक्खत्तेमु मयस्स पदिकिदी दो दब्भभया, दसियामया वा पोत्तला कायबा । एए ते बिहजया इति । जह न कीरंति तो अन्ने दो कद्भेब | संथारगे करिसगावारों कीरइ । तत्थ उत्तरातिगं पुणबसु-रोहिणी-विसाह त्ति छ नक्खत्ता पणयालीसमुहुत्ता | पुत्तलगाणं च समीवे रओहरणं मुहपोत्ती य ठविजद । तहा तीसमुहुत्तिएसु इको कायबो । एस ते बिहज्ज त्ति। तदकरणे एगं कड्डुइ | ताणि य- म अस्सिणि-कित्तिय-मिगसिर-पुस्सा मह-फरगु-हत्थ-चिसा य । अणुराह-मूलसाढा सवण-धणिद्वा य भदवया ॥ तह रेवह त्ति एए पतन्नरस हवति तीसइसुहत्ता । तहा पन्नरसमुहत्तिएसु अभिईंमि य न कायधबो ॥ सयमभिसया भरणीओ अहद्दया-अस्सेस-साइ-जिट्टा य । मर एए छनक्खत्ता पन्नरसमुहृत्तसंजोगा ॥ खंधियगचउकस्स छगणभूइ-कुमारीसुत्ततंतूण य उत्तरासंगेण तिवयणेण रक्खाकरणं | ते च अपया- हिणावत्तेणं वामभुयाहिद्वेणं दक्खिणखंधस्सोवारिं च कायवं । दंडघरो वाणायरिओ सरावसंपुडे केसराइ गेप्हद, छगणचुण्णं वा। दोण्हं साहूर्ण कप्पतिप्पत्थमसंसद्रं पाणगं गहाय अमुगपएसे आगंतब्ं ति संके- यदाणं । जो उण वसहीए ठाइ तस्स मयगसंतियउच्चारपासवणखेलमत्तविर्गिचण-वसहिपमज्जण-तहाविह- » पएसोलिपण-निरोवदाणं, पच्छा सब सो करेइ | पड़िस्सयाओ नीणंतेहिं पृष्ठ पाया पच्छा सीस नीणेय् । : थंडिले वि जत्तो गामो तत्तो सीसं कायबं । तहा उस्समाओ दिगंतरपरिहारेण अवर-दक्खिणदिसाएं ठिये परिट्ववण थंडिलं पमज्जिय तत्थ केसरेहिं अध्वोच्छिन्धाराए विवरिओ क्तो (१५)कायब्ो वाणायरिएण । एयस्स अददय अमुगआयरिओ अमुगउवज्ञाओ । संजईए उण अमुगा जईया पवत्तिणी त्ति दिसिंध करिय, तिविहं तिविहेणं वोसिरियमेयं ति भणइ । परिद्ठवियस्स वि नियत्तंतेहिं पयाहिणा न कायबी । - - 4 2. इति-। महापारिधापनिकाविधि । |, सद्दाणाओ चेव नियत्तियबं । जेणेव पहेण गया तेणेव य न नियत्तियर्व | तहा चिरतणकाले अवरोप्परम- संबद्धा हृत्थचउरंगुलप्पमाणा समच्छेया दब्भकुसा गीयत्थो विकिरइ त्ति आसि । गहियसंकेयद्वाणे कप्पमु- त्तारित्ता कप्पवाणियमायणं दोरय च तत्थेव परिद्राविय, पच्छा नवकारतिगं भणिऊण ढंडयं ठबिय ह॒रियं पड़िक्कता सक्षत्थवं भणंति, उवसग्गहरं ति थुर्त । तओ महापारिद्वावणिया परिट्ठवावणियं काउस्सम्गं करेंति। उज्जोयचउक नवकारं वा चितित्ता पारित्ता उज्जोयगरं नवकारं वा भर्णति । तिविहं तिविहेणं वोसिरिओो ३ इति भर्णते | तओ खुद्दोवद्वओहडावणियं काउस्सग्गे करिंति । उज्जोयचउक्क चिंतिय पारिय चउवीसत्थय भण्णंति । पच्छा बीये कप्पं गामस्स समीवे आगंतुम॒त्तारिंति, कप्पवाणियं मत्तगे च परिट्ववेति | तओ पराहुचे पंगुरित्ता अहारायणियक्कर्म परिहरित्ता सम्मुहचेईहरे गंतु उम्मत्थगसंकेलियरयहरण-मुहपोत्तीहिं गमणागमण- मालछोइय इरियं पडिक्रमिय उप्पराहुत्त चेश्यवंदर्ण काउं संतिनिमित्त अजियसंतित्थय भणंति | तओ उन्म- त्थगवेसपरिहारेण पंगुरिय, जहाविहि चेहयाहं वंदिय, वसहीए आगम्म, खंधिया तईयं कृप्पं उत्तारिंति। तओो आयरियसगासे अविहिपारिट्वावणियाए ओहडावणिय काउस्सम्गं करेंति, उज्जोयचउक्क नवकारं वा चिंतिय पारित्ता उज्जोय नवकारं वा भर्ंति । ज॑ ताल्यमज्झे निक्खित्त भंडोवगरण ते अणाउत्त न भवह, सेसं सब तिप्पिजइ । आयरिय-भत्तपश्चक्खाय-खवगाइए बहुजणसंमए मए असज्ञाओ खमणं च कीरइ, न सबत्य | एस सिवविही । असिवे खमर्ण असज्ञाओ अविहिविगिंचणकाउस्सग्गो य न कीरइ। तओ गिहसल्थेहिं आयरणावसाओ अग्गिसकारे कए ज॑ तस्स भोयणं रोयंतगं त॑ तस्सेव पत्तियाए छोदुं तहिं दिणे तस्थेव धारि- जाइ। काग-चडय-कवोडाहय खण तत्थेव चिंतिजइ। सेयजीवे देवगई, कसिणजीवे कुगई।, अन्नेसु मज्झिमगई तुम अम्हक्केरपरिगाहाओ उत्तिण्णो, वद्भाणं परिग्गहे संवुत्तो -इति भाणिकण अणुजाणाविज्इ त्ति। ॥ महापारिद्दावणियाविही समत्तो ॥ ३३ ॥ रु $ 9८, अणसणं च पायच्छित्तदाणपुष्॒य॑ दिज्जइ त्ति संपय पच्छित्तदाणविही भण्णइ। ते च दसविहं- आलोयणारिहं १, पडिक्मणारिहं २, तदुभयारिहं ३, विवेगारिहं ०, उस्सग्गारिहं ७, तवारिहं ६, छेदारिहं ७, मूलारिहं ८, अणवद्गप्पारिहं ९, पारंचियारिह १०। तत्थ आहाराह्ग्गहणे तहा उच्चार-सज्ञायभूमि-चेइय-जइ्बंदणत्थ पीढ-फलगपश्चप्पणत्थे कुलगण- संघाइकजत्थ वा हत्थसया बाहिं निग्गमे आलोयणा गुरुपुरओ वियडण्ण तेणेव सुद्धो ॥ १ ॥ पडिकमण्ण मिच्छाउक्कडदाणं । ते च गुत्तिसमिहपमाए, भुरुआसायणाए, विणयभंगे, इच्छाकाराइ सामाचारी अकरणे, लहुसमुसावाय-अदिलज्ञादाण-मुच्छासु, अविहीए खास-खुय-जिभियवाएसु, कंदप्प-हास-वि- कद्ठा-कसाय-विसयाणुसंगेसु, सहसा अणाभोगेण वा दंसगनाणाइकप्पियसेवाएं चउवीसविहाए अविराहिय- जीवस्स, तहा आमोएण वि अप्पेस नेह-भय-सोग-वाओसाईंसु य कीर्‌इ । तत्थ लहुसमुसावाया पयला उल्ले मरुए इच्ाह पनरसपया', लहुसअदिन्न॑ अणणुलविय तण-डगल-छार-लेवाइगहणं, लहुसमुच्छा सिज्ञायर- 'कप्पट्रगाईसु वसहि-संथारयठाणाइसु वा ममर्त ॥ २॥ “दंसणनाणचरित्त, तवपबयणसभिद्गुत्तिदेंठ वा। साहम्मियाण वच्छकृत्तणेण कुलगणस्सावि ॥ १ ॥ संघस्सायरियर्स य, असहुस्स गिलाणबालबुदुस्स । उदयग्गिचोरसावयभयकंतारावई घसणे ॥ ९ ॥” 2 “प्रयत्वउ हेमकए, पश्चदखाणे य ग़मणपरियाएं । समदेससंखडीओ ,ख़ुड़्गपरिहारी मुहीभो ॥ १ ॥ अवसगसणे दिलाझूं, एगकुले च्रेव एगदब्बे य। एए सब्बे वि पया, लुहुसमुसा भासणे हुंति ॥२॥” इति 3 आदज् ठिप्पणी। ह श्त्ा 2९७ विधिम्रपा । सहसाणामोगेण वा संभमभयाईहिं वा सबवयाइयारेसु उत्तरगुणाइयारेसु वा दु्चितियाइसु वा कणखु मीस पच्छितत ॥ ३ ॥ ५ पिंडोवसहि सेजजाई गीएण उवउत्तेण गहिय॑ पच्छा असुद्ध ति नायं, अहवा कालद्वाईय अथुम्गयत्थ- मियगहिय॑ कारणगहिओबरियं वा भत्ताइ विगिचितो सुद्धों || 9 ॥ 5. काउस्सग्गो नावा-नइसंतार-सावज्सुमिणाईसु ॥ ५॥ तवबपच्छित्त तु बहुवत्ततबरय ति पच्छा भण्णिही ॥ ६ ॥ तवगब्िय-तवअसमत्थ-तवदुद्दमाइसु पंचरायाइ पज्ञायच्छेद्ण छेदो || ७ ॥ आउट्टियाए पंचिदियवहों दष्पेण मेहुणे अदिण्णमुसापरिग्गहाणं उक्कोसा भिक्‍्खसेवणे ओसन्नया विहारे इच्चाइसु मूल; भिक्खुस्स नवमदसमावत्तीए वि मूल चेव दिजइ ॥ ८ ॥ सपक्खे परपक्खे वा निरवेक्खपहारे अत्थायाण-हत्थारुंबदाणाईसु य अणवद्गप्पो कीरइ | तत्थ ॥ अत्थायाणं दब्बोवजजणकारणं अट्टंगनिमित्त, तसस पउंजणं । हत्थालंबदाणं पुण पुररोहाइअसिवे तप्पसमण- त्थममिचारमंतादिप्पओगो । एये पुण पच्छित्त उवज्ञायस्सेव दिज़्इ ॥ ९ ॥ तित्थयराईणं बहुसो आसायगो रायवहगो रायम्गमहिसिपडिसेवओ सपक्ख-परपक्खकसायविसयप्पदुद्टो अन्नोन्नंकारी थीणद्वीनिद्वावंतों य पारंचियमावजजइ । एयं च पच्छित्त आयरियस्सेव दिज़इ । तबअणव- दप्पो तबपारंचिओ य पढमसंघयणो चउदसपुब्धरम्मि वोच्छिन्ना । सेसा पुण लिंग-खेत्त-काल-अणवद्गप्प- ४ पार॑चिया जाव तित्थं बद्दिहें ति॥ १० ॥ $ ७९, संपर्य तवारिहं पायच्छित्त भण्णइ । तत्थ तवा लहुपणगाओ आरब्भ गुरुछम्मासं जाव बावीसं भवंति । संपर्य पुण सत्त वद्टिति । ते य इमे - पणगं १ मासलहुं २, मासगुरुं ३, चउलहुँ 9, चउगुरुं ५, छल्लहुं ६, छग्गुरुू ७। एएसि च आवत्तीए संपहकाले जीएण निधिगइय-पुरिमडु-एकासण-आयंबिरू-चउ- त्थ-छट्रट्टमाई जहासंख दिज्जेति | लिवी पुण इमा - ।७। ।०।०।१ १।१ 2।९ ९ ०।१ ५ *। पणगाई पंचमिलिया + कछाणं । तत्थ चउत्थदु्ग लब्भर । ते चेव पंचगुणा पंचकल्लाणं तत्थ दसोववासा लब्भन्ति | इयारणि नाणाइपंचायारविसयय कमेण पच्छित्त भण्णइ -नाणायाराइयारेसु अकालपाढाइसु अद्डसु उद्देसए पणगं, अज्ञझयणे मासलहुं, सुयकक्‍्खंधे मासगुरु, अंगे चडलहुं । एवं ताव अणागाढे दसवेयालिय-आयारंगाईए, आगाढे पुण उत्तरज्ञयण-भगवदमाईए उद्देसगाइसु जहसंख लहुमास-मासगुरू, चउलहु-चउगुरुगा, अकओब- हाण-अपत्तअब्चत्ताईणं उद्देसादिकरणे वायणादाणे य चउगुरू । तत्थ अपत्तो तितिणियाई, सुयज्ञयणपज्जाय॑ » असंपत्तो य। तत्थ आइमो इमो - तितिणिए चलचित्ते गाणंगणिए य दुब्॒लचरिफ्ते । आयरियपारिभासी वामावट्टे य पिसुणे य ॥ सुयज्ञयणपञ्ञाओं य- तिवरिसपरियायस्स आयारंगे, चउवासपरियायस्स सुयगड, पंचवासपरिया- यस्स दसा-कप्प-ववहारा, अट्टवासपरियायस्स ठाण-समवाया, द्सवासपरियायस्स भगवई - इच्चाइ; ते असँ- » पत्तो - आरओ बत्ती । कारुअणुओगाणमपडिक्कमणे पणगग; सुतत्थमोयणमंडलीणमप्पमज्जणे पणग । अणुओगे अक्खाणं गुरु-अक्खनिसेजाणं च अद्ठावणे, वंदण-काउस्सग्गाकरणे य चउगुरू। आगाढाणागाइजोगाणं सब- मंगे छल्लहु-चउगुरुगा जहसंख । देसभंगे चउगुरु-बउलहुगा | तत्थ विगहमोगे सबमंगो | एगभाणे विगई आयंबिलूपाउम्शं च गिप्हद। जोगसमत्तीए गुरं बिणा वि सयमेव विगश्गहणकाउस्समां करेह । उस्संघई वा भुंजइ त्ति। देसमंगो नाणनाणीणं पश्चणीययाए निंदाए पओसे पाढाइअंतरायकरणे य मास- » भुरू । पुत्थय-पट्टिमा-ड्िप्पणयाईणं पडणे क्रक्खाकरणे दुम्मंघहत्ममाहणे थुकमरणे धुकाइअन्खरमजजणे पाब- प्रायश्चितविधि । ८९ रूगणे चउलहू। मयंतरे जहण्णाए नाणासायणाए मासलहुं, मज्झिमाए मासगुरु, उक्कोसाए चउलहुं चउथुरुं वा। विसेसओ उण सुत्तासायणाए चउलह्ुु, अत्थासायणाए चउगुरु, विणयवंजणमभंगेसु पणगं । गये नाणाहयारपच्छित्त । ६ ८०, संफादिसु अद्नसु दंसणाइयारेसु देसओ चउगुरु, पुरिसाविक्खाए पुण भिक्‍्खुवसहोवज्ञ्ञायायरियार्ण मासलहु-मासगुरु-वउलहु-चउगुरुगा, सबओ मूल । गय॑ दंसणाइयारपच्छित्त । ४ $ ८१, इओ पर॑ आवर्ति मुत्तुण सुहबोहस्थं दाणमेव लिहिज्जइ -- पुडविआउतेउवाऊपत्तेयवणस्सईण संघडणे नि०, अगादपरितावणे पु०, गाढपरितावणे ए०, उद्दवणे आं०, विगलिंदियाणंतकाइयाणं संघड्रणादिसु जहासंख पु०ए०आं०3० | पंचिदियाणं पुणष ए०आं०3०। कल्लाणगाणि-हत्थ संघद्ठणं तदहजायथि- रोल्गाईणं, दप्पओ पंचिदियउद्वणे पंचक्लाणं । दप्पो धावणवग्गणाई। आउड्डियाए मूल । बीयसंघट्टे ससिणिद्धे य नि० । उदयउल्लसंघट्टे 7०० । सच्चित्ते मुहपोत्तियाए गहिए पु० । अद्दामलगमित्तसचित्तपुदवीए, अंजलिमिततोदगे सश्चित्ते मीसे य उद्दतिणु आं० | मयंतरे नि०। नामभिप्पमाणउदगप्पवेसे वत्थिमाइणा कोर्स जाव नदीगमणे य आं० । दुक्कोस जाव नावा-उड्धबाइणा नदीगमणे आं० । कोसं जाव हरियाणं भूदगअगणिवाऊर्ण विगरलिंदियाणं पंचिदियाणं मद्णे कमेण 3०, आं०, उ०, पंचकल्लाणाणि । कोर्स ओसाए मीसोदगे य गमणे पु०, कोसदुगे ए०, जोयणे आं० । सजीवदगपाणे छट्ठट, जदूगामोयणे गाढनइ- उत्तारणे य आं० । पईवफुसणयसंखाए आं० । कंबलिपावरणं विणा पईवफुसणे 3०, सकंबले आं०, 3०, ७४ विज्ञुफुसणे नि०, अकंबले पु० । छप्पईहरनासणे पंचकल्लाणं । संनाकिमियाइणे 3० । उदउल्लवत्थसंघट्टे पु० | जलणे संघट्टिए ओसक्किए य आं० | किसलयमलणे 3० । संखाईयाणं बेइंदियाणं उद्दवणे दोन्नि पंचकल्लाणाईं, उप० २० | संखाईयाणं तेइंदियाणं उद्दवणे तिन्नि पंचकल्लाणाइं, 3० ३०। संखाईयाणं चउरिंदियाणं उद्दवणे चत्तारि पंचकलछाणाईं, 9० । जहन्न-मज्झिम-उक्कोसेस मुसावाय-अदिल्लादाण-परिग्गहेसु जहासंख॑ ए०, आं०, 3० । मेहुणस्स चिताए आं० । मेहुणपरिणामे 3० । रागे छट्ढ । नपुंसगस्स पुरिसस्स वा वयण- # सेवाए मूलं । अन्नोन्न करणे पारंचिय | गब्भाहण-गब्मसाडणेसु मू्ू । सकाममेहुणसेवणे मू् । करकम्मे अट्टमं । बहुठाणे तम्मि पंचकल्लाणं । लेवाडदब्बोवलित्तपत्ताइपरिवासे 3० । सुंठिमाइसुकसंनिहिभोगे उ० । घयगुलाइअछसंनिहिभोगे छट्ठं । दिवागहिय-दिवाभुत्ताइ-सेसनिसिभतते अट्टमे । सुक्क-अल्नसंनिहिधारणे जहासंख पु०, ए० । गये मूलगुणपायच्छित्त । ६ ८२. आहाकम्मिए कम्मुद्रेसियवरिममेयतिगे मिस्सजायअंतिममेयदुगे बायरपाहुडियाए सपश्चववायपर- » गामामिहंडे लोभपिंडे अणंतकाय-अणंतरनिक्खित्त-पिहिय-साहरिय-उम्मीसापरिणयछज्जिएसु गल्ूतकुद्द-पाउ- यारूढदायगेसु गुरुअचित्तपिहिए संजोयणा-इंगालेसु वह्ममाणाणागयनिमित्ते थ उ० । कम्मेदसिय- आइममेए मीसजायपढममभेदे धाईपिंडे दूईपिंडे अईयनिमित्ते आजीवणापिंडे वणीमगपिंडे बादरचिगिच्छाए कोहमाणपिंडेसु संबंधिसंधवकरणे विज्ञामन्तचुण्णजोगर्पिडेस पयासकरणे दुविहे दबकीए आयभावकीए लोइय-पामिश्वपरियट्टिए निपश्चवायपरग्गामामिहडे पिहिओब्मिन्ने कवाडोब्मिन्ने उक्िद्मालोहडे अच्छि- आणिसिद्ेस पुरोकम्म-पच्छाकम्मेस गरहियमक्खिए संसत्तमक्खिण पत्तेयअणंतरनिक्खित्तपिहियसाहरिय- उम्मीसापरिणयछड्डिएसु बालवुद्ाइदायगदुद्े पमाणोछुंपणे सघूमे अकारणभोयणे य आं० । अब्भवपूरग- अंतिमभेयदुगे कडमेयचउक्के भत्तपाणपूरण मायापिंडे अणंतकायपरंपरनिक्खित्तपिहियाइस मीस-अणंत- अणंतरनिक्खित्ताइसु य ए० । ओहोंदिसिए उद्दहिमेयचउके उवगरणपूईैण चिरह्नविए पायडकरणे छोगोत्तर- ] 8 0 "पिरोडिगाईण । विधि० ११९ दर विधिपपा । परियष्ियपामिथे परभावकीए सग्गामामिहडे दहरोब्मिन्ने जहन्ममालोहडे पंदंमब्भवपुरंगे सुहुमसिगिध्काए गुणसंधवकरणे मीसकद्दमेण लवणसेडियाइणा य मक्खिए पिट्ठाइमक्खिए कत्तगलोढगविरोलंगपिजगदायगेशु पसेयपरंपरट्रवियाइस मीसाणंतरद्ववियाइसु य पु० । इत्तरद्रविए सुहुमपाहुडियाए ससिणिद्धे ससरक्खमष्लिए मीसपरंपरठवियाइसु पत्तेयाणंतबीयद्रवियाइसु य नि० । मूलकम्मे मूलं। ६ ८३, विसेसओ पुण पिंडदोसपायच्छित्त पिंडालोयणाविहाणाओ नेय॑ । त॑ चेमे - कयपवथणप्पणामो सत्तालीसाई पिंडदोसाणं। वोच्छ पायच्छित्त कमेण जीयाणुसारेण ॥ १ ॥ पणगं तह मासलहं मासगुरु चउलहु च चउगुरुयं । सण्णाओ नि"पुःए"आ“उ" जोगओ जाण कलछ्लाणं ॥ २॥ सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणाइह दोसाओ | दस एसणाइह दोसा संजोयणमाइह पंचेव ॥ ३ ॥ आहाकस्मे चउगुरु' दुबिह उद्देसियं बियाणाहि। ओहबिभागेहिं तहिं मासलह ओहनिशेसो ॥ ४॥ बारसविहं विभागे चहु उद्िद्ठ कडं च कम्मं च। उद्देस-समुद्देसा देससमा देसभेएणं ॥ ५ ॥ चउसेए उदिट्टे लहुमासो अह चउधिहंमि कड़े । गुरूसासो चउलहुय कम्मुदेसे य नायबं ॥ ९॥ कम्मसमुदेसाइस तिस चउग़रुय॑ भणंति समयण्णू । दुविह तु पूहकम्मं उबगरणे भक्तपाणे वा ॥ ७ ॥ उवगरणपृहमासलहु मासगुरु भत्तपाणपूहम्मि | जावंतिय-ज३-पासंडि-मीसजायं भये तिबिहं ॥ ८ ॥ जावंतिमीस चउलह चडउगुरु पासंडि-सपरमीसंमि' । चिर-इत्तरमेएणं निड्िद्ठा ठावणा दुषिह्ाा ॥ ९ ॥ चिरठबिए लहुमासो इत्तरठबियंमि देसिय पणगं'। पाष्डडिया विहु दुविहा बायर-सुहमप्पयारेहिं॥ १० ॥ बायरपाहुडियाए चउगुरु सुहमाह पावए पणगं'। पागड-पयासकरणं ति बिति पाओपरं दुबिह ॥ ११॥ मासलह पयडकरणे पगासकरणे ये चउलहुं लहश । अप्प-पर-दघ-भावेहि चउबिहं फीयमाहंस ॥ १२॥ अपष्पपरदधकीए समावकीए य होह चउलहुय॑ । परभावक्कीए पुण भासलहूं पायए समणो ॥ १३॥ अह लोउत्तर-लोहयमेएण दुविष्माहु पामि् । लोउत्तरि मासलडहू चउलहुय लोहए हवहइ' ॥ १४॥ परियंधिय पि दुविह लोउत्तर-लोइयप्पयारेहि । लोउत्तरि मासलहू चउलहुयं लोइए होश ॥ १७ ॥ प्रायश्रित्तविधि-पिण्शालो चनाविधानप्रकरण । अभिहरछुसु दुबिहं सगास-परगामभेयओ तत्थ । चरम सपथवाय अपथवाय च हय दुबिह ॥ १६ ॥ सप्पश्षयायपरगासआहड़े यडुश॒रु लह॒ह साह । निषथवायपरगामआहके चउलहूं जाण ॥ १७॥ मासलह सरगामाहडंसि तिविह य होह उब्सिक्ष । जउ-छगणाइबिलिशु भिन्न तह ददरूब्सिन्न ॥ १८ ॥ लह य कवाडुब्मिन्न लहुसासो तत्थ वदहरूड्भिल्ले । चउठलहुय सेसदुगे' तिविहं मालोहड तु भमवे ॥ १९१ डउकिट-मज्झिम-जहण्णमेयओ तत्थ चउलहुकिट्टे । लहुमासो य जहन्ने गुरुमासो मज्झिमे जाण'॥ २० ॥ सामि-प्पहु-तेणकए तिबिहे विहु चउलहुं तु अच्छिज़े' । साहारण-चोछग-जडभेयओ तिविहमणिसिट्ट ॥ २१ ॥ तिबिदे वि तत्थ चडलहु" तत्तो अज्ञझोयरं बियणाहि। जावंतिय-जइ-पासंडिमीसभेएण तिविकप्पं ॥ २२॥ सासलहु पढमभेए सासगुरु जाण चरमभेयदुगे। हय उमरगसमदोसाणं पायच्छिसं मए बुत्त ॥ २३ ॥-दारं। धाईउ पंचखीराइमेयओ चउलहुं तु तप्पिडे' | चउलहु दुईपिंडे सगाम-परगामभिन्नमि ॥ २४॥ तिथबिहं निमित्तपिंड तिकालभेएण तत्थ तीयंमि। चउलहु अह चडउगुरुयं अणागए वद्माणे य ॥ २५॥ जाइ-कुल-सिप्प-गण-कम्मभेयओ पंचहा विणिदिद्ो । आजीवणाहपिंडो पच्छित्तं तत्थ चडलहुया' ॥ २६ ॥ चउलहु वणीमगपिडे' तिगिच्छपिड दुह्या भणन्ति ज्ञिणा। बायर-सुहुम च तहा चउलहु बायरचिगिच्छाए ॥ २७॥ खु्ठभाए मासलहू' चउलहुया कोह-माणपिंडेस । सायाए सासगुरू' चडउगुरू तह लोसपिंडंमि' ॥ २८॥ पुष्वि-पच्छासंधवमाहु दुह्ाा पठममित्थ गरुणथुणणे । मासलहु तत्थ बीय॑ संबंधे तत्थ चउलहुयं ॥ २९॥ विज्ञा संते' चुएणे' पा कह चउलहुय । सूले चल सूलकम्से उप्पयणदोसपच्छित्त ॥ ३० ॥-दारं। संकियदोससमाणं आवज्जह संकियंमि पच्छित्त । दुबिहं मक्खियमुत्त सबित्ताचित्तमेएणं ॥ ३१॥ लआूवगवणमक्खियमिह तिविहं सचित्तमक्खिय बिंति। घुटबीमफक्खियसिस्थ वलदिह बिति गौयत्था ॥ ४२॥ ! “दरों अल्कशाशित्रस्थनस्पः ( इति दिणी । €ड्ढै €छ विधिप्रपा । ससरक्खमक्खिय तह सेडिय-ओसाइमक्खियं चेव | निम्मीस-मीसकदसमक्खियमिह पुडबिसक्खियं चउहा।। १३ ॥ तत्थ कमेणं पणगं लहुमासों चउलहू य मासलहू | दगमक्खिय पि चउहा पच्छाकम्मं पुरोकम्म ॥ ३४ ॥ ससिणिद्ध उदठछ॑ चउलहु चडलहु य पणग लहुमासा | वणमक्सखियं तु दुबिह पत्तयाणंतभेएणं ॥ ३५ ॥ उक्तद्-पिट्ठ-कुकसमेया पत्तेयमक्सिय तिविह । तिबिहे विहु लहुमासो गुरुमासो5णंलमक्खियए ॥ ३६ ॥ गरहियहयरेहिं अचित्तमक्स्वियं दुविहमाहु साहुबरा । गरहियअचित्तमक्खियदोसेणं लह॒इ चउलहुय ॥ ३७ ॥ अगरिहसंसत्त अचित्तमक्खियंमि वि लहेइ चउलहुय॑ । निक्खित्त पुदवाइस अणंतर-परंपरं ति दुह्या ॥ ३८॥ ठबिए सचित्तमू-दग-सिह्-पवरण-परित्तवणस्सइ-तसेसु । चउलहुय-मासलहुया अणंतर-परंपरेसु कमा ॥ १९ ॥ अइहरपरंपरठ बिए मीसेसु य तेस मासलहु-पणगा | अहरपरंपरठविए पणग पत्तेयणंतबीएस ॥ ४० ॥ सबचित्तणंतकाए अणंतर-परंपरेण निक्खित्ते । चठगुरू मासगुरु कमा मीसे गुरुमास पणगाईह ॥ ४१ ॥ तह गुरुअचित्तपिहिय सचित्तपिहियं च मीसपिहियं च। पिहिय तिहा अभिषिय चउगुरुपमचित्तगुरुपिहिए ॥ ४२॥ पिदिए सचित्त सू-दग-सिहि-पवरण-परिक्तवणसइ-तसेहिं । चउठलहुय-मासलहुया अणंतर-परंपरेहि कमा ॥ ४३ ॥ अहरपरंपरपिहिए मीसेहि य तेहिं मासलहु पणगा । अह्रपरंपरपिहिए पणगं पत्तेयणंतबीएहिं ॥ ४४ ॥ सचित्तअणतेणं अणंतरपरंपरेण पिहियंमि । चडगुरुमासगुरू कमा मीसेणं मासगुरु पणगा ॥ ४५॥ साहरिए सजिय म्‌-दग-सिहि-पवण-परिक्तवणसह-तसेसु । चउलहुय-मासलहुया अणंतर-परंपरपरेण कमा ॥ ४६ ॥ अश्रतिरोसाहरिए मीसेसु उ तेखु मासलहु पणगा। अहरतिरोसाहरिए पणग्ग पत्तेयणंतबीएसु ॥ ४७ ॥ सचित्तअणंतेरुं अणंतर-परंपरेण साहरिए । चडगुरु मासगुरु कमा मीसेसु मासणुरू पणगा ॥ ४८॥ ">> ++-बीममम५+3+---24-+ ५33५५ -+--8.-बजन-»-नक कब न-+-3न--ऊ५५५ ९५»... # “उत्कृष्ट कार्लिगाम्नवाइंक्यादीनां 'छक्ष्णीकृतानि खंडानि अम्लिकापतन्रसमुदायों वा उदूखलखण्डितसैन्नक्षितं पिष्ट आमतंदुलक्षोदादि ।-इति 5 2३3 टिप्पणी । 4 पृृथिम्यादिधु । 24 'संद्ृतदोष अतिक्षिपसमानयोग्यत्वान्न मेदाल्यानम*-हति 3 द्विप्पणी 4 प्रायश्रित्तविधि-पिण्डालोचनाविधानप्रकरण । ८५६ चउगुरु अचित्तगुरु साहरिए' अह दायग त्ति थेराई। थेर-पहु-पंड-वेबिर-जरियं घबत्त-मत्त-उम्मत्ते ॥ ४९ ॥ छिन्नकरचरणगुधिणिनियलुंतुयबद्धबवालवच्छाए । सखंडह पीसह सुजह जिमह विरोलइ दल सजिय || ५० ॥ ठवह बलि ओयत्तह पिठराहइ तिहा सपचवाया जा। साहारणचोरियग देह परक परदटं वा॥ ५१ ॥ दितेसखु एस चठउलट्ु चडगुरू पगलतपाउयारूढे । कत्तह लोढइ पिजह विक्खिणइ पमइुए य सासलहू ॥ ५२॥ छक्कायवरगहत्था समणट्ठा णिक्खिवित्तु ते चेव । घटटली गाहंती आरंभमंतीह' सद्ठाणं ॥ ५३ ॥ भू-जल-सिहि-पवण-परित्तथद्दणागाढगाढ परियावे । उद्दवणे वि य कमसो पणगं लहु-गुरुपमांस-चडलहुया ॥ ५४॥ लहुमासाई चउगुरू अंत बिगलेखु तह अणंतवबणे | पंचिदिएस गुरुमसासाह जाव कल्लाणग एगं॑ |! ५७ ॥ एगाह दसंतेसु एगाह दसंत्य सपच्छित्त । तेण परं दसगगं चिय बहुएसु वि सगल-बिगलेसु' ॥ ५६ ॥ पुढदवाह जिउम्मीसे चउलहु पणरग्ग च बीयउम्मीसे । मिस्सपुठटवाइ सीसे सासलहुं पावए साहू ॥ ५७ ॥ चघडगुरु सचित्तअणतसीसिए मिस्सणंतओम्मीसे । मासशुरू दुविह पुण अपरिणय दघ-माजेहिं ॥ «७८ ॥ ओहेण दघ भावापरिणयभेएसु दुसु वि चउ लहुय॑ । दृधापरिणमिए पुण ज॑ नाणत्तं तयं खुणह ॥ ५९ ॥ अपरिणयंमि छकाए चउलहु पणग्ग च बीयअपरिणए । मीसछक्कायापरिणयदोसे लहुमासमाहंसु ॥ ६० ॥ सबित्तणंतकाए अपरिणए चडउगुरू मुणेयत्र । मीसाणंत' अपरिणए गुरुमासो भमासिओ गु॒ुरूणा ॥ ६१॥ घडलहुयं लहइ मुणी लिक्ते दहिमाह लिसकरमत्ते । छड्डियमिह पुदयाइसु अणंतर-परंपरं ति दुह्ा ॥ ६९२॥ छड्ड्यसचित्त भ-दग-सिहि-पथण-परित्तवतणसह-तसेछु । चउलहुय-मासलहुया अणंतर-परंपरेसु कमा ॥ ९३ ॥ अहरें-तिरोछट्टियए मीसेस य तेसु मासलहु पणगा। अहर-तिरोछड्डियए पणगं पत्तेयणंतबीएसु ॥ ९४॥ ] & विक्खिणिह। 2 'खस्थानमेवाहद । 3 मासशब्दः प्रत्येक अभिसम्बध्यते। 4 अनेनोहिलेनान्येप्मपि प्रायश्चिशस्थानेष्वयमेव न्‍्यायः। 5 अन्नापि संहतरोषबन्त भेदाखस्यानम्‌। इति 3 टिप्पणी। 6 ४. चड़गृुण”। / गृ्माणे। 8 छु्तससंमीक पद । 9 ग्ृह्ममाणे। 40 अधिर इति साक्षात्‌, तिर इति परेपर। ४६ विधिप्रषा । सब्ित्तणंतकाए अण॑तर-परंपरेण छड्डियए । चउठगुरुमासग़ुरू कमा भीसे गुरुमासपणगाह ॥ ६९६७ ॥ -दारं। हय एसणदोसाणं पायर्छत्त निरूवियं इत्तो । संजोयणाह चडगुरू' अहृष्पमाणंमि चद़लहुयं ॥ ६९६ ॥ 8 इंगाले अउशुरूुपा' चउलहु धूसमे' अकारणाहारे'। घासेसणदोसाणं इय पायच्छिशमक्स्वायं ॥ ६७ ॥ ज॑ जीयदाणसमुत्त एय पायं परमायसहियस्स । इत्तोथिय ठाणंतरमेग वह्धिज् दष्पक्ओ ॥ ६८ ॥ आउट्टियाइ ठाणंतरं च सट्टाणमेव वा दिल्ला । ॥ कप्पेण पडिक्रमर्ण तदुभयमिह या विणिदिटं ॥ ९९ ॥ आलोयणकालंमि वि संकेस-बिसोहिभावओ नाउं | हीणं वा अहिय॑ वा तम्मत्त बावि दिज्जाहि | ७० ॥ पच्छित्तकण अहियप्पयाणहेड़ च हत्थ दबाई । अलमित्थ वित्थरेणं सुत्ताओ चेव जाणिज्ञा ॥ ७१॥ छ इय परच्छित्तविहाणं जीयाओ पिडदोससंबद्ध । जिणपहसरीहि हम॑ उद्धरियं आयसरणत्थं ॥ ७२ ॥ ज॑ किंचि इत्थणुचियं अन्नाणाओ मए समक्खाय। त॑ मह काऊण द्य गुरुणो सोहिंतु गीयत्था ॥ ७३ ॥ ॥ इति पिंडालोयणाविहाएणं नाम पयरणं समत्त ॥ ओः » ६6 ८४, सेज्ञायरपिंडे आं० । मयंतरे पु० । पमाएण कालद्भाणातीए कण नि०, पमायओ तब्भोगे नि०, जन्नहा 3० । उबओगस्स अकरणे अविहिणा वा करणे पु०, अहवा नि०, अहवा सज्ञाय १२५। उवओगमकाऊण सभत्तपाणविहरणे आं० । गोयरचरियअपडिक्रमणे पु० । काइयभूमीअप्पमज्जणे य नि० । सुत्तपोरिर्सि अत्थपोरिर्सि वा न करेइ पु०, तदुभय न करेइ उ० | हरियकाय पमहइ पु० । झुसिरतर्ण सेवए पु० । निकवारणदुप्पडिलेहियदूसपंचगं, अशुसिरतणपंचर्ग चम्मपंचगं पुत्थयपंचग अपडिलेहियदूसपंचगं च # सेवए कमेण नि० नि० नि० आं० ए० | गमणियापरिभोगे अचक्खुबिसए वा दिणसंघाए पु० । मुत्तो- चारअसणाइपरिट्गप्प॑ अविहिणा परिट्ववह, गिहिपच्चक्ख अगुत्त भासइ भुंजह बर, पड़िमानियडे खेलमछगं धारेद, गिलाणं न पडिजागरह, अकाले सागारियहत्थेणं वा अंग महृवेह्र मक्खाएंद वा, उस्संघट्टसंथारण चडइ, नम्मगाह झुसिर परिभुजइ, दारदेसे पवेस-निम्गमभूर्ति न पमज्जह, सज्ञाय्रम्रकाहझण भुंजइ, अवेलाए उच्चारभूमि गच्छइ, सागारियस्स पिच्छंतस्स काइयसन्नाह वोसिरइ - सबत्य पु० | भ्रपारिए भत्तं भुंजह दव वा » पिचह पु०, अथवा सज्ञाय १२७ | ठवणकुछेसु अणापुच्छाए पब्रिसह्‌ ए० । दत्थिरायकहासु 3०, देस- भत्तकहासु आं०। कोह-माण-मामाकरणे आं०, छोभकरणे 3० । अणणुल्लाए संधारए आरोहर आं० । मयंतरे पु० । संनिहिपरिभोगे आं० । कालवेछाए उदगपाणे पायधोवणे य आं० । अविहिदेवबंदणे सबरहयअवंदणे उ० | भ्यंतरे देवगिहे देवावंदण पु० । पुष्फललबंगाइभक्लणे 3० । निसिबरणणे सण्णाएं त्र 3० | >ौ+न>नककलकनलन- ++नकल दि धन जि भा ++++++ ४-+--+++++-+-+_+ [मम 6 2लक१वी जल कल वन कक पर जजज+ भा लनज हनते अं ओओ कण नल “की नलजशक 3ज--->«+२२०+०+ चलन. इतः संयोशज्रादिदोधाणां प्रायश्षिन्षमित्यर्थ: ।* इति 3 टि़ली । £ .. तास्ि "जाम प्रयाण | प्रायश्रित्तविधि । हक. दिक्षंतयणे 3० । वियड्ठपाणे 3० । पकखाहरित्त चाउम्मासाइरिततं वा कोर्व परिवासेंह उ० । दिणंअप्य डिलेहिय-अप्यमज्जियथंडिल्ले वोसिरह उ०। अभंडिल्अकरणे सज्ञाय ५० । गुरुणो अणाछोइए भत्तपाणे संउज्ञायअकरणे गुरुपायसंघट्टणे उ० । पक्खिए विसेसतर्व अकरिंताणं खुड्डय-थविर-मिक्खु-उचज्शाय-सूरीणं जहसंख॑ नि० पु० ए० आं० उ० । चाउम्मासिए पु० ए० आं० उ० हद्गाणि | संवच्छरिए ए० आं० उ० छट्ट-अद्टमाणि । निद्वापमाएण एगम्मि काउस्सरंगे वंदणए वा, गुरुणो पच्छाकए पुष्षे पारिए भम्गे वो, 2 आल्स्सेण सबहा अकए वा नि०, दोसु पु०, तिसु ए०, सबेसु आं०। सघ्ावस्सयअकरणे उ० | कृत्तियवउमासयपारणए अन्नत्थ अविहरंताणं आं० । खुरेण लोय कारेइ पु०, कत्ततीए ५० । दीइद्धाण- पडिबले गिलाणकप्पावसाणे वरिसारंम॑ विणा सब्ोवहिधोवणे, पमाणण पठणपहरे मत्तगअपडिलेहणे, तह चउम्मासिय-संवच्छरिएसु सुद्धस्स वि पंचकल्काणं । कओववासस्स पढम-पच्छिमपोरिसीसु पत्तमअपडिलेहणे पडिलेहणाकाले य. फिडिए अद्ठमयकरणे य एगकल्लाणं । सह-रूव-रस-फरिसेसु दोसे आं०, रागे उ० | ४ गंधे राग-दोसेसु पु० | मयंतरे सद-रूव-रस-गंधेसु रागे आं०, दोसे उ०। फासे राग-दोसेसु पु० | अचि- त्तचंदणाइगंधग्घाणे पु०। अवर्गहाओं अद्भुद्दवत्थप्पमाणाओ मुहरणंतण फिडिए नि० । रयहरणे उ०। नवरमवर्गहो इत्थ हत्थप्पमाणो । मुहणंतणु नासिएु 3० । रयहरणे छट्ठढ । मुहपोत्तियं विणा भासणे नि० । उवद्दी जहृण्णाइमेया तिविहों - मुहपोत्ती केसरिया गुच्छओ पायठवर्ण ति जहज्नो । पडला रयत्ताणं पत्ता- बंधो चोलपट्टी मचतओ रयहरणं ति मज्झिमो । पत्ते तिन्नि कप्पा य त्ति उकोसो । एस ओहिओ उदबद्दी | ४ ओबग्गहिओ पुण जहल्ी पीढनिसिज्ञादंडडछणाई । मज्मिमो वासत्ताणपणगं, दंडपणगं, मत्तगतिगं, चम्म- तिगं, संथारुत्तरपट्टो इच्चाई । उक्ोसो अक्खा पुत्थगपणगं इच्चाई | ओहिओवग्गहिए जहज्नओवहिम्मि वि चुयलद्धे अप्पडिलेहिए वा नि० । मज्झिमे पु० । उक्षिद्ठे ए० । सब्ोवहिम्मि पुण आं० । जहन्ने उवहिम्भि नासिए, वरिसारंभ विणा धोविए 3० । गमिऊर्ण गुरुणो अणिवेदिए य ए० । मज्झिमे आं० | उक्रिद्ठे उ०॥ आयरियाईहिं अदिन्न॑ जहन्नमुवहिं धारयंतस्स भुंजंतस्स वा गुरुमणापुच्छिय अन्नेसिं दिंतस्स य ए० | # मज्मिमे आं० । उक्िट्ठि 3० । सब्बोवहिम्मि नासियाइगमेसु छट्ठं । ओसन्नपब्बावियस्स ओसन्नया विहारिस्स इत्थी-तिरिच्छीमेहुणसेविणो य मूल | सावजसुविणे काउस्सग्गे उज्जोयगरचउकचिंतणं । माणुस-तिरिक्ख- जोणीए पड़िमाए यपुग्गलनिसग्गाइमेहुणसुविणे पुण उज्जोयचउक्क नमोकारो थ चितिजाइ । मयंतरेण सागरवरगंमीरा जाव । सुमिणे राइभोयणे उ० । निक्वारणं धावणे डेवणे, समसीसियागमणे, जमलियजांणे, अंररंग-सारि-जूयाइकीलाए, इंदजाल-गोलयाखिलणे, समस्सा-पहेलियाईसु उक्कुट्टीए गीए सिंटियसद्दे मोर- # अरहइ्ाद जीवांजीवरुए, सूहमाइलोहनासे 3० । उदवबिष्वए पडिक्रमणे आं० । दगमध्वथिगमंणे आं० । बाघारे आं० | तसपायाइभंगे आं० । अपडिलेहियठवणायरियपुरओ अणुट्टाणकरणे पु० । इत्थीए अवर्धैबे- फासे जां० । वत्थप्फासे नि० । अंगसंघड्टे नि० | वत्थसंघट्टे अबहुवयणे य सज्ञाय १०० | जोवस्सियो- निसीहिया अकरणे दंडगअप्पडिलेहणे समिश्गुत्तिविराहणे गुणबंतर्निदणे नि०। वासावासम्गहिय पीढफले» गाइ ने समप्पेह पु० । बरिसंतसमाणियभत्तादिपरिमोगे आं० । रुक्खपरिट्ठावणे पु० । सिणिद्धपरिद्वावणे ४ 3० । सयहरणस्स अपडिलेहणे पु० । मुहपोत्तीयाए नि० । दोरए पत्तबंघे तेप्पणए मुहण॑तेरं ये खंरडिए 3० । गंतीजोयणगर्मणे गमणियाजोभणपरिभोगे जोयणमचक्खुबिसणए 3० । आमोगेणं जोयणमित्ति गंतीगमणे छट्ठ हक्षणं। गमणागमर्ण न आंलोएड, इरियावहिये न पडिकमंह, वियाल्वेलांए पाणग न पेंले- बंखाहै, उधारपौसबणकालभूमीओ एगरत्त न पड़िलेहइ नि० । सीसंदुवारिय करेह पु० । गरुरूपर्दख पॉर्डे- णइह उ० । एगओ दुहओ था कृप्पअंचलछा खंधारोबिया गरुरूपक्ख । बोडिय-खुडुयाणं व उत्तरासंगे उ०। * चौलपट्यकच्छादाणे 3० | चउप्फलं मुझलरूं वा कप्पं खंघे करेह पु० । दो वि बाहाओ छायंतो संजहपा- ८८ विधिभपा । उरऐणेणं पाउणइ आं० । गिहिलिंग-अज्नतित्यियलिंगकृप्पकरणे मूरं | ओगुट्टि चउफलकप्प वा हत्थों- खित्तदंडएण वा सिरे क॒प्पं करेह पु०। उत्तरासंग न करेइ, अचित्तं लसु्ण भक्खेइ, तण्णयाइ उम्मोएड पु०। गंठिसहियं नासेह उ०। कप्पं न पिबह उ० । सति सामत्यथे अट्ठमि-चउद्सि-नाणपंचमीसु चउत्थं न करेह 3० | वत्थधोवणियाणए पहकप्पं नि० | पमाएण पद्मकखाणअग्गहणे पु० । वाणमंतराइ- £ पडिमाकोऊहलपलोयणे पु० । इत्थियालोयणे ए० । दंडरहियगमणे 3० । निसागमणे सोवाणहे कोस- दुगष्पमाणे आं० । अणुवाणहे नि० । सिया एगहओ लडझुं विविहें पाणमोयण्ण | भद्ग मद॒र्ग खुचा विवण्णं विरसमाहरे ॥ इथेव मंडलीवंचणे 3० । गये उत्तरगुणाइयारपच्छित्त ।। * ॥ समत्त च चारित्ताइयारपच्छित्त ॥ 8 ८७, उववासमभंगे आं० २, नि० ३, ए० ५, पु० ५ । सज्ञायसहस्सदुगं, नवगारसहस्समेग । आयं- ४ बिलमंगे आं० २, नि० ३, पु० ० । निश्चिगइयभंगे पु० २ । एकासणाइभंगे तदहियपच्चक्खाणं देये । गंठिसहियाइभंगे दबाइअमिग्गहभंगे वा संखाए पु० । तव॑ कुणंताणं निदाअंतरायाइकरणे पु० । ६ ८६. श्यार्णि जोगवाहीणं अन्नाणपमायदोसा जहुत्ताणुद्णे अकए पायच्छित्त भण्णइ - उस्संघट भुजह 3० । लेवाडयदब्बोवलित्तस्स पत्ताइणो परिवासे 3० | आहाकम्मियपरिभोगे 3० । सन्निहिपरिमोगे उ०। अकालसन्नाए 3० | थंडिले न पडिलेहेइ 3० । अपडिलेहियथ्थंडिले उड्धुं करेइ 35० । असंखड करेह ४ उ०। कोह-माण-माया-लोभेसु 3०। पंचसु वश्सु 3०। अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाएसु उ०। पुत्थयं भूमीए पाडेइ, ककक्‍्खाए करेइ, दुग्गंधहत्थेहिं लेइ, धुक्काहिं भरेइ, एवमाइस 3० । रयहरणे चोल- पद्ठए य उमहाओ फिडिए 3० । उब्मो न पडिक्कमइ, वेरत्तिय न करेइ 3० | कवार्ड किडिये वा अप« मज्िय उम्घाडेइ पु० । कालस्स न पड़िक्रमह, गोयरचरियं न पडिक्रमइ, आवस्सियं निसीहिय वा न करेह नि० । छप्पयाओ संघट्टेर अणागाढं पु०, गाढासु ए० | ओहिय॑ न पडिलेहेइ 3० । उद्देस-समुद्देस- & अणुन्ना-मोयण-पडिक्रमणभूमी ओ न पमज्जइ 3० । गय॑ तवाइयारपच्छित्त । ६ ८७, तवोणुद्वणाइसु विरियगरूहणे एगासणदुर्ग । गय॑ व्रियाइयारपनिछ त्त । ६ ८८, इत्थ य छेयाई असहृहओ मिउणो परियायगवियस्स गच्छाहिवहणों आयरियस्स कुलगणसंघाहि- बईणं च छेय - मूल - अणवट्टप्प - पारंचियमवि आवजन्ना्ण जीयबवद्गारेण तव॑ चिय दिज३ । ६ ८९. भणियं साहुपायच्छित्त । संप्यं आयरणाए किंचि विसेसो भण्णइ - साहु-साहुणीणं राईभत्तविर- # इभंगे असणे पंचवि मेया नि० पु० ए० आं० 3० पंचगुणा | खाइमे ते चउग्गुणा | साइमे तिगुणा । पाणे दुगुणा । सुकसन्निहीए 3० २, अल्लसल्निहीए उ० ४। सचित्तमोयणे कुरुडयाईए उ० १। अप्पठलियभक्खणे 3० ४ । दुष्पएरूभक्खणे 3० २। कारणओ आहाकम्मगहणे ते पंच वि पंचगुणा । निकारणे तहिं पंचवि वीसगुणा । आहाकडकीयगडाइदोसासेवणेसु 3० ३। अकालचारित्तणे कारणओ उ० ४) निकारणओ ते वि दुगुणा। अकाल्सन्नाकरणे 3० २। थंडिल्डवह्दीणमपडिलेहण 3० ३। # वसहिअपमजणे कज्जगाईणं अणुद्धरे अविहिपरिट्वणणे उ० ३। जिण-पुत्थय-गुरुपमुहाणं आसाबणाए उ० ४ । अवरोप्परं वायाकलहे ते पंच । दंडादंडीए दस । उदवणे मूलं । पहारे जणनाए ते पंचवी- सगुणा । सागारियदिद्वीए आहारनीहारं कर्रिते उ० 9 । निंदियकुलेसु आहाराइगिण्हितस्स उ० ४॥ सूयगमत्त पढमगब्भूसुगभत्त गिण्हंतस्स 3० २| गणमेय कर्रितस्स उ० ४ । निकारणं गिहिकर्ज् ] बसने। 2 “आचायोदयों हि छेदादिके दसे अपरिणामकादीनां माइवशास्पदमभूवश्तितिं तप एवं शीयते'-इति 'छ टिप्पणी । प्रायश्रित्तविधि-देश विरतिप्रायश्रित्तसंग्रह । ८९ चिंतंतस्स 3० २। गुरूणं आणाए विणा पयइंतस्स समईए संमत्तनासों । अणाभोगे 3० ३ । बत्थधुवणे उ० ३। गायब्मंगे चलणब्भंगे सरीरधुवणे उ० 9 । पारिद्वावणियं सपत्ताई कार्रितस्स उ० 9। मम्गंमि नहरुंपणे सामज्नेण 3० २। पतश्चक्वाणअकरणे उबओगाकरंणे अपमज्जिय वसहीए सज्ञायकरणे विकहाकरणे दिवासुय्रण परपरिवायकरण गीयाइकरण कोऊहलदंसणभे समईए कुसत्थसवर्ण कर्रिते वक्‍खाणंते पढंते गुणंते 35० ३। एगागिणो गुरूणमाणाणु बिणा बियरंतस्स उ० ४ । पत्तमंडाइमंगे उ० १। उवबहिं हारवंतस्स उ० १। गुरूण आणाए कारणओ आहाकम्माइ अगिण्हंतस्स 3० 9। इंदियलोलुयाए संजोयणं करिंतस्स 3० ४। छप्पइयासंघट्टणे वासासु उबहिअधुवणे 3० ४ | अकाले घुव॑तस्स 3० ५ । हासं खिड्डु कुणतस्स 3० २। सुत्ते बिणा जिणपूयाइकज्जेसु पवाहेण पयटंतस्स उ० ४ । साहम्मियकज्जेयु जहासत्तीए अपयट्रमाणस्स 3० ० । एवं संखेबेणं सबबिरहे भणिया। ६ ९०. इयाणिं वसहिदोसपायब्छित्त । कालाइकंताए पणग । उवद्मणा अभिकंता अणमभिकवता वज्जासु चउलहु । महावज्ञाइसु चउगुरु । अतिविसुद्धिकोडिवसहीसु पट्टीवंसाइचउद्ससु चउगुरु । विसो- हिकोडीसु दूसियाइसु चउलहुया । भणियं च- आइए पणर्ग चउसु चठउलह वसहीसु स्वमणमन्नासु । अविसुद्धासुं चठगुरु विसोहिकोडीसु चठउलहुगा ॥ १ ॥ $ ९१, अह थंडिल्लदोसपच्छित्त- आवाए संलोए झुसिरतसेसु हवति चडलहुया | चउगुरू आसजन्नबिले पुरिस सेसेसु सघेसखु ॥ २॥ ६ ९२. संपयं वंदणयदोसपच्छित्त॑- पडणीय दुद्ध तलत्लिय खमर्ण आयाम रुद्ठथद्धेस । गारव तेणिय हीलिय जुएसु पुरिम च सेसेसु ॥ ३॥ $ ९३. संपह पद्रजाणरिहपद्ावणपच्छित्त- तेणे कीबे रायावयारिदुट्टे य हुंगिए दोसे । सेहे गविणि मूल सेसेसु हव॑ति चउगुरुगा ॥ ४ ॥ सेहे इति सेहनिप्फेडिया । पत्रज्जाणरिह्ा य इमे- याले वुट्टे नपुंसे य कीवे जड्डे य वाहिए । तेणे रायावगारी य उम्मत्ते य अदंसणे ॥ १ ॥ दासे बुद्धे य मूढे य अणत्ते जुंगिए इय। आओबद्धए य भयए सेहनिष्फेडिया इय ॥ २॥ इय अट्ठवारसभेया पुरिसस्स तहित्थियाइ ते चेव | गुधिणिसबालवच्छा दुष़्नि इसे हुंति अन्ने वि ॥ ३॥ संपय साहर्ण निबिगइ - आयंबिल - उववास - सज्ञाया चेव आलोयणा तबे पडति, पुरिमड्ढो वा। ण उण एगासणं । पुरिमड्डो वि चउधिहाहारपरिहारेणेवि त्ति। जप $ ९४. इओ देसव्रिइपायच्छित्तसंगहों भण्णइ-देसओ संकाइस अट्ठसु आं० | सबओ उ०। देवस्स वासकुंपिया - धूवायण - धुकियऊसासअंचललूग्गणे, पड़िमापाडणे, सइ नियमे. देवगुरुअवंदणे पु० । विधि० १२ 5 ९० विधिभपा । अविहिणा पडिमाउज्जालण ए० | देवदबस्स असणाइआहार - दम्म - वत्थाइणो, गुरुदबस्स वत्थाइणो साहारणधणस्स य भोगे जावहय॑ दन्न भुत्त तावइयं तस्स अन्नस्स वा देवस्स गुरुणो य देये। तवो य- देव - गुरुदबे जहल्ने भुत्ते आं० । मज्झिमे 3० । उक्िट्ठे एगकल्लाण । एयं दुगमवि देय । गुरुआसणमा- इणों पायाइणा घट्टणे नि०। अंधयारमाइम्मि गुरुणो हृत्थपायाइकूगणे जहन्न -मज्िम - उक्षिद्ठे पु०, ए०, आं० | अट्नवियस्स ठवणायरियस्स पायप्फंसे नि० | ठवियस्स पु० । पाडणे उभये । ठवणायरियव- नासणे पदच्चदयाण आसममुहपोत्तियाइ उबभोगे नि० | पाणासणभोगेसु ए०, आं० । वासकुंपियाए पडिमा- अप्फालणे १, धोवत्तियं विणा देवचण २, पमाण्ण भूमिपाडणे ३ | पुत्थय - पद्टिया - टिप्पणमाइणो बयणोत्थ- निड्टीवणालवप्फंसे १, चरणघट्टणनिद्ठीवणपट्टिया अक्खरमजणेसु २, भूमिपाडणे ३। अणुट्नवियठवणा- यरियस्स चालणे १, भूमिपाइणे २, पणासंण ३) एवं जहन्न - मज्झिम- उक्किद्ठआसायणासु पु०, ए०, आं० । अप्पडिलेहियठवणायरियपुरओ अणुट्टाणकरणे पु०, संज्ञायसय वा । अवयारणगाइबायरमिच्छ- त्तकरणे पंचकल्लाणं 3० १० | जवमालियानासंणे ए० । केंसि थि ठवणायरिएण गमिए जवमालियानिग्ग- मणे य एगकल्लाणे, सज्ञायपंचसहस्सं वा। कन्नाइरूग्गहणे संडाइविवाहे आं० | घिडलियाइकरण पु०। पडिमादाहे मंगे पलीवणाइस पमायओ वाबि। तह पुत्थ-पद्टियाईगहिणवकारावणे खुद्धी ॥ पुत्थयमाईण ककक्‍्खाकरणे दुग्गंघहत्थगहण पायरूग्गण आं० । देवहरे निकारण सयणे आं० २। देवजगईदेएण हत्थपायपक्खालण उ० । ण्हाण 3० २। विकहाकरण आं०, पु० । झगड़ये जुज्झ वा करेइ उ०२, पु० २ । घरलेक्खय पुत्तपुत्तियासंबंध च करेइ उ० ३, पु० ३। हत्थरुंडि हास॑ चच्छरिं देवद्वणे परोप्परं॑ पुरिसाणं करिंताणं 3० ३, पु० ३। इस्थीहिं सह उ० ६, पु० ६। पुडविमाइसु चउरिंदियावसाणेसु साहु व पच्छित्त | पंचिदिए्यु परमाणण पाणाइवाण कल्ाणं । संकप्पेणं पंचकल्लाणं | दोण्हं विगलाणं वहे उ० २ । तिए्ह उ० ३ । जाव दसण्ह॑ उ० १०। एक्रा- रसाइसु बहुसु वि उ० १०। मयंत्तरें बहुण्सु विगलेसु पंचकल्ला्ण | पभूयतरबवेइंदियउदृवंण उ० २०, पभूयतरतेइंदियउद्दववणे 3० ३० | पभूयतरचउरिंदियउद्दबणे 3० ४० | जीवबाणिय - कोलियपुड - कीडि- यानगर - उद्देहियाइउद्दवण पंचकल्ाणं । अगलियजलस्स एगबारं ण्हाणपाणनावणाइसु एगकल्लाणं । अग- लियजलेण वत्थसमूहघुयणे पंचकल्लाणे । जित्तियवारं अगलियजल वावरेइ तित्तिया कल्लाणगा | पत्तावे- क्खाए 3० १ | जलोयामोयणे आं०। जीववाणियसंखारगउज्झण एगकल्लाण उ० २। थोवे थोवत- रमवि | अणंतकाइयकीडियानगरझुसिरवाडियाइसु प्हाणजल - उण्हअवसावणाइवहणे संखारगसोसे अग- लियजलवावारे गलेज्ज॑तस्स वा कित्तियम्स वि उज्ञणे असोहियइंधणम्स अग्गिमि निक्‍्खेवे केसविर- लीकरणे सिरकंड्रयण कीलाए सरलेट्रमाइक्खेवे पुरिमब्बाईणि । मुसावाय - अदिन्नादाण - परिग्गहसु जहज्ञाइसु ए०, आं०, 3० | दष्पेण तिसु वि पंचकल्लाणं | अहवा मुसावाए जहण्णे पु०, मज्झिमे आं०, उकिट्ठे पंचकल्लाण । दप्पेण जहन्न - मज्झिमेसु वि ते चेव । दबाइचउब्िहे अदिल्लादाण जहन्ने पु०, मम्झिमे सघरे अन्नाए ए०, नाए आं० | जहवा 3०। उक्षिट्ठे अन्नाए पंचकल्लाणं, नाए रायपंज्ञतकलहसंपत्न ते चेव, सज्ञायलब्ख च | सदारे चउत्थवयभंगे अद्ठम एगकलाणं च। अन्नाए परदारे हीणजणरूबे पंचकल्लाणं, नाए सज्ञा- यलक्खं । उत्तमपरदारे अन्नाए सज्झायरक्खं, असीइसहस्साहिय । नाए मूल । उत्तमपरकलत्ते बि। नपु- * सगस्स अश्चतपच्छायाविस्स कल्लाणं, पंचकह्मर्ण वा । मयंतरे परमाएण असुमरंतरस सदारे दयभंगे उ० ६; च्ता द््क कल बज ] ब्क ड़ शक प्रायश्रिसविधि-देशविरतिप्रायश्वित्तसंग्रह । ९९ जाणंतस्स पंचकलाण | जद हृत्यी बलाकार॑ करेइ तया तीसे पंचकल्लाणं । इत्तरकालपरिग्गहियाए वि वयमंगे कल्लाणं, अहबा 3० १। वेसाए वयमंगे पर्माएण असंभरंतस्स उ० २, अहवा 3० १। कुलवहूए बयमंगे मूल । मिउणो पंचकलछाणं । अहवा दप्पेण परदारे पंचकल्ला्ण | अइपसिद्धिपत्तस्स उत्तमकुलकल्त्त बयमंगेण मूलमवि आवन्नस्स पंच कल्लाणं | सकते वयभंगे पंचविसोवया पावं । वेसाए दस। कुलडाए पतन्नरस । कुलंगणाए बीस । दष्पेण परिग्गहपमाणमंगे पंचकल्लाण | उक्किट्ठे सज्ञायलक्खमसीइसहस्साहिय । * दिसिपरिमाणवयभंगे उ०। भोगोवभोगमाणमंगे छट्ठ । अणाभोगेणं मज्ज-मंत्-महु-मक्खणभोगे उ०, आउट्टीए पंचकल्लाणं, अट्ठम॑ वा। अग॑तकायभोगोवद्दवणेसु उ०। अकारणं राशभोते 3० । सचित्त- बज्जिणो सचित्तअंबगाइपत्तेयमोंगे आं० । पनरसकम्मादाणनियमर्ंगे आां०, अहवा 3०, जहवा छट्, एगकल्लाणमिति भावों । दब्वसब्रित्तजसण-पाण-खाइम-साइम-विलेवण-पुप्फाइपरिमाणभंगे पु० | अहियवबि- गइभोगे नि० । प्हाणनियमर्भगे आं०, अहवा 3० । पंचुंबराइफलभक्खणवयमंगे, पदच्॑का्खाणवय- ४ भंगे अट्टमं | पदच्चक्वाणनियमभंगे अट्टमं । प्॑च॑रखाणनियमे सइ निकारणं तदकरणे 3० । अकारण- सुयणे 3० । नमोक्कारसहिय-पोरिसि-सड्पो रिसि-पुरमडु-दोक्ासण-एक्ासण-विगह-निब्विगइय-आयंबिल- उव- बासाणं भंगे तद॒हियपद्चक्खाणं देय । उबवासभंगे 3० २। वमिवसेण पद्नक्खाणभंगे पु०, अहवा ए० | मयंत्ते नवकारसहिय-पोरिसि-गेठिसहियाईणं भंगे संखाएु नवकार १०८, अहवा ए० । मयंतरे गेठिसहियमंगे सज्झाय २०० | गंठिसहियनासे उ० । चरिमपशन्नक्वाणअगाहणे रत्तीए य संवरणे अकरणे ० पु० । अणत्थदंडे चउचिहे 3० । मयंतरे आं०। पेसुन्न-अब्भकवाणदाण-परपरिवाय-अजसब्भराडिकरणेसु आं०, अहवा उ०। नियमे सइ सामाइय-पोसह-अतिहिसंविभागअकरणे 3०। देसावगासिए भगे आं० । वायणंतरेण सामाइय-पोसहेसु वि आं० । चाउम्मासिय-संवच्छरिण्सु निरइयारस्सावि पचकल्ार्ण । कारणे पासत्थाईणं किइकम्मअकरणे आं० | अभिर्गहमंगे आं० । इरियावहियमप्‌डिकमिय सज्ञायाइ करेह पु० । इत्यीण नाठ्यमउलणे एगकल्लाणं ति पुज्जाणं आएसो, न पुण कहिं पि दिट्ठं । बालू बुद्ूं असमत्थ « नाऊण तइओ भागों पाडिजइ । आलोयणाए गहियाए अणंतरं जाबंति वरिसा अंतरे जति ताबंति कल्लाणाणि दिज्ज॑ति त्ति गुरूवए्सो | महछयरे वि अबराहे छम्मासोववासपज्नेतमेव तव॑ दायबं । जओ वीर« जिणतित्थे इत्तियमेव च उक्कोसओ तव॑ वट्व३इ। एगाइ नव जाव अवराहणद्वाणसंखाए पायच्छित्त दायबं | दसाइसु संखाईएसु वि दसग्रुणमेव देय ति। $ ९८, इयाणि पोसहियस्स पायच्छित्तं भण्णइ - तत्थ पोसहिओ आवस्सिय निसीहिय वा न करेइ, उच्चार- 5 पासवणाइमूमीओ न पडिलेहइ, अप्पमज्जिऊण कद्ठासगगाइ गिण्हइ मुंचइ वा, कवार्ड अविहिणा उस्घा- डेह्ट पिहेह वा, कायमपमजिय कंडुयइ, कुड्डमप्पमज्जिय अबद्ठंभ करेइ, इरियावहियं न पडिक्रमइ, गमणा- गमणं न आलोयइ, वसहिं न पमज्जब, उबहिं न पडिलेहइ, सज्ञायं न करेंह, नि० । पाडिय मुहफत्तियं लहदइ नि०। न लहइ 3० । पुरिसस्स इत्थियाए य इत्थी-पुरिसवत्थसंघट्टे नि०। गायसंघ्टे पु०। फंबलिपावरणे, आउकाय - विज्जुजोइफुसणे नि० ! कंबलिविणा पु०, अहवा आं० । कंबलिपावरणं विणा » परैवफुसणे 3० | अपाराविऊण भोयणे पाणे पुंजयअणुद्धरंणे पु० । असज्झ त्ति अभणणे पु०। वमणे निसि सण्णाए भुत्तृण बंदणयसंवरणअक्रणे अणिमित्तदिवासुवण विगहासावज्ञभासासु संथारयअसंदिसावणे संधारयगाहाओ अणुब्चारिकण सयणे उबविद्धपडिक्रमणे वाधारे दगमट्डियागमणे य आं० । पुरिसस्स थीफासे आं०। इत्थीए पुरिसफासे 3० । संतरफासे पु० । अंचलूफासे मज्जारीमाइतिरियफासे य नि०। तरूण पण्णतोडणे आं० । अप्पडिलेहियथंडिले पसवणाइवोसिरणे आं० । वंदणकाउस्सग्गाणं गुरुणो पच्छा * करणाइसु पुट्वाइसंघइणाइसु य साहुणो व पच्छित्त देय | एबं सामाश्यत्थस्स वि जहासंभव चिंतणीय। ९२ ._ चिधिप्रपा। - ६ ९६, संपयं पत्ताविक्खाए सामायारीविसेसेण सावयपायच्छित्ते भण्णइ- देबजगईए मज्शे भोयणे 3० १, पाणे आं० १ । जईणं भोयणे कए उ० ७, पाणे २। तेसिं नियडे निद्दाकरणे आं० २, 3० ३। देसओ पच्छा अद्धं, अप्पं ओघिजजइ | देसओ ए० २, उ०। सब्बओ नि० ३ । उस्युत्तअणुमोयणे देसओ उ०; आं०; सबओ उ० ५, आं० ३, नि० ३, ए० ५। देवदबउबभोगे कए थोवे उ० ५, आं० ७, नि० ७, ४ ए० ७, पु० ५ । पररे जणन्नाए एयं चउग्गुण, अज्नाए दुगुणं । सबओ नाए पंचाबि वीसगुणा। अज्नाए दसगुणा । उवेक्खणे पण्णाहीणे अज्ञाए पंचावि सबओ तिगुणा, नाए चउस्गुणा । एवं साहम्मियधणोव- भोगे नाए चउग्गुणा, अन्नाए दुगुणा । साहम्मिएण सह कलहे अज्नाए थोवे उ०, आं०, नि०, पु०, ए० । पउरे नाए तिगुणा । साहम्मियअवमाणे थोवे अज्ञाए उ०, आं०, नि०, प०, ए०। पउरे नाए बिउणा। गिलाणअपाल्णे देसओ पंचावि दुगुणा । साहम्मियगिद्णअपालणे देसओ पंचगुणा, सबओ छर्शुणा | ७ सामज्नओ विसेसओ ग्रिलणअपालणे सबओ पंचवीसगृुणा । देसओ सम्मत्ताइयारेस अद्ठस पंचावि एगगु- णाई जाव अट्टगुणा, सबओ दुगुणाई जाव नवगुणा । - सम्मत्तपच्छित्त गय॑। 8९७, पाणाइवाए सुहुमे बायरे वा देसओ कए कप्पे ते पंच, पमाए बिउणा, दप्पे तिगुणा, आउड्टियाए चउर्गुणा । पुढबि-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सईणं संघट्टणे पु०, परियावणे ००, उद्दवणे 3० । तसकायसंघ्टणे आं०, परिआवणे आं० २, उद्व्ण पंच० । कप्पंमि उद्दवणे पंच - दुगुणाणि, पमाणण तिगुणाणि, आउट्टि- ४ याए पंचगुणाणि । एवं देसओ । सबओ पुढविकायाईणं अद्गप्ह संघड्णे कमेण पु० २, नि० ३, ए० ४, आं० २, उ० २, उ० ३, उ० ४, उ० ५। नवमे पंचविहं एये पंचगुण । परियावणे एएसु एयं दुगु्ण । उद्दवणे पंचगु्ण । कप्पे संघट्टणपरियावणुद्वणेसु सबओ आं० १, आं० २, आं० ३। पमाए उ० १, उ० २, उ० ३ | दष्प 3० २, 3० ३, उ० ४। आउश्याए संघट्णाइसु 35 २, 3० ३, उ० ४ । -भणिओ पाणाइवाओ | 2४ मुहमे मुसावाण देसओ जयणा | कयपोसहसामाइओ जद भासइ सुहुम मुसावार्य तो 3० २। बायरं भासदइ उ० 9। अकयसामाइओ बायरमुसावा्य भासइ उ० ३। सबभझो सुहुमे मुसावाए पंचविहं पि दुगुणं । बायर्‌ पंचविहं पि पंचगु्णं । - मुसावाओ गओ । अदत्तगहणे सुहुमे देसओं जयणा | कयपोसहसामाइओ अदत्त गण्हह सुहुम तो पंच बिउणा । बायरं गेण्हइ पंच वि अद्गगुणा | सब्ओ सूहुमे पंचगुणा बायरे दसगुणा । - गय॑ अदत्तादाणं । क्ष मेहुणपच्छित्त पु्॑च॑ व | विसेसों पुण इमों - देवहरे वेसाए सह पसंगे जाएु उ० १०, आं० १०, नि० १०,ए० १०, सज्ञझायसहस्सतीसं ३०। सावियाहिं सद्धि त॑ चेव तिगुणण देय अन्नाएं, नाए पंचगुणं । सावग-अजियाणं पसंगे जाए नाए य वीसगुणं, अन्नाए तेरसगुणं । संजय-सावियाणं अन्नाए पन्नरसगुणं, नाए तीसगुण । संजय-अजियाणं अन्नाए सट्टिगुणं, नाए सयगुण । देवहरं बिणा पुष्नोत्तेहिं वेसाईहिं सह पसंगे जाए नाए 3० ३०, आं० ३०, नि० १००, पु० ५००, ए० १०००, सज्ञायलक्ख ३०; » अन्नाए एयद्वं । - गय॑ मेहुणं । देसओ धणधन्नाइनवविद्दे परिग्गहपमाणाइक्कमे एगगुणाई पंच वि भेया जाब नवगुणा । सब्ओ उण कयपच्चक्खाणस्स परिम्हे नवविद्दे वि विहिए चउम्गुणाई जाव बारसगुणा । - गओ परिगगहों । देसओ दिसिभोगाइसु सत्तमु जाए अइयारे जहकम पंच वि भेया इक्कगुणाई जाव सत्तगुणा । देस- विरइयस्स असणाईनिसिमत्ते कप्पे 3० ३, पंचगुणा" जाव अट्टगुणा । दह्माद्रपणक्खाणमंगे उ० वी ननन मनन नम मनन 33 जनम “ज-म-ी-+-+-“-%७- अल के अलन-क9े> -मन्‍««ब+न-. 20-०-२००७:०+० ७4 +-२०९५४०५४५४८२००-०६०५ +« कि अल ििजज+ 5 * लत बन बन +लनज बनने »०«+जन+ +4०---+०---+: # “कल्पे पंचगुणाः, प्रमादे बड़गुणा:, दर्पे सप्तगुणाः, आकुब्धामश्युणा: ।-हति 2. टिप्पणी । आडछोचनाप्रहणविधिप्रकरण । ३३ १ । तिविहाहारपश्क्खाणभंगे उ० २। चउब्िहाहारपच्चक्खाणमंगे उ० ४ । दुक्कासणर्मगे उ०२। इक्कासणभंगे 3० ३ । अहिगविगइगहणे आं० । अहिगदबसचित्तस्गहणे 3० १ । रसझोलओ उकिदुदश- भोगे आं० । अहवा नि० । संकेयपश्चक्खाणभंगे 3० १। निध्ियभंगे उ० २ । आयंबिरमंगे 3३० ३, पुरिमदु २ | -संखेवेण देसविरई भमणिया । जे कथरुयगुरुपयपओ पियघम्माहगुणसंजुओ सण्णी | इरियं पडिकमिय करे दुबवालूसावत्तकीकम्स ॥ १७ सुगुरुस्स पायमूले लहुवंदण-संदिसाबिय विसोही। मंगलपाद काउं ओणयकाओं भणह गाह ॥ २॥ जे मे जाणंति जिणा अवराहे नाणदंसणचरित्ते । तेह आलोएउं उवष्ठिओ सबभावेण ॥ ३ ॥ तो दाओं खमासम्ण जाणुठिओ पुत्तिठह्यमुहकमलो । सणिय आलोइज्ला चउवीसं सयमहेयारे ॥ ४॥ चपण संलेहण पनरस कम्म नाणाह अद् प्तेय । थारस तथव विरिय तिय॑ पण सम्मवयाह पत्तेय ॥ ५ ॥ मुत्तु दद्तिहीओ अमाव्स अट्टम च नवर्मि च। छट्टि च चउत्थिं वा बारसि च आलोयणं दिल्ला ॥ ६९॥ चित्ताणुराह रेवह मिपसिर कर उत्तरातियं पुस्सो । रोहिणि साइ अभीई पुणवसु अस्सिणि घणिद्ठा 4 ॥ ७॥ सबणो सयतारं तह इमेसु रिक्खेस खुंदरे खिर्ते। सणि-मोमवजिएसु वारेसु य दिज्व त॑ विहिणा ॥ ८ ॥ हत्थ पुण चउभंगो आरिहो अरिहंसि दलूयह कमेण । आसेवणाइणा खल॒ मंदं दवाह खुद्धीपर ॥ ९॥ कस्सालोयण १ आलोयओ य २ आलोइयबर्य चेव ३। आलोयणबिहि ४ मुवारं तदोसगुणे य ५ वोच्छामि ॥ १०॥ अक्खंडियचारित्तो वयगहणाओ य जो भवे नि्य । तस्स सगासे दंसण-वयगहर्ण सोहिगहर्ण च ॥ ११॥ #आयारवमाहार ववहारो5बीलए पकुघे य । अपरिस्सावी निज्व अवायदंसी गुरू भणिओ ॥ १२॥ आगम सु्थ आणों घारणों थ जीथ॑' च होह बयहारो । केवलिमणोहि-चउदस-दस-नवपुधवाई पढमोत्थ ॥ १३ ॥ कह्टेहि स्व जो वुत्तो जाणमाणो बिगहह। न तस्स दिंति पच्छित्तं बिंति अन्नत्थ सोहय ॥ ६४ ॥ # “आचारवान्‌ पंचविधाचारवान्‌ । आधारवान आलोचितापराधानामवधारकः । व्यवद्ारों वक्ष्यमाणपंचबिधम्यवद्गार- बान्‌। अप्रीडको छमयाइतीचारान्‌ गोपयंत बिचित्रेवचनैर्विलजीकृत्य सम्यगालोचनाकारयिता । प्रकुबंक आलोबितापराबेघु सम्पर प्रायक्रि्तदानतो विशुद्धि कारयितुं समर्थ:। अपरिश्रावी आलोचकोक्तदोषाणामन्यस्मे: अकथकः । नियांपकोइसमर्थ॑स्य तबुचितदानाजिवाहकः । अपायदर्शी अनालोचयतः पारदौकिकापायदशेकः ।” इति 2. [3 आदशेगता टिप्पणी । कुछ १ १ 'अरवेशद्दिऊंण' इति !3 पाठे: । ः 2 किमिंद मेया$5लीवितमिति । विधिप्रपों । न संभरह जो दोसे सब्भावा न य सायया। पचक्खी साहए ते उ माइणो उ न साहहे॥ १०॥ आयारपगप्पाई सेस॑ सर्च खुय विणिदिट्ठ । देसंतरद्धियाणं यूहपयालोयणा आणा ॥ १६॥ गीयत्थेण दिन्न॑ सुद्धि अबहारिऊण तह चेव। दितस्स धारणा सा उद्धियपयधरणरूवा वा ॥ १७ ॥ द्वाइ चिंतिऊर्ण संघवणाईण हाणिमासञ्ञ । पायच्छित्त जीय॑ रूढ वा ज॑ जहि गच्छे ॥ १८ ॥ अग्गीओ नवि जाणइ सोहि चरणस्स देह ऊणहिय । तो अप्पाणं आलोयगं च पाडेइ संसारे ॥ १९॥ तम्हा उकोसेण जित्तम्मि उ सत्तजोयणसयाहईं । काले बारसवरिसा गीयत्थगवेसण्ण कुज्ा ॥ २० ॥ आलोयणापरिणओ सम्म॑ संपटष्टिओ शुरुसगासे। जड् अंतरा वि काल करिज्व आराहओ तह बि॥ २१ ॥ -दारं १। जाइ-कुल-बिणय-उबसम-हइंदियजय-नाण-दंसण समग्गो । आअण्णणुताबी' अमाइ चरणजुया लोयगा भणिया ॥ २९ ॥ -दार २। मूछत्तरगुणविसय निसेबियं जमिह रागदोसेहिं । दष्पेण परमाएण व विहिणालोएज् ते सद्च ॥ २३ ॥ पढम॑ काले विणए बहुमाणुवहाण तह अणिण्हवणे । बंजण-अत्थ-तदुभये अट्डबिहों नाणमायारों य २४ ॥ नाणपडणीय निण्हव अधासायण तहन्तराय च । कुणमाणरसइयारो पट्टियपुत्थाइपडणीस ॥ २०५॥ निस्संकिय निर्केखिय निधितिगिच्छा अमृददिद्वी थ । उवधूह थिरीकरणे वच्छछपभावणे अट्ठ ॥ २६॥ चेहयसाह् सावय विण उचबूह उचियकरणिज।ञं । जन कय ते निदे मिच्छसे ज॑ कयय त॑ च ॥ २७ ॥ बेइंदिया य जलछूया सिम्िया किमिया य हुंति पुंअरया | तेइंदिय मंकोहा जूबा संहुणग उद्देही ॥ २८॥ चउरिद्य सच्छिय विजिछया यथ ससया तहेव तिड्डाय । पंचिदिय मंडुका पक्खी सूसा थे सप्पा य ॥ २९॥ अलिये अब्मक्खाणं दिद्वीवयणमदत्तदाणंसि । सेहुणसुमिणासेवण कीडा अंगरुस संफाले ॥ ३० ॥ भत्तारजन्नपुरिसे केली गुज्शंगफासणा चेव ॥ हृत्थी पुरिसार्ण पुण बीवाहण-पीहकरणाई ॥ ३१ ॥ आलोचनाग्रहणविधिप्रकरण । तह य परिग्गहमाणे खित्ताहेण तु मंगमालोए। दिसिमाणे आणयणं अम्नस्स य पेसण ज बा ॥ १२॥ . सच्षित्तग तु दर्ध पक्रासण-णहाण-पिवण-तंबोल । राश्मोयणबंस पाणस्स य संवरं वियडे ॥ ३३॥ वियडे अणत्थविसय तिल्लाईेणं पमाणकरणं तु। पाओवएसं च तहा कंदप्पाई अवज्ज्लाणं ॥ ३४ ॥ सामाइयफुसणाई रुष्पणिहाणाइ छिन्नणाईयं । दंडगचालणमविहाणकरणं सच च आलोए॥ ३५॥ देसावगासियंमी पुढ विफकायाह संवरं न करे । जयणाइ चीरघुबणे वितहायरणे य अश्यारो ॥ ३९ ॥ पोसहकरणे थंडिछ वितहकरणं च अविहिसुयण च | बसे य सत्तविसए देसे सबे य पत्थणया ॥| ३७ ॥ अतिहिविभागो थ कओ अखुद्ध नत्तेण साहुबग्गम्मि । सहहण चिय न कय सदृहण-परूवणाबि तहा ॥ ३८ ॥ साहू साहुणिवर्गों गिलाणओसहनिरूवर्ण न कर्य । तित्थयराणं भवणे अपमज्रणमाइ ज॑ च कय॥ ३२९॥ तवसंजमजुत्ताणं किच उववृहणाह ज॑ न कय। दोसुब्भावण सच्छर त॑ पिय सध्चं समालोए ॥ ४० ॥ तह अन्नधम्मियाणं तेसि देवाण धम्मबुद्धीए । आरंभे य अजयणा धम्मस्स य दूसणा जाओ॥ ४१॥ पायच्छित्तरस ठाणाई संख्वाइयाईं गोयमा। अणालोयंतो हु इक्षिक्त ससलल मरणं मरे ॥ ४२ ॥ आलोयणं अदाउं सइ अन्नमि य तह्पणो दाउं | जे बि य करिंति सोहिं ते वि ससकछा सुणेयध्रा ॥ ४३ ॥ चाउम्मासिय चरिसे दायबालोयणा व चउकन्ना । -दार ३। संबेगभाविएणं सर्व विहिणा कहेयवे ॥ ४४ ॥ जह बालो जपंतो कल्लमकर्ज च उज्यं भणह। त॑ तह आलोइजा मायामयबिप्पसुको उ ॥ ४५ ॥ छत्तीसगुणसमन्नागएण तेणवि अवस्स कायघधा । परसक्खिया बिसोही सुद्दु बिवहारकुसलेण ॥ ४६९॥ जह सुकुसलो बि बिज्लो अन्नरस कहेइ अत्तणो वाहि। एवं जाणतस्स थि सलुद्धरणं परसमासे ॥ ४७ ॥ आयरियाह सगच्छे संभोइ्य-हयरगीय-पासत्थे । पच्छाकडसारूवी-देवयपडिमा-अरिहसिद्ध ॥ ४८ ॥ >दारे ४)... . . अप्पं पि भावसछं अणुद्धिय राय-वणियतणएहि। . जाय॑ कड॒यविचार्ग कि पुण बहुयाई पाचाई ॥ ४९४... ::. ९४ 28 ९६ विधिप्रपा । लज्थाह गारवेण व बहुस्सख॒यमएण वाबि दुघरियं | जे न कहंति गुरूण न हु ते आराहगा हुति ॥ ५० ॥ नवितं सत्थ च विस च दुष्पठत्तो व कुणइ वेयालो | ज॑ कुणह भावसलहूं अणुद्धियं सचदुद्दमूल ॥ ५१ ॥ ऐआकंपहत्ता अणुमाणइत्ता जं दिट्ठं बायरं च खुहुमं वा । छण्ण सहाउलयं बहुजणअधत्ततस्सेबी ॥ «२ ॥ एयदोसविसुक पहसमयय वहमाणसंवेगो । आलोइज्य अकर््ज न पुणो काहं ति निचछश्ओो ॥ ५३ ॥ जो भणहइ नत्थि इण्हि पच्छित्तं तस्स दायगो वाबि। सो कुबइ संसार जम्हा रुत्ते बिणिदिद्ठ ॥ ५४ ॥ सब पि य पच्छित्त नवमे पुध्रँमि तइयचत्धुमि । तत्तो चि य निजूढों कप्प-पकप्पो य ववहारो ॥ ५७ ॥ ते थिय घरंति अज्बि तेसखु धरंतेस कह तुम भणसि । वुच्छिन्न पच्छित्त तद्यायारो य जा तित्थ ॥ ५६ ॥ -वारं ५। कथपावो वि मणुस्सो आलोइय निंद्य गुरुसगासे । होह अइरेगलहुओ ओहरियभरो व मारवहो ॥ ५७ ॥ आलोइए गुणा खल्ठ वियाणओ मग्गदंसणा चेव । सुहपरिणामो य तहा पुणो अकरणम्मि ववहारो॥ ५८ ॥ निद्ववियपावपंका सम्म॑ आलोइडं गुरुसगासे । पत्ता अणंतजीवा सासयसुक्ख अणाबाहँ ॥ «७९ ॥ -दार ९। आलोयणमिह दाउं पडिच्छिउं गुरूबिहृश्नपच्छित्त । दाऊण खमासमण्ण भृनिहियसिरों हम भणह ॥ ६० ॥ छडमत्थों मूढमणो कित्तियमित्तं पि संभरइ जीवो । इण्हि ज॑ न सरामी मिच्छामि दुक्कडं तस्स ॥ ६१ ॥ तत्तो गुरुमणियत्ं पच्छित्तबिसोहणत्थमणुचरह । उववासंबिलनिविय-एगासणपुरिमकाउस्सर्गेहि ॥ ६९२ ॥ इराभत्तपुरिमनिवियंविलेष्टि चउ बार ति दुहिं उववासो | सज्ञायदुसहसेहि य काउस्सरगे च उज्ोया ॥ ९३ ॥ आलोयणगहणविही पुधायरियप्पणीयगाहाहिं । इय एस गिहत्थाणं जिणपहसूरीहिं अक्वाओ ॥ ६४ ॥ “आवर्शितः सन्नाचार्यः स्तोक प्रायश्षित्त में दास्यति-इल्वाचार्य वैग्राइत्यादिना5कंप्य भावर्ज। अनुमान्य अलुमान कत्वा लधुतरापराधनिवेदनादिना मरदुदंड प्रदायकत्वादिखरूपमाचार्यस्थाकलण्य, एवं यदाचायोदिनाइइष्टमपराधजात तदाछोचयति, नापरम्‌ । बादरमेव वल्मेचयति न सूक्ष्मम्‌ । तत्र/वज्ञापरस्वात्‌ सूक्ष्ममेवालोचयति न बादरमू। यः किल सूक्ष्ममेबालोचयति स कर बादरं नालोचयेदित्याचायेस्य प्रत्यायनाथंम्‌ । छन्न प्रल्छन्षमालोचयति लजालुतादिना, यथा खयमेव शणोति न गृरः तयैयाब्यकबचनेनाछो चयतीत्यर्थ: । शब्दाकुलं यथा भवत्येवमगीनार्थोदीनपि श्रवयति । बहुजन एकस्थापराधपदस्य बहुन्यो निवेदनम्‌ । अ्रभ्यक्तमिति अव्यक्तस्यागीतार्थस्य गुरोयदरोषालोचनम्‌ । तस्सेवि लि यमपराध॑ शिष्यस्थ आलोवबिष्यति तमेकसेव्े यो गुदस्तस्मे यदाल्रेचनम्‌ । प्रतिकषविषरि । ९५ ६९८, जत्थ य गुरुणो दूरदेसे तत्थ ठवणायरियं ठरवित्तु हरियं पडिकमिय दुवालसावचर्वदर्ण दाउं सोहिं सँदिसाविय गाहं भमणिय, तद्दिणाओं आरब्म आलोयणातव कुणइ । पच्छा गुरूणं समागमे आलोयर्ण गिण्हह । सावएणं आलोयणातवे पारद्धे फासुयाहारों सच्चित्तवज्जर्ण बंभ अविभूसा कम्मादाणब्राओ विक- होवहास-कलह-भोगाइरेग-परपरीवाय-दिवासुयणवज्जण, तिकारू जहज्नओ वि चीव॑ंदर्ण जिणसाहुपूयण, रुदइज्ञाणपरिहारों तिविहाहारपच्चक्खाणं पुरिमडु चउबिदाहारपरिश्चाओ निश्वीए उस्सम्गेणं उक्कोसदबापरी- * भोगो, निसाए चउबिहाहारपश्चक्खाणं कायबं । तहा पुप्फवईए कय चित्तासोयसियसत्तमद्मीनवरमीकर्य च आलोयणातवे पडइ । हृकासणाइह पंचरख तिहीस जस्सत्थि सो तय गुरुय । कुणह इह निधियाई पविसह आलोयणाहतये ॥ १ ॥ जह त॑ तिहिभमणियतव अजन्नत्थदिणे करिज्व विहिसज्यो । ४ अह न कुणह जो सो गुरुतवों वि ज॑ तिहितवे पड॒ह ॥ २॥ पहदि्विस सज्ञाए अभिगर्गहों जस्स सयसहस्साई । ु सो कम्मक्खयहेऊ अहिगो आलोयथणाइतवे ॥ ३॥ सज्ञाओ य इरियं पडिक्रमिय कालवेलाचउक चित्तासोयसियसत्तमद्रमीनवमीओ य वज्िय, मुहे मुहर्णतय॑ वरत्थंचलू वा दाउं कायब्ों | न उण पुत्थिओवरि | नवकाराणं च मोणगुणियाणं सहस्सेणं दोण्णि ५ सहम्सा सज्झाओ पविसइ त्ति सामायारी ॥ ॥ आलोयणविही समत्तो ॥ ३४ ॥ ॥ प्रतिष्टाविधिः ॥ ६ ९९, मूलगुरंमि पुरंदरपुराभरणीभूए सो अहिणवसूरी पहद्ठापमुहकज्ञाई सय॑ चिय करेइ । अओ संपय पड़ट्टाविही भण्णद । सो य सक्यमासाबद्धूमंतबहुलो त्ति सक्षयभासाए चेव लिहिजइ । भर प्रतिष्ठाथाने जधन्यतोडपि हस्तशतप्रमाणक्षेत्र शोधिते विचित्रवल्नोल्लोचे पूर्वोत्तरदिगभिमुखस्य नव्यबिम्बस्य स्थापना । तदनन्तरं श्रीखडरसद्रवेण ललछाटे 'ऑँ हीं” हृदये “ऑँ क्षें! इति बीजानि न्‍्यसनीयानि। गन्धोदकपृष्पादिमिभूमिसत्कारः, अमारिघोषणम्‌ , राजप्रच्छनम्‌, वेज्ञानिकसन्माननम्‌ , संघाह्दानम्‌ , महोत्सवेन पवित्रस्थानाज्जानयनम्‌ , वेदिकारचना, .दिकपाल्स्थापनम्‌, स्रपनकाराश्व समुद्राः सकंकणाः अक्षताब्रा दक्षा अक्षतेन्द्रियाः कृतकवचरक्षा अखण्डितोज्वलवेषा उपोषिता धर्म्मबहुमानिनः कुलजाश्व- त्वारः करणीयाः । तत्रैव मंगलाचारपूर्वकम्‌ , अविधवाभिश्चतु;प्रभृतिभिर्जीवत्पितृमातृश्चश्रंधशुरादिमिः प्रधा- नोज्वलनेपध्याभरणाभिर्विशुद्धशीलामि:ः सकंकणहस्ताभिर्नारीमिः. पद्चरत्ञकपायमृत्तिका-मांगल्थमूलिका- अष्टवर्गसर्वोषध्यादीनां वत्तेन कारणीयं क्रमेण | ततो भूतबलिपूर्वक॑ विधिना पूर्वप्रतिष्ठितप्रतिमास्नाने क्रियते । ततः सूरिः प्रत्यग्रवल्परिधानः स्ञात्रकारयुक्तः शुचिरुपोषितो भूत्वा पूर्वभरतिष्ठितप्रतिमाग्रतश्रतुर्विधश्रीभ्रमण- संघसहितो अधिकृतजिनस्तुत्या देवबन्दन॑ करोति | ततः श्रीशांन्तिनाथ-श्रुतदेवी-शासनदेवी-अम्बिका- ७ अच्छुप्ता-समस्तवैयाबृत्त्यकराणां कायोत्सगिकरणम्‌ । ततः सूरिः कह्ृणमुद्रिकाहर्तः सदशवस्रपरिधान आत्मनः सकलीकरणं शुचिविद्यां चारोपयति । तख्चेदम्‌ - “आ नमो अरहंताणं हृदये, ओ नमो सिद्धाणं शिरसि, आ नमो आयरियाणं शिखायाम्‌ , आ नमो उवज्ञायाणं कवचम्‌, आ नमो सबसाहुरण अलम्‌ | १ 'कों नमो अरहंताणं इत्याविमंत्रामिमंत्रित' - इति दिप्पणी । विधि० १६ ९८ विधिप्रपा | इति सकलीकरणं । ततः-“ऑ' नमो अरिहंताणं, आ नमो सिद्धाणं, ओँ नमो आयरियाण, आ नमों उवज्ञा- याणं, ओ नमो सबसाहणं, आ नमो आगा[सगामीणं, औ हः क्षः नम?-इति शुचिविद्या । अनया त्रि-पत्च-सप्तवारान्‌ आत्मानं परिजपेत्‌ । ततः खपनकारान्‌ अभिमझय अभिमप्रितदिशाबलिप्रक्षेपण घूमसद्दित सोदकं क्रियते | “ँ हीं &्ष्वीं सर्वोपद्रवं बिम्बस्य रक्ष रक्ष खाह्म-इत्यनेन बल््यमिमन्रणस्‌ । ततः कुछु- ४ मांजलिक्षेप: । नमो<हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः । अभिनवसुगन्धिविकसितपुष्पोधभता सुधूपगन्धाद्या । विम्धोपरि निपतन्ती सुखानि पृष्पाज्नलिः कुरुताम्‌ ॥ १ ॥ तदनन्तरं॑ आचार्येण मध्याहुलीद्वयोध्वीकेरणेन बिम्बस्थ तजनीमुद्रा रौद्रदष्ला देया। तदनन्तर वामकरे जलूं गृहीत्वा आचार्येण प्रतिमा आच्छोटनीया । ततश्वन्दनतिलकं पृष्पैः पूजन च प्रतिमायाः । # ततो मुद्गरम॒द्रादर्शनम्‌, अक्षतभृतस्थालदानम्‌, वज्गरुडादिमुद्राभिरिम्बस्य चक्ष्रक्षामत्रेण 'आँ हीं क्ष्वीं०! इत्यादिना कवच करणीयम्‌ , दिग्नन्धश्व अनेनेव । ततः आवकाः सप्तवान्य॑ सण-लाज-कुलत्थ-यव-कंगु- उडद-सर्षपरूप प्रतिमोपरि क्षिपन्ति | ततो जिनमुद्रया कलशाभिमश्रणम्‌ । जलाद्मिमभ्रणमन्नाश्ेते - आओ नमो यः सर्व शरीरावस्थिति महाभूते आ ३ आप 9 ज ५ जलं गृद्ध गृह खाहा । जलामिमब- णमख्र:। ऑओ नमो यः शरीरावखिते प्रधु प्रथु गन्धान्‌ ग्रह ग्रह खाहा। गन्धाधिवासनमत्र। | ४ सर्वोषधिचन्दनसमालभनमतन्नश्च - ओ नमो यः सर्वतो मे मेदिनि पुप्पवति पृष्पं गृह् गृह खाद्य । पृष्पा- भिमश्रणमत्र: | ओ नमो यः सर्वतो बलि दह दह महाभूते तेजाधिपति धुधु धूप गृद्द ग्रद् खाह्य । धूपामिमब्रणमत्र; । ततः पश्चरल्कपाय्रन्धिरिम्बस्य दक्षिणकराह्ुसयां बध्यते । ततः सृत्रधारेणेककलशेन प्रतिमायां स्लापितायां पश्नमज्नल्पूर्वक मुद्रामत्राधिवासितिर्जलादिदन्यै- गतितूर्यपूर्वक सकुशलखात्रकरे: स्तात्रकरणमारभ्यते । तथ्था, सहिरण्यकलशचतुष्टयस्तानम्‌ १ - के सुपविच्नतीर्थनीरेण संयुत गन्धपुष्पसन्मिश्रम्‌ । पततु जले बिम्बोपरि सहिरण्य मझपरिपूतम्‌ ॥ २॥ सर्वस्तत्रेप्वन्तता शिरसि पुष्पारोप् चन्दनटिकर्क धूपोत्पाटनं च कर्तेव्यम्‌ | ततः प्रवाल्मौक्तिकमुवर्णरजतताम्रगर्भ पश्चरल्लजल्खानम्‌ २- नानारलौोघयुतं खछुगन्धिपृष्पाधिवासित नीरम्‌। म पतताद विचित्रवर्ण मआ्य स्थापनाबिम्बे ॥ ३ ॥ ततः प्लक्षअश्वत्थउदुम्बरशिरीषवर्टांतरच्छल्लीकषायस्ञानम्‌ ३ - एक्षाश्वत्थोदुम्बरशिरीपछलह॒यादिकल्कसन्मृष्टे । बिम्बे कयायनीरं पततादधिवासित जैने ॥ ४॥ ततो गजबृषभविषाणोद्धृतपर्वतवल्मीकमहाराजद्वारनदीसज्वमोभयतटपद्मतडागोद्भवमृत्तिकास्ानस ४ -- पवेतसरोनदीसंगमादिसद्धिश्व मअ्रपूतामिः । उद्धृत््य जेनबिम्बं सवपयास्यधिवासनासमये ॥ ५॥ ततइछगणमूत्रघृतद्धिदुः्धदभरूपगवांगदर्मोदकेन पश्चगव्यस्नानम्‌ ५- जिनबिम्बोपरि निपततु छुतदधितदुर्धादिद्वग्यपरिपूतम । | दर्भोदकसन्मिश्न पश्चणर्य हरतु दुरितानि ॥ ६ ॥ मर सहदेवी-वला-शतमूली-शतावरी-कुमारी-गुहा-सिंदी-व्याप्ीसदौषषिद्धानम्‌ ९ -- प्रतिष्ताविधि । ९ सहदेदयादिसदोषधिवर्गेणोदसितस्यथ विम्बस्य । तन्मिश्र॑ बिम्बोपरि पतज़ल हरतु दुरितानि ॥ ७॥ मयूरशिखा-विरहक-अंकोछ-लक्ष्मणा-शंखपुष्पी-शरपुंखा-विष्णुक्रान्ता-चक्रांका-सर्प्पक्षी-महानी ली मृ- लिकासानम्‌ ७- छपविश्रमूलिकाबर्गंमर्दिते है अ दकस्य छुभधारा। + विम्बेषधिवाससमये यच्छतु सोख्यानि निपतन्ती ॥ ८ ॥ कुष्टे प्रियंगु बचा रोभ उशीरं देवदारु दूवों मधुयश्टिका ऋद्धिवृद्धित्रथमाष्टवर्गेस्ानम्‌ ८-- नानाकुष्टाथौषधिसन्मष्टे तदयुत पतन्नीरम्‌ । विम्बे कृतसन्मअं क्मों्च हन्तु भव्यानाम्‌ ॥ ९ ॥ मेद-महामेद-कंकोल-क्षीरकंकोल-जीवक-ऋषमक-नखी-महानखी-द्वितीयाष्कवरीस्नानसू ९-.__#& मेदाद्यौषधिभेदो5परोचज्छवरगेः सुमश्रपरिपूतः । निपतन्‌ विम्बस्योपरि सिद्धि विद्धातु भव्यजने ॥ १०॥ ततः सूरिरुत्थाय गरुडमुद्रया मुक्ताशुक्तिमुद्रया वा परमेष्ठिमुद्रया वा प्रतिष्ठाप्य देवताहाननं तदगतो भूत्वा ऊर्ध्वः सन्‌ करोति । ऑ नमो 5हंत्परमेश्वराय चतुमुखपरमेष्ठिने त्रेलोक्यगताय अष्टदिखि- भागकुमारीपरिपूजिताय देवाधिदेवाय दिव्यशरीराय त्रेलोक्यमहिताय आगच्छ आगच्छ खाहाय - इत्यनेन ४ अपरदिक्पालाश्वाहयन्ते । ऑ इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय इह जिनेन्द्रसापने आगच्छ आगच्छ खाहा ।१। ऑ' अम्ये सायुधायेत्यादि आगच्छ आगच्छ खाहा | २। ओ यमाय सायुधायेत्यादि । ३ । ऑ' नैऋतये सायुधायेत्यादि। 9 । आओ वरुणाय सायुधायेत्यादि | ५। आँ वायवे सायुधायेत्यादि । ६ । ऑ' कुबेराय सायुधायेत्यादि | ७। ऑ इशानाय सायुधाय सवाहनायेत्यादि । ८ । ओऑ नागाय सायुधाये- त्यादि । ९। ऑ ब्रह्षणे सायुधायेत्यादि | १० । ततः पुष्पांजलिक्षेप: । गन ततो हरिद्वा-बचा-शोफ-वालक-मोथ-अन्थिपर्णक-प्रियंगु-मुरवास-कर्चूरक-कुष्ट-एला- तज-तमालुपत्र-नाग- केसर-रूवंग-कंकोरू-जातीफल-जातिपत्रिका-नख-चन्दन-सिल्हक-प्रभृतिसवै पधिस्ानम्‌ १० -- सकलोषधिसंयुक्तया खुरगंधया धर्षित सखुगतिहेतोः । सनपयामि जेनविम्ध मश्िततन्नीरनियहेन ॥ ११॥ अन्न दीपदर्शनमित्येके | ततः (सिद्धा जिनादि/ मन्नः सूरिणा दृष्टिदोषघाताय दक्षिणहस्तामर्पेण तत्काले » बिम्बे न्‍्यसनीयः । स चायम्‌ - 'इहागच्छन्तु जिनाः सिद्धा भगवन्तः खसमयेनेहानुग्रहाय भव्यानां मः खाहा! । «हुं क्षां हीं क्ष्वीं इवीं आँ भः खाद्य! - इत्ययं वा | ततो लोहेनास्प्रष्टश्वेतसिद्धार्थरक्षापोड्डलिका करे बन्धनीया तदभिमप्रेण । मश्नोडयम्‌- “आँ झां झ्लीं इवीं खाह्य” इत्ययम्‌ । ततश्रन्दनटिक्ृकम्‌ । ततो जिन- पुरतो5ज्ञलि बद्धा विशसिकावचनन कार्यम्‌ | तखेदम्‌-'“खागता जिनाः सिद्धाः प्रसाददाः सन्तु प्रसाद घिया बुर्वन्तु अनुभ्रहपरा भवन्तु भज्यानां खागतमनुखागतम्‌! । मर ततो5झ्ञलिमुद्या खर्णमभाजनस्थाधे मन्नपूर्वकें निवेदयेत्‌ । स च-आँ भः अधे प्रतीच्न्तु पूजां युहन्तु जिनेन्द्रा: खाद्य । सिद्धार्दध्यक्षतज्नृतदर्भरूपश्वार्ष उच्यते | ततः- १ वब्रेण अहन | १७७ 'विधिप्रेपा | इन्द्रममिं यर्म चेव नेऋते बरूणं तथा। थायुं कुवेरमीशान नागान ब्रह्माणमेव च ॥ ११॥ “ऑ इन्द्राय आगच्छ आगच्छ अपे प्रतीच्छ प्रतीच्छ पूजां ग्रद्द ग्रृद्ध खाह्म' - एवमेव शेषाणामपि नवानां आह्वानपूर्वफकं अधेनिवेदन च । ततः कुसुमल्लानम्‌ ११ - ह अधिवासित सुमझेः सुमनः किंजल्कराजित तोयम । तीथेजलादिसु एक्त कलशोन्सुक्त पततु बिम्बे ॥ १३॥ ततः सिहक-कुष्ट-सुरमांसि-चंदन-अगरु-कपूरादियुक्तगन्धस्लानिकास्रानस्‌ १२ - गन्धाइरनानिकया सन्स्दृ्ट तदुदकस्य घाराभिः । सनपयामि जैनबिम्ष कम्मोंघोछजिछत्तये शिवदम्‌ ॥ १४॥ गन्धा एवं शुकृवणी वासा उच्यन्ते, त एवं मनाक्‌ कृष्णा गन्धा इति । ततो वासस्लानम्‌ १३- हयैराल्हादकरेः स्श्हणीयैमेअसंस्कृतेजेनम ! सनपयामि सुगतिहेतोर्बिम्बं अधिवासित वास: ॥ १५ ॥ ततश्व॒ चन्दनस्नामम्‌ १४- शीतलसरससुगन्धिमनोमतश्चन्दनट्रमससुत्थः । चन्दनकल्कः सजलो मश्रयुतः पततु जिनबिस्बे ॥ १६ ॥ ततः कुकुमस्रानम्‌ १५- काइमीरजसुविलिप्त बिम्बं तन्नीरधारयाएईभिनवम | सनन्‍्मअ्रयुक्तया शझुचि जैन सनपयामि सिद्धयर्थेम॥ १७॥ तत आदशैकदरीन शंखदददीन च बिम्बस्य । ततस्तीर्थोदकस्तानम्‌ १६५० जलघधिनदीहदकुण्डेषु यानि तीथोदकानि शुद्धानि । तैमअसंस्कृतेरिह विम्ब॑ स्वपयामि सिद्धयर्थम ॥ १८ ॥ ततः कपूरस्तानम्‌ १७- शशिकरलुषारधवला उज्वलगन्धा सुतीर्थजलमिश्रा । कपूरोदकधारा छमझपूता पततु बिम्बे ॥ १९॥ ततः पुष्पाज्नलिक्षेप: १८- नानासुगन्धपृष्पीधरज़िता चश्वरीककृतनादा । धृपामोदविमिश्ना पततात्‌ पृष्पाज्लिषिंम्बे | २० ॥ ततः शुद्धजलछलकलश १०८ ज्लानम्‌ १९- घक्रे देवेन्द्रराजः सुरगिरिशिखरे योपभिषेकः पयोभि- डैत्यन्तीमिः हब चल आ 5 38// 3 3 ।। क्तुं तस्थानुकारं शिवस्ुखजनकं ४ य जैन बिम्ब प्रतिष्ठावेधिवथनपरः स्नापयाम्यश्व काले ॥ १९ ॥ तत आचार्यमंत्रेणाधिवासंनामंत्रेण वाउमिमंत्रितचन्दनेन सूरिवामकरघूतदक्षिणकरेण प्रतिमां सर्वान्न- माल्ेपयति, कुछ्मारोपणण घूपोत्पाटनं वासनिक्षेप: मुरभिमुद्रादर्शनम्‌ । पश्ममुत्रा ऊर्जा दर्श्यते, अललहिसुद्रा- प्रतिष्ठायिधि |... ह_०६ दर्शन च। ततः प्रियंगुकर्पूरगोरोचनाहस्तलेपो हस्ते दीयते। अधिवासनामंत्रेण करे पाश्चेत ऋद्धिवृद्धिसमेत- विद्धमदनफलास्यकंकणबन्धनम्‌ । स चायम्‌-% नमो खीरासवलडद्धीणं, <* नमो महुंबासबलरूद्धीण, $% नमो संभिन्नसोईणं, & नमो पयाणुसारीणं, &* नमो कुट्टनुद्धीणं, जमिय॑ विज्ज पउंजामि सा में विज्ञा पसिज्जउ, 55 अबतर अबतर सोमे सोमे कुरु कुरु & वग्गु वग्गु निवग्गु सुमणे सोमणसे महुमहुरे कविर 3७ कक्ष: खाहा' - अधिवासनामंत्र: । यद्वा -/«* नमः शान्तये हू क्षूं हूं सःः - कंकणमंत्र:। अधिवासना- मंत्रेणेब-“3० खावरें तिष्ठ तिष्ठ खाह'-इति खिंरीकरणमंत्रेण वा मुक्ताशुक्त्या बिम्बे पश्चांगस्पर्शः । मस्तक १ स्कन्ध २ जानु २ वारसप्त सप्त चन्रमुद्रया वा। धृपश्च निरंतर दातव्यः । परमसेष्ठिमुद्रां सूरि करोति । पुनरपि जिनाह्ानम्‌। ततो निषद्यायामुपविश्यासनमुद्रया मध्यात्मभृति नन्थावत्तमामकर्पूरेण पूजयेत्‌ । वक्ष्यमाणक्रमेण सदशाब्यंगबर््रेण तमाच्छादयेत्‌ । तदुपरि नालिकेरप्रदानम्‌ । तदुपरि संकल्प- मात्रेण प्रतिष्ठाप्य बिम्बस्थापन॑ चलप्रतिष्ठास्यापनाय । ततः प्रधानफलेन॑न्द्ावत्तेस्य पूजन चतुर्विशत्या पन्नैः पूगैश्व पूजनीयः । ततो विचित्रवलिविधानम्‌ | यथा - जंबीर-बीजपूरक-पनसाम्र-दाडिमेक्षुइक्ष-हत्यादिफल- दौकनम्‌ । ततश्चतुःकोणकेषु वेदिकायाः पूर्व न्यस्तायाश्वतुस्तन्तुवेष्टनम्‌, चतुर्दिश श्रेतवारकोपरि गोधूम- प्रीहि-यवानां यववारकाः खाप्या: । ततो द्वाक्षा-खजूर-वर्षोल्क-ऊतती-अक्षोटक-वायम्व-इत्यादिदौकनम्‌ । ततो बाढु-खीरि-करंबुउ-कीसरि-कूर-सींपवडि-पूयली-सरावु ७ दीयन्ते | काकरिया मुगसत्का ५, यवसत्क ५ गोहू ५ चिणा ५ तिल्सत्क ५ सुंहाली खाजा लाडू मांडी मुरकी इत्यादि प्रचूरबलिढौकनम्‌ । पुनः सूत्र- सहितसहिरण्यचंदनचर्चितकलशाश्चत्वार: प्रतिमानिकटे स्थाप्यन्ते | घृतगुडसमेतमंगलप्रदीप 9 खस्तिक- पहस्य चतसृष्वपि दिक्षु सकपर्दक-सहिरण्य-सजल-सधान्य-चतुर्वारकस्थापनम्‌ । तेषु च सुकुमालिकाकंकणानि करणीयानि, यववाराश्व स्थाप्या: । पूर्णकौसुम्भरक्तवखस्‌त्रेण चतुर्गुण वेष्टन वारकाणाम्‌ | ततः शक्रस्तवेन चैत्यवन्दनं कृत्वा अधिवासनालझसमये कण्ठे कुसुम्भसंत्रेण पृष्ममालासमेतऋद्धिवृद्धियुतमदनफलारोपणपूर्वक चन्दनयुक्तेन पृष्पवासधूपप्रत्यग्राधिवासितेन वस्लेण सदशेन वदनाच्छादन माइसाडी चारोप्यते । तदुपरि चन्दनच्छटा सूरिणा सूरिमंत्रेणाधिवासन च वारत्रयं कायेम्‌ । ततो गन्धपृष्पयुक्तसप्तधान्यस्रपनमझ्ललिमिः । तथ्चेदमू - शालि-यव-गोधूम-मुद्र-वल्ल-चणक-चवला इति। ततः पुष्पारोप् धूपोत्पाटनस्‌ । ततख्नीमिर विधवामिश्वतस॒मिरधिकामिवां प्रोक्षणकम्‌ , यथाशक्ति हिरण्यदानं च। तामिरेव पुनः म्रजुरर्दुकादिबलि- करणम्‌ | ततः पुटिका ३६० दीयम्ते । साम्प्रतं क्रयाणकानि ३६० संमीक्ष्य एकैव पुटिका शरावे छत्वा प्रतिमात्रे दीयते, इति दृश्यते | ततः श्राद्धा आरजत्रिकावतारण मंगलप्रदीप॑ च कुर्वन्ति । चैत्यवन्दर्न कायो- त्सर्गों5घिवासनादेन्याश्वतुर्विशतिस्तवचिन्तनम्‌ । तस्या एवं स्तुति! - विश्वादेषेषु कु + अब कट वसतोौ । सेमामवतरतु ॥ १॥ यहा - पातालमन्तरिक्ष भवन वा या समाअिता नियम । ह साउच्रावतरतु जैनीं भतिमामधिवासनादेवी ॥ २ ॥ भ ततः झुतदेवी १ शान्ति २ अम्बा ३ क्षेत्र ४ शासनदेवी ५ समस्तवैयावृत््य ६ कायोत्समीः । या पाति शासन जैन सत्यः प्रत्यूहनादिनी । साउमिप्रेतसर्क्पर्थ मूयाच्छासनवेवता ॥ १॥ पुनरपि धारणोपबिश्य कायी सूरिणा -“खागता जिनाः सिद्धा-! इत्यादिनेति। अधिवासनाविधिरयम्‌। १ 'विरतंदुरूमाषा; समरादा: / 2 “चूरिमानी पींडी' इति टिप्पणी । द् १०२ विधिप्रषा ! . ६ १००, अधिवासंना रात्रौ दिवा प्रतिष्ठा प्रायशः कायो । इतरथापि किश्नित्कालं स्ित्वा विमिल्े प्रतिष्ठाल्मे प्रतिष्ठा विधेया | तत्र प्रथम शान्तिदेवतामंत्रेणामिमंज्य शान्तिबलिः | शान्तिदेवतामंत्रश्धायम्‌ -<» नमों मगवते अहंते शान्तिनाथखामिने सकलातिशेषमहासम्यत्समन्विताय त्रैलोक्यपूजिताय नमो नमः शान्तिदेवाय सर्वामरसमूहखामिसंपूजिताय भुवनजनपालनोद्यताय सर्वदुरितविनाशनाय सब्ोशिवप्रशमनाय सर्वदुष्टमहमभूत- £ पिशाचमारिशाकिनीप्रमथनाय नमो भगवति जये विजये अजिते अपराजिते जयन्ति जयावहे सर्वेसंघसन मद्रकल्याणमंगलप्रदे साधूनां श्रीशान्तितुश्िपुष्टिदे च खस्तिदे च भव्यानां सिद्धिवृद्धिनिईत्तिनिवोणजनने सत्त्वानामभयप्रदानरते भक्तानां शुभावहे सम्यम्दष्टीनां घृतिरतिमतिबुद्धिम्रदानोद्यते जिनशासनरतानां औसम्प- त्कीर्तियशोवर्द्धने रोगजलज्वलनविषविषधरदुष्टज्वरव्यन्तरराक्षसरिपुमारिचौरइतिश्वापदोपसग्गीदिभयेभ्यो रक्ष रक्ष शिव कुरु कुरु शान्ति कुरु कुरु तु्टि कुरु कुरु पुष्टि कुरु कुरु 5 नमो नमः हुं हवः यः क्षः हीं फुट ४ खाहा' । तत्ैत्यवन्दनम्‌ । प्रतिष्ठादेवतायाः कायोत्सम्ग:, चतुर्विशतिस्तवचिन्तनम्‌ | ततः स्तुतिदानस्‌ -- यदधिष्ठिताः प्रतिष्ठाः सब्वोः सर्वास्पदेघु नन्‍्दन्ति । अ्रीज्िनबिम्ब सा विद्वतु देवता सुप्रतिष्ठमिदम्‌ ॥ १ ॥ शासनदेवी - क्षेत्रदेवी -- समस्तवैयावृत्त्य ० धूपमुत्क्षिप्याच्छादनमपनयेत्‌ लम्समये | ततो घृतभाजनमग्रे कृत्वा सौवीरक॑ धृतमघुशकंरागजमदकर्पूरकस्तूरिकाभृतरूपवर्त्तिकायां सुवर्णशलाकया “अहँ अहे' इति वा ४ बीजेन नेत्रोन्मीलन वर्णन्यासपूर्वकम्‌; यथा-हाां ललाटे, श्री नयनयोः, हीं हृदये, रें सर्वसन्धिषु, #ं प्राकारः । कुम्मकेन न्‍्यासः। शिरस्थमिमंत्रितवासदानम्‌ , दक्षिणकर्णे श्रीखण्डादिचर्चिते आचार्यमंत्रन्यासः । प्रतिष्ठामंत्रेण त्रि ३ पशन्च ५ सप्तवारान्‌ सवाक्ज प्रतिमां सप्शेत्‌ चक्रमुद्रया | सामान्ययतिं प्रति मंत्रों यथा - “ीरे वीरे जयवीरे सेणवीरे महावीरे जये विजये जयन्ते अपराजिए % हीं खाह्म' अय॑ प्रतिष्ठामंत्र: । ततो दधिभाण्डद्शनम्‌ , आदर्शकद्शनम्‌ , शंखदर्शनम्‌ , दृष्टेश्नक्षूरक्षणाय सौभाम्याय स्थैयोय च समुद्रा मंत्रा न्यस- » नीया: । “55 अवतर अवतर सोमे सोमे कुरु कुरु बग्गु वस्गु' इत्यादिकाः | ततः सौभाम्यमुद्रादर्शन १, सुर- मिमुद्रा २, प्रवचनमुद्रा ३, कृतांजलिः ४, गुरुडा पर्यन्ते । पुनरप्यवमिनन ल्लीमि: | हह च स्थिरप्रतिमाउधों घृतवर्त्तिका श्रीखंड तंदुल्युतपश्चधातुकं कुम्मकारचऋमृत्तिकासहितं पूर्वमेव बिम्बनिवेशसमये न्यसेत्‌ । ततः-« खाबरे तिष्ठ तिष्ठ खाहा' - इति स्थिरीकरणमंत्रो अवमिननोध्वे न्यसनीयः । चल्प्रतिष्ठायां तु नैषः । नवरं चलप्तिमा5धः सशिरम्कदर्भो वालिका' च प्रथमत एवं वामांगे 'न्यसनीया । तत्र च-७७ » जये श्रीं हीं सुभद्रे नमः:"-ति मंत्रश्व प्रतिष्ठानन्तरं न्यस्यः। ततः पद्ममुद्रया रज्ासनस्थापन कार्यमिदं बदता, यथा - इदं॑ रल्मयमासनमलंकुर्वन्तु, इहोपविष्टा भव्यानवलोकयन्तु, दृष्टदृष्या जिनाः खाहा | 5 इहये गंधान्यः प्रतीच्छतु खाहा । * ढये पृष्पाणि गृहन्तु खाहा । # इये धूप॑ भजंतु खाहा । 5 इये मूत- बलि जुपन्तु खाह । #* हये सकल्सत्त्वालोककर अवकोकय भगवन्‌ अवलोकय खाहा-इति पढठित्वा पुष्पांजलित्रयं क्षिपेत्‌ । ततो वद्बालंकारादिभिः समस्तपूजा, माइसाडी-कंकणिकारोपश्व, पृष्पारोपणं बल्या- » दिश्व । मोरिंडा-सुहालीप्रभतिका दीयते । ततो लवणावतारणम्‌ , आरब्रिकावतारणम्‌ , मंगलप्रदीपः कार्य: । अन्राषि भूतबलिप्रक्षेप इत्येके | भूतबल्यभिमंत्रणमंत्रस्वयम्‌-“*# नमो अरिहंताणं, * नमो सिद्धाणं, 3» नमो आयरियाणं, #% नमो उवज्ञायाणं, * नमो छोए सबसाहू्णं, 5 नमो आगासगामीणं, * नमो चारणाइलद्धीणं, जे इमे नरकिंनरकिंपुरिसमहोरगगुरुलसिद्धगंघब्बजक्खरक्खसपिसायभूयपेयडाइणिपमियओ ] बाठढी । 2 प्रोक्षणं। 8 वेद । 4 न्यस्मैव लिम्बं निवेश्मम्‌। 5 'कबिदिद कूट साइुखार ढ्विमात (हय ) दृश्यते ।' इति 3 टिप्पणी । प्रतिष्षाविधि ।. १०३ जिणघरनिवासिणों नियनिरूयट्टिया पवियारिणों सक्निहिया असन्रिहिया य ते से विलेवणघूवपृष्फफलूसणाहं बलि पडिच्छंता तुट्दिकरा भवन्तु पुट्टिकरा मवन्तु सिवकरा संतिकरा भवन्तु, सत्थयण्ण कुबन्तु, सबजि- णाणं सल्रिहणपभावओ पसन्नभावत्तणेण सब्त्थ रक्‍्ख॑ कुबंतु, सब्बत्य दुरियाणि नासितु, सबासिवमुक्समन्तु, संतितुद्विपृट्िसिवसत्ययणकारिणो भवन्तु खाह्य! | ततः संघसहितः सूरिश्रैत्यवन्दन करोति । कायोत्सगीः श्ुतदेव्यादीनां पर्यन्ते प्रतिष्ठादेव्याश्व । 'यदघिह्िता:” प्रतिष्ठास्तुतिश्व॒ दातव्या | शक्रस्तवपाठः, शान्तिस्तवभ- « णनम्‌ । ततो5खंडाक्षताज्ञलिभतलोकसमेतेन मंगलुगाथापाठः कार्यः । नमो5हल्सिद्धेत्यादिपूर्वकम्‌, यथा - जह सिद्धाण पह्ट्टा तिलोयचूडामणिम्मि सिद्धिषए । आचंदसूरियं तह होठ श्मा सुप्पड्ट्ट त्ति॥ १॥ जह सग्गस्स पहद्ा समत्थछोयरस मज्क्षियारम्मि | आचंद० ॥ २॥ जह मेरुस्स पहद्ा दीवसमुद्दाण मज्झियारम्मि | आधंद० ॥ ३ ॥ हे जह जम्बुस्स पह्ट्ठा जबुद्दीवसस मज्झियारम्मि | आ्ंद० ॥ ४ ॥ जह लव॒णस्स पहट्टा समत्थउदहीण मज्झियारम्मि। आचंद० ॥ ५॥ हति पठित्वा अक्षतान्‌ निक्षिपेत्‌ पृष्पाञ्नलींश्व क्षिपेत्‌ । ततः प्रवचनमुद्रया सूरिणा धर्म्मदेशना कायो । ततः संधाय दाने मुखोद्घाटनं दिनत्र्य पूजा अष्टाहिका पूजा वा। तत्नापि प्रशस्तदिने तृतीये पद्चमे सप्तमे वा ज्ञात्र कृत्वा जिनवर्लि विधाय भूतबलि प्रक्षिप्य चैत्यवन्द्न विधाय कंकणमोचनायर्थ कायोत्सग:, ४ नमस्कारस्य चिन्तन भणनं च। प्रतिष्ठादेवताविसजेनकायोत्सरी: । चतुर्विशतिस्तवचिन्तन तस्बेव पढने भुतदेवता १, शान्ति० २,- उन्म्ृष्टरिष्टदृष्टभ्रहगतितुःखप्रदुर्निमित्तादि । संपादितहितसम्पन्नामग्रहर्ण जयति शान्तेः ॥ क्षेत्रदेवतासमस्तवैयावृत््यकरकायोत्सग्गों: | ततः सौभाम्यमंत्रन्यासपूर्वकं मदनफलोत्तारणम्‌ । स च-- “& अवतर अबतर सोमे'- इत्यादि । ततो नन्धावत्तेपूजन विसर्जन च। “3£ बिसर विसर खखसथाने गच्छ गच्छ खाह्याँ -नन्धावत्तेविसजेनमंत्र: । (३४ विसर विसर प्रतिष्ठादेवते खाहा - इति प्रतिष्ठादेवताविसर्जन- मंत्र: । ततो घृतदुर्धदध्यादिभिः ख्रानं विधाय अशोत्तरशतेन वारकाणां ख्ानम्‌ । प्रतिष्ठावृत्तौ द्वादशमासिक- खपनानि हृत्वा पूर्ण वत्सरेडष्टाहिकां विशेषपूजां च विधाय आयु्रेन्थि निबन्धयेत्‌ । उत्तरोत्तपूजा च यथा स्मात्तथा विधेयम्‌ । कह लिप्पाइमए थि बिही बिंये एसेव किंतु सबिसेसं। कायब ०हवणाई दष्पणसंकंतपडिबविंबे ॥ १ ॥ 3* क्षि नमः अंबिकादीनामधिवासनामंत्र: । “3० हीं क्लू नमो वीराय खाह्ा! -तेषामेव प्रतिष्ठामंत्र: । यद्वा “3 हीं क्ष्मी खाद्य” प्रतिष्ठामंत्र: । अंजल्याकारहस्तोपरि हस्त आसनमुद्रा, चप्पुटिका प्रवचनमुद्रा । थुहृदाणमंतरनासों आहयर्ण तह जिणाण दिसिवंधो । अ नेतुम्मीलणदेसण गुरु अहिगारा हहं कप्पो ॥ १ ॥ राया बछेण वहुई जसेण घवलेश सयलद्सिमाए। पुण्ण बहुड बिउल सुपइ्ट्टा जस्स देसम्मि ॥ २॥ उयहणह रोगमारी दुब्मिक्ख हणइ कुणह सुहभावे।. आवेण फीरसाणा छुपइट्टा सपललोयस्स ॥ ३ ॥ छ १०७ . चिधिप्रपा । जिणविंयपरटट जे करिंति तह कारबिंति मत्तीए । अणुमन्नह पडदियह सबे सुहमभायण हुंति ॥ ४॥ दब तमेथ मच्नह जिणबिंवपहट्टणाइकज्जेस । ज॑ लग्गइ ते सहल दुग्गहजणणर्ण हवह सेसं ॥ ५ ॥ हु एवं नाऊण सया जिणवरबिंबस्स कुणह सुपइटं । पावेह जेण जरमरणवज्ियं सासय ठाणं ॥ ६ ॥- इलेते प्रतिष्ठागुणा: । कमलवबने पाताले क्षीरोदे संस्थिता यदि खर्ग । अगवति कुरु सांनिध्य विम्बे शीअ्रमणसंघे च ॥ १ ॥ प्रतिष्ठानन्तरमिमां गाथां पठता वासा अक्षताश्थव देवशिरसि दीयन्ते । ४“ बिद्युत्पुलिल्ले महाविधि ५ सर्वकल्मषं दह दह खाहा' - कल्मषदहनमंत्र: । ४“ हूं क्षूं फुट किरीटि किरीटि घातय घातय परीविष्नान्‌ स्फोटय स्फोटय सहखखण्डान्‌ कुरु कुरु परमुद्रां छिन्द छिन्द, परमंत्रान्‌ भिन्द भिन्द क्षः फुट खाहा' - सिद्धार्थनमिमंत्य सर्वदिक्षु प्रक्षिपित्‌ | विप्नशान्तिः प्रतिष्ठाकाले | $“ हां लूलाटे, 3“ हीं वामकर्णे, 3४ हुं दक्षिणकर्ण, ३४ हुं शिरःपश्चिमभागे, 3“ हुं मस्तकोपरि, ३० क्ष्मी नेत्रयो:, 3“ क्ष्मीं मुखे, 3“ &षमीं कृण्ठे, 3 #ष्मी हृदये, 3० दम: बाह्नो:, ३” क्वों उदरे, ७” हीं कटौ, $” हूं जंघयो:, ३ क्ष्मूं पादयो:, ४ 3“ क्षः हस्तयोरिति कुंकुमश्रीखंडकपूरादिना चक्लुःप्रतिस्फोटनिवारणाय प्रतिमायां लिखेतू । अथोक्तप्रतिष्ठाविधिसंग्रहगाथाः संक्षेपाथ लिख्यन्ते - पु पडिसणहवर्ण चिह्ट उस्सग्ग थुह्ठ अप्पण्हवणयारेसु । रक्‍खा कुसुमाणंजलि तज्जणिपूर्य थे तिलय॑ बा ॥ १॥ मोग्गरसक्खयथालं वर्ज गुरूडो बली [3 हीं (वीं ] समंतेण । 2 कवये दिसिबंधो चिय पक्स्विवर्ण सत्तधन्नस्स ॥ २॥ कलसहिमंतणसबोसहिचंदणच चिविंवमतेणं । पंचरयणरस गंठी परमेट्टीपचर्ग ण्हबर्ण ॥ ३ ॥ पढम हिरण्णसह -पंचरयण्ण-सकसाथमट्ियाण्हवर्ण । दब्भोदर्यमीसं पंचगर्बण्हवर्ण च पंचमय ॥ ४॥ कु सहदेवाईसबोसहीण “वर्गो य सूलियाबग्गों । पढमद्रवग्ग बीयट्टरवग्ग ण्हवर्ण तहा नव ॥ ५ ॥ जिणदिसपालाहवर्ण कुसमंजलिसब ओसहीण्ह वर्ण । दाहिणकरमरिसेणं जिणमंतो सरिसवोदह्रलिया ॥ ९ ॥ तिलयजलिमुद्दाए विज्नत्ती हेमभायणत्थम्घो । भ पुण दिसपालाहवर्ण परमेट्टी-गरुड्सुहाए॥ ७॥ कुछुमजल गंधण्हांणिय वासेहिं'' चंदणेण ' घुसिणेण '। पनरसण्हाणेसु कएस दष्पणदंसण्ण पुरओ ॥ ८ ॥ तित्थोदएण ण्हाण'* कप्पूरेण ' व पुष्फअंजलिया । अद्वारसमं पहाणं खुद्धघरदुशरसर्एण ॥ ९॥ प्रतिधाविधि-नन्यावर्तकेखनविधि । १०५ सबदबिलेषणसूरी पुप्फाई घृूववाससयणफल | झुरही पठमा पठसा अंजलिसुद्दाओ हत्थलेयों य ॥ १० ॥ अहिवासणसंलेण कंकण लेणेबव चक्कमुद्ाए । पंचंगफास पुण जिणआहवबण्ण नंदपूया य ॥ ११॥ सत्त सराया चंदणचबथियकलसा सलंतुणों चउरो। ४ घयगुलदीया चठरो चठकलसा नंदवत्तस्स ॥ १२॥ सक्॒स्थपअहिवासणससए छाएहि साहसाडीए । सूरिमंताहिचासण-पहवर्णजलि सत्तघन्नस्स ॥ १३ ॥ पुर्वणणयकणयदाणं वलिलदुयमाह पुढिय आरतियं | चिह्अहिवासण देवयथुह्रधारण सागयाईहिं॥ १४॥ कं ॥ अधिवासनाधिकारः समाप्तः ॥ जे अथ प्रतिष्ठाधिकारः- संतिषलि चिहपइट्टा उस्सरगो थी य भायण नित्ते। वन्नसिरि वास कन्ने मंतो सबंगफास चक्केण ॥ १५॥ दहिभंड मंतर सुद्दा पुंखण पुष्पंजलीउ मंतेण । ४ भूयबलि लवणरत्तिय चिष्ट अक्खय धम्मकह महिमा ॥ १९॥ तहय पण सत्तमदिणे जिणबलि भूयबलि वंदिउं देवे। कंकणसोयणहेउ पहट् उस्सग्ग मंतर नसे ॥ १७ ॥ काउं पूथबविसग्गों नंदावत्तस्स कंकणच्छोड़े। पंचपरमेट्टिपुव॑ संगलगाहाओं पढमाणो ॥ १८ ॥ 2 जे ६ १०१, अथ नन्धावर्त्तसखापना लिख्यते-कर्पूरसन्मिश्रेण प्रधानश्रीखण्डेन लोददेनास्प्ट्टैकखण्डश्री- पण्यादिपट्टके सहलेपा: ऋमेण दीयन्ते उपयंधश्व । कपूर-कस्तूरिका-गोरोचना-ऊकुंकुम-केसररसेन जातिलेखिन्या प्रथम नन्धावर्तों लिख्यते प्रदक्षिणय नवकोणः । ततस्तन्मध्ये प्रतिष्ाप्यजिनप्रतिमा, तत्पाश्वे एकत्र शक्तः, अन्यत्रेशानः, अधः अ्रुतदेवता । ततो नन्यावर्त॑स्योपरिवलके गृहाष्टकरचिते “नमोहदुभ्यः, नमः सिद्धेभ्यः, नम आचार्येम्य:, नम उपाध्यायेभ्य:, नमः सर्वसाधुभ्यः, नमो ज्ञानाय, नमो दर्शनाय, नमश्वारित्राय! | ततः # पूवोदिषु चतुद्वी रेषु तुंबरमतीहारः; तथा सोमः, यमः, वरुण, कुबेर:; तथा धनुः-दण्ड-पाश-गदाचिह्ानि) इति प्रथमवलरुक: । तस्योपरि द्वितीयवलके पू्कदिप्रतोल्यन्तरेषु आभियादिषु गृहपट्क-षट्कविरचितेषु ऋमेण प्रति- गृह मरुदेव्यादिजिनमातरो लिख्यन्ते - मरुदेवि १, विजया २, सेना ३, सिद्धत्था 9, मंगला ५, सुसीमा ९, पुष्दवी ७, लक्खणा ८, रामा ९, नंदा १०, विण्टू ११, जया १२, सामा १३, सुजसा १४, सुबया १५, अइरा १६, सिरी १७, देवी १८, पमावई १९, पठमा २०, वष्पा २१, सिवा २२, वम्मा २३, # तिसलछा २४ ।-इति द्वितीयः । तृतीयवलके पूर्वाद्यन्तरालेषु गृहचतुष्टय-चतुष्टयविरचितेषु षोडशविद्या> देव्यो लिख्यन्ते - रोहिणी १, पतन्नतती २, वजर्सिखश ३, वज्जंकुंसी 9७, अपडिचका ५, पुरिसदत्ता ६, काली ७, महाकाली ८, गोरी ९, गांधारी १०, सबत्यमहाजारा ११, माणवी १२, वहरोहय १३, ४ १०६ विधिप्रभा । अच्छुत्ता १४, माणसी १५, महामाणस्ती १६।- हति तृतीयबहक! । तत उपरि चतुर्भवक्षके पूर्वाधन्तरालेषु गृहषट्क-पट्कविरचितेषु सारखतादयो लिखयन्ते - सारखत १, आदित्य, २, वहि १, अरुण ४, गदेतोय ५, तुषित, ६, अव्याबाध ७, अरिष्ट ८, ज््याभ ९, सूयौभ १०, चन्द्राभ ११, सत्याभ १२, भेयस्कर १३, क्षेमकर १०, दृषभ १७५, कामचार १६, निमोण १७, दिज्ञास्तरक्षित १८, आत्मरक्षित १९, सर्वरक्षित २०, ४ मरुत्‌ २१, वसु २२, अश्व २३, विध २४-इति चतुर्थवछकः | तदुपरि पंचमवरूके पूर्वाथन्तरालेयु गृहद्यय-द्वविरचितेडगी लिख्यन्ते - 3” सौधमोदीम्द्रादिभ्यः खाहा १, तहददेवीम्यः खाहा २ , ३* चमरादीन्द्रादिभ्यः खाहा ३, तंदेवीभ्यः खाहा ४, 3० चन्द्वादीन्द्रादिभ्यः खाह्य ५, तट्देवीम्यः खाह्ा $, ७» किन्नरादीन्द्रादिभ्यः खाहा ७, तद्देवीम्यः खाहय ८- इति पंचमवरुफः । तदुपरि पष्ठव॒रके पूश्बोद्यन्त- रालेषु गृहह्दय-हयविरचिते दिकृपात्य लिख्यन्ते - 3“ इन्द्राय खाहा १, 3“ अप्ये खाह्य २, 3“ यमाय । खाहा ३, 3० ने#ंतये खाद्य 2, 3” बरुणाय खाहा ५, 3» बायवे खाह्या ६, 3“ कुबेराय खाहा ७; ३» ईंशानाय खाह्य ८ । अध:- ३“ नागेभ्यः खाह्य ९ | उपरि-3० बक्षणे खाह्य १० । इति नन्यावत्तेछेखनविधिः । ६ १०२. प्रतिष्ठादिनात्‌ पूर्वमेवेत्थं लिखित्वा प्रधानवख्रेण वेष्टयित्वा एकान्ते नन्‍्दावत्तपष्टो धारणीय:। ततो देवाधिवासनानन्तरं पूर्व वा कपूरवासप्रधानश्वेतकुसुमैराचार्येण नामोच्चारणमन्नपूर्वक नन्‍्धावत्ते: पूजनीयः » क्रमेण । तथ्था, प्रथमबलके -- 3” नमो <हद्भ्यः खाहा, 5» नमः सिद्धेभ्यः खाहा, 3» नम आचार्येम्यः खाहा, 3” नम उपाध्यायेभ्य: खाहा, 3४ नमः सर्वसाधुभ्यः खाहा, 3० नमो ज्ञानाय खाहा, 3“ नमो दर्शनाय खाहा, 5“ नमश्ारित्राय खाहा ॥ ततो द्वितीयवरूके - 3” मरुदेब्ये खाह्य १, 5 विजयादेन्यै खाहा २, ४ सेनादेब्ये खाह्य ३, ४० सिद्धार्थादेन्ये खाहा ०, 5 मंगद्यदेन्ये खाहा ५, 5“ सुसीमादेव्ये खाहा ६, 3० प्थ्वीदेव्ये खाह्य ७, 3“ रक्ष्मणादेन्ये खाहा ८, ४» रामादेव्ये खाहा ९, 3० नन्‍्दादेव्यै # खाहा १०, 3“ विष्णुदेव्ये खाहा ११, 3४ जयादेन्ये खाह्य १२, 3० श्यामादेव्ये खाह्य १३, 3: सुयशा- देव्ये खाद्य १४, 3“ सुब्रतादेन्ये खाहा १५, ३० अबधिराद्रेन्ये खाह्य १६, ३४ भ्रीदेन्ये खाहा १७, ३“ देवीदेन्ये खाहा १८, 3“ प्रभावतीदेव्ये खाह्य १९, ३“ पद्मादेग्ये खाह्य २०, 5“ वम्ादेन्ये खाह्य २१, ३» शिवादेन्ये खाहा २२, 3“ वामादेन्ये खाहय २३, ३“ त्रिशलादेग्ये खाह्य २४ ॥ तृतीयवलके- ३» रोहिणीदेष्ये खाह्य १, 5” प्रशप्तीदेन्ये खाद्य २, ३० बज़झंखलादेन्यै खाह्य २, 5० बज़ांकुशीदेन्ये खाहा 5 ४, $* अप्रतिचक्रादेन्ये खाहा ५, 3» पुरुषदत्तादेन्ये खाह्य ६, 5” कालीदेन्ये खाह्म ७, 3“ महाकाली- देन्ये खाहा ८, 3० गौरीदेन्ये खाहा ९, ३० गांषारीदेन्ये खाह्म १०, 3“ महाज्वाशदेन्ये खाह्य ११, ३» मानवीदेन्ये खाह्म १२, 3“ बैरोज्यादेन्ये ल्लाह्म १३, 3० अच्छुप्तादेन्ये खाहा १9, 3 मानसीदेज्यै खाहा १५, ३» महामानसीदेब्ये खाद्य १६ । मतांतरे तु -5“ रोहिणीए खात्प खाहा १ । 5४ पत्तसीए रा क्षां २। ३० वज्जसिंखराए छां ई ३ । ३० बद्धंकुसाए क्ष्मां वां ४ । 3? अप्पडिचकाए हूं ५ । ३० पुरिस- » दत्ताए क्ष्मां ६ । 3० कालीए सां हैं ७। ४४ महाकालीए ३“ क्षी ८। ३० गोरीए यूं हूं ९। 3४ गंधारीए रां क्षमा १० । 3* सब्त्थमहाजाराए दे भां ११। ३० माणबीए यूं दमा १२। ३४ जय्छुत्ताए यूं मां १३ | ७४ बइरुद्टाए सूं मां १४। #* माणसीए सूं मां १५। $* महामाणसीए हूं से १६ । सर्वे खाहान्ता वास्णा; ॥ चतुर्थवठके - ३४ सारखतेम्यः खाहा १ । ४/ आदिल्वेभ्यः खाद्य २ । ४४ वहिम्यः खाहा ३-। ३» बरणेभ्यः खाहा 9 । ४० गर्दतोयेभ्यः खाह्य ५ । ३० तुबितेभ्यः खादा ६ । ४८ अध्यावाधेभ्यः खाहा! ४ ७ | 3“ रिह्रेभ्यः खाह्य ८ | ३० अध््यामेभ्य: खाह्य ९ । 3“ सूर्यामेग्यः खाहा ९० । ३० चअन्व्रमेभ्यः खाह्य (१ । 3० सत्यामेभ्यः लाहा १२ | ३० मेयस्करेम्यः खाद्य १३ | ३७ क्षेमंकरेम्यः लाहा १४ । कं. प्रतिष्ाविधि - जलामयन » कडेशारोपणारिविधि । .. १७७ 4» वृषमेम्य: खाहां १५ । 3० कामचारेम्यः खाहा १६ । 3 निर्मणिभ्यः जाहाय १७ । 3“ दिशान्तरक्षि- तैम्य! खाहा १८ । ४ जास्मरक्षितेम्य: खाहां १९ । 3“ सर्वरक्षितेम्यः खाहा २०। 3० मरुद्भयः लाहा २१ । ३० बसुभ्यः खाह्य २२। 3० अश्रवेम्यः खाह्य २६ । ० विश्वेम्य: खांहा २४ ॥ पश्चमवलके -- 3» सौधमोदीन्द्रादिभ्यः स्माहा १ । तदेवीम्म: खाहा २ | 3“ चमरांदीन्द्रादीम्यः खाहा ३ । तद्देवीभ्यः खाह्य 9 । * चन्द्ादीन्द्रादिभ्य: खादा ५। तदेवीभ्यः लाहा ६ | * किनरादीन्‍्द्रादिभ्यः खाहा ७ । * तद्देवीम्यः खाह्य ८ ॥ पष्ठवलके -# इन्द्राय खाद्दया १। % अमये खाहा २। < यमाय खाहा ३ । के ने#तये खाद्य ० | *% वरुणाय खाद्य ५ | 5 वायवे खाहा ६ । # कुबेराथ खाद्य ७। # ईश्ञा- नाय खाहय ८ इति ॥ एके त्वाहुः-<% नागाय खाह्य १ । # ब्रक्षणे खाद्य २ | इति नागग्ह्याणौं पुन- रप्यभीशानदल्यो: पूजयेत्‌ | पुनः प्रथमवलके ग्रहपूजा - * आदित्याय खाहा १ । * सोमाय खाद्य २। सक भूमिपुत्राय खाहा ३। + बुधाय खाहा ४ । # बृहस्पतये खाह्य ५। 3» शुकाय खाहा ६। # ॥ शनैश्वराय खाहा ७ | + राइवे खाहा ८ | » केतवे खाहा ९। इति नन्थाबर्तलिखितोचारणेन पूजा कार्यो । ततः सदशाव्यंगवर्तरेणेत्यादिक्रमः प्रागुक्त एवं। नन्‍्थावरत्ते च बहुषु प्रतिष्ठाचार्यप्‌ मुख्य एवं प्रतिष्ठाचार्य: पूजयति । ६ १०३, अथ जलानयनविधिः -मद्गामहोत्यवेम जलाशयतीरमुपगम्य पूर्वप्रतिष्टितप्रतिमास्ात्र विधाय दिक्पालेभ्यो बर्लि प्रदाय दिक्षु प्रक्षेपबलिः प्रक्षिप्यते । ततम्रेत्यवन्दन श्रुत-शान्ति-देवतासमस्तवैमे- ७४ वृत्त्यकरकायोत्सग्गाः स्तुतयश्व । ततों वरुणदेवतताकामोत्समो: स्तुतिश्न । सकरासनमासीनः शिवादायेभ्यो ददाति पाशशयः । आशामाशापालः किरतु वर दुरितानि वरुणो नः ॥ १ ॥ ततो जलछाशये पूजा्थ पुष्पफलादिक्षेप: | ततो वस्नपूतेन जलेन कुम्भाः पूर्यन्ते । पुनर्महोत्सवेन देव- गृहे आगमनम्‌। जलानयनविधि! । नर अपरे स्वित्यमाहु! - धूषवेरूपूर्व पार्ख बलिं बिकीये सदशवस्र॒कंकणमुद्रिको परिधाय॑ देवस्पाग्रे धृत्वा रिक्तककशांश्रतुरोइईघिवासयेत्‌ । तानू शिरस्वधिरोप्याविधवा: कछझघरस्नियः साधःप्रतिम छत्र सातोद्चनाद गृहीतवति ख़ात्रकारे जलाशय गच्छन्ति । तत्र च पा वढिं क्षिप्वा फलेन धूपादिना च जल्॑- शर्य पूजयित्वा तम्बढमानीय तेनापूर्ण कलक्षान्‌ छत्राधोषृतपतिमाप्नतो स्वसेत्‌। ततः प्रतिमां परिषाष्य देवान्‌ वन्देत, श्ुतदेव्यादिकामोत्सगान्‌ कुबोत्‌, स्फीत्या चेत्ममागच्छेदिति | मं ज्र $ १०४, अथातः कलशारोपणविधिः-तत्र भूमिशुद्धिः गन्धोदकपृष्पादिसत्कारः, आादित एवं ककक्षाघ:- पश्चरलक सुवर्ण-रूप्य-मुक्ता-प्रबार-रोहकुम्मकारसृत्तिकारहित न्‍्यूसनीयम्‌ । पत्रित्र्मानाज्वकानयन प्रतिमा« सत्र शान्तिबलिः सोदकासबोषधिवत्तेन स्लीमिः ४ ख्ांत्रकाराभिमब्रण सकलीकरण शुचिविद्यारोपणं चेत्व- कन्दन शान्तिनाथादिकायोत्समे:। श्ुत १ शान्ति २ शासन २ क्षेत्र ४ समस्तवे० ५। ककते कुसुमांगलि- क्षेपः । तदनन्तरमाचार्येण मध्यांगुलीद्वयोध्वीकरणेन तजेनीमुद्रा रौद्वरक्षा देवा | तदनु वामकरे जढू गृहीत्वा कछश आच्छोटनीनः । तिरूक पूजन च | मुद्टरमुद्राद्शनस्‌। आ हीं वी सर्वोपद्रय रक्ष रक्ष खाहा । चक्षूरक्षा ककशस्न संपपान्यकमक्षेप: हिरण्यकरूशचतुष्टयक्ञानं सदोंचधिस्तानं मूलिकास्तानं गे० वा० चं० कुं० कप्पूरकुसुमजरकरुशज़ान पंचरदसिद्धा भेंकसमेतमन्धिकन्ध: । वामघतदक्षिमकरेण चन्दनेन सर्वाज्षमालिप्य पुष्पसमेतमद्नफलकद्धिवृद्धियुतारोपणस्‌ । कलशपंचान्नस्पशीः, धूपदानं, कंकणबंधः, स्लीमिः प्रोंख्ण, सुरू १०८ 7 िधिप्रपा। भ्यादिमुद्रादर्शन, सूरिमप्रेण वारत्रयमधिवासनम्‌ । आ स्थावरे तिष्ठ तिष्ठ खाहा - वस्लेणाच्छादनं, जंबीरादि- फलोहलिबलेरिक्षेप: । तदुपरि सप्ततान्यकस्य॒ च आरत्रिकावतारण चेत्यवन्दनम्‌ | अधिवासनादेब्याः कायोत्समी: । चतुर्विशतिस्तवचिन्ता । तस्थाः स्तुतिः- पातालमन्तरिक्ष सुवन वा या समाओिता नित्यम । 8 साउश्रावतरतु जैने कलशे अधिवासनादेवी ॥-इति पाठः । शां० १ अं० २ समस्तवै० । तदनु शान्तिबलिं क्षिप्वा शक्रसतवेन चेत्यवन्दन शान्तिभणन प्रतिष्ठा- देवताकायोत्समीः । चतुर्विश ० । यदघिष्ठिता० प्रतिष्ठास्तुतिदानं । अक्षतांजलिभ्रृतलोकसमेतेन मंगरूगाथा- पाठः कार्यः । नमो<ईसिद्धा ० । जह सिद्धाण पह्ट्टा० ॥ जह सग्गस्स पह़्ट्टा०॥ जह मेरुस्स पह्ठा०॥ जह ७ लवणरस पह्ट्टा समत्थ उदहीण मज्ञझयारम्मि०॥ जह जंबुरस पहट्टा, जंबुदीषस्स मज्ञझयारम्मि ॥ आचंद० ॥ पृष्पांजलिक्षेप: । धर्मदेशना ।- कलझ््रतिष्ठाविधि। । ६ १०७. अथ ध्वजारोपणविधिरुच्यते- मूमिश॒द्धिः, गन्धोदकपुष्पादिसत्कारः। अमारिधोषणम्‌ । संघाहाननम्‌ । दिक्पालस्थापनम्‌ । वेदिकाविरचनम्‌ । नन्द्यावत्तेलेखनम्‌ | ततः सूरि कंकणमुद्रिकाहस्त: सदश- ४ वस्रपरिधानः सकलीकरणं शुचिविद्यां चारोपयति । स्रपनकारानभिमन्नयेत्‌ । अभिमप्रितदिशाबलिप्रक्षेपर्ण धूपसहित सोदक क्रियते। ऑ हीं क्ष्वीं सर्वोपद्रव॑ रक्ष रक्ष खाद्य -इति बल्यभिमत्रणम्‌ । दिकृपाला- हाननम्‌ - आओ इन्द्राय सायुधाय सवाहनाय सपरिजनाय ध्वजारोपणे आगच्छ आगच्छ खाहा । एवं - आँ अम्रये-आँ यमाय-ओँ नेऋतये-ओँ वरुणाय-ओँ वायवे-ओँ कुबेराय-आं ईशानाय-आँ नागाय-आऔँ ब्रक्षणे आगच्छ आगच्छ खाहा । शांतिबलिपूर्वक॑ विधिना मूलप्रतिमास्नानम्‌ । तदनु चैत्यवन्दन॑ संघसहितेन » गुरुणा कार्यस्‌ । बंशे कुसुमांजलिक्षेप:, तिलक पूजन च । हिरण्यकलशादिखानानि पूर्ववत्‌ । कनक' पंचरले कषाय मृत्तिका' मूलिका' अष्टवर्ग" सर्वोषधि' गन्ध वास' चन्दन कुंकुम तीर्थोदक' कर्प्पूर'' तत इश्लु- रस घृत-दुग्ध-दधि-स्लानम्‌' । वंशस्य चर्चनम्‌ । पुष्पारोपणम्‌ । लऊुम्समये सदशवख्रेणाच्छादनम्‌ | मुद्रान्यास:। चतुःख्रीप्ोंखणकम्‌ । ध्वजाधिवासन वासधूपादिप्रदानतः | '३:० श्री कण्ठ:' - ध्वजावंशस्थाभिमब्रणम्‌ । इत्यधि- वासना । जवारक-फलोहलि-बलिदौकनम्‌ । आरत्रिकावतारणम्‌ । अधिकृतजिनस्तुत्या चैत्यवन्दनम्‌ | शान्ति- 4 नाथकायोत्सग: । श्रुतदे० १ शान्तिदे० २ शासनदे० ३ अंबिकादे० ४ क्षेत्रदे० ५ अधिवासना ६ कायोत्समो: । चतु्विशतिस्तवचिन्तनं तस्या एवं स्तुतिः-पातालमन्तरिक्षं भवन वा०! । १। समस्त- वैयावृत्त्यकरकायोत्सभी: । स्तुतिदानम्‌ । उपविश्य शक्रस्तवपाठः । शान्तिस्तवादिभणनम्‌ | बलिसप्तघान्य- फलोहलिवासपुष्पधुपाधिवासनम्‌ । ध्वजस्थ चेत्यपाश्श्ेण प्रदक्षिणाकरणम्‌ । शिखरे पृष्पांजलिः। कलश- स्तानम्‌ । ध्वजागृहे मर्केटिकारूपे पंचरलनिक्षेप: । इृष्ठाशे ध्वजानिक्षेप: | “3० श्री 5 - अनेन सूरिमप्रेण + वासक्षेपः । इति प्रतिष्ठा । फलोहलि-सप्तथान्यबलि-मोरिंडकमोदकादिवस्तूनां प्रभूतानां प्रक्षेषणम्‌ | महा- घ्वजस्य ऋजुगत्या प्रतिमाया दक्षिणकरें बन्धनम्‌ | प्रवचनमुद्रया सूरिणा धर्म्मदेशना कार्या । संघदानम्‌ । अष्टाहिकापूजा विषमदिने ३,५,७, जिनबर्लि प्रक्षिप्य चैत्यवन्दन विधाय शान्तिनाथादिकायोत्समांन्‌ कूला महाघ्वजस्य छोटनम्र्‌ । संघादिपूजाकरण यथाशत्तया | -इति ध्वजारोपणविधिः समाप्तः । जः प्रतिधाविधि - प्रतिध्ोपकरणसंप्रह । १०९ जिणसुद-कलस-परं मेट्टि-अंग-अंजलि-तहास'र्णा-चक्कों । सुरंमी-पथर्यण-गर्रुंडा-सोहरगें-कयजेली चेव ॥ १ ॥ जिणसुद्दार चयउठकलसठावण्ण तह करेह थिरकरणं। अशिवासमंतनसर्ण आसणमुद्दाह अन्लेउ॥ २॥ कलसाए कलसनन्‍्हृषर्ण परमेट्टीर उ आहयणमंतं | ४ अंगाह समालमणर्ण अंजलिणा पुष्फर्हणाई ॥ ३॥ आसणयाए पह्स्स पूथर्ण अंगफ्सण चकाए। खुरमीह अमयमुत्ती पवरयणमुद्दाह पडिवृहो ॥ ४ ॥ गरुडाह दुद्दरक्खा सोहरगाए य संतसोहरं । तह अंजलीह देसण मुद्दाहिं कुणह कज्ाई ॥ ५॥ ॥ अह $ १०६. अथ प्रतिष्ठोपकरणसंग्रह!- जपनकार 9। मूलशतवत्तेनकारिका ? अधिका वा । तासां गुड- युतसुहाली 9। दाने पर्वणिदान च। दिश्ञाबलिः । अक्षतपात्रम | सण १ लाज २ कुलत्थ ३ यव 9 कंगु ५ माष ६ सर्पप ७ इति सप्तधान्यम्‌ । गंध १, धृप पुष्प वास सुवर्ण रूप्य राबट प्रवार मौक्तिक पंच रल ८, हिरण्य चूणोदिखानं १८, कौसुंभ कंकण २०, श्वेतसर्पप रखोटली ८, सिद्धार्थ दधि अक्षत घृत दर्भरूपोरर्ध:। आदर्श शंख ऋद्धिइद्धिसमेत मदनफल ८, कंकण ३, वेदि 9 मंडपकोणचतुष्टये एकैका । & जवारा १०, माटीवारा १०, माटीकलश १३२, रूपावाहुली १, सुवर्णशशलाका ९, नन्दावर्त्तपडु १, आच्छादनपाट ६, वेदीयोम्य ४, नन्द्यावयोम्य १, प्रतिमायोग्य १, माइसाडी २, अधिवासना प्रतिष्ठा- समययोग्य काकरिया द्वितीयनाम मोरिंडा २५, फर्थं मुद्र ५ यव ५ गोघूम ५ चिणा ५ तिरु ५, मोदक- सरावु १, वाटसरावु १, खीरिसरातु १, करंबासराव १, कीसरिसराव १, कूरसरावु १, चूरिमापूयडीसराबु १, एवं ७; नालिकेर फोफल उतती खजूर द्वाक्षा वरसोझां फलोहलि दाडिम जंबीरी नारंग बीजपूरक # आम्र इक्षु रक्तसूत्र तकु कांकणी ५, अवमिननाय पउंखणहारी 9। तासां कांचुलीदेया । मंडासराबु १, सात धन सण बीज कुलत्थ मसूर वल्ल चणा ब्रीहि चवला । मंगलदीप ४। गुडघनसमेतक्रियाणा ३६०। पुड़ी १। प्रियंगु-कप्पूर-गोरोचनाहस्तलेप: । घृतभाजनम्‌ । सौवीराज्नघृतमघुशकैरारूपनेत्रा- झनम-हत्यादि । अव्यद्ञामजलि दत्त्वा कारयेदघिवासनम्‌ | धर डिलीयां मक्तितों दत्त्वा प्रतिष्ठां च विधापयेत्‌ ॥ १॥ गुरुपरिधापनापूधेसन्यसाधुजनाथ सः। दयात्‌ प्रवरव्तराणि पूजयेच्छावकांस्ततः ॥ २॥ हा $१०७, अथ झूर्मप्रतिष्ठाविधि! - कूरमापनापरदेशे पूर्वपप्रतिष्ठितप्रतिमाज्षात्र पूजन च । आरात्रिक मंगल- प्रदीप भर कृत्वा चैत्यवंद्न शान्तिस्तवभणन च कार्यम्‌। ततो यत्र कूम॑स्थितिभेविष्यति तत्र कूर्मग्रहमाने # चतुरसे क्षेत्र चतुई कोणेषु चत्वारि इष्टकासंपुटानि अधवा पाषाणसंपुटानि कायोणि | गर्म पश्चमं कार्यम्‌, यत्न बिग्बे खाप्सते । नंदा भद्रा जया विजया पूर्णा इति पंचानामपि नामानि भवन्ति | ततो5घसतनगर्ताः सुगर्ताः कृत्वा पंचरलानि सप्ततान्यसहितचारकमध्ये निश्षेप्तव्यानि | मध्यपुटे खुवर्णमयः १ कूर्म्मोयो- ११७ विधिप्रपा । मुखः ख्ापनीयः प्रधानत्रिरेलक्पर्दकसहितः । प्रधानपरिधापनिका चोपरि करतेव्या । बल्ष्यादिसमस्त विषेयम्‌ । संपुटकेए सुद्रितकलशैः खान कार्यम्‌- भुंगरैरित्यभ! । छप्नसमये चर वासक्षेप॑ कृत्वा संपुटानि निवेश्यन्ते । अथवा लमसमगे छडिका उत्सायते दर्भसत्का या अधः क्षिप्ताउञसीत्‌ | मंत्रश्थायम्‌- हां भीं कूर्म्म तिष्ठ तिष्ठ रथशार्ं देवगृहं वा धारय धारम खाह्म' । ततो मुद्गान्यासः सर्वत्र कार्य: । पश्चा- : चैत्यवंदन कृत्वा मंगलूस्तुति भणित्वाउक्षतांजलिनिक्षेप: कार्य: संघसमेतैः । मंगलुस्वुतयश्र प्रतिष्ठाकल्पे “जह सिद्धाण पहड्टा ' इत्यादिकाः पटित्वा, कूर्म्मोपरि अक्षता निश्षेप्या: । पुष्पाज्कि आवकाः क्षिपन्ति । इति ऊूर्म्मप्रतिष्ठाविधिः समाप्त: । जे अथ शास्रोदितस्थाने पीठ शास्त्रोकलक्षणम्‌। संस्थाप्य निश्वल तश्र समीप प्रतिमां नयेत्‌ ॥ १॥ ए सौवर्ण राजतं ताम्नं दौल वा चतुरखकम्‌ ! रम्य पञ्नं विनिमोष्य सदल मसूण तथा ॥ २॥ एवं विलिरूय संस्नाप्य पत्र क्षीरेण चाम्बुना। छुगन्धिद्रव्यमिश्रेण चन्दनेनानुछेपयेत्‌ ॥ ३॥ सत्पुष्पाक्षतनैवेद्यघूपदीपफलेजपेत्‌ । प्र सुगन्धप्रसवैस्तत्र जाप्यमछोत्तरं शतम्‌॥ ४॥ संस्थाप्य मातृकावर्ण मालामओेण तत्त्वतः । $ अह अ आ ह ई इत्यादि झषसहान्‌ यावत्‌-ओं हीं क्षीं क्रों खाहा । पत्नरमध्ये थ यत्प्म पीठे गन्घेन तलिखेत्‌ | कपूरकुकछुस गन्ध पारद रत्नपश्षकम्‌ ॥ ५ ॥ भ क्षिप्वा थ पत्रमारोप्य प्रतिमां व्यापयेस्ततः । पृथ्चीतत्त्वं थे घातव्यमित्याज्ञाय इति धरुवम ॥ ६ || खिरप्रतिमाउघो यंत्रमू- आ हीं आं श्रीपा्थनाथाय खाहा । जातीपुष्प १०००० जापः उपौ- पितेम कार्य: । हद यंत्र ताब्रपात्ने उत्कीयय देवगृहे मूलनायकविम्बस्थाधो निधापयेत्‌ | बिम्बल सकटली- करणं, शार्नित पुष्टि च करोति । यस्वाधस्तनविभागे मूलनायकस्य क्षिप्यते तस्य नाम मध्ये दीयते | भूल- ४ नायक यक्ष-यक्षिण्यौँ चाढिस्मेते | अत्र तु ओ पार्शनाथ-तथ्नक्षयक्षिणीनां नामन्यासो निदर्शनमात्रमिति॥ न जूतानां बलिदानमश्िमजिनस्नान॑ तदग्रे खय॑ चेत्यानामथ बन्दन स्तुतिगणः स्तोअज करे मुद्रिका । खसय स्नान्रकृतां च शुद्सकली सम्यक्‌ श्ुविप्रक्रिया द घूपाम्भभसहितोडभिमखितवक्ि। पश्माथ पुष्पाजलिः | १ # छः मुद्रा मध्याहुली न्थामतिकुपितरशा वासमहस्ताम्मसोचे- बिंस्वस्थाच्छोटनं सत्सतिलककुसुम सुशरस्धाक्षपात्रम । छुह्ामिज्भताश्योद्भिरय कवर्च जैनविसभ्वस्थ सम्यग दिग्वन्धः सप्तपान्यं जिनकपुरुपरि क्षिप्पति तत््षणं थ ॥ २३ प्रतिष्ठा विधि - प्रतिष्ाहंश्रंदकाव्य - गायादि । कुम्मानामभिमणणं जिनपतेः सन्सुद्या मछयते नीरं ग़न्धलहौषधी मलथज्ज पृष्पाणि घूपस्ततः । अज्लुल्यामथ पञ्चरत्रचना खाने तत। काशने पुष्पारोपणधूपदानमसकूत्‌ रनाओेबु तेष्वन्तरा ॥ ३ ॥ रज़स्नानकषायमश्नविधिसेत्पश्ञगव्ये सतः सिद्धौषध्यथ सूलिका तदलु 'च रपष्ठाष्टचर्गेद्यम । 3389 323 रखुमुद्रया गुरुरथोत्थाय प्रतिष्ठो चित दह्मदिशामीशांस पृष्पासलि। ॥ ४ ॥| सर्वोषध्यथ सूरिहस्तकलनाद दग्दोषरक्षोन्सजा रक्षापुद्दलिका ततख्च तिलक विज्ञप्तिकाथाज्ञलिः । अर्धोष्हेत्यथ द्ग्थिवेषु कुछुमस्नानं ततः स्नापनिका वासब्न्दनकुछुमे सुकुरश्क तीथोम्बु कप्रेरवत्‌ ॥ ५॥ निक्षेप्पः कुसमाजलिजेलघटरनानं शत साष्टक मआावासितचन्दनेन बपुणों जैनस्थ चालेपनम । वासस्एष्टकरेण वाससखुसनो धूपः छुरभ्यम्बुजा- अल्यस्मात्करछेपकक्षणसथो पश्चाइसंस्पशेनम ॥ ६ ॥ धूपश्व परमेष्ठी च जिनाहान पुनस्ततः। उपविद्वय निषद्यायां नन्याबत्तेस्थ पूजनम्‌ ॥ ७॥ ॥ श्रीचन्द्रसूरिकृतप्रतिष्ठासंग्रहकाव्यानि ॥ घोषाबिद्ध अमार्रि रण्णो संघस्स तह य वाहरण । विण्णाणियसंभाण कुजा खिसस्स सुर्खधि च॥ १ ॥| सह ये दिखिपालठवर्ण लक्षिरियंगाण संनिहाण थ । तुबिहुसुई पोसहिओ वेईए ठविज्य जिणबिय ॥ २॥ नवरं सम॒शृत्तमी पुशुत्तरदिसिसुह सउणपुव । वहुलेस चअडठविहमंगलतूरेस पउरेख ॥ ३ ॥ लो सवसंचसहिओ ठपणायरियं ठवित्तु पडिमपुरों। देवे बंदह सूरी परिषहियनिरुवाहिसुश्वत्थों ॥ ४ ॥ संतिसुयदेवयाणं करेह उससगग थुश्पयाणं च। सहिरण्णदाहिणकरों सयलीकरणं तरओ कुछ ॥ ५ ॥ तो खुद्धो मयपकक्‍ला दकक्‍्खा खेयब्लुया विहियरक्खा | णए्यहणगराओ खिचती दिसास सवासु सिद्धवर्लि ॥ ९६ ॥| लथणंतरं थ सुद्दिय कलसचडक्केण ते ण्हयति जिया | पंचरयणोवगेणं रूघायसलिक्षेण तो य # ७ ते १११ श्श्र , .विधिम्रपा । - मध्यिजलेण तो अट्टवर्गसघोसहीजछेणं थ | गंधजलेण तह पवरवाससलिलेण य ण्हयंति ॥ ८ ॥ चंदणजलेण कुंकुम-जलकुंमेहिं च तित्थसलिलेणं । खुद्कलसेहिं पच्छा गुरुणा अभिमंतिएहिं तहा॥ ९॥ णहाणाणं सवाण वि जलधघारापुष्फधूवगंधाई । दायधरमतराले जावंतिमकलसपत्थावो ॥ १० ॥ एवं ण्हविए बिंये नाणकलानासमाचरिउ्व गुरू। तो सरससुयंधेण लिंपिज्ना चंदणदवेण ॥ ११ ॥ कुसुमाइसुगंधाई आरोबित्ता ठविज्ञ बिंबपुरो । नंदावत्तययद् पूहज्जह चारुदवेहिं ॥ १२॥ चंदणच्छडब्मडेण वत्थेणं छायए तओ पह । अह पडिसरमारोबे जिणबिंबे रिद्धिविद्धिज्ञयं ॥ १३ ॥ तो सरससुयंधाई फलाह पुरओ ठविद्ञ बिंवस्स । जंबीरबीजपूराइयाईं तो दिल्ल गंधाई ॥ १४॥ मुद्दामंतन्नासं बिंबे हत्थंमि कंकणनिवेसं । मंतेण धारणबिहिं करिज्य बिम्बसरस तो पुरओ ॥ १५॥ बहुविहपक्न्नाणं ठवणा वरवेहिगंधपुडियाणं। वरवंजणाण य तहा जाइकलाणं च सबिसेस ॥ १६॥ सागिक्खूवरसोलयखंडाईणं वरोसहीणं च। संपुल्नबलीह तहा ठवर्ण पुरओ जिणिंदस्स ॥ १७ ॥ घयगुडदीयो सुकुमारियाजुओ चउ जवारय दि्सीसु । बिंबपुरओ ठविद्ञा भूयाण बलिं तओ दिज्ा ॥ १८॥ आरत्तियमंगलदीवरय 'च उत्तारिकण जिणनाहं। यंदिज्व 5हिचासणदेवयाह उस्सरगथुहदाणं ॥ १९॥ अह जिणपंचंगेसु ठावेह गुरू थिरीकरणमंत्र । वाराउ तिन्नि पंच य सत्त य अश्वलमपमत्तो ॥ २० ॥ मयणहल॑ आरोबह अहिबासणमंत्नासमवि कुणह | झायइ य तय॑ बियं सजियं व जहा फूड होह ॥ २१॥ एयमहिवासिय ते वबिये ठाइज़् सदसवत्थेणं | चंदणछड़च्भमडेणं तदुबरि पुप्फाई बिसखिविज्ञा ॥ २२॥ ण्हाविज् सत्तपत्नेण तयणु जीवंतउभमयपकक्‍तलाहिं । नारीहिं चडहि समलंकियाहिं विज्ञतनाहाहिं॥ २३॥ पडिपुण्णवत्तसुत्तेण वेढर्ण चउगुर्ण च काऊण | ओमिणणं कारिज्ञा तुट्े्हिं हिरण्णदाणजुय ॥ २४॥ प्रतिषाविधि । ११३! तो वंदिज्ञा देवे पहद्ददेवीह कायउरसररं | दिउ थुई तीए थिय ठविज् पुरओं उ घचथपक्त ॥ २७॥ : सोवण्णवहियाए कुत्ा महुसकराहिं भरियाए। कणगसलागाए बिंवनयणउम्मीलर्ण रूग्गे ॥ २६ ॥ . सम्म॑ पह़्ट्ठमंतेण अंगसंघीणु अक्खरतन्नासं । क कुणमाणो एगमणो सूरी यासे खिविद्ध तहा॥ २७॥ पृष्फक्खयंजलीहिं तो गुरुणा घोसणा सरूंघेणं। थिद्जत्थ कायधवा मंगलसदे्हिं बिंबसस ॥ २८ ॥ जह सिद्ध-मेरू-कुलपबयाण पंचत्थिकाय-कालाणं। इह सासया पड़ट्टा छुपहट्टा होउ तह एसा ॥ २९॥ ॥४ जह दीव-सिंधु-ससहर-दविणयर-सुरवास-वाससित्ताणं । हह सासया पह्टवा रुपश्टा होउ तह एसा॥ ३०॥ - इत्थं सुहमावकए अक्खयखेजे कर्यमि बिंवस्स । सबिसेस पुण पूया किया चिहरयंदणा य तहा॥ ३१॥ - मुहउग्घाडणसभमणंतरं व पूथाह समणसंघरस । क फासुयघय-शुड-गोरस-णंतगमाईहिं कायबा ॥ ३२॥ सोहणदिणे य सोहरग्गमंतविज्ञासपुधयमवस्सं । मयणहलकंकर्ण करयलाओं बिंबस्स अवणिनज्ला ॥ ३३ ॥ जिणवियस्स य विसए नियनियठाणेस सबमुद्दाओ। गुरुणा उवउत्तेण पउंजियवाओं ताओं इमा ॥ १४ ॥ 2 जिणसुदकलस० .... .« “5 गाहा॥ श्णा . जिणसुद्दाए० ... .» “»] गाहा ॥ ३६॥ कलरूसाए० ०. »« »«॥ गाहा ॥ ३७॥ आसणयाए० .... -« >““9] गाहा ॥ ३८॥ गरुडाए० -.... “« “»«। गाहा॥ ३९॥ .. छ ॥ इति प्रतिष्ठाविधिः है| घोसिप्वए अमारी दीणाणाहाण दिल्वए दाणं। पडणीकिजह बंसो धयजुरगो सरलखुसिणिद्धों ॥ ४० 0 बहंतचारुपधों अपुथलडो कीडएहिं अक्खद्धो । | अदृहो बण्णहो अणुहुसुको पमाणझुओ ॥ ४१॥ मे काऊण सूलपडिमाण्हा्ं चाउदिस थ भखद्धि । द॒सिदेवषआहवर्ण वंसस्स बिलेवर्ण लह य॥ ४२॥ अशहिवासियकुछुमारोबर्ण च अहिवासणं थ वंसस्स। श सयणफलरिदधिबिदधी सिद्धत्पारोषण्ण चेव.॥ ४३.॥ ११३ विधिप्रषा । धूवक्खेय सुदानासं 'बउसुंदरीहिं ओमिणर्ण । अहिवासणण बच सम्म॑ महद्धयस्सिदुधवलस्स ॥ ४४ ॥ चाउदिखिं जवारय फलोहलीढोयणं अर वंसपुरो। । आरशियाबयारणमह बिहिणा देवधदणय ॥ ४०॥ है बलिसत्तधन्नफलवासकुसुमसकसायवत्थुनिवहेण । अशिवासण चर ततक्तों सिहरे सिपयाहिणीकरणं ॥ ४९ ॥ कुसुमंजलिपाइणपुरस्सरं च ए्वण च सूलकलसस्स । खेत्तदसद्धामलरथणघयहरा इृट्टसमयंसि ॥ ४७ ॥ सुपइट्टपइट्टाणललिशयासस्स तयणु वससस्‍्स। भर ठवर्ण खिब् थ तओ फलोहलीभूरिभक्स्वाण ॥ ४८ ॥ तत्तों उद्भुगईए घयस्स परिसोयर्ण सजयसईं। पडिसाहइ दाहिणकरे महद्धयस्साबि बंधणयं ॥ ४९॥ विसमदिणे उस्सयणं जहसत्तीए य संघदाणं य। इय सुत्तत्थाबिहीए कुणह घयारोब्ण घन्ना॥ ५०॥ जलकच> अति निल जी बबीता जल 5 ता ॥ इति प्रसक्लानुप्रसकसहितः प्रतिष्ठाविधिः समाप्त ॥ ३५॥ $ १०८. अथ ख्ापनाचायप्रतिष्ा- घोक्खंसुयकरचलणो आरोवियसयलिकरणसुश्जिजो । गरुढाइदलियबिग्घो सलयजघुसिणेहिं लिंविशा॥ १॥ ५४ अक्लख फलिहमणि वा खुहकद्मयं च ठावणायरियं । काऊर्ण पंचपरमिट्टिटिकए लंदणरसेण ॥ २॥ मंतेण गणहरार्ण अहवा बि हु बद्धमपविज्ञाए | काऊण सक्तखुक्तो वासक्खेय पहद्धिझा॥ ३॥ ॥ ठवणायरियपइट्राविही सम्रत्तो ॥ ३६ ॥ है + $ १०९, अथ परद्राविधिः-तत्र दक्षिणांगु्ठेन तजेनीमध्यमे समाकृम्य पुनर्मध्यमामोक्षणेन नाराचमुद्रा १. किंचिदाकुंचितांगुलीकस्य वामहस्तस्योपरि शिथिल्मुष्टिदक्षिणकरस्थापनेन कुम्भमुद्रा २.- शुचिमुद्राह्ययम्‌ । बद्धमुक्नोः करयो: संल्मसंमुखांगुष्ठयोईदयमुदा १. तावेब मुष्ठी समीकृतो ऊध्वोगुष्टी शिरसि विन्यसेदिति शिरोमुद्रा २. पूर्वबन्मुष्टी बद्धा तजेन्यौ प्रसारयेदिति शिलामुद्रा ३. पुनर्मुष्टिवन्ध॑ विधाय कनीयस्मंगुष्ठ प्रसारयेदिति कवचमुद्रा 2. कनिष्ठिकामंगरुहेन संपीड्य शेषांगुलीः प्रसारयेदिति श्लुरमुद्रा १-नेत्रत्रवल » न्यासोध्यम्‌ । दक्षिणकरेण मु्टिं बद्धा तर्जनीमध्यमे प्रसारयेदिति अख्रमुद्रा । हृदयादीनां विन्यसनमुद्रा कि 32 बजकर सील लक: 2 0 लेलगन पीस अब अंत पट अर + ८ पद की ड न्‍मकिरशक 2577 लत 3 8. पयक्छिणीकरणं । 4 ते उस्दुदर्ण । " 'मुद्राबिषि। ११४ ...प्रसारिताबोगुखाभ्यां हसाभ्यां पादांगुलीतत्ममसतकस्पशन्महासुद्रा १. अन्योहम्यप्रथितांगुदीयु कनिष्ठिकानामिकयोमध्यमातजेन्योथ संयोजनेन गोस्तनाफारा धेनुमुद्रा २. दक्षिणहस्तस्थ तज्जनीं वामहस्तस्य मध्यमया संदघीत, मध्यमां च तर्जन्याउनामिकां कनिष्ठिकया कनिष्ठिकां चानामिकया, एतश्ाघोमु्ख कु2बोत्‌ । एवा थेनुमुद्रेत्यन्ये विशिषन्ति । हस्ताभ्यामअर्कि कृत्वा प्राकामामूरपबोगुष्ठसंयोजनेनाबाहनी ३. इबमेवाणों- मुखा खापनी ४. संल्ममुश्युच्छितांगुष्टो करो संनिधानी ५. ताबेव गभेगांगुष्ठो निहुरा ६. उभयकनि- * हिकामूरूसंयुक्तांगुष्ठाअद्वयमुत्तानितं संहित पाणियुगमावाहनमुद्रा ७. तदेव तज्जनीमूलसंयुक्तांगुष्ठह्धयावारुमुख खापनमुद्रा ८. मुष्टिमस्तया तर्जन्या देवताममितः परिअमणं निरोधमुद्रा ९. शिरोदेशमारभ्याप्रपद्‌ पाश्चोभ्यां तजन्योअमणमवर्गुठनमुद्रेतयेके । एता आवाहनादिसुद्रा। ९। बद़मुष्टेटक्षिणहस्तस्ब मध्यमातर्जन्योविंस्फारितम्सारणेन गोशपमुद्रा १। बद्धमुप्टेदेक्षिणहस्तलल प्रसा- रितत्जन्या वामहस्ततलूताडनेन त्रासनीमुद्रा १। नेत्राखयोः पूजामुद्रे । अंगुप्ठे तर्जनी संयोज्य शेषांगुलि- ४ प्रसारणेन पाशमुद्रा १. बद्धमष्टेबामहस्तस्म तजजनीं मसाय किंचिदाकुंचयेदित्यंकुशमुद्रा २. संहतोध्वोगुलि- बामहस्तमूले चांगुष्ट तिर्यगू विधाय तजनीचालनेन घ्वजमुद्रा ३. दक्षिणहस्तमुत्तान विधायाषःकरशाखाः प्रसारयेदिति बरदमुद्रा 8 एता जयादिदेवतानां पूंजापद्राः । बामहस्तन मुष्टि बद्धा कनिष्ठिकां प्रसाय॑ शेषांगुलीरंगुष्ठेन पीडयेदिति शंखमुद्रा १. परस्परामि- मुखहस्ताभ्यां वेणीबन्धं विधाय मध्यमे प्रसाये संयोज्य च शेषांगुलीभिमुंष्टि बन्धयेत-हति शक्तिमुद्रा २. ४ हस्तहयेनांगुष्ठतर्जनीभ्यां वलके विधाय परस्परान्तःप्रवेशनेन शृंखलामुद्रा ३. वामहस्तस्योपरि दक्षिणकर कृत्वा . कनिष्ठिकांगुष्ठाभ्यां मणिबन्ध संवेश्ष शेषांगुलीनां विस्फारितप्रसारणेन वज़मुद्रा 8. वामहस्ततले दक्षिण- हस्तमूल संनिवेश्य करशाखाबविरलीकृत्य प्रसारयेदिति चक्रमुद्रा ५. पद्माकारौ करौ ऋृत्वा मध्ये5छुष्ठो कर्णिकाकारौ विन्यसेदिति प्ममुद्रा ६. वामहस्तमुष्टेरुपरि दक्षिणमुष्टि कृत्वा गोज्रेण सह किंचिदुज्नामयेदिति गदामुद्रा ७. अधोमुखवामहस्तांगुलीपण्टाकाराः प्रसाये दक्षिषकरेण मुर्टि बद्धा त्जनीमूध्वों कृस्वा # वामहस्ततले नियोज्य धण्टावच्चालनेन घण्शमुद्रा ८. उन्नतप्ृष्ठहस्ताभ्यां संपुर्ट कृत्ता कनिष्ठिके निष्कास्य योजयेदिति कमण्डलुमुद्रा ९. पताकावत्‌ हस्स॑ प्रसाय॑ अंगुष्ठसंयोजनेन परशुमुद्रा १०. यद्वा पताकाकारं दक्षिणकरं संहतांगुरिं कृत्वा तर्जन्बंगुष्ठाकमणेन परशुम॒द्रा द्वितीया ११. ऊर््वंदंडो करो कृत्वा प्मक्त्‌ करझाखाः प्रसारयेदिति इक्षमुद्रा १२. दक्षिणहस्तं संहतांगुलिमुज्ञमस्य संप्पफणावत्‌ किंचिदाकुंचयेदिति सर्पमुद्रा १२. दक्षिणकरेण मुर्ष्टि बद्धा तजनीमध्यमे प्रसारयेदिति खजन्नमुद्रा १४. हस्ताभ्यां संपुर्ट बिधायां- ४ गुलीः पद्मवद्धिकास्य मध्यमे परस्पर संयोज्य तन्मूरूलगांगुष्ठौ कारयेदिति ज्वलनमुद्रा १५. बद्धमुप्टेदक्षिण- करस्य मध्यमांगुष्ठतजेन्यौ मूलात्‌ क्रमेण प्रसारयेदिति भीमणिमुद्रा १६ । एताः पोडशविद्यादेवीनां घुद्रा। । दक्षिणहस्तेन मुर्टि बद्धा तर्जनीं प्रसारयेदिति दण्डमुद्रा १. परस्परोन्मुखौँ मणिबन्धामिमुखकर- शाखौ करो कृत्वा ततो दक्षिणांयुष्ठकनिष्ठाभ्यां वाममध्यमानामिके तजनी च तथा वामांगुष्टकनिष्ठाभ्या- मितरस्य मध्यमानामिके तजनीं समाक्रामयेदिति पाझ्ममुद्रा २. परत्पराभिमुखमूध्वोगुलीकौ करो कृत्वा » तजनीमध्यमानामिका विरलीकृत्य परस्पर संयोज्य कनिष्ठांगुष्ठो पातयेदिति शूलमुद्रा ३. यंद्वा पताकाकार करें कृत्ता कनिष्ठिकामंगुष्ठेनाकम्य शेषांगुलीः प्रसारयेदिति झूलमुद्रा द्वितीया। एताः पूर्वोक्तामिः सह दिकपालानां परत्राः । ग्रा्नस्योपरि हस्त प्रसाये कनिष्टिकादि-तर्जन्यन्तानामछुलीनां कमसंकोचनेनाडुष्टमूछानयनात्‌ संहार- मुद्रा । विसजनपुद्रेयस्‌। उत्तानह्द्वगेन वेणीबन्ध विधायांगुदास्यां कमिह्ठिके तर्जनीस्यां चे॑ सध्यमे * १३९६ -विपिभ्पा । संगृध्ानामिके समीकुर्याव्‌- शति परमेष्ठिमुद्रा १. यद्वा वामकरांगुलीरूष्वीकरत्य मध्यमां मध्ये कुर्यादिति द्वितीया २. पराछ्ुखहस्ताभ्यां वेणीबन्ध विधायामिमुखीहृत्य तजन्यो संकेष्य शेषांगुलिमध्ये5मुष्ठ्य॑ विन्य- सेदिति पार्श्म॒द्रा । एता देवदशैनमुद्रा! । हदानीं प्रतिष्ठाद्यपयोगिप्रुद्राः - उत्तानौ किंचिदाकुंचितकरशाखौ पाणी विधारयेदिति अंजलि- + मुद्रा १. अभयाकारो समश्रेणिखितांगुलीकी करौ विधायाकलुष्ठयोः परस्परमथनेन कपाटमुद्रा २. चतुरंग- लमग्रतः पादयोरन्तरं किंचिज्ष्यून च एृष्ठठटः कृत्वा समपादः कायोत्सर्गेण जिनमुद्रा ३. परस्परामिमुखो अथितांगुलीकी करो कृत्वा त्जनीम्यामनामिके ग्रहीत्वा मध्यमे प्रसाय तम्मध्येउद्रुष्ठह्यनिक्षिपेदिति सौभाम्यमुद्रा 9. अव्रैवांगुष्ठद्ठबस्माषः कनिष्ठिकां तदाक्रान्ततृतीयपर्विकां न्यसेदिति सबीजसोमाग्यमुद्रा ५. वामहस्तांगुलितजैन्या कनिष्ठिकामाक्रम्य तजन्यपं मध्यमया कनिष्ठिकाओ पुनरनामिकया आकुंच्य मध्येड- ७ झु्ठ॑ निक्षिपेदिति योनिमुद्रा ६. अथितानामंगुलीनां तर्जनीम्यामनामिके संगृक्ष मध्यपर्वस्थांगुष्ठयोर्मध्यमयोः सन्धानकरणं योनिमुद्रेत्यन्ये । आत्मनोडमिमुखदक्षिणहसतकनिष्ठिकया वामकनिष्ठिकां संग्रझ्माधःपरावर्त्तित- हस्ताभ्यां गरुडमुद्रा ७. संल्मौ दक्षिणांगुष्ठाक्रा्तवामांगुष्ठो पाणी नमस्क्ृतिमुद्रा ८. किंचिद्वर्मिती हसौ समौ विधाय ललाटदेशयोजनेन मुक्ताशुक्तिमुद्रा ९. जानुहस्तोत्तमांगादिसंप्रणिषातेन प्रणिपातमुद्रा १०. संमुखहस्ताभ्यां वेणीबन्धं विधाय मध्यमांगुष्ठकनिष्ठिकानां परस्परयोजनेन श्रिशिखामुद्रा ११. पराब्युखहस्ता- ४ भ्यामंगुली विदभ्ये मुष्टि बद्धा तजेन्यी समीकृत्य प्रसारयेदिति भंंगारम॒द्रा १२. वामहस्तमणिबन्धोपरि पराआखं दक्षिणकरं कृत्वा करशाखा विदर्भ्य किंचिद्वामचलनेनाधोमुखांगुष्ठाभ्यां मुर्टि बद्धा समुस्क्षिपेदिति योगिनीमुद्रा १३. ऊर्ध्वशाख वामपार्णि कृत्वाइछु्ठेन कनिष्ठिकामाक्रमयेदिति क्षेत्रपाल्मुद्रा १४. दक्षिणक- रेण मुर्षि बद्धा कनिष्ठिकांगुप्टों प्रसाय॑ डमरुकवच्चालयेदिति डमरुकमुद्रा १५. दक्षिणहस्तेनोध्वोगुलिना पताकाकरणादभयमुद्रा १६. तेनेवाधोमुखेन वरदमुद्रा १७. वामहस्तस्य मध्यमांगुष्ठयोजनेन अक्षसुजमुद्रा » १८, पद्ममुद्रेव प्रसारितांगुष्ठसंल्ममध्यमांगुल्यग्रा बिंबमुद्रा १९। एताः सामान्यमुद्रा। । दक्षिणांगुष्ठेन तज्जनीं संयोज्य शेषाब्लुलीप्रसारणेन प्रवचनमुद्रा २०. हस्ताभ्यां संपुर्दट झृत्वा अंगुली: पत्रवद्विकास्य मध्यमे परस्परं संयोज्य तन्मूलल्माबंगुप्ठी कारयेदिति मंगलमुद्रा २१, अंजल्याकार- हस्तस्यपोपरिहस्त आसनमुद्रा २२. वामकरघृतदक्षिणकरसमालमने अंगमुद्रा २३, अन्योअन्यान्तरिताछुलि- कोशाकारहस्ताभ्यां कुक्ष्युपरि कूर्प्परस्थाभ्यां योगमुद्रा २४. उभयोः करयोरनामिकामध्यमे परस्परानमिमुखे # ऊर्ध्वीक्षित्य मील्येच्छेषांगुली: पातयेदिति पर्वतमुद्रा २५. करस्य परावत्तैनं विस्मयमुद्रा २६. अंगु्ठर्द्वे- तरांग्रुल्यग्रायासतजैन्या ऊर्ध्वीकारों नादमुद्रा २७. अनामिकयांगुष्ठाग्रस्पशन बिन्दुमुद्रा २८ । ॥ इति मुद्राविधिः ॥ ३७ ॥ ६११०, वाराही १ वामनी २ गरुडी ३ इन्द्राणी ४ आमेयी ५ याम्या ६ नैकती ७ वारुणी ८ वायव्या ९ सैम्या १० ईशानी ११ ब्राह्षी १२ वैष्णवी १३ माहेश्वरी १४ विनायकी १५ शिवा १६ शिव- » दूती १७ चामुंडा १८ जया १९ विजया २० अजिता २१ अपराजिता २२ हरसिद्धि २३१ कालिका २४ चंडा २५ सुचंडा २६ कनकनंदा २७ सुनंदा २८ उमा २९ घंटा ३० सुधघेटा ३१ मांसप्रिया ३२ आशापुरा ३३ लछोहिता ३४ अंबा ३२५ अस्विभक्षी ३६ नारायणी ३७ नारसिंही ३८ कौमारी ३९ वामरता 9० अंगा ४१ वंगा 9२ दीघ॑दंप्रर 9३ महादंष्रा 99 प्रमा ४५ सुप्रमा ४६ छंवा ४७ १ 8 जिशिखिमुद्रा। 2 73 झंगमुद्रा । क पा तीर्धयात्राविधि । ». ३११७ हंबोष्ठी 2८ भद्रा ४९ सुभद्रा ५० काली ५१ रौदी ५२ रौव्रमखी ५३ कराली ५७ विकराछी ५५ साक्षी ५६ विकटाक्षी ५७ तारा ५८ सुतारा ५९ रजनीकरा ६० र॑जनी ६१ श्वेता ६२ भव्रकाछी ' ६३ क्षमाकरी ६१ | चतुःषष्टि समारुयाता योगिन्य; कामरूपिकाः । पूजिता; प्रतिपूज्यन्ते मवेयुवेरदाः सदा ॥ ४ अमुं 'छोक॑ पठित्वा योगिनीमिरघिष्ठिते क्षेत्र पह्कऋादिषु नामानि टिक्कानि वा विन्यस्य नामोचारण- पूरे गन्धाणेः पूजयिला नन्दिम्तिष्ठादिकार्याण्याचायः कुयात्‌ । - ॥ चउसट्टिजोगिणीउवसमप्पयारों ॥ ३८ ॥ ६१११, सो य अहिणवसूरी तित्थजत्ताए सुविहियविद्वारेण कयाइ गच्छइ; अववायओ संघेणावि सम वच्चह | सो य संघो संघवरृप्पहाणो ति तस्स किश्च॑ भण्णह । तत्थ जाइकम्माइअदूसिओ उनचियण्णू राय- ॥५ सम्मयो नाओवज्ियदविणो जणमाणणिजों पुज्जपूयापरो जम्म-जीविय-वित्ताणं फू गिण्हिउकामों सोहणतिद्दीए गुरुपायमूले गंतृण अप्पणो जत्तामणोरहं विज्नवेज्ञा | गुरुणा वि तस्स उबवूहरण्ण कारउं तित्व- जत्ताए गुणा दंसेयब्ा | ते य इसे - अन्नोन्नसाहु-सावयसामायारीह दंसण्ण होह । सम्मत्त सुबिसखुद्ध हवह हु तीए य दिद्ठाए ॥ १॥ फ़ तित्यथयराण भयवओ पवयण-पावयणि-अहसइड्डीण् । अभिगमण-नसण-दरिसण-कित्तण-संपूय्ण थुणणं ॥ २॥ सम्मत्त सुबिखुद्ध तु तित्वजत्ताइ होइ भचाणं। ता विहिणा कायबा भवेहिं भवविरत्तेहि॥ ३॥ तित्य॑ च तित्ययरजम्मभूमिमाइ | जओ भणियं आयारनिज्ञत्तीए- । जम्माभिसेय-निक्खमण-चरण-नाणुप्पया य निधाणे। तियलोय-मवण-वंतर-नंदीसर-मोमनगरेसु ॥ ४ ॥ अद्वावय-उर्जिते गयग्गपयए य धम्मचके य। पासरहावत्तनग चमरुप्पायं च वंदामि ॥ ५ ॥ एवं गुरुणा वच्चिउच्छाहो पत्थाणदिणनिन्नय॑ काऊण बहुमाणपुष्ष॑साहम्मियाणं जत्ताएं आहवणत्थ & हेद्दे पड्वविज्या । तओो बाहण-गुरुइणी-कोस-पाइक्-जुगजुत्ताइ-सगड़ं ग-सिप्पिवग्ग-जलोवगरण-छत्त-दी- वियाधारि-यूवार-पन्न-मेसज-विज्ञाइसंगह॑ चेहयसंघपूयत्थं चंदण-अगरु-कप्पूर कुंकुम-कत्थूरी-वत्थाइसंगहं चर काउं, सुमुहुत्ते जिणिंदस्स ण्हवर्ण पू्य च काऊण, तप्पुरओ निसन्नस्स तस्स सुपुरिसस्स गुरुणा संघाहिवत्तदिकखा दायबा । तओ दिसिपाछाण मंतपुद्ि बलि दाउं मंतमुद्दापुष॑ पुप्पवासाइपूहए रहे मह- सवेण देव॑ सयमेव आरोविज्ञा । तओ गुरुं पुरो काउं संघसहिओ चेइआई वंदिय कवडिजक्ख-अंबाइ- # सम्मदिद्विदेवयाण काउस्सम्गे कुजा | खुद्दोवद्वनिवारणमंतज्ञाणपरेण गुरुणा तस्स अडिंभतरे' कबय॑ आउह्माणि य कायब्राणि | तओ जयजयसदूधवलमंगलज्झुणिमीसेहिं तूरनिःघोसेहिं अंबर॑ बहिरेंतो दाण- .- सम्भाणपूरियपणयजणमणोरदो पुरपरिसरे पत्थाणमंग्ू कुजा । तथ्नो णाणाठाणागए साहम्मिए सक्कारिय श्श्ट : 'क्षिप्रष । तेसिं पूर्य पडिच्छिब सहजत्तिए धणेहिं घणत्विणो वाहणेहिं वाहणत्विणों सहाएहिं अंसहाएं पीणतो, बंदि- सायणाई असण-वसण-दविणेहिं तोसंतो, मग्गे चेहयाईं पूबंतों भग्गाणि य उद्धरंतो, तकम्मकारिस वच्छले- कुणंतो, तक्ज़ाई चिंतंतो, दुत्यियधम्मिए सकारेंतो, दाणेण दीणे पमोयंतो, मीयाणमभयं देंतो, बंघणडिए मोयंतो, पंकमर्ं भ्ग च सगडाइयं सिप्पीहिं उद्धारेंतो, छुह्टिय-तिसिय-वाहिय-खिले अज्न-जल-मेसज-वाह- * णेहिं सुत्यी कु्णंतो, धम्मियजणाणं खुद्दोबइवे निवारेंती, जिणपवयर्ण पभावेंतो, बंभचेरतवजुत्तो तित्थाईं पाविऊण सत्तीए उववासं काउं प्हाओ कयबलिकम्मो परिहियसुद्धनेवत्थो पृपष्फवासकुंकृमाइसीसेण तित्यो- दगेणं कलसे मरित्ता, संघ॑ गेधवियवरम्गं च कुंकुमचंदणाइहिं चचित्ता, अश्वब्भुयइंदविमाणाइविभूईए मूलनायगस्स ण्हवर्ण काउं, जगई जिणबिंबाईं वेयावद्चगरे य ण्हवित्ता, तओ पंचामयण्हवर्ण काउं चंदर्ण- कत्थूरीकप्पूराईहिं विलेव्ण सुबण्णाभरणमल्वत्थाईहिं अच्चर्ण कप्पूरागरुपमिईहिं धूव्ण पिक्खणयं महद्ध- # यारोवणं चलिरचमरमिंगारजलधाराकुंकुमबुट्ठिविसिट्ठं कप्पूरारत्तियं च काउं, देवे वंदिज्या । तओ देवसेवए सक्कारिय अट्टाहियं अवारियसत्त वहाविज्ञा । तओ मुहोग्घाडणे मालाउग्पडणे अक्खयनिषिक्खेवे भूमिभ- डाइनिकए य देवस्स फोस॑ संवद्धिय दीणाई अणुकंपिय तिलोयनाह पूहय सगग्गरगिरं आपुष्छिय पुणो दंसजं मग्गिय पणमिय सहजत्तिए सक्कारिय तित्ये अणुज्ञायंतो पडिनियत्तिजा । कमेण सनगर॑ पत्तो महया ऊसवेणं रहसात्मए देवालयं पवेसिय पडिम॑ गेहमाणिज्ञा । तओ साहम्मिय-मित्त-नाइ-नागराई भोगणा- ४ हेहिं सम्माणिय संघ पूहज्जा । तओ गुरुणा देसणा कायबा | जहा - त॑ अत्थं त॑ च सासत्थ ते विज्ञाएण सुउत्त्म | साहम्मियाण कज्म्मि ज॑ विचंति छुसावया ॥ १॥ अन्नश्नदेसाण समागयाणं अन्नश्नजाईह सम्ुब्भवाणं । साहम्मियाणं गुणरुद्धियाणं तित्थंकरा्ण बयणे ठियाणं ॥ २ ॥ क वत्थन्नपाणासणखाइमे हि पुष्फेहिं पत्तेहिं य पृष्फलेहिं । सुसावयाणं करणिद्लमेयं कय तु जम्हा भरहाहिवेण ॥ ३॥ राया देसो नगरं त॑ भवर्ण गिहवई य सो धन्नो। विहरन्ति जत्थ साहू अणुग्गहं मन्नसाणाणं ॥ ४ ॥ इणसेव सहादाणं एयं चिय संपयाण मूल ति। भर एसेव भावजन्नो जं पूया समणसंघस्स ॥ ५॥ तओ सो संघवई सिद्धंताइपृत्थलेहणत्य नाणको्स साहारणसंवरूय च॒ संवद्धारिज् त्ति ॥ ॥ तित्थजत्ताविही समत्तो ॥ ३९ ॥ $ ११३, संपर्य तिह्टिविही - पक्खिय-चाउम्मासिय-अट्टमि-पंचमी-कछाणयाइतिहीस तवपूवाईए उदह- यतिट्दी अप्पयरभुत्तावि घेत्तता न बहुतरभुत्ता वि इयरा । जया भ पक्खियाइपबतिहदी पड़इ तया पुषतिद्दी # चेव तब्भुत्तिबहुला पच्चमखाणपूयाइसु घिप्पह न उत्तरा । तब्मोगे गंघस्स वि अभावाओं । प्वतिहिवुश्दीए पुण पढगा चेव पमाण संपृण्ण ति काउ | नवरं चाउम्मासिए चउद्सीद्धासे पुण्णिमा जुजह। तेरसीगहले आगमआग्रणाण अज्षयरं पि नाराहियं होज्या। संबच्छरियं पुण आसाढचाउम्मासिणओ नियमा पण्णासइमे दिये काबई, व इकपंडासइमे। जया वि छोह्यटिप्पसयाणुतारेण दो सारणा दो भमहपका भंबंति, अज्लव्श्ासिद्धिविषि । ११९ तया वि पण्णासहमे दिणे, न उण कालचूल्यविक्खाए असीइमे । 'सवीसइराए मासे बहकंते पज्जोसवेंति'ति बयणाओ । जं॑च “अभिवद्धियंमि वीस!त्ति वुत्त त॑ 'जुगमज्से दो पोसा जुगअंते दोझि आसाढ'ति सिद्धंतरिप्पणयाणुरोहेण चेव घढ॒ह । ते य संफ्य॑ न बहंति ति जहुत्तमेव पद्ञलसणादिण ति सामायारी । ॥ इति तिहिबिही ॥ ४० ॥ $ ११३, संपयं अंगविज्ञासिद्धिविद्दी जद्यासंपदाय भण्णइ। भगवइए अंगविज्ञाए सह्ठिअज्ञायमईए महापुरिसदिण्णाए भूमिकम्मविज्ञा किप्डचउद्सीए चउत्थ काऊण गदहियवा । तीए उदयारो उंबररुक्खच्छा- याए उवविसिय मासाइकारू जाब अद्टमत्तेण खीरजन्नपारणेण उडिदिभाई आहारेण वा कायबों ॥ १॥ तओ अन्ना विजा छट्टेण गहिया अद्यवत्थेण कुससत्थरोवविद्टेण छट्ठभर्त काउं अइसयजावेण साहि- यका ॥ २॥ जअवरा य छटद्ठेण गहिया अट्टममततेण अह्सय॑ जावेण साहियबा॥ ३ ॥ एवं साहिओ दंड- परीहारविज्ज पउंजिउ चउबिहाहारनिसेह काउं एगते पवित्तदेसे इत्यीण जदंसणद्वाणे तिक्कारं आम- ॥४ कृप्पूरेणं पुत्थय पूरय अगरुघूबमुग्गाहिय मण-वयण-कायसुद्धबंमचेरपरायणो पवित्तदेहकत्थो इत्यीणं मुह- मणवलोइंतो तारति सह च असुर्णितो तहयअज्ञायउवक्लायगुणगणारूंकिओं गुरुसमीये सय॑ वा अवि- चितन्न॑ मुहपोत्तियाठशयमुहकमछो वाइज्ण । एवं सिद्धा संती भगबई अंगबिज्य एगूणसोलसआएसे अवितहे करिज्ज त्ति। अविहिवायणे उम्मायाई दोसा परमपुरिसाणं न आसायणाकया होह त्ति । विहिणा पुण आराहिय एय सिज्झंत अवितहाएसो | ७ छठमत्थों वि हु जायइ झुबवणेसु जिणप्पमायरिओं ॥ | अंगविजाराहणाविद्दी सिद्धंतियसिरिविणयचंदद्रिउबएसाओ छिहिओ । ॥ अंगषिज्ञासिद्धिविही ॥ ४१ ॥ जे सम्म'- गिहिबय - समहयारोवण - तरगहण- पारणबिदही य॑। उवहाण-मालरोबणबविह -उवहाणप्पश्द्दा य ॥ १॥ # पोसह - पडिकसण -“ लबाह -नंदिरयणाबिही सथुश्यत्तो । पदज्ञा'' लोयबिही' उवओगा -ह्छुअडणविही "॥ २॥ संडलितव '-उवठायण -आओगबिही '-कप्पतिप्प -वायणया | कमसो वाणायरिओ -वज्झाया -परियपयठयणा*॥ ३ ॥ सहयर - प्वशिणिपयद्वणण *-गणाणुन्न -अणसणविही यं | # महपारिट्टावणिया' पच्छित्त' साहु-सहा्ण ॥ ४॥ जिणबिंबपड्ट्टाबिहि' -धयारोवर्ण' थ्‌ सपसंगं कुम्मपइट्टा जंत' ठवणायरियप्पइड्द्टाओ ॥ ५॥ शुद्ाविही ये खठसट्दिजोगिणीउबसमप्पयारों य॑। जत्ताविहि -तिहिविहि' -अंगविज़सिद्धि' त्ति हृह दारा ॥ ६॥ + जे प्जेमप्रभाइतर इति दिप्पणी । ११२७० विधिप्रपा । अथ ग्रन्थप्रशस्तिः । बहुविहसामायारीओं ददु मा मोहमिंतु सीस त्ति । एसा सामायारी लिहिया नियगच्छपडिबयद्धा ॥ ७॥। आगमआयरणाहिं ज॑ किंयि विरुद्धमित्थ मे लिहिय॑। ते सोहिंतु सुयधरा अमच्छरा मह किये काउं ॥ ८॥ जिणदत्तसरिसंताणतिलयजिणसिहसूरिसीसेण । शुत्ति-रस-किरियंठाणप्पमिए विकमनिवहवरिसे ॥ ९ ॥ विजयद्समीह एसा सिरिजिणपहसूरिणा समायारी। सपरोवयारहेउं समाणिया कोसलानयरे ॥ १०॥ सिरिजिणवलछ॒ह-जिणदत्तसरि-जिणचंद-जिणवहरुर्णिदा । छुरयुर॒ुजिणिसर-जिणसिंहसूरिणो मह पसीयंतु ॥ ११॥ वाइयसयलसुएणं वाणायरिएण अम्ह सीसेण । उदयाकरेण गणिणा पढमायरिसे कया एसा ॥ १२॥ न न जीए पसायाओं नरा छुकई सरसस्थवलछ॒हा' हुंति । सा सरसई य पउठमावई य मे दितु छुयरिद्धि' ॥ १३॥ ससि-सूरपईवा जाव शुषणभवणोदरं पमासेंति | एसा सामायारी सफलिज्जउ ताव सरीहिं॥ १४॥ प्चक्खरगणणाए पाएण कर्य पमाणमेईए । चउठहफरी समहिया पणतीससया सिलोयाणं॥ १५ ॥ विहिमग्गपवा नाम सामायारी इसा चिरं जयह | पल्हायंती हियय सिद्धिपुरीपंधियज्रणाणं ॥ १६ ॥ ॥ अक्वतोज्पि भ्रन्थाग्र ३७७४॥ ॥ इति विधिमार्मप्रपा सामाचारी संपूर्णा ॥ ३ग्णन्‍नानाबाट८--> 00 (_-पप्परशननममञकन 3 कर हम 5 5० 8 8 56 520 2, ] छुकवयः सरसार्थवहुभाः, पक्षे छुकृतिनः इश्वरसा्थे वहमाः।... 2 श्रुतं सुताज शिष्याः । परिशिष्टम । श्रीजिनप्रभसूरिकृतो देवपू जा वि धिः। बी-ण+++ “52५93 >-त+>++ संपर्य जहासंपदार्य देवषूयाविही भण्णइ-तत्थ सावओ बंभमुहुत्ते पंचनमोक्वारं सुमरंतो सिज्जे मुत्तृण अप्पणो कुलधम्मव्याईं संभरिय, सरीरचिताइ काऊण, फासुएणं अफासुएर्ण वा गलियजलेणं देसओ सबओ वा ण्डा्ं काऊण, कडिछवत्थं चइय परिहियधोयवत्थजुगलो निसीहियातिगपुब घरदेवालए पवि- सेजा । तत्थ मुह-कर-चरणपक्खालण देसण्टराणं, सिरमाइसब्ंगपक्खालूणं सब्ण्हाणं | तओ मगवओ आलोयमित्तो चेव भालयले अंजलिमउलियग्गहत्थो “नमो जिणाणं! ति पणाम काउ जय जय सं भणिय मुहकोसं काऊण, गिहपड़िमाओ निम्मल्मबणित्तु उबउत्तो छोमहत्थयाइणा 'निमज्जिय, जलेण पकबालिय सरससुरहिचंदणेण देवम्स दाहिणजाणु -दाहिणखंध -निलाड - वामखंध - वामजाणुरुक्खणेसु पंचसु, हियणण सह छसु वा अंगेसु पूर्ण काऊण पद्चग्गकुसुमेहिं च पूह्य, तओ वामहत्थेण घेट वाइयंतो दाहिणकरगहियधूबकडुच्छुओ काठागुरु-पवरकुंदुरुक्-तुरुक-मलयजमीससुगंधघूव॑देवस्स पुरोभागादारब्म असुरिदसुरिंदाण' इच्चाइधूमावलीगाहाओ पढंतो सिद्टीए दसदिसं उस्गाहिय पुरो धारेइ । तओ चंदण- वासक्खयाहि वासिय कुमुमंजलिं करयलसंपुडेण गिण्हिता 'नमो5हंत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः' इति भणिय, ओसरणे जिणपुरओ' इच्चाइवित्तेण देवस्‍्स उबरि खिवेइ । तओ 'लोणत्ताइच्चाइवित्ते # पढंतो सिट्टीए ओयारिय दाहिणपासधरियपडिग्गहियाठियजलूणे खिबेइ । एवं अन्ने वि दो वारे वित्तदुगेणं । तओ धाराघडियाओ जल घेत्तण 'उन्नयपयपब्भद्ठसस्‍्स' इच्चाइवित्ततिगेणं तेणेब कमेण भगवओ ओया- रिय तहेव जलणे खिवेह । तओ थाल्यस्स उबरि पंच-सत्ताइविसमवष्टिवोहियदीवसीहावमालियमारत्तियं दोहिं हत्येहिं गहिय 'गीयत्थगणाइण्णं' इच्चाइवित्ततिग भणिय वारे तिण्णि आरत्तियमुत्तारेह । एगो य दाहिणपासट्टिओ आरत्तियंमि उत्तरंते तिण्णिवारे जल्धाराओ पड़िग्गहियाठियजलणे देइ । अन्ना- भावे आरत्तियउत्तारणाणंतरं सयमेव वा धाराओ देइ। उत्तरंते आरत्तिएः उमओ पासेसु सावयनिय- चेलचलेहिं चामरेहिं वा मगवओ चामरुकखेव॑ कुणणंति । एय व लवणाइउत्तारणं पालित्तयसूरिमाइपुब्च- पुरिसेहिं संहारेण अणुण्णायं वि संप्य सिद्टीए कारिज्जइ । विसमों खु गड्डरियापवाहों | तओ पडि- ग्गहियाठियंगारजलाइ बाहिं उज्मिय थालियं पक्खालिय, तत्थ चंदणेण सत्थियं नंदावत्तं वा काउं तस्सुवरि पृष्फल्खयवासो खिविय ओसग्गओ अविहवनारीबोहिय॑ तदभावे सर्य वा पवोहिय॑ रत्तवष्टि-मंगलदीवर्य ठाविय चंदणपुष्फवासाईहिं पूहय मंगलछप्पयाइ पढणाणंतरं “नमो<हत्सिद्धाचार्यों०” इच्चाइ भणिय, जैशेगो जिणनाहो' इच्चाइवित्ततिग पढित्ता मंगलदीव॑ उज्ञविय, सब्ेसु तदुवरिं कुसुमाई खिर्वितेसु पंचसद्दे वजंते अभिमितों भगवओ पुरो धारेइ । तओ सक्कत्थयं भणित्ता बासक्खेब काउं मंगलदीवयम- णुलबिय एगदेसे मुंचइ, न उण आरत्तियं व शिवेह त्ति- घरपडिसापूया[विहदी]समत्तो ॥ १ ॥ | विवि० १६ ] ] च्त दि ट_] ध्ड द्ध १२२ देवपूजाबिधि । पुणो नियवित्तिच्छेयं रक्‍्खंतो प्हाओ सविसेसं वत्थाभरणाइ सिंगारं काऊण पत्थियाइभायणट्वाविय- सुरहिधूवअखंडक्वयकुसुमचदण फलाइपूयादश्ो महिद्डीए जिणिदभवणे गच्छइ । तस्स सीहदुबारदेसे कर- चरण-मुहसोय॑ काई सचित्तदबाईणि पृप्फ-तंबोल-हय-गयमाईणि अश्वित्तदवाणि य मउड-छुरिया-खगग-छत्तो- वाणह-चामर-अंपाणाईणि मुत्तूण एगसाडियं उत्तरासंग काउं अग्गदुवारमज्ञझदेसेसु कमेण उदारसदं तिन्नि ४8 निसीहीओ उच्चरंतो जगगुरुणो आहोए चेव भालयलमिलियकरकमलमउल्जुयछो 'नमों जिणाणं'ति भणिय जयसदमुहली जिणभवर्ण पविसह । एगसाडियं नाम असीवियमखंडियं च, एवं च एगे हिठिल्ल- बत्थे एगं च उवरिमवरत्थ ति वस्थजुयलेण धोवत्तिया कीर३ । न उण पुद्रदेसिच्चयाणं पिव अद्ट(दध/डुं- बय॑ ति रूढं एगमेव वत्थ उबरिं हिद्ठा य जिणभवणे हुज्ज त्ति।न य कंचुय विणा मंकुणयपाउयंगी वा साविया जिण-गुरुभवणेसु वच्चइ त्ति, अ्ं पसंगेण । तओ देवस्स दाहिणवाह्ओं आरब्भ तिण्णि पया- ॥ हिणाओ देइ । पयाहिणं च दिंतो जया देवस्स अग्गे उवणमइ तया पणाम करेइ । एवं तिष्हि पणामे करेंह | तओ नाण-दंसण-चारित्तपूयाहेड अक्वयमुद्ठितिगं सेढीए देवस्स पुरओ अक्खयपट्टाइसु फलसहिय मुंचद । तओ कबमुद्कोसो पृब्नत्तनिम्मल्लाबणयणनिमज्ञणाइविहिणा एगग्गमणो मंगलूदीवयपज॒ंत पूर्य॑ करेह । नवरं जहासंभव सब॒जिणविंबा्णं सम्मदिद्विदेवया्ं च करेइ । तओ उक्कोसेणं देवाओ सह्ठिह- त्थमित्त जहण्णेंण नवहत्थमित्त मज्यिमओ अंतराले उचियअकगहे टठाऊण तिक्खुत्तो वत्थाइ पमज्जिय ४ भूमिभागे छठमत्थ-समोसरणत्थ-मुक्वत्थ-रूवावत्थातिगं भावितों जिणबिब निवेसियनयणमाणसों, प९ पे मुत्तत्थसुद्धिपरयणों जहाजोगं मुद्दातियं परंजंतो उक्कोस-मज्िम-जहण्णाहिं चीवंदणाहिं जहासंपत्ति देवे बंदद । तासि च विभागों इमो - नवकारेण जहण्णा दंडथुहजुयलमज्क्षिमा नेया । उक्कोसा चीवंदण सकत्थयपंचनिम्माया ॥ १ ॥ 2 तत्थ नवकारों सीसनमणमेत्त पंचंगणणिवोओ वा। अहिगयजिणस्स गुणथुइरूव-सिलोगाइरूवो वा नमोकारों तेण जहण्णा चीबंदणा होह । तहा दंडगो सकत्थयरूवो, थुई य थुत्तसरूवा एएण जुगलेण मज््िमा चीवंदणा | अहवा - दंडगों “अरिहृंतचेइआणं करेमि काउस्सग्ग! इच्चाइ। तओ काउस्सरं उट्टोस्सासं काउ पारिय एगा थुई दिजइ । पणिहाणगाहाओ य मुत्तासुत्तीए पढिज्जति । इत्थमवि मज्झिमा हवइ | अहवा - इरियावहियं पडिक्रमिय वत्थतेण भूमि पमज्जिय तत्थ वामजाणुं अंचिय दाहिणजाणु # घरणितले साहड्ट जोगमुद्गाण सिलोगाइरूव नमोक्कारं पढ़िय, नमोत्थुणं इच्चाइ पणिवायदंडग भणिय, पच्छा पमज्िय उट्ठिय जिणमुद्दं विरदय अरहंतचेइआणं'ति ठवणारिहंतत्थयदंडग पढिय, अट्टोस्सासं काउस्समग करिय, अरिहंतनमोक्कारेण पारिय, अहिगयजिणथुई दाउ “लोगस्सुजोयगरे! इचचाइ नमोरिहंतत्थयदंडर्ं पढित्ता 'सबलाए अरहंतचेइआणं'ति दंडग भणिय तहेव उस्सग्गे कए, पारिय सबजिणधुएरँ दिज्जइ । तओ “पुक्खरवरदीवड्डे' इच्चाइ सुयत्थवं पढित्ता 'सुयस्सभगवओ करेमि काउस्सरग वंदणवत्तीयाए! इस्ाह # भणिय, तहेव उस्सग्गे कए पारिण य सिद्धंतथुई दिजह | 'तओ सिद्धाणं बुद्धाण! इचाइ सिद्धत्यवं पढ़िऊर्ण वियावच्चगराणं/ इच्चाइ भणित्ु तहेव उस्सग्गे कए पारिए य सरस्सई-कोहंडिमाइवेयावश्वगराणं थुई दिज्जद । इत्थ पदम-चउत्थथुइमों “नमो<हैत्सिद्धा ०” इच्चाइ मणिऊर्ण दिजति, इस्थीओ य एये न मणंति । तओ जाणूहिं ठाउं जोडियहत्थों सक्ृत्थयं ढंडगं मणित्त, पंचंगपणिवाए कए “जावंति चेइआई इचाह गा पदित्ता, खमासमर्ण दाउं जावंत के वि साहू! इचाइ गाहई मणिय, “नमो5ईस्सिद्धा ०” इच्चाइ पढ़िय, जोग- # मुद्दाए महाकविविरदय गंभीरत्थ॑ अद्डसहस्सलक्खणोवव्लसरीरपरीसहोवसग्गसहणाइकिरियाइगुणवण्णणा- देवपूजाबिधि । १२३ कलिये पावय निवेयणगब्भ पणिहाणसार॑ विचित्तसद॒त्य पवरथोत्त भणित्ता, मुत्तासुत्तिमुद्ार 'जयवीयराय! इचाइ पणिहाणगाहादुर्ग पढ़ | तओ आयरियाइ वंदिज्ज त्ति। इत्थ पक्खे ठंडगा पंच, थुईओ चत्तारि एएण जुयलेण मज्झिम ति नेये । चत्तारि अंगुलाई पुरओ ऊणाईं जत्थ पच्छिमओ। पायाणमंतराल॑ एसा पुण होश जिणम॒ुद्दा ॥ १ ॥ ॥$ अन्नोन्नंतरि अंगुलि कोसागररे्दिं दोहि हत्थेहि | पिद्दोवरि कुप्परसंठिएहि तह जोगमसुद्द क्षति ॥२॥ मुत्तासुत्तिमुदा समा जहि दो वि गबद्मिया हत्था। ते पुण निलाडदेसे लग्गा अन्ने अलग्ग स्ति॥ ३ ॥ एसा वि मज्शिमा चीवंदणा । उक्कोसा पुण सकत्थयपणगेण । सा चेवे - पढम सिलोगाइरूवे नमों- ४ कारे भणिता, सकत्थय्य भणिय उद्भिय इरियावहियं पडिक्मिय, पुत्र व नमोकारे सकत्थय्य च भणिय उद्ठिय, अरहंत्वेदआणं! इचचाइदंडगेहिं पुणरवि चउरो थुद्दे दाउं पुणो सकत्थयय पढ़िय “जावंति चेइआई” इचाइ गाहादुगं मणित्ता 'नमो5हेत्सिद्धा ०” इचाइमणणपुत्रे, थोत्त भणिय पुणो सक्॒त्थयं पढिय पणिहाणगाहादुर्गं तहेव मणइ त्ति चीव॑दणाविही | एवमन्रयराए चीवंदणाएं देवे बंदिय तओ आयरियाईण खमासमणे, देवस्स पुरओ गीयबाइ- ४ यनद्वाइभावपूय काऊग दद्वृण वा चेइ्यवंदणत्थमागएसु विहिए वंदिय, सइ पत्थावे तेसि समीवे धम्मो- वएसं सुणिय, जिणभवणकज्जाणं देवदब्स्स य तत्ति काऊण, धोवत्तियं मुत्तण, सुकयत्थमप्पाणं मन्नंतो पूयासु कयमणुमोइंतो जहोचिय दीणदाणं दिंतो नियघरमागच्छिज् । तओ वाणिज्ञाइववहारं काउं, भोयणकाले तहेव घरपडिमाओ पूइय, तार्सि पुरो निवेज्ज ढोइय, तओ वसहिं गंतु फासुयण्सणिजेण भत्तपाणओ- सहमेसजवत्थपत्ताइणा अणुम्गहो कायब्रो त्ति खमासमर्ण दाउ आगम्म सुविहिया्ं संविभाग काउं, ! अ््भितरबाहिरं परिवारं॑ गवाइयं च संभालिय, तेसिं अन्नपाणाइचितं काउं सये भुजिजा। तओ घरवा- णिज्ञाइवावार काउं, दिणद्वरमभागे वियाले पुणरवि भुंजिय, पुणरवरि घरे वा जिणहरे वा पूर्य पुबमणिय- नीईए करेइ । नवरं तत्थ चंदणपूर्य न करेज ति। जो उण निम्बाणकलियाए पूयाविद्दी दीसर सो तारिसं नाणविज्नाणकुलसंपह्मणपुरिसमविक्ख दहुशे, न उण सबसामलो त्ति न इत्थ मण्णद । क पूया य दुविहा निद्चा नेमित्तिया य। तत्थ निच्चा पहदिणकरणिज्ञा सा य मणिया । नेमित्तिया पुण अद्वमि-बउद्सि-कल्लाणतिहि-अद्बाहिया-संवच्छरियाइपब्रभाविणी । सा य प्हवणपहाणा, अओ संपय प्हव- णबिही दंसिजइ | सा य सकयभासाबद्धगीईइकब-अज्ययाबद्धवित्तनहुरु त्ति सकयभासाए चेव लिहिज्जइ - तत्र प्रथम पूर्वोक्तद्धात्रादिक्रमेण देवगृहं प्रविश्य घोतपोतिकां परिधाय, देवस्य धृपवेलां धूमाव- लीपष्पांजलिलवण जलारात्रिकावतारणमज्लदीपोड्भावनारूपां कंतता शक्रस्तव मणित्वा, साधूनभिवन्ध, खप- मर्षाठं प्रक्षाल्य, चन्दनेन तंत्र खख्तिक विधाय, पृष्पवासादिभिश्थ संपूज्य, प्रतिमाया अग्रतः खित्वा, सविशेषक्लतमुखकोशो “नमो<हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्ंसाधुम्य” इति अणनपू्ष 'श्रीमत्पुष्यं पविश्र'- मित्मादिवृत्तरंचक पठित्वा, खपनपीठस्योपरि कुसुमांजर्लि झूपनकारः क्षिपेत्‌ । सपनकाराश्व दृशादयों द्रार्मिल- 3 चक्र १२४ देवपूजाबिधि । दन्‍्ता अधिकाः स्युः। ततश्वलप्रतिमां ख़्पनपीठे स्थापयेत्‌ सुक्ा च प्रतिमाया जलूघारां आमयेश्वन्दनेन च पूजयेत्‌ । ततः शक्रस्तवभणन-साधुवन्दने कुर्यात्‌ । स्विरप्रतिमानां तु ख्वानस्ितानामेब कुसुमांजल्यादिसब कत्तव्यम्‌ | ततः कुसुमांजलिं ग्ृहीत्वा प्रोद्भधूतभक्तिभरे त्यादिशृत्तपंचक॑भणित्वा प्रतिमायास्त॑ क्षिपेत्‌ । ततो निर्माल्यमपनीय प्रतिमां अक्षाल्य पूजयेत्‌ । ततः 'सद्देयां भद्रपीठे! इत्यादिवृत्तदयेन कुसुमांजर्लि । क्षिपेत्‌ । ततः सर्वोषधि ग्रहीत्वा 'मुक्तालंकारे त्यायेया पृष्पारंकारावतारणे कृते सर्वोषधिस्लानं कारयेत्‌ । ततः प्रक्षाल्य संपूज्य च प्रतिमाया 'भव्यानां भवसागरे' इतिबृत्तेन धूपमुत्क्षेपित्‌ | ततः एके पृष्प॑ समा- दाय 'किं लोकनाथेति बृत्त भणित्वा उष्णीषदेशे पृष्पमारोपयेत्‌ । ततः कलशद्व॒य कलशचतुष्टयादि वा प्रक्षाल्य धूपपुष्पचन्दनवासायैरथिवास्य कुछ्कुमकर्पूरश्रीसण्डादिसंप्क्तसुरभिजलेन भृत्वा पिहितमुख पह्कके चन्दू- नक्तखस्तिके संस्थापयेत्‌ | ततः कुसुमांजलिपंचक क्रमेण घहलपरिमले त्यादि मात्राबृत्तपंचक पठित्वा » क्षिपेत्‌। नवरमाद्मान्त्यवृत्तयोनमो5हस्सिद्धेत्यादि भणेत्‌ । वृत्तान्ते तु शह्लुभेरीझहयोदिठणव्कारं मन्द्रं दधुः शाहिकादाः कलशान्‌ भृत्वा बुसुमांजलिपंचक क्षिपेत्‌, क्षिस्वा वा कलशान्‌ भरेदुभयथाउप्यदोष: | तत इन्द्रहस्तान्‌ प्रक्षाल्य हस्तयोर्भाले च चन्दनतिलकान्‌ कृत्वा, खपनक्रियद्रव्यनिक्षिप्ति सकलसंधानुमत्या कलशा- नुत्थाप्य, नमो5हेत्सिद्धेत्वपीत्य 'जम्ममज़णि जिणहवीरस्से त्यादि कलशबृत्तेपु जन्माभिपेककलशवृत्तान्तरेपु वाउन्ये: पठितेषु तदभावे खय॑ वा मणितेपु, कुम्मपिधानान्यपनीय, पंचश्दे वाद्यमाने श्राविकासु जिन- 5 जन्माभिषेकर्गातानि गायन्तीपूभयतो<प्यखण्डबारं रूपने कुर्बन्ति, दष्टास्थ जिनमजनप्रतिबद्धहचपद्मानि पठन्ति, मुहुमहुमद्धांन नमयन्ति । यज्च खात्रे जरू मृद्धाग््रेपु केचिल्ृगयरित तदू गतानुगतिकं मन्यन्ते गीतार्था: । श्रीपादल्प्ताचार्यचेस्तन्निपिधात्‌ | तथा च॑ तदबचः -निर्माल्यमेदा: कथ्यन्ते- देवख देवद्रव्य नैवेध निर्मील्य चति । देवसंबन्ध्रग्रामादि देवख्वम, अलंकारादि देवद्रव्यम्‌ , देवार्थमुपकल्पितं नेवेद्म्‌। तदेवोत्मृष्ट निवेदित बहिः निश्षिप्ते निर्माल्य पंचविधमपि निर्मौल्य न मिप्नन्न च रंधयेन्न च दयान्न चे » विक्रीणीत । दत्त्वा ऋव्यादों भवति, भुकवा मातंग:, लंबने सिद्धिहानिः, आधाणे वृश्ष:, स्पशने खीत्वम्‌ , विक्रये शबरः । पूजायां दीपालोकनधृपामात्रादिगन्धे न दोष: | नदीप्रवाहनिमील्ये चे'ति कृत प्रसंगेन | ततः शुद्धोदकेन प्रक्षाऊं कृत्वा धूपितव्तरखण्डेन प्रतिमां कृपित्वा चन्दनेन समम्यच्ये समालम्य वा पुष्पपूजां विधाय "मीनकुरंगम्दे'ति बत्तेन घृम्मुद्माहयेत्‌ । तत आहारस्थालं दद्यातू | ततः परिधापनिकां प्रति- लिख्य करयोरुपरि निवेश्येकस्मिन्‌ धृपमुद्भाहयति सति पृष्पचन्दनवासेरधिवास्थ “नमो हैन्सिद्धाचार्य त्यादि » भणित्वा, 'शक्रो यथा जिनपते'रिति दृत्तद्वयमधीत्य सोत्सवं देवस्योपरिष्टादुभयतो रूम्बमानां निवेशयेत्‌ । ततः कुसुमांजलिवज लवणजलारात्रिकावतारणं मझ्जलदीपान्‌ आम्वत्‌ कुर्यात्‌ । नवरं रूवणाद्रवतारणेषु तथबैव प्रतिदृत्ते वादित्रमन्रध्वरनिं कृर्यातू । ततो यथासंभव गुरुदेशनां श्रुत्वा खगृहमेत्य ख्पनकारादिसाप्र्मिकान्‌ भोजयेदित्योधतः ख्पनविधिः । यस्र पुनर्विशेषपत्रपिक्षया छत्रभ्रमर्ण प्रति भावना भवति, स प्राव्वत्‌ खपनमारभ्य यावत्‌ 'प्रोद्भुतभक्ती- » त्यादिवृत्तेः कुमुमांजलिं प्रक्षिप्प निमाल्यमपनीय पूजां च कृत्वा, स़्पनपीठखाया एकस्पाः प्रतिमायाः पुरतः सरससुयंध' इति ब्ृत्तन कुसुमांजलि क्षिपेत्‌ । ततस्तस्याः प्रतिमाया 'हिययाईं पडंत'मिति गाथया खान कुर्यात्‌ । तदनन्तरं खाले चन्दनेन खस्तिक कृत्वा, तत्र पीठात्‌ तां प्रतिमां धारयेत्‌ । ततश्व पुरतः स्थारू एवाक्षतपुजिकात्रय॑ न्यसेत्‌ | अनन्तरं जरूधारादानपूर्वमातोयवादनापूब च छत्रतले प्रतिमां नयेत्‌ । ततो देवस्वाग्रमागादारभ्य प्रथमामथ(/) कृते गूहलिकेति रूढे गोमयगोमुखचतुष्टये प्रथमगूंहलिकायामक्षतपुंजिकात्रय # पूपिकाश्व दद्मात्‌ । ततः पुष्पांजलिमुपादाय कमेणोत्साहन्न्य पठित्वा, एकैक कुसुमांजलिं मक्षिपेत्‌ । उत्साह- देवपूजाबिधि । १२५ श्रय॑ चेतत्‌ - उदिल्नादाणमुणियेत्यादि १, 'पाणयदसमे/त्यादि २, 'बायासीदिणेहिं' इल्रादि ३। ततः सप्रतिम छत्र दक्षिणदिम्गूइलिकां नीत्वा तत्रोत्साहद्वय “वित्तचरुक्खे त्यादि, 'मेरुसिरुम्मी त्यादि च पठित्वाउक्षतपुंजि- कात्रयं पूपिकाश्व दच्यातू | एवं पश्चिमदिशि “जम्मि जिणिंदवंदे'त्यादि “गुरुबहुमाणे'त्यादि चोत्साहद्वयम्‌, तथैवोत्तरस्याम्‌ - उत्तरफाल्गुणीसु--रयणवण्णेत्यादिचोत्साहद्य॑ पठेत्‌ । ततः पुनरभगेहलिकामागते छत्रे वरपावापुरीद” इत्यादि 'ता सक्कीसाणचमरे'त्यादिना चोत्साहद्गयेन पृष्पांजलि प्रक्षिप्प, छवणपानीयारात्रि- * कावतारण विधाय, जरुधारादानातोयवादनापूर्वक छत्रप्रतिमां ख्ात्रपीठमानयेत्‌ । पीठे संस्थाप्य ततः सद्वियां ०! इत्यादि प्रागुक्तक्रमेण क्पनं कुर्यात्‌ । इति छत्रश्रमणविधिः । अथ पश्चामृतस्नात्रविधि! - तंज छत्रअ्रमणकृते वा 'जम्ममज़णेति वृत्तपंचकेन प्रथर्म गन्धोदक« ख्ञानपर्यन्त विधि झृत्वा, 'मीनकुरंगमदे'ति धूप दत्ता, ततो “नमो5हँत्सिद्धोति भणनपूवे 'महुरों सुर होइ'ति गाथयेश्षुरसस्तानं विदध्यात्‌ । ततो 'मीनकुरंगमदे'ति धूपः । एवं वक्ष्यमाणसर्वस्तानान्तरालेष्वनेनेव ४ धूप दब्यात्‌ । ततः 'पायात्‌ स्रिग्धमपी त्यायेया घृतस्नानं, ततः पिष्टादिमिः खेहमुत्ताय 'उचितमभिषेके' त्याय॑या 'बहइ सिरिं तियसगणे'ति गाथया वा दुःखस्तानम्‌ ! तत 'उबशेठ मंगल वो इत्यादि गाथा- हयेन दधिस्तानम्‌ । तत एकोनविंशत्या अभिषेकपयोधारे त्यादिभिई॑त्तैराब्ान्त्यवृत्तयोनमो <हैत्सिद्धाचार्ये- त्युश्चारयलेकोनविंशतिगन्धोदकेन धारा देवशिरसि दब्यात्‌ । ततः पंचधारकं तत्र प्रथम 'सर्वजित०' इति वृत्तेन सर्वोपधिस्तानम्‌ | ततः 'खामिन्नित्य'मिति बृत्तेन जातीफलादिसौगन्धिकस्तानम्‌ | ततः 'खच्छतये'ति ७ वृत्तेन शुद्धजलखानम्‌ । ततः 'कथमयमिति इत्तन कुछ्ुमस्तानम्‌। ततश्व॒ 'भवती लघोरपी'ति इत्तेन कुछुम चन्दनस्तानम्‌ - इति पंचधारकम्‌। ततः 'कुंकुमहय॑ द्यो'मिति वृत्तेन चन्दनविलेपनः | ततः 'उपनयतु भवांत'मिति वृत्तेन कस्तूरिकामयपट्ट कुर्यात्‌। ततो 'भाति भवतों ललाटे' इति बत्तेन गोरोचनया सर्पपेश्व देवस्य तिलक कुर्यात्‌ । ततो मेरी नन्‍्दनपारिजाते त्यादिवृत्तसप्तकेन ऋमात्‌ सप्त कुसुमांजलीन क्षिपेत्‌ । ततः पूजाकारोडधिवासिते कलशचतुष्टये खपनकारे्ृहीते सत्येके प्रतिमायाः पुरतः खित्वा 'कर्पूरस्फुट- » भिन्नें त्यादिवृत्तदयेन कुसुमांजलिद्वय पक्षिपत्‌ | पश्चात्‌ कलशचतुष्टयेन खपनकाराः खाने कुर्यु:। तदनन्तर- माहारखारू भगवतः पुरो दष्यात्‌ | ततः परिधापनिकां छवणजलारात्रिकावतारणं मज्लप्रदीप॑ च प्रागवत्‌ कुयौत्‌ - इति पश्चाम्तस्तानम्‌ १ । एतश्च विशेषपबंसु विभ्नशान्त्ये निरुपाधिवासनामात्रेण वा कुर्यात्‌ । इृद॑ च प्रायो दिक्पालादिस्थापन बिना न भवतीत्यष्टाहिकाशुपयोगी तद्विधि: प्रदर्यते -सद्वेयां भद्रपीठे! इति वृत्तदयेन कुसुमांजलिम्रक्षेप- » परयन्त विधिं विधाय, पह्क॑ प्रक्षाल्य, देवपादपीठाग्र निश्चडीकृत्य 'ज्ञानदशनचारित्रे त्यादि बृत्तत्रयेण तत्र पट्धके पंचविंशर्ति पूंजिकाः कुर्याव्‌ । पुंजिकाशब्देन कुकुममिश्रचन्दनटिक्कका ज्ञेया: | क्रमश्चायस्‌ - शान १ दर्शन २ चारित्र ३; वासव १ सोम २ यम ३ बरुण 9 कुबेर ५; शासनयक्ष १ शासनयक्षिणी २; आदित्य १ सोम २ मंगल ३ बुध ४ बृहस्पति ५ शुक्र ६ शनेश्वर ७ राहु ८ केतु ५; साघर्मिक- देवता १............ भव्रकदेवता ३ क्षेत्रदेवता ० देशदेवता ५ आगंतुकदेवता ६-एवं २५। « स्थापना चेयम्‌ - पक | पंचविशतति पुजिकाः कृत्वा बलिपृष्पधूपवासपूपिकादधिदुवाभिः प्रपूज्य, पुंजिकासु ॥ ९ वधये देवा! इति बृत्तेनाखण्डितं जरुधारादानं कुर्मातू। तत एकः फालिपन्रपर्पटादि- ब० ० : मिश्रवकुलादिप्रक्षे पबलिभाजन मृह्दीयात्‌, अन्यो धारादानाथे धारघटीम्‌, अपरःश्व 0 घूपदानम्‌ , अन्यश्व पुष्पादीनि यथासंभव वा। ततः प्रतिमाभिमुखां दिशं पूी परिभाव्य ४ तत्संमुख भूला 'ऐरावत्समारूढ' इति बृत्ते पठित्वा प्रक्षेपवर्लिं प्रक्षेपेत । 'एकं सदा वहिदशेने' ( अ-ख कल - ० दर का च ० १4, ५ हल १२६ वेवपूजाबिधि । त्यादिमिनवर्मिशत्तेनेदलपिं दिक्लु त॑ क्षिपेत्‌। नवरमायरान्त्यवृत्तयोन॑मो5ईस्सिद्धेत्यादि भणेत्‌ । ततो अश्झा- न्वाचसंगृहीतदेवतातोषणा्थ शेषबलिभाजनमधोमुखी कृर्यात्‌ । अत एवं केचिदेहलीदेशे अश्नशान्त्यादीनपि स्थापयन्ति | ततश्व॒ दिकपालयोग्य प्रक्षालित पटक देवस्व दक्षिणबाहौँ खापयित्वा 'भो मो सुरेति वृत्तदयेन दिकृपालपड्रकोपरि कुसुमांजलिं क्षिपेत्‌ | तद्‌ इन्द्रमप्रिय्म चैबेति इतेन क्रमेण विकृपालन्‌ * कुछुमचन्दनटिककेएु स्थापयेत्‌ । स्थापना चेयम्‌ | तेषु दशपूपिका धूपसुरमिता दषिदूर्वाक्षतपुष्पयुक्ताः 'आचीदिग्व पूवरे त्यादिदत्ततशक ५, »० ०» पठित्वा क्रमेण दद्चात। एकेकां पूपिकामेकेकेन इत्तेन एकेक- सिंटिकके दध्यात्‌ । अत्राप्याधा ० ६० “व ज्तयवृत्योनैमोहस्सिद्धाचाये इति भणेत्‌ । 'तदिति'- 'दिम- घिपे'ति इंेन दिकृपाछानामुपरि /*ना० “* पुष्पांजलि प्रक्षिपित्‌। तदनन्तरं चैह्यवन्दन साधुबन्दन च कुबोत्‌ । अनन्तरं 'मुक्तालंकारविकारे त्यादिविधिः प्रागुक्त एवं । यावम्मबलप्रदीष कृते शक्रस्तवानन्तरं ७ भज्जलप्रदीपमनुशाप्य ततो धूपमुत्क्षिपित्‌ । नमो<हत्सिद्धेति गृणन्‌ “चोलोस्ट्षेषे'रिति वृत्तद्येन दिकृपारान्‌ विसर्जयेत्‌ । दिकृपालपट्टिकायामीशानदिकपूपिकां मुक्त्वाउन्यों नवदिक्पूषिका उत्तारयेत्‌ । अंचर बावता- स्येद । एवं झक्राद्या लोकपाल! इति इत्तेन गृहपट्टिकादैवतान्‌ विसज्यांचलावतारणं कुर्योत्‌ । केचित्‌ प्रभममेतान्‌ विसृज्य पश्चादिकृपालान्‌ विसृजन्ति । अशकिकासु प्रथमदिनादारभ्य शान्तिपर्वदिन यावन्मूलप्रतिमां दिकुपालपट्टिकां च न चाल्येत; ता + अल न ०-४७ _ सथापि पूज्यश्रीजिनदत्तसूरीणामाम्नाये संघस् चन्द्रबलद्पेक्षया तथा कर्तेब्यों यथा मप्तभ्यष्टमीनवम्यः क्षुद- देवतादिनतया रोद्ा अश्शह्विकामध्ये आयान्तीति गुरवः। अष्टाहिकाबदेवपूजा देवद्रत्योस्त्तिस पर आयान्तीति | अष्टाहिकाबदेवपूजा देवद्रत्योत्पत्तिसाधरमिक- भमोजनमगीतनृत्यवादित्रादिप्रभावनामियेथ त्मकर्षा: कत्तेव्या: । एवम्टाहिकासु सम्पूर्णासु नवमदिने संघरय चन्द्रबलद्यभावे विरुद्गधदिनसद्रवैव(?) दिनांतरे वा झान्ति- # पर्व कुर्यात्‌। तस्ब चाय विधिः- चन्द्रबलाथुपेतशुभवेलायां जीवन्मातापितृश्नश्रं्वशुरभरका निःशल्या नायिका साधर्मिकखीजन खवेश्मन्याहय तस्ने ताम्बुलाबुफ्चारं यथाशक्ति रृत्वा, शुममापाकोत्तीणे ते'****०“***** *०९९०००००००९* पूगफलहिरण्यगर्भ कण्ठाबद्धस॒ुगन्धिकुसुममाल्य चतुर्दिगून्यस्तनागव्लीदर्र पिधानखगितानन करुशं मृद्धनमारोप्य विततायमाने चारूछोचे पंचशब्दे वाद्यमाने गायन्तीएु शुभवनितासु शाह्लिकमाईमिक- पाजविकादिश्यो दाने ददानाः पेशलनेपश्यप्रधानाः, देवमृहसिंहद्वार प्राप्य तद्द्वारमित्तो अन्‍्दनपिष्टकादि- » पश्चाज्बुलितलानि दत्त्ता विधिना देवगृहं प्रविश्य गूंहलिकायां सुखिताशुपरि कझूशं खापयेत्‌ । एताबता लग़्स साधना जाता। ततः सा साध्वी ग्ृहमागत्य लपनेप्सितामयमाहारस्थारु प्रक्षेपकर्रि पूपिकाश्य सञ्जीकुर्यात। ततः शान्तिधोषका इन्द्रा: कलशस्योपयोकारे बंशादियह्टि कौसंभचीरिफावेष्टितां तिर्वक्‌ कृत्य, तत्र पृष्पमालां ठम्बमानां कुम्ममुखं यावद्धारयेय: | ततः संघमाहय प्रामुक्तरीत्या देवस्य भृूपवेढां भज्नलदीपान्त कृखा ततः प्राव्द्‌ दिक्पाल्यहपष्टिके स्थापमित्वा प्रक्षेपतलिपूपिकादिविधि च तथेव विधाय, » ततः कलशपाश्चतों बलिं विकीरय शान्त्युदकग्रहणाय निक्रयम्‌, आदितः कलशग्राहिणीतस्तदनु संधाद्‌ गृददीत्व कलशाग्रे लपनेप्सिताहारखालं दत्त्वा कलशस्थ परिधापनिकां 'शक्रो यथा जिनपते'रिति दृत्तद्वयेन कुर्युः | वंशयप्टेरुपरि परिधापनिकां कुम्मसमीर्ष यावहस्वयेयु:। ततः कुछ्ुमद्रवेण कल्शोदक मिश्रयेयुः। ततः कुसुमांजलिलवणोदकाराज्रिकावतारणानि मन्नल्प्रदीप॑ च कल्शस्वेवाग्रे कुर्य:ः । मशन्नठप्रदीषश्च ताहकरीन्यो याहक्‌ चैल्यवन्दर्न शान्तिधोषणां च यावद्‌ दीप्यते, नान्तरालेडपि निर्वाति | इत्थं हि संघस्म श्रेय इति | # तत; ऐवफ्धिकीं प्रतिक्रम्य जानुम्यां प्राखत्‌ खित्वा नमस्फारान्‌ शक्रस्तव जे मणित्वा, उत्माय स्थापनाईवएव- देषपूजाबिधि । १२७ दण्डकमगनादिविधिपूव चतलो वर्दमानाक्षरखराः स्तुतीदेत्वा, ततः श्रीजझान्तिवाबाराधनाथे कायोत्सगैम्टो- च्छासं झृत्वा, पारयित्वा श्रीशान्तिनाथस्य स्तुतिमेको दब्यात्‌ , शेषाः कायोत्सग्गैस्थाः श्रणुयु:। ततः क्रमेण श्रीशान्तिदेवता-छ्ुतदेवता-मवनदेवता-स्षेत्रदेवता-5ग्बिका-पश्मावती-चक्े श्व री -अछुछ्ा-कुबेरा-त्क्षशान्ति-गोत्र- देवता-शकादिसमस्तवेयाबृत्त्यकराणां कायोत्सम्गान्ते प्राग्वव्‌ सामाचारीदर्शिताः स्तुतीसतेषामेव दयादन्या वा प्राकृतभाषानिबद्धा: । ततः शासनदेवताकायोत्समगें उद्योतकरचतुष्ट्य चिन्तयित्वा तस्याः स्तुर्ति दत्त्वा श्रुत्वा वा, चतुर्विशतिस्तव भणित्वा, पंचमझ्लं त्रिः पठिला, ततो जानुभ्यां खित्वा, शक्रसवं भणित्वा, “जावंति चेइआई' इत्यादिगाथाद्वयमघीत्य, परमेष्ठिस्तव शान्तिस्तव वा भणित्वा प्रणिपत्य, ततो मुक्ताशुक्तया प्रणिधान- ' गाथाद्वय॑ भणेयु: । इति चैत्यवन्दना समाप्ता । ततो द्वौ धौतपोतिको श्रावकेन्द्रो कछशोदकेन भ्रज्ञरद््॒य भृत्रोभयतस्तिद्ेताम्‌। एक: खालके कृत्वा पृष्यचंदनवासान्‌ गृहीयादपरश्र धूपायन पाणिप्रणयीकुर्यात्‌ । ततस्त एबं श्रावका सप्तनमस्कारान्‌ ॥ पठित्वा सप्तवाराः कलशे निश्षिप्य 'नमो5हैत्सिद्धा ०” इस्युखाय॑ आदौ- 'अजिय॑ जियसब भर्य| इति सवे- नानये: खय॑ वा पठितेन शास्ति घोषयेयु: । सर्बपद्मानां प्रान्ते एकेकां धारां कलशे भूम्ारगाहिणौं समकारू दद्याताम्‌ । एकश्व पुष्पादीन्‌ क्षिपेदपरश्व धूप दबयात्‌। सतवसमाप्ती पुनभृज्ञारो भूववा 'उल्लासिकर्मा- स्तोत्रेण शान्ति घोषयेयु: | तथेव पुनभयहरस्तवेन, ततः- 'त॑ जयउ जये तित्थ' तदनु 'मबरह्िय'मिति स्तवन तदनन्तरं 'सिग्धमवहरउ विग्धमिति खबेन, शान्ति घोषयेयुः । सर्वत्र पद्चसमाप्ती करूशे धारा- ४ दानपुष्पादिक्षेपा: प्रावत्‌ । नवरं सर्वस्तवानामन्त्यड्त्त त्रिभेणेयु: | ततश्व सप्तकृत्व उपसम्गेहरखोत्र भणित्वा धारादानपृष्पादिक्षेपविधिना शार्ति घोषयेयु: । शान्तौ च घोष्यमाणायां साधु-साध्वी-आवक-अआविफा उप- युक्तास्तुमुरं निवाय॑ शान्ति श्रणुयु:। इति शान्तिधोषणं कृत्वा मन्नल्दीपमनुज्ञाप्य प्राखदिकृपाल्‍्महादीन्‌ विरज्य, प्रक्षाल्य, ततः प्रथम कलशग्राहिण्ये शान्त्युदकं पूगफलादि च समप्ये, कमात्‌ सकल्संशाय समप्प- येयु: । तद्च सर्वेषु उत्तमाज्ञायड्लैषु लगयेयुगृहादि च॒ तेनामिर्षिचेयुः | इति ब्लान्तिपर्वविधिः । म देवाहिदेवपूजाबिही इमो भवियणुग्गहट्टाए । उपदर्शितो श्रीजिनप्रमसूरिभिराप्नायतः खुग॒रोः ॥ ॥ ग्रन्थाग्रं० २६९ ॥ ॥ इति देवपूजाविधिः समाप्तः ॥ श्रीजिनप्रभसूरिकृता प्राभातिकनामावली । मे सौमाग्यमाजनमभह्ठ रमाग्यभड्टी सज्ीत धामनिजधाम निराकृताकंम्‌ । अर्चामि कामितफल हतिकल्पवृक्ष श्रीमन्‍्तमस्तबवृजिन जिनसिंहसूरिम ॥ १ ॥ केवलज्ञानी १ निरवाणी २ [ इत्यादि ] २४ अतीतजिननामानि । 8 ऋषभ १ अजित २ [ इत्यादि ] २४ वर्तमानजिननामानि । पद्मनाभ १ सूरदेव २ [ इत्यादि ] २४ भविष्यज्जिननामानि । सीमंधर खामी १ युगंधर खामी २ [ इत्यादि ] २० विहरगानजिननामानि । ३» नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं [ इत्यादि ] पंचनमस्कारा: । इंद्रभूति १ अभिभूति २ [ इत्यादि ] ११ गणघरनामानि । फ रोहिणी १ प्रज्नत्ति २ [ इत्यादि ) १६ विद्यादिवीनामानि । अप्रतिचक्रा १ अजितबला २ [ इत्यादि |] २४ जिनयक्षिणीनामानि । गोमुख १ महायक्ष २ [ इत्यादि ] २० जिनयक्षनामानि । नाभि १ जितशच्रु २ [ इत्यादि ] २४ जिनपितृनामानि । मरुदेवा १ विजया २ [ इत्यादि |] २७ जिनमातृनामानि । 8 भरत १ सगर २ ;[ इत्यादि | १२ चनक्रवर्तिनामानि । त्रिपष्ठ १ द्विए््ठ २ [ इत्यादि ) ९ अद्भचक्रिनामानि । अचल १ विजय २ [ इत्यादि |] ९ वलदेवनामानि | अश्ग्नीव १ तारक २ [ इत्यादि ) ९ प्रतिवासदेवनामानि । समुद्रविजय १ अक्षोम २ [ इत्यादि ] १० दशाहनामानि | 2४ युधिषप्ठिर १ भीम २ [ इत्यादि ] ५ पांडवनामानि । ब्राह्मी | सुन्दरी । रोहिणी | दवदंती । सीता । अंजना । राजीवती इत्यादि] सतीनामानि । बाहुबली । सुग्रीव । विरभावण । हनूमत । दशाणभद्र । प्रसन्नचन्द्र [ इत्यादि ) सम्पुरुषनामानि । सिद्धार्थ | जबृस्वामि । प्रमव । शस्यंमव । यशोमद्र । संभूतविजय । भद्रबाहु । म्थूलभद्र । आरयसुहस्ति । सिंहगिरि | धनगिरि । आर्यसमित । बरखागि । आर्यरक्षित । दुब्बलिकापृप्यमित्र । घृतपुप्यमित्र | वख्र- # पुष्यमित्र । वज़सेन । नागेन्‍्द्र | चन्द्र । निर्वेति | उद्देहिक | कोट्याचार्य । जिनभद्वगणि क्षमाश्रमण । सिद्ध- सेन दिवाकर । उमाखाति वाचक । आर्यश्याम वाचक | गोविंद बाचक । रेवती । नागाजुन । आर्यखपट। यशोभद्ग॒सूरि । मल॒वादी । वृद्धवादी । वप्पद्ट्टि । कालकसूरि । शीलांकसूरि । हरिभद्रसूरि । सिद्धकपि । पादलिप्तसूरि । देवसूरि । नेमिचंद्रसूरि | उद्योतनसूरि । वद्धमानसूरि | जिननेश्वरसूरि । जिनचंद्रसूरि । जिनभद्र॒सूरि (!) अभमयदेवसूरि । जिनवह्मसूरि | जिनदत्तसूरि । जिनचंद्रसूरि । जिनपतिसूरि । जिनेश्वर- » सूरि । श्रीजनसिंहसूरि । श्रीजिनप्रभम्नूरि । श्रीजिनदेवसूरि । ॥ इति प्राभातिकनामावली समाप्ता । विरचिनेयं श्रीमजिनप्रभगूरिभद्टारकमिश्रे! ॥ जन: -८-७(*बफ७-०->०+> भीजिनप्रभसूरिकृंताः स्तुतंयः :... शरद श्रीजिनप्रभसूरिक्ताः स्तुंतित्रोटकाः । “१ | ० ते धन्नपुश्नसुकयत्थनरा, जे पणमदि सामिउं भत्तिभरा। फलवद्धिपुरह्दिपपासजिणं, अससेणद नंदण भयहरणं ॥ १॥ वामाइविराणीउयरसरे, उप्पन्नउ सामिउ हंसपरे । तुम्दहि वंदहु भवियहु भाउधरे, जिम दुत्तरु भउ संसार तरे ॥ २ ॥ इहि दूसम समह महच्छरियं, फलवद्धिपासु ज॑ अवयरिय॑ । भवियणहं मणिच्छिय देउ सुहं, सो इक जीह बंनियह कहं ॥ ३ ॥ झणझणण झणकहिं परघरियं, तद्ुनकदटि नाकट्डि तिविल झणिय । लकुटारस नचहि इकम्रणी, भवियण आणंदिहिं जिणमवणी ॥ ४ ॥ निधन [ २ ] जन» नियजंघु सफलु रावणहं सु, दिवराय जु तित्थह जत्त किये। निच्चवलव(म ?)णि वेचिउ निययधण्ण, विमलग्गिरि बंदिउ आदिजिण ॥ १॥ दिवराय सरिसु नहु अंनु कली, जिणि दूसमसमइहिं माणु मी । सुपवित्त सुखित्तिहे वरिउ धर्ण, उज़िलगिरि पणमिउ नेमिजिणं ॥ २॥ महिमेडलि हुय संघवद घणा, दिविराय सरिस नहु अंनु जणा। जिणि दिछियनयरहं मज्झि सये, देवालउ कड्डिउं जत्त किये ॥ ३॥ फालिहमणिससिहरकरविमले, जसकलसु चडाबविउ जेण कुले । सिरिश्नरिजिणप्पहमत्तिब्भरे, सुताणिद्दि म॑निउ विविद्द परे । पउमावह सानिधि सयल जए, चिरु नंदउ देल्हियु संघचए ॥ ५॥ ॥ त्रोटकाः समाप्ताः ॥ बविधि० १७ १३० श्रीजिनप्रभसूरिकृता। स्तुतय। अीजिनप्रभसूरिकृतं तीथ्थयात्रास्तोत्रम्‌ । डस सब नन्गग्प्ट-> ९2 सिरिसत्तुंजयतित्ये रिसदृजिणं पणिवयामि भत्तीए | उजितसेलसिहरे जाय